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Monday, June 17, 2013

आमंत्रित आक्रमण!

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छत्तीसगढ़ में राजनेताओं पर अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला कैसे और क्यों हुआ? अनिल मिश्रा और राजकुमार सोनी की रिपोर्ट.

25 मई की शाम साढ़े चार बजे जगदलपुर में एक स्थानीय टीवी चैनल के संवाददाता नरेश मिश्रा को दरभा से एक फोन आया. यह जगह जगदलपुर से 35 किमी दूर है. नरेश को फोन पर सूचना दी गई कि दरभा के पास जीरम घाटी में कांग्रेस पार्टी के काफिले पर नक्सलवादियों ने हमला किया है. सूचना मिलने के एक घंटे के भीतर नरेश अपने कैमरामैन के साथ वहां पहुंच गए. उनसे कहा गया था कि चूंकि पुलिस जीरम घाटी में जाने से हिचक रही है इसलिए वे वहां जाकर जानकारी जुटाएं. नरेश घटना स्थल पर पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे. वे बताते हैं, 'जब मैं घटनास्थल पर पहुंचा तो देखा कि पचासों लोग खून से लथपथ औंधे मुंह पड़े हैं. सड़क से कोई दस मीटर दूर ही महेंद्र कर्मा की गोलियों से छलनी लाश पड़ी थी.'

इस स्थानीय पत्रकार ने ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल की घायल अवस्था में मदद की थी. नरेश ने उन्हें पानी पिलाकर कार में आराम से लिटा दिया था. उनकी मदद से ही शुक्ला को जगदलपुर के जिला अस्पताल भेजा गया. रात के तकरीबन नौ बजे सीआरपीएफ के जवान जीरम घाटी पहुंचे और उन्होंने इलाके को अपने कब्जे में ले लिया. इसी के बाद राजनांदगांव के विधायक उदय मुदलियार सहित एक दर्जन और लोगों की मौत की पुष्टि की गई. फिर खबरें आईं कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे को नक्सलवादियों ने अगवा कर लिया है. हालांकि अगले दिन सुबह इनकी मौत की भी पुष्टि हो गई. वारदात के दूसरे दिन सुबह छह बजे जब तहलका की टीम घटनास्थल पर पहुंची तो हमें वहां जगह-जगह लोगों के शव पड़े मिले. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे के शव भी इन्हीं में शामिल थे. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस घटना में कुल 27 लोगों की मृत्यु हुई और 25 से ज्यादा लोग घायल हो गए.

छत्तीसगढ़ में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं. चुनाव के पहले भाजपा जहां विकास यात्रा के माध्यम से जनसंपर्क कर रही है वहीं कांग्रेस परिवर्तन यात्रा निकाल रही है. नक्सलवादियों ने इन पार्टियों को जनसंपर्क न करने की चेतावनी दी थी. कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले से पहले नक्सलवादियों ने 26 मई को दंडकारण्य बंद करने की भी घोषणा की थी. यह बंद बीजापुर जिले के एडसमेटा में सुरक्षाबलों द्वारा आठ ग्रामीणों की हत्या के विरोध में था.

करीब 25-30 कारों वाले कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला तोंगपाल और दरभा के बीच जीरम घाटी में किया गया था. तोंगपाल सुकमा के नजदीक है और दरभा जगदलपुर के. इनके बीच 22 किमी की घुमावदार सड़क घने जंगलों के बीच से होकर गुजरती है. तोंगपाल थाने के प्रभारी एसएल कश्यप हमें बताते हैं, 'मैं खुद जवानों की एक टुकड़ी लेकर कांग्रेस के काफिले को तोंगपाल से पांच किमी दूर तक जहां से घाट शुरू होता है, छोड़ने गया था. कुछ ही देर बाद हमें नक्सलवादियों के हमले की सूचना मिली. हम जब दोबारा वहां के लिए रवाना हुए तब तक सड़क ब्लॉक कर दी गई थी.' कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अवधेश गौतम की गाड़ी काफिले से कुछ आगे चल रही थी. वे बताते हैं कि जब उनकी गाड़ी तीखे मोड़ से गुजर रही थी तभी उन्होंने अचानक तेज धमाका सुना. गौतम के पीछे आ रहे एक वाहन के परखच्चे उड़ गए थे. वे जानकारी देते हैं, 'मैंने ड्राइवर को तेजी से गाड़ी चलाने के लिए कहा. लेकिन तभी पहाड़ी की दाईं ओर से फायरिंग होने लगी.'

विस्फोट के कुछ मिनट बाद ही परिवर्तन यात्रा में शामिल तमाम वाहन एक साथ सड़क पर आ गए और नक्सलवादियों का सारा ध्यान उन पर गोलीबारी करने में लग गया. अब नक्सलवादी सड़क के दोनों तरफ से गोलियां चला रहे थे. गौतम दावा करते हैं कि एक नक्सली हाथ में कुल्हाड़ी लेकर उनकी गाड़ी रोकने की कोशिश कर रहा था लेकिन उनके ड्राइवर ने सड़क पर पड़े पत्थरों के बीच से गाड़ी निकाल ली. वे पांच मिनट में दरभा थाने पहुंच गए और पुलिस को घटना की सूचना दी. यहां से उन्होंने ही जगदलपुर के पत्रकार नरेश मिश्रा से घटना स्थल पर जाने की अपील भी की थी. अब तक महेंद्र कर्मा और दूसरे लोगों की गाड़ियां पूरी तरह से नक्सलवादियों की जद में आ चुकी थीं. तहलका को कुछ सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक इस हमले में नक्सलवादियों की कम से कम दो कंपनियों ने भाग लिया था. मौके पर दरभा डिवीजन थी जिसका कमांडर विनोद है और दूसरी कंपनी मिलिट्री दलम की थी.

चश्मदीदों के मुताबिक गौतम के पीछे आ रहे काफिले में सबसे आगे एक सुरक्षा वाहन था और इसके ठीक पीछे नंदकुमार पटेल अपने बेटे दीपक और कुंटा के विधायक कवासी लखमा के साथ एक गाड़ी में थे. नक्सलवादियों ने सड़क के मोड़ पर एक ट्रक आड़ा खड़ा करके मार्ग संकरा कर दिया था. इसलिए विस्फोट के बाद दूसरे वाहन तेजी से आगे नहीं निकल पाए. हालांकि कर्मा को जेड प्लस सिक्युरिटी मिली हुई थी, मगर घटना के वक्त उनके साथ केवल छह जवान थे. ये जवान भी बाकी नेताओं के कुछ सुरक्षाकर्मियों के साथ उनके बुलेटप्रूफ वाहन में थे, जबकि खुद कर्मा जगदलपुर के एक कांग्रेसी नेता के साथ दूसरे वाहन में थे. उनके साथ गाड़ी में मौजूद रहे विक्रम मंडावी बताते हैं, 'नक्सलवादियों ने जब अचानक गोलियों की बौछार की तो कर्मा ने सभी लोगों से कहा कि वे गाड़ी से नीचे कूद जाएं और जमीन पर लेटे रहें. हमने ऐसा ही किया. महेंद्र कर्मा और कुछ अन्य लोग भी गाड़ियां खड़ी करके उनके नीचे लेट गए. 'काफिले में शामिल बाकी लोगों को अंदाजा नहीं था कि इन गोलियों से कैसे बचा जाए. पूर्व विधायक उदय मुदलियार अपने वाहन में ही नक्सलवादियों की गोलियों का निशाना बन गए. विद्याचरण शुक्ल को भी वाहन के भीतर ही गोलियां लगीं.

महेंद्र कर्मा के साथ जिन लोगों को बंधक बनाया गया था, नक्सलवादी उनसे उनका परिचय पूछ रहे थे. इन सभी लोगों के पर्स और मोबाइल छीन लिए गए थे

इस घटना में जीवित बच गए लोग बताते हैं कि ये नक्सलवादी बिल्कुल नई उम्र के थे. सभी की उम्र 18 से 22 साल के बीच रही होगी. वे शुरुआती गोलीबारी के बाद महेंद्र कर्मा के बारे में पूछताछ करने लगे थे. कर्मा के पीएसओ लाखन सिंह हमें बताते हैं, 'मैं तकरीबन दो घंटे तक फायरिंग का जवाब देता रहा. फिर कोई चारा नहीं बचा. आखिर में महेंद्र कर्मा ने खुद सामने आकर नक्सलवादियों से कहा कि आप लोग निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाना बंद करें. महेंद्र कर्मा मैं हूं.'  नक्सलवादियों ने तुरंत ही कर्मा के हाथ पीछे से बांध दिए और उन्हें सड़के से सटे जंगल में ले गए. इस बीच दूसरे नक्सलवादियों ने बाकी लोगों से सरेंडर करने को कहा और उन्हें भी जंगल में ले गए. वहां मौजूद लोगों में से कुछ का कहना है कि जैसे ही कर्मा जंगल में थोड़ी दूर गए उन पर ताबड़तोड़ गोलियां चलने लगीं. कुछ का दावा है कि नक्सलवादी माओवाद जिंदाबाद और ऑपरेशन ग्रीन हंट व सलवा जुडूम के विरोध में नारे लगाते हुए कर्मा के शव के पास नाच भी रहे थे.

इधर नंदकुमार पटेल, उनके पुत्र दीपक और कवासी लखमा के पीएसओ सड़क किनारे एक गड्ढे में छिप गए. सभी गाड़ियां आपस में टकराकर पहले ही रुक चुकी थीं. कुछ लोगों ने खाई की तरफ से भागने की कोशिश की तो नक्सलवादियों ने इन्हें आसानी से निशाना बना लिया. महेंद्र कर्मा को पकड़ने के बाद नक्सली आपस में बात करते हुए नंदकुमार पटेल और उनके बेटे की तलाश कर रहे थे. कुछ चश्मदीद बताते हैं कि नक्सलवादियों का कमांडर विनोद शॉर्ट फ्रीक्वेंसी फोन पर अपने साथियों से पटेल के बारे में जानकारी ले रहा था. आखिरकार वे पटेल और उनके बेटे को ढूंढ़ने में सफल हो गए. लखमा बताते हैं, 'मैंने उन्हें गोंडी बोली में समझाया कि ये प्रदेश अध्यक्ष हैं और हमेशा आदिवासियों के पक्ष में बोलते आए हैं. लेकिन वे नहीं माने. उन्होंने मुझे जान से मारने की धमकी देकर भाग जाने को कहा. 'इसके बाद नक्सलवादियों ने जंगल में ले जाकर नंदकुमार पटेल और उनके बेटे की भी हत्या कर दी. और इधर लखमा नरेश मिश्रा की मोटरसाइकिल लेकर घटनास्थल से दूर निकल गए.

कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले के बाद सबसे स्वाभाविक सवाल यह उठ रहा है कि जो पार्टी पिछले दस साल से सत्ता से बाहर है आखिर उस पर नक्सलवादियों ने इतना भीषण हमला क्यों किया.
महेंद्र कर्मा के साथ जिन लोगों को बंधक बनाया गया था, नक्सलवादी लगातार उनका परिचय ले रहे थे. इन्हीं में से कुछ लोग बताते हैं कि नक्सलवादियों ने इनसे कहा था कि महेंद्र कर्मा ही उनका असली निशाना थे. यदि कर्मा पहले सरेंडर कर देते तो इतने लोगों की मौत नहीं होती. जाते-जाते नक्सलवादियों ने इन लोगों को पीने के लिए पानी दिया. इन्हीं में एक डॉ शिवप्रकाश द्विवेदी के हाथ में गोली लगी थी. जब उन्होंने एक महिला नक्सलवादी से मदद मांगी तो उन्हें दवा दी गई और एक इंजेक्शन भी लगाया गया. अपना उद्देश्य पूरा होने के बाद नक्सलवादी इतने खुश थे कि उन्होंने फिर किसी के ऊपर गोली नहीं चलाई. घटनास्थल से जाते वक्त वे लोगों को औंधे मुंह ही लेटे रहने और देसी बमों से लगी आग बुझाने की हिदायत भी देते गए.

घटना के बाद कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दंडकारण्य विशेष जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने हमले की जवाबदारी लेते हुए मीडिया को जो बयान भेजा है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि नक्सलियों के निशाने पर मुख्यतः कर्मा ही थे. इस बयान में उसेंडी ने साफ किया है कि महेंद्र कर्मा बस्तर में सलवा-जुडूम को शुरू करने के साथ-साथ कई आदिवासियों की मौत के लिए भी जिम्मेदार थे. उसेंडी ने कर्मा को आदिवासियों का शोषक-उत्पीड़क और भू-स्वामी बताते हुए कहा कि 1996 में जब बस्तर में छठवीं अनुसूची को लागू करने की मांग पर एक बड़ा आंदोलन चला था तब उनकी पार्टी भाकपा (माले-पीपुल्सवार) ने इसमें सक्रियता से भाग लिया था. कर्मा उस आंदोलन के विरोधियों में से एक थे. इस बयान में उसेंडी ने रमन और कर्मा के बीच के तालमेल को लेकर भी अपना नजरिया रखते हुए कहा है कि मीडिया में कर्मा को रमन मंत्रिमंडल का सोलहवां मंत्री कहा जाता था. माओवादी नेता ने वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता वीसी शुक्ल को साम्राज्यवादी, दलाल पूंजीपति और जमींदारों का वफादार प्रतिनिधि बताया तो नंदकुमार पटेल की हत्या के बारे में यह साफ किया कि जब वे गृहमंत्री थे तब उन्होंने बस्तर में अर्धसैनिक बलों की तैनाती में अहम भूमिका निभाई थी.

माओवादियों का महेंद्र कर्मा के साथ हमेशा ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है. छत्तीसगढ़ जब मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब कर्मा ने सलवा-जुडूम की तर्ज पर ही हल्ला-बोल अभियान को बढ़ावा दिया था. इस अभियान से जुड़े लोग जुलूस की शक्ल में गांव-गांव जाकर जनजागरण अभियान चलाते थे और गांववालों को लामबंद करने का प्रयास करते थे. हल्ला बोल और सलवा-जुडूम आंदोलन में फर्क मात्र इतना था कि हल्ला बोल से जुड़े लोग लाठियों और मशालों से लैस रहते थे जबकि जुडूम समर्थकों ने हथियार थामकर अपने आपको निजी सेना में तब्दील कर लिया था. कर्मा वर्ष 1990 से ही नक्सलवादियों के निशाने पर थे. एक मौका ऐसा भी आया जब नक्सलवादियों की सेंट्रल कमेटी की ओर से बस्तर की कमान गणेश नाम के युवक को सौंपी गई. बताया जाता है कि गणेश और कर्मा स्कूल के दिनों के मित्र थे. इस दौरान भी कर्मा पर हमले हुए लेकिन वे कभी इतने सटीक नहीं रहे कि आदिवासी नेता की जान जोखिम में पड़ पाती.

हालांकि राजनेताओं पर नक्सली हमले की यह अब तक की सबसे बड़ी घटना होगी, मगर यह पहला मौका नहीं है जब नक्सलियों ने राजनेताओं को अपने निशाने पर लिया है. छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब माओवादियों ने 16 दिसंबर, 1999 को तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखीराम कांवरे की बालाघाट जिले के किरनापुर इलाके में हत्या कर दी थी. उस वक्त यह हमला किसी राजनीतिज्ञ के ऊपर पहला बड़ा हमला माना गया. इसके बाद नक्सली देश के कई हिस्सों में दीगर वारदातों को अंजाम देते रहे. आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर भी नक्सलवादी हमला हो चुका है. जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है तो लगभग दो साल पहले जब सीआरपीएफ और पुलिसबल की एक संयुक्त टीम ने मैनपुर-गरियाबंद के वनग्राम पेंड्रा में छापामार कार्रवाई की थी तब उन्हें नक्सलवादियों के ठिकाने से कई नेताओं की तस्वीरें मिली थीं. इनमें मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पी चिदंबरम, ममता बनर्जी की तस्वीरों के साथ कई स्थानीय नेताओं तस्वीरें भी थीं. तब सुरक्षाबलों का कहना था कि ये सभी तस्वीरें नए नक्सलवादी सदस्यों को उनके दुश्मन की पहचान करवाने के लिए रखी गई थीं.

'मैंने उन्हें गोंडी बोली में समझाया कि यह प्रदेश अध्यक्ष हैं. हमेशा आदिवासियों के पक्ष में आवाज उठाते रहे हैं लेकिन वे नहीं माने और उन्हें अपने साथ ले गए'

यह साफ है कि इस समय छत्तीसगढ़ में सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी नक्सलियों के प्रभाव में  लगातार बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. राज्य के कुल 27 जिलों में से यदि सात- कोरबा, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा, बलौदाबाजार, मुंगेली और बेमेतरा को छोड़ दें तो बाकी बचे 20 जिलों में नक्सलवादियों की जोरदार धमक देखने को मिलती है. छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि बस्तर का बड़ा हिस्सा कठिन सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त खूनी छापामार दस्तों के कब्जे में जा चुका है. यही अफसर साथ में यह भी कहते हैं, 'पिछले सालों में जैसे-जैसे नक्सलवादियों के हमलों का दायरा बढ़ता गया है वे लगातार मजबूत होते गए हैं.' इन अधिकारी की बात कुछ हद तक सही प्रतीत होती है. पिछले साल ही विधानसभा में एक सवाल के जवाब में गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने यह स्वीकार किया था कि प्रदेश के 370 थाना क्षेत्रों में से176 क्षेत्र माओवादी हलचल से प्रभावित हैं.

तथ्यों में और गहरे जाकर बात करें तो गत एक दशक में नक्सलियों ने चार हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है. गृह विभाग के अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक इन घटनाओं में ढाई हजार से ज्यादा लोग मारे गए हैं जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं. हिंसा की इन घटनाओं में नक्सली अपने वर्ग शत्रु के तौर पर शुरुआत में केवल पुलिस, सुरक्षाकर्मियों और मुखबिरों को ही निशाने पर लेते थे. धीरे-धीरे उन्होंने गांव के सरपंचों के साथ-साथ जनपद अध्यक्षों और राजनीतिक दलों से संबंध रखने वाले लोगों को भी निशाना बनाना प्रारंभ कर दिया.

सुकमा में कांग्रेस के काफिले पर ताजा हमले की कार्रवाई के बारे में एक बात यह भी कही जा रही है कि यह नक्सलवादियों द्वारा अपना आधार क्षेत्र और कैडर का मनोबल बढ़ाने के लिए उठाया गया कदम है. सरकार और पुलिस इसे नक्सलवादियों की बौखलाहट मानते हैं. मगर एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि खुफिया व सुरक्षा एजेंसियों और कांग्रेस के बड़े नेताओं की लापरवाही भी इस घटना के होने की एक बड़ी वजह रही. अगर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बर्ताव के लिए तय प्रक्रियाओं का ठीक से पालन किया जाता तो नक्सलियों के लिए प्रदेश के इतने महत्वपूर्ण नेताओं और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को शिकार बनाना इतना आसान नहीं होता.  

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