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Monday, June 17, 2013

पानी से धारदार कोई औजार नहीं होता, बकौल गिरदा!

पानी से धारदार कोई औजार नहीं होता, बकौल गिरदा!


पलाश विश्वास


अतिवृष्टि से उत्तरभारत में अब तक 48 लोगों के मारे जाने की खबर है।उत्‍तराखंड और हिमाचल की बारिश दिल्‍ली में भी मचाएगी कहर, यमुना में आएगी बाढ़!राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पिछले तीन दिनों से मानसून-पूर्व बारिश हो ही रही थी, इसी बीच रविवार को मॉनसून भी पहुंच गया। मॉनसून यहां निर्धारित समय से दो सप्ताह पहले पहुंचा है। भारतीय मौसम विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि मॉनसून दिल्ली पहुंच गया है। यह अपने निर्धारित समय से दो हफ्ते पहले पहुंचा है।


उत्तराखंड में इस विपर्यय के समय, जब 84 साल की बारिश का रिकार्ड टूटने से बगल में हिमाचल में भी कहर बरपा हुआ है, अपने प्रिय कवि दिवंगत गिरदा की खूब याद आती है। नैनीताल समाचार के दफ्तर, गिरदा के दड़बे और अपने प्रोफेसर इतिहासकार शेखर पाठक के घर में बैठकर 1978 और 1979 में हम लोगों ने हिमालय की सेहत पर बहुत सारी रपटें लिखी हैं। 1978 में कपिलेश भोज साल भर के लिए अल्मोड़ा चला गया था, 79 में वह भी लौट आया। अल्मोड़ा से शमशेर बिष्ट,जागेश्वर से षष्ठीदत्त जोशी, मनान से चंद्र शेखर भट्ट और द्वाराहाट से विपिन त्रिपाठी आ जाया करते थे। निर्मल जोशी तब खूब एक्टिव था। प्रदीप टमटा युवा तुर्क था और तभी राजनीति में आ गये थे राजा बहुगुणा और नारायण सिंह जंत्वाल। कभी कभार सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और कुंवर प्रसून आ जाते थे। बाकी राजीव लचन साह, हरीश पंत, पवन राकेश, भगतदाज्यू तो थे ही। पंतनगर के देवेंद्र मेवाड़ी, दिल्ली के आनंद स्वरुप वर्मा और बरेली के कवि वीरेन डंगवाल नैनीताल समाचार की लंबी चौड़ी टीम थी।व्याह के बाद डा. उमा भट्ट भी आ गयी थी।पहाड़ की योजना बन रही थी। जिसमें रामचंद्र गुहा जैसे लोग भी थे। हमारे डीएसबी कालेज के अंग्रेजी के अध्यापक फेडरिक्स अलग से भीमताल में धुनि जमाये हुए थे। इसके अलावा पूरी की पूरी युगमंच और नैनीताल के रंग मंच के तमाम रंगकर्मियों की टीम थी , जिसमें जहूर आलम से लेकर राजीव कुमार तक लोग निरंतर हिमालय की सेहत की पड़ताल कर रहे थे।


उस वक्त शेखर के घर में लंबी बहस के बाद गिरदा ने नैनीताल समाचार की मुख्य रपट का शीर्षक दिया था, पानी से कोई धारदार औजार नहीं होता।


`जनसत्ता' निकलने से पहले कवितानुमा शीर्षक लगाने में गिरदा की रंगबाजी के आगे बाकी सारे लोग हथियार डाल देते थे। तब हमारे बीच पवन राकेश के अलावा कोई घोषित पत्रकार नहीं था।हम लोग आंदोलन के हिसाब से अपनी भाषा गढ़ रहे थे। बुलेटिन के जरिये, पर्चा निकालकर जैसे भी हो,आंदोलन जारी रखना हमारा लक्ष्य था।


उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी में तब गढ़वाल और कुमायूं के सारे कालेजों के छात्र जुड़ चुके थे। देहरादून से आकर नैनीताल समाचार में डेरा डालने वालों में धीरेंद्र अस्थाना भी थे। हम लोग तब मौसम की परवाह किये बिना एक जुनून में  जी रहे थे। कहीं भी कभी भी दौड़ पड़ने को तत्पर। किसी से भी कहीं भी बहस को तैयार।


रात रात भर कड़ाके की सर्दी में गिरदा के कमरे में स्त्री पुरुष सब एक लिहाफ में। तब प्रिम बच्चा था। बाद में शादी के बाद हमारे साथ जब नैनीताल में गिरदा के दड़बे में पहुंची सविता, तो उसे भी उसी ऐतिहासिक लिहाफ की शरण लेनी पड़ी। उस लिहाफ की आड़ में हम हिमालय के खिलाफ हर साजिश के लिए मोर्चा बंद थे। न जाने वह लिहाफ अब कहां होगा! शायद प्रिम को मालूम होगा।


अशोक जलपान गृह मल्लीताल में हमारा काफी हाउस था, जहां मोहन उप्रेती से लेकर बाबा कारंत, आलोकनाथ और बृज महन साह से लेकर नीना गुप्ता तक की उपस्थिति दर्ज  हो जाती थी। सीआरएसटी कालेज हमारे लिए रिहर्सल का खुला मंच था तो तल्ली डाट जंतर मंतर। तब हम लोग सही मायने में हिमालय को जी रहे थे।


खास बात यह थी कि कोई बी कहीं भी काम कर रहा हो तो हम लोग हिमालय और पर्यावरण के क्षेत्र में ही सोचते थे। चाहे वे कुमायूं विश्वविद्यालय के पहले कुलपति डीडी पंत हो या छात्र नेता महेंद्र सिंह पाल, काशी सिंह ऐरी,भागीरथ लाल या भूगर्भशास्त्री  खड़गसिंह वाल्दिया, साहित्यकार बटरोही या डीएस बी कालेज के तमाम अध्यापक।डीएसबी कालेज में सारे विबाग गड्डमड्ड हो गये थे। हम अंग्रेजी के छात्र थे, लेकिन वनस्पति विज्ञान, गणित, भौतिकी और रसायन विभागों में हमारे अड्डे चलते थे। कला संकाय तो एकाकार था ही। वह नैनीताल पर्यटन केंद्र के बदले हमारे लिए हिमालय बचाओ देश और दुनिया बचाओ आंदोलन का केंद्र बन गया था।बरसात हो या हिमपात, कोई व्यवधान, दिन हो या रात कोई समय हमारी सक्रियता में बाधक न था।आज चंद्र शेखर करगेती ौर प्रयाग पांडेय की सक्रियता में उस नैनीताल को खोजता हूं, जहां हर नागरिक उतना ही ाआंदोलित था औरउतना ही सक्रिय जितना हम। तब चिपको आंदोलन का उत्कर्ष काल था। नैनीताल क्लब अग्निकांड को लेकर हिंसा ौर अहिंसा की बहस पहुत तेज थी, लेकिन हम सारे लोग नैनीताल ही नही, कुमाऊं गढ़वाल और तराई में समानरुप से सक्रिय थे।


पृथक उत्तराखंड बनते ही सारा परिदृश्य बदल गया। इसी बीच तमाम जुझारु साथी गिरदा, निरमल, फेडरिक्स, विपिन चचा, षष्ठी दाज्यू, भगत दा हमेशा केलिए अलविदा कह गये। राजनीति ने कुमायूं और गढ़वाल के बीच वहीं प्राचीन दीवारे बना दीं। हिमालय और मैदानों का चोलीदामन का रिश्त खत्म हो गया। तराई से बहुत दूर हो गया नैनीताल। हालांकि वर्षों बीते मुझे घर गये, पर अब ठीक ठीक यह याद भी नहीं आता कि आखिरीबार मैं नैनीताल कब गया था। प्रामं के तार टूट गये हैं। न कोई सुर है और न कोई छंद।


हम सभी लोग मानते रहे हैं कि राजनीति अंततः अर्थशास्त्र ही होता है।दिवंगत चंद्रेश शास्त्री सेयह हमने बखूब सीख लिया था। फेडरिक्स ने सिखाया था कि हर सामाजिक कार्यकर्ता को पर्यावरणकार्यकर्ता भी होना चाहिए और सबसे पहले वही होना चाहिए। प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों की लूटपाट पर टिकी है अर्थव्यवस्था।


औपनिवेशिक काल से यही रघुकुल रीति चली आयी। 1991 से नवउदारवादी कलियुग में खुले अर्थव्यवस्था में यह सत्य अमोघ नियति के रुप में अभव्यक्त होता रहा है बारंबार। प्रकृति सेजुड़े लोगों और समुदायों के नरसंहार के बिना कारपोरेट राज का कोई वजूद नहीं है, यह हम बारतके कोने कोने में अब अच्छी तरह अहसास करते हैं।लेकिन बाकी देश को आज भी हम यकीन दिला पाने में नाकाम रहे हैं कि हिमालय भी भारत का हिस्सा है।


सारी नदियों का उत्स जिन ग्लेशियरों में हैं, वहीं बसता है भारत का प्राण। कारपोरेट योजनाकारों को यह मालूम है, लेकिन आम जनता इस सच को दिलोदमिमाग में महूस नहीं करती।पहाड़ और हिमालय, पहाड़ के लोग निरंतर आपदाओं और विपर्यय के शिकार होते रहेंगे, यही हमारा परखा हुआ इतिहास बोध है, सामाजिक यथार्थ है। हिमालय के अलग अलग हिस्से भी प्राकृतिक रुप से इतने जुदा जुदा हैं, पहुंच से इतने दूर हैं, इतने दुर्गम और इतने बदहाल हैं, कि साझा हिमालयी मच कभी बन ही नहीं सका।राज्य गठन के ग्यारह साल बाद भी ऊर्जा प्रदेश के 127 गांव ऊर्जा से वंचित हैं, जिसमें सबसे ज्यादा गांव नैनीताल के हैं। उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले को छोड़कर कोई भी ऐसा जिला नहीं, जहां पूरे गांवों में बिजली हो।जल संसाधनों के अधिकतम दोहन की नीति पर काम करते हुए सरकार ने निजी तथा सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों को 12114 मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं आवंटित की हैं।  ऊर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश, शिक्षा प्रदेश और हर्बल प्रदेश. ये सब नाम अलग-अलग सरकारों द्वारा उत्तराखंड को दिए गए हैं और इनमें से कोई भी नाम अब तक सार्थक नहीं हो पाया है!गंगा यमुना सहित उत्तर भारत की सभी प्रमुख नदियां उत्तराखंड में हिमालय से निकलती हैं। उत्तराखंड सरकार की 2006 की ऊर्जा नीति के तहत राज्य की बारह प्रमुख नदी घाटियों में निजी निवेश के ज़रिये करीब 500 छोटी बड़ी बिजली परियोजनाओं को बनाकर 3000 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है और इसी दम पर उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने के सपने देखे और दिखाए जा रहे थे।


आज जितना विपर्यस्त है उत्तराखंड, उतना ही संकट ग्रस्त है हिमाचल, पर चिपके के उत्कर्ष समय में भी हम कश्मीर और पूर्वोत्तर की क्या कहें, हिमाचल और उत्तराखंड के बीच भी कोई सेतु नहीं बना सकें। पर्यावरण संरक्षण के बिना विकास विनाश का पर्याय है, इसकी सबूत हिमालय के करवट बदलते ही हर बार मिलता है। अति वृष्टि, बाढ़, भूस्खलन और भूकंप में मृतकों की संख्या गिनने और लाइव कवरेज से इतर इस दिशा में अभी किसी सोच का निर्माण ही नहीं हुआ।पहाड़ों में जंगल की अंधाधुंध कटान जारी है। दार्जिलिंग के पहाड़ हो या सिक्किम, नगालैंड हो या गारो हिल्स या फिर अपने हिमाचल और उत्तराखंड  पहाड़ आज सर्वत्र हरियाली से वंचित आदमजाद नंगे हो गये हैं।


भारत में हिमालय के अलावा बाकी हिस्से भी प्राकृतिक आपदा से जूझते रहे हैं। पर बड़े बांधों के खिलाफ निरंतर जनांदोलनों के बावजूद आत्मघाती विकास का सिलसिला जारी है। दंडकारणय में वनाधिकार से वंचित आदिवासियों के प्रति बाकी देश के लोगों की कोई सहानुभूति नहीं है। वनाधिकार कानून कहीं नहीं लागू हैं। न उत्तराखंड में, न झारखंड में और न छत्तीसगढ़ में , जहां क्षेत्रीय अस्मिता के आंदोलनों से नये राज्य का निर्माण हुआ। उत्तराखंड अलग राज्य के निर्माण में पर्यावरण चेतना और पर्यावरण चेतना से समृद्ध नारी शक्ति की सबसे बड़ी भूमिका है, लेकिन वहीं पर्यवरण कानून का सबसे ज्यादा उल्लंघन हो रहा है और वही अब ऊर्जा प्रदेश है। न केवल गंगा की अज्ञात पुरातन काल से लेकर अबतक अबाधित जलधारा ही टिहरी बांध में समा गयी बल्कि साली नदियां छोटी बड़ी परियोजनाओं के मार्फत अवरुध्द हो गयीं। यह वृष्टिपात तो प्रकृति के रोष की अभिव्यक्ति है और चरम चेतावनी भी है। हम खुद हिमालय से इतना  कातिलाना खेल खेल रहे हैं, तो हम किस नैतिकता से चीन को ब्रह्मपुत्र की जलधारा को रोकने के लिए कह सकते हैं। एवरेस्ट तक को हमने पर्यटन स्थल बना दिया है, चारों धामों में अब हानीमून है, मानसरोवर के हंसं का वध हो गया। प्रकृति इतने पापों का बोझ कैसे उठा सकती है?


पूर्वोत्तर में नगालैंड, त्रिपुरा, मिजारम, मेघालय जैसे राज्यों में सरकारें पर्यटकं को सुरक्षा की गारंटी दे नहीं सकती तो वहां अभी झीलें जीवित हैं , जबकि अपनी नैनी झील मृतप्राय है।दंडकारण्य से लेकर सुंदर वन और नियमागिरि पहाड़ तक पर्यटन नहीं तो कारपोरेट राज की दखलंदाजी है। अभयारण्य रिसार्ट के जंगल में तब्दील हैं। समुद्रतट सुरक्षा अधिनियम की खुली अवहेलने के साथ जैतापुर से लेकर कुडनकुलम में भी परमाणु संयंत्र लगा दिये गये हैं। पांचवीं और छठीं अनुसूचियों , संवैधानिक रक्षाकवच के खुले उल्लंघन से आदिवासियों को आखेट जारी है। खनन अधिनियम हो या भूमि अधिग्रहम कानून कारपोरेट नीति निर्धारक अपने हितों के मुताबिक परिवर्तन कर रहे हैं। पर्यावरण चेतना के अभाव में प्रकृति से इस खुले बलात्कार के विरुद्द हम कहीं भी कभी भी कोई मोमबत्ती जुलूस निकाल नहीं पाते।


पानी सिर्फ हिमालय में सबसे धारदार औजार नहीं है, सुनामी की चपेट में आये आंध्र और तमिलनाडु के लोगों को इसका अहसास जरुर हुआ होगा। पर बाकी देश की चेतना पर तो पारमामविक महाशक्ति का धर्मोन्मादी काई जमी हुई है, आंखों में बाजारु विकास की चकाचौंध है और हम यह समजने में बुरी तरह फेल हो गये कि भारत अमेरिका परमाणु संधि के बाद न सिर्फ तमाम जल स्रोत और संसाधनों पर कारपोरेट कब्जा हो गया, बल्कि पानी नामक सबसे धारदार हथियार अब रेडियोएकटिव भी हो गया है , जो सिर्फ हिमालय में नहीं बल्कि बाजारु विकास के अभेद्य किलों नई दिल्ली, कोलकाता ,मुंबई, अमदाबाद, बेगलूर, चेन्नई, कोयंबटूर में भी कहर बरपा सकता है।


बहरहाल खबरों के मुताबिक उत्तराखंड में बारिश से भारी तबाही हुई है। अब तक 13 लोगों की मौत हुई है। चार धाम की यात्रा स्थगित कर दी गई है। केदारनाथ के रामबाड़ा में बादल फटने के बाद से 50 लोग लापता हैं। 13000 लोग चमोली और उत्तरकाशी में फंसे हुए हैं।भारी बारिश के कारण चारधाम यात्रा स्थगित कर दी गई है। केदारनाथ के पास बासुकी ताल से 5 लोगों के शव बरामद किए गए हैं।राज्य की सभी नदियां उफान पर हैं। गंगा, अलकनंदा और भागीरथी खतरे के निशान को पार कर चुकी है। बाढ़ से सबसे ज्यादा नुकसान उत्तरकाशी को हुआ है।यहां सैकड़ों लोग बेघर हो गए हैं। 13000 यात्री चमोली और उत्तरकाशी में फंसे हुए हैं।केदारनाथ के रामबाड़ा में बादल फटा है, जिसकी वजह से 50 लोग लापता बताए जा रहे हैं. लापता लोगों में कुछ तीर्थयात्री हो सकते हैं।


हिमाचल प्रदेश के आदिवासी जिले किन्नौर में भारी बारिश से काफी तबाही हुई है, जहां आठ लोगों के भूस्खलन में मरने की आशंका है वहीं कई महत्वपूर्ण सड़कें अवरुद्ध हो गई हैं और मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह सांगला घाटी में फंस गए हैं।अधिकारियों ने सोमवार को कहा कि विभिन्न स्थानों पर करीब एक हजार पर्यटक और स्थानीय लोग फंस गए हैं, जिसमें अकेले सांगला में 800 लोग शामिल हैं। भारी बारिश की वजह से राहत और बचाव कार्य में बाधा आ रही है ।हिंदुस्तान-तिब्बत राष्ट्रीय राजमार्ग पर कई जगहों पर भूस्खलन से तापरी से आगे के कई इलाके कट गए हैं। मंडी लोकसभा सीट के लिए हो रहे उपचुनाव में प्रचार कर रहे मुख्यमंत्री बीती रात किन्नौर जिले के सांगला घाटी में फंस गए।अधिकारियों ने कहा कि भूस्खलन की वजह से इस क्षेत्र की ओर जाने वाली सड़कें बाधित हो गईं और सिंह को हेलिकॉप्टर से निकालने के प्रयास किए जा रहे हैं। तापरी के नजदीक चागांव गांव में कल देर रात भारी भूस्खलन से एक ही परिवार के पांच सदस्य दफन हो गए। उन्होंने कहा कि तापिर में एक व्यक्ति, यूला में एक और मोरांगिन गांव में दो लोग भूस्खलन के मलबे में दफन हो गए और उनके बचने की संभावना न के बराबर है ।भूस्खलन की वजह से 25 विदेशी और दूरदर्शन का एक दल किन्नौर जिले में तिब्बत की सीमा के नजदीक नमग्या और खाब के बीच फंस गए हैं क्योंकि भारी बारिश से कई स्थानों पर भूस्खलन हुआ है।दूरदर्शन टीम और अन्य पर्यटकों ने खाब के नजदीक आईटीबीपी के शिविर में शरण ली है क्योंकि विशाल पत्थरों और भूस्खलन की वजह से सड़क अवरुद्ध हो गई है।


उत्तर भारत के राज्यों- पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। इन राज्यों में अक्षय ऊर्जा के इन स्रोतों का पूरी तरह दोहन नहीं हो सका है। इस क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकारों ने नई नीति तैयार की है, जिससे अगले 2-3 साल में करीब 4,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सके।अन्स्र्ट ऐंड यंग के मुताबिक उत्तर भारत के राज्यों ने पनबिजली और बायोमास आधारित बिजली उत्पादन पर संभावनाएं तलाशनी शुरू की है। इसकी हिस्सेदारी कुल बिजली उत्पादन क्षमता में 16 प्रतिशत है। हिमालय से निकलने वाली नदियां हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू कश्मीर में निवेश आकर्षित कर रही हैं, जिससे पनबिजली का उत्पादन किया जा सके। वहीं पंजाब और हरियाणा के मैदानी इलाकों में, जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है, बायोमास के जरिये बिजली उत्पादन की कोशिश की जा रही है।


अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में संभावनाओं के दोहन के लिए पंजाब सरकार ने 2006 में न्यू ऐंड रिन्यूएबल सोर्स आफ एनर्जी (एनआरएसई) नीति पेश की है। इस नीति के तहत अक्षय स्रोतों के माध्यम से 1,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही 2020 तक अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य तय किया गया है। इस नीति का उद्देश्य छोटी और सूक्ष्म पनबिजली परियोजनाएं, बायोमास आधारित इकाइयां स्थापित करना, कृषि और निकायों के कचरे के इस्तेमाल से बिजली संयंत्र लगाना, सौर और पवन ऊर्जा संयंत्र लगाना है। राज्य पहले ही अक्षय ऊर्जा के माध्यम से 400 मेगावाट बिजली उत्पादन कर रहा है।


हरियाणा ने भी अक्षय ऊर्जा नीति का मसौदा तैयार किया है। इसमें कुल 5000 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता बढ़ाने की योजना में 10 प्रतिशत (500 मेगावाट) अक्षय ऊर्जा के जरिये बिजली उत्पादन को शामिल किया गया है। साथ ही इसमें कई अक्षय ऊर्जा इकाइयों को 2012 तक शुरू करने का लक्ष्य रखा गया है। इस नीति का उद्देश्य बायोमास, कृषि और निकाय के कचरे आदि के इस्तेमाल माध्यम से बिजली संयंत्र स्थापित करना है।


पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की अक्षय ऊर्जा के माध्यम से बिजली उत्पादन क्षमता 375 मेगावाट है, जिसने 2014 के अंत तक उत्पादन क्षमता बढ़ाकर 500 मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। साथ ही इस क्षेत्र में डेवलपरों को सुविधा मुहैया कराने के लिए प्रक्रिया में तेजी लाई गई है, जिससे राज्य में ऐसी परियोजनाओं को प्रोत्साहन मिले।


उत्तराखंड में पनबिजली उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं। यह देश में पनबिजली उत्पादन परियोजनाओं का प्रमुख केंद्र है। यहां छोटी परियोजनाओं के माध्यम से 1500 मेगावाट से ज्यादा बिजली का उत्पादन किए जाने की क्षमता है, जबकि इससे सिर्फ 365 मेगावाट उत्पादन होता है।


वहीं जम्मू कश्मीर में छोटी पनबिजली परियोजनाओं के जरिये 1417 मेगावाट और बायोमास के जरिये 1096 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता है। इस संभावना के दोहन के लिए राज्य सरकार ने कई तरह के वित्तीय प्रोत्साहन की घोषणा की है।


मानसून की पहली बारिश ने ही उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन तैयारियों की पोल खोल कर रख दी है। दूरदराज के पर्वतीय इलाके तो छोड़िए राजधानी देहरादून में ही लगातार चौबीस घंटों की बारिश ने जनजीवन को तहस-नहस कर रख दिया है। दरअसल, उत्ताराखंड प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील राज्यों की श्रेणी में शुमार है। यही वजह है कि वर्ष 2000 में जब उत्ताराखंड अलग राज्य के रूप में वजूद में आया, तब नवगठित सूबे में अलग आपदा प्रबंधन मंत्रालय भी गठित किया गया। उस वक्त ऐसा करने वाला उत्ताराखंड देश में पहला राज्य था। तब से अब तक 12 वर्ष से ज्यादा समय गुजर चुका है, आपदा प्रबंधन की उम्मीदें यहां परवान नहीं चढ़ पा रही हैं।


राज्यवासी भूकंप, भूस्खलन, अतिवृष्टि व बाढ़ जैसी आपदाएं कई बार झेल चुके हैं, लेकिन आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर सरकारी तंत्र सिर्फ दैवीय आपदा की घटनाओं के बाद राहत व बचाव कार्यो तक ही सिमटा हुआ है। हालांकि इसमें भी सरकारी कार्यप्रणाली अक्सर सवालों के घेरे में खड़ी नजर आती है। राज्य में आपदा प्रबंधन तंत्र की विफलता पिछले कुछ वर्षो के दौरान मानसून सीजन में दिख चुकी है। पिछले लगभग सात सालों के दौरान उत्ताराखंड में प्राकृतिक आपदा 776 लोगों की जिंदगी छीन चुकी हैं जबकि 498 लोग घायल हो गए। इस दौरान 21 हजार 600 से अधिक मकान या तो पूरी तरह जमींदोज हो गए या फिर क्षतिग्रस्त होने की वजह से रहने लायक ही नहीं रहे। इतना ही नहीं, पहाड़ी ढलानों पर छोटे व सीढ़ीनुमा खेतों के रूप में 207 हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि दैवीय आपदा के कारण मटियामेट हो गई। चिंताजनक पहलू यह है कि आपदा प्रबंधन की दिशा में सरकारी कोशिशें अब तक सिर्फ बचाव व राहत कार्यो तक ही सिमटी हुई है। ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए पहले से ही तैयार रहने की दिशा में सरकारी मशीनरी दो कदम भी नहीं बढ़ा पाई है। आपदा प्रबंधन का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 2010 में राज्य में आपदा के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील घोषित 233 गांवों में से एक का भी सरकार विस्थापन नहीं कर पाई। उस पर अब इस तरह के गांवों की संख्या का आंकड़ा साढे़ चार सौ के पार पहुंच गया है। यह आंकड़ा इस मानसून से पहले तक का है और जब यह मानसून सीजन खत्म होगा, तय है कि तब तक यह आंकड़ा भी खासा बढ़ चुका होगा। इस सबमें सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि राज्य को आपदा मद में केंद्र से पर्याप्त मदद नहीं मिल पा रही है। गत वर्ष राज्य सरकार ने केंद्र से जिस धनराशि की आपदा राहत कार्यो के लिए डिमांड की थी, वह अब तक नहीं मिल पाई है।



दिल्ली में रिकॉर्डेड इतिहास में पहली बार जून में यमुना में बाढ़ आएगी। यमुना के कैचमेंट एरिया खासकर उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में हो रही भारी बारिश के चलते हथिनीकुंड बैराज से लगातार पानी छोड़ा जा रहा है। रविवार सुबह छह बजे से ही हर घंटे बैराज का सरप्लस पानी यमुना में छोड़ना शुरू किया गया और यह सिलसिला शाम तक जारी रहा। शाम चार से छह बजे के बीच हर घंटे लगातार 4 लाख 50 हजार 631 क्यूसेक पानी छोड़ा गया।

बाढ़ नियंत्रण विभाग का अनुमान है कि सोमवार देर रात से मंगलवार सुबह तक दिल्ली में यमुना का पानी पहुंच जाएगा। इससे यमुना राजधानी में खतरे के निशान को भी पार कर जाने की संभावना है। हालांकि पानी छोड़े जाने के पहले तक हथिनीकुंड से पल्ला गांव तक 225 किलोमीटर तक यमुना पूरी तरह सूखी थी।दिल्ली में फिलहाल यमुना का जलस्तर 202.2 मीटर पर है और छोड़े गए पानी के दिल्ली में पहुंचने के बाद करीब ढाई से पौने तीन मीटर तक पानी चढ़ने की संभावना है। बाढ़ नियंत्रण विभाग के इंजीनियर वीपीएस तोमर ने कहा कि 'यमुना नदी में खतरे का निशान 204.83 मीटर है जिसे यमुना अगले 36 से 48 घंटे में जरूर पार कर जाएगी।'

हथिनीकुंड बैराज पर तैनात अधिकारी ने बताया कि बैराज में ७क् हजार क्यूसेक से अधिक पानी होने पर पश्चिमी व पूर्वी यमुना नहरों की आपूर्ति रोक दी जाती है और बैराज के दरवाजे खोल दिए जाते हैं ताकि सरप्लस पानी निकल जाए। पानी छोड़ने का सिलसिला तभी बंद किया जाता है








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