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Tuesday, January 21, 2014

जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है, अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता!

जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है, अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता!

जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है, अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता!


HASTAKSHEP



ओबामा के भाषण को ध्यान से पढ़ें तो भारतीय सत्तावर्ग का आधार अभियान समझ में आ जाना चाहिए। जाहिर है कि नागरिकों की खुफिया जानकारी का भारत देश की एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं है।यह खालिस मुक्त बाजार के हित में कॉरपोरेट सफाया अभियान का एजेंडा है। इस एजेंडे को पूरा करने में जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद अचूक हथियार है, जिसका इस्तेमाल सभी पक्ष कर रहे हैं।

आदमजाद नंगा होकर अब मुक्त बाजार के महोत्सव में हम जश्न ही मना सकते हैं, अपनी जान माल की हिफाजत नहीं।

पलाश विश्वास

खास खबर है, जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है,अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता। खतरा जिनसे हैं मसलन अमेरिका के मित्र देशों के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिकी नागरिक तक की प्रिज्म जासूसी को अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जायज ठहरा दिया है। सही और गलत का यह जायनवादी सौंदर्यशास्त्र है, जो भारत में भी खूब लागू है। अमेरिकी हितों के खिलाफ जो हैं, भारत सरकार और भारतीय नस्लवादी नवधनाढ्य सत्तावर्ग को उनसे जबर्दस्त खतरा है। उनकी खुफिया निगरानी का भारत में भी चाक चौबंद इंतजाम है और लोकतन्त्र का शतनाम जाप करने वाली कॉरपोरेट राजनीति इस ड्रोन प्रिज्म सीआईए नाटो तंत्र को ही मजबूत करने में लगी है। सर्वशक्तिमान वैश्विक व्यवस्था के शिरोमणि की समझ में नहीं आ रहा है कि अबतक जासूसी से हासिल जानकारी के आचार डालने की वैज्ञानिक पद्धति क्या होगी। अब इस जानकारी को किसी के हवाले करने से भी नहीं हिचकेगी अमेरिकी। भारत में नागरिकों की खुफिया जानकारी का अन्तिम हश्र क्या होगा, ओबामा के इस सुधारात्मक कार्यक्रम से उसे लेकर नाना शंकाएं उत्पन्न हो गयी हैं।

गौरतलब है कि देवयानी प्रकरण में भारत अमेरिका राजनय युद्ध के फर्जी घमासान के बावजूद भारत सरकार की ओर से भारतीय नागरिकों की खुफिया निगरानी पर आधिकारिक कोई आपत्ति दूसरे तमाम देशों की तरह अब तक दर्ज नहीं हुयी है। खुफिया निगरानी कार्यक्रम में अमेरिका मित्र देशों के प्रबल विरोध की वजह से जो सुधार करने जा रहा है, उससे न भारत और न भारतीय नागरिकों की, न अमेरिका में और न भारत में अमेरिकी खुफिया निगरानी में कोई फर्क पड़ने वाला है। देवयानी खोपड़ागड़े दलित हैं और उनके साथ हुये अन्याय के विरोध के लिये भारत सरकार के हम आभारी हैं। लेकिन भारतीय अति महत्वपूर्ण नागरिकों की जो अब तक अमेरिका में कूकूरगति होती रही है,वे  मामले भी खुलें तो समझ में आये कि यह राजनयिक युद्ध कितना असली है। इसके उलट नाटो की आधारपरियोजना को लागू करते हुये अमेरिका और सीआईए को सारे गोपनीय तथ्य देने वाली अपनी भारत सरकार इन तथ्यों को न केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कॉरपोरेट घरानों के साथ बल्कि माफिया और आपराधिक गिरोह के लिये भी उपलब्ध करा रही है। आदमजाद नंगा होकर अब मुक्त बाजार के महोत्सव में हम जश्न ही मना सकते हैं, अपनी जान माल की हिफाजत नहीं।

आधार विरोधी मोर्चा के सिपाह सालार गोपाल कृष्ण जी ने आज सुबह सुबह फोन किया और बताया कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के तहत जिन राज्यों में आँखों की पुतलियाँ और दसों उंगलियों की छाप जमा किया जाना है, भारत सरकार की आधिकारिक सूची में पश्चिम बंगाल का नाम नहीं है। उनके लिये पहेली है कि बंगाल के स्थानीय निकायों को सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद एनपीआर के तहत नागरिकों को आदार बनाने की अनिवार्यता का फतवा क्यों दिया जा रहा है। जबकि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ही पहल पर बंगाल विधानसभा में माकपाइयों के समर्थन से आधार को नकद सब्सिडी से जोड़ने के खिलाफ फतवा जारी हुआ है।

हमारे लिये भी यह पहेली है। जैसे अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव नीत खास आदमी ब्रिगेड को असंवैधानिक आधार के तहत नागरिकों की खुफिया निगरानी से कोई ऐतराज नहीं है, उसी तरह सैम पित्रोदा की सलाह पर चलने वाली बंगाल पीपीपी बंगाल सरकार को बुनियादी तौर पर आधार से कोई परेशानी है नहीं। बंगाल विधानसभा में जो सर्वदलीय प्रस्ताव पास हुआ है, वह आधारविरोधी कतई नहीं है और बाकी देश की कॉरपोरेट राजनीति की तरह बंगाल की कॉरपोरेट राजनीति को भी भारतीय नागरिकों की निजता और गोपनीयता से कुछ लेना देना नहीं है। वे नकद सब्सिडी को आधार से जोड़ने का विऱोध सिर्फ इसीलिये कर रहे हैं क्योंकि बंगाल में दस फीसदी लोगों के आधार कार्ड भी अब तक बने नहीं हैं और आधार की वजह से अचानक नागरिक सेवाएं स्थगित हो गयीं तो इसके राजनीतिक समीकरण पर होने वाले दुष्प्रभाव की दरअसल चिंता है।

फिर भी तेल कंपनियों और खासकर अप्रैल से गैस की कीमत दोगुणा हो जाने की स्थिति में रिलायंस के हितों की चिन्ता ज्यादा है, इसीलिये स्थानीय निकायों से वाम बेदखली के बाद सत्ता पक्ष ने सर्वदलीय प्रस्ताव के विपरीत यह पहल कर दी है।

हम बार बार ध्यान दिला रहे हैं कि कॉरपोरेट कायाकल्प से सारे राजनीतिक विकल्प कॉरपोरेट है। मुख्य समस्या राजनीतिक विकल्प की नहीं है, बल्कि कॉरपोरेट युद्धक राज्यतन्त्र है जो संविधान, कानून के राज, लोकतन्त्र, पर्यावरण, नागरिक अधिकारों, मानवअधिकारों के अलावा प्रकृति और मनुष्यता के विरुद्ध है। अगले बजट में सभी तरह की सब्सिडी खत्म होनी है। कांग्रेस हार गयी तो संघ परिवार की सरकार हो या आप, आम आदमी और अमीरों के बीच की खाई गरीबों का सफाया करके ही खत्म करेगी। समूची कर प्रणाली बदल जायेगी। गाजरों की थोक सप्लाई कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की तरह मुक्त बाजार के हितों के संरक्षण के लिये राजनीतिक समीकरण साधने के लिये ही हैं। रंग बिरंगे राजनीतिक विकल्प से हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होगा और न बंद होगा अबाध नरमेध अभियान।

लेकिन ऐन चुनाव से पहले बारह सब्सिडी सिलिंडर की घोषणा से लोग बाग-बाग हैं और किसी को खबर नहीं है कि गैस की कीमतों में दोगुणा इजाफा अप्रैल से ही लागू होना है। विनियंत्रित बाजार में तरह तरह के करतब से हम अपनी क्रयशक्ति बढ़ाने की कवायद में ही ज़िन्दगी गुजार रहे हैं।

इसे इस तरह समझ लें कि सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो बुनियादी संस्थान विवाह में है। सबसे ज्यादा धोखाधड़ी विवाह नामक पवित्रता की आड़ में है। अबाध सेक्स का खुला यह लाइसेंस है पुरुषतन्त्र के लिये, जहाँ काबिल से काबिल लड़की उपभोक्ता वस्तु के अलावा कुछ भी नहीं है। स्त्री अस्मिता का सत्यानाश इसी विवाह संस्थान के जरिये होता है। किसी को ज़िन्दगी भर सुनंदा पुष्कर बन जाने के बाद भी इसका अहसास शायद ही होता है।

जो व्यक्ति जहाँ है सिर्फ अपनी बेटी के विवाह में दिये जाने वाले दहेज और तत्सम्बंधी आयोजन के लिये हर सूरत में हर तरह अंधाधुंध कमाई के फिराक में होता है। आप सिर्फ दहेज का लेनदेन बन्द कर दें तो तृणमूल स्तर पर जो भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी पैठी हैं, उनका तुरंत सफाया हो जाये। लेकिन कानून और सशक्तीकरण के पाखंड के बावजूद स्त्री निधन का महोत्सव विवाह और दहेज के माध्यम से पूरे राजनीतिक समर्थन से जारी है और इस व्यवस्था के खिलाफ कोई झाड़ू कहीं नहीं है।

अमेरिकी हितों के मद्देनजर प्रबंधकीय दक्षता और तकनीकी चमत्कार की जो राजनीति कॉरपोरेट महाविध्वंस के लिये है, उसमें पार्टीबद्ध लोग जाहिर है कि किसी किस्म का परिवर्तन रज्यतन्त्र में करने के खिलाफ होंगे। जाहिर है कि नस्ली भेदभाव के तहत सामाजिक अन्याय और असमता का वीभत्स तांडव भी जारी रहना है।

 लेकिन सवर्ण असवर्ण विवाह संस्थान में जो स्त्री विरोधी दहेज वर्चस्व है, उसके खिलाफ कोई अमेरिका के खिलाफ जंग की जरुरत नहीं है और न कॉरपोरेट हितों का कोई प्रत्यक्ष लेना देना नहीं है। परिवर्तन के झंडेवरदार अपने प्रभाव क्षेत्र में इस दहेज वर्चस्व विवाह पद्धति को साफ करने के लिये एक बार सफाई तो करके देखें। राज्यतन्त्र में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत कम से कम इस तरह अपने ही घर की सफाई से शुरु करने में किसीको कोई दिक्कत नही है।

लेकिन दीवार पर लिखे आलेख की तरह इस सच से हम मुँह चुराते हैं। उसी तरह बहिष्कार और जनसंहार की नीतियों पर आधारित, बहुसंख्य कृषि समाज के महाविध्वंस को उद्देश्यित खुले बाजार के तन्त्र में हम अपना अपना खाता दुरुस्त करने में ही लगे हैं। जमा के बेहिसाब गणित के ही हम सारे भारतीय नागरिक पहरुआ हो गये हैं। इसके लिये निर्वस्त्र हो जाने पर शर्म का अहसास तक नहीं होता।

कटु सत्य तो यह है कि जाति, धर्म, भाषा, नस्ल, क्षेत्र,रंग की अस्मिताएं तोड़कर हम सामाजिक और पारिवारिक संबंध जोड़ते हुये देश जोड़ने और सामाजिक न्याय और समता के लिये कोई नागरिक पहल करना तो दूर, उस दिशा में सोचने में भी असमर्थ हैं। इससे भी बड़ा शर्त यह है कि इन दायरों में रहकर अस्मिता और पहचान बचाते हुये भी हम कुसंस्कार और कुप्रथा का अन्त करके एक स्वच्छ ईमानदार समाज के लक्ष्मणगंडित औपनिवेशिक दौर के नवजागरण सुलभ सीमाबद्ध पहल के लिये तैयार नहीं हो सकते। सोच भी नहीं सकते। देश के लोगों की कोई परवाह किये बिना, खुले बाजार में एक दूसरे के वध को सदैव तत्पर हम लोग देशभक्ति के मिथ्या स्वाभिमान का उत्सव रचते हुये स्वयं को, समाज को और देश को तोड़ने का हरसम्भव प्रयत्न करने में बहुआयामी दक्षता के उत्कर्ष पर है। भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिये बिना आचरण हम राजनीतिक विकल्प में अपनी ही रचे हुये आत्मध्वंस को दोहरा रहे हैं।

अर्थ व्यवस्था और वैश्विक व्यवस्था और राज्य तन्त्र में बदलाव की तैयारी की ये बुनियादी और प्राथमिक शर्तें हैं, जिन्हें हम कम से कम अपने संदर्भ में लागू करना ही नहीं चाहते। यह ध्यान देने योग्य है कि औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारत के स्वतन्त्रता संग्राम आदिवासी और किसान विद्रोहों से हुआ और किसानों और आदिवासी को ही स्वतन्त्र देश में हमने तबाही के कगार पर पहुंचा दिया है। सत्तापक्ष विपक्ष इसके लिये जितना जिम्मेदार है, अपने बाजारू आचरण से हम सारे भारतीय नागरिक भी उसके लिये कम जिम्मेदर नहीं है। यह भी गौर करने वाली है कि आजादी का अहसास भी नवजागरण से ही होता है। पूरी दुनिया में यह जितना सच है, उतना ही सच भारत के सन्दर्भ में भी है। भारतीय अस्मिता की बनावट नवजागरण से रची गयी तो नागरिकों के सशक्तीकरण अभिानकी निरंतरता ने ही आजादी का जज्बा पैदा किया। आजादी का वह जज्बा ही सिरे से गायब है और हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारी नागरिकता, हमारी निजता और गोपनीयता हाशिये पर है। मानुष के हक हकूक करने वाले चेहरे के पीछे अमानुष ही है, मानुष नहीं। आधार प्रकल्प को इसलिये हम समझ ही नहीं सकते। डांडी यात्रा या विदेशी कपड़ा के वर्जन के भावावेग को हम समझ ही नहीं सकते क्योंकि हममें से हर कोई अपनी अपनी अस्मिता में कैद है और कहीं कोई सौ टक्का भारतीय है ही नहीं। महज टोपी लगाकर देश की स्वतन्त्रता का अंजाम भारत विभाजन हुआ तो हम लोग बार- बार उसी अंजाम को दोहराने को नियतिबद्ध इंद्रियों से विकलांग लोग हैं। भोग के अलावा हमारा कोई सरोकार नहीं है और न जीवनदर्शन।दृष्टि अंध है हमारी सारी कुशलता, दक्षता, विधायें, माध्यम और मेधा।

ओबामा के भाषण को ध्यान से पढ़ें तो भारतीय सत्तावर्ग का आधार अभियान समझ में आ जाना चाहिए। जाहिर है कि नागरिकों की खुफिया जानकारी का भारत देश की एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं है। यह खालिस मुक्त बाजार के हित में कॉरपोरेट सफाया अभियान का एजंडा है। इस एजंडा को पूरा करने में जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद अचूक हथियार है, जिसका इस्तेमाल हर पक्ष कर रहा है।

बीबीसी के मुताबिक अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मित्र देशों और उनकी सरकारों की ख़ुफ़िया निगरानी को रोकने का एलान किया है। अमरीकी इलेक्ट्रॉनिक ख़ुफ़िया तन्त्र में भारी बदलाव की घोषणा करते हुये ओबामा ने कहा कि अभी जिस तरह से ये कार्यक्रम चलाया जा रहा है, उस पर रोक लग जाएगी। ओबामा ने ये भी एलान किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) करोड़ों अमरीकियों के फ़ोन रिकॉर्ड से जुटाई गयी जानकारी अपने पास नहीं रख सकेगी। ये जानकारी कहाँ जमा रहेगी, इस पर उन्होंने फ़िलहाल कुछ भी नहीं कहा है। लेकिन खुफ़िया अधिकारियों और अमरीकी एटॉर्नी जनरल को 60 दिनों का समय दिया गया है कि वो इस पर अपनी राय दें। माना जा रहा है कि जिस तरह के सुधार का एलान ओबामा ने किया है, वो कई अमरीकी अधिकारियों की उम्मीद से कहीं ज़्यादा है। अमरीकी ख़ुफ़िया तन्त्र से जुड़े कई पूर्व अधिकारियों ने ओबामा के इन कदमों की तीखी आलोचना की है और कहा है कि इससे अमरीका की सुरक्षा को धक्का लगेगा। लीक हुयी जानकारी की वजह से अमरीका को देश के अन्दर ही नहीं अपने मित्र देशों के सामने भी शर्मिंदगी उठानी पड़ी जब पता चला कि उन देशों के नेताओं पर भी निगरानी रखी जा रही थी। यूरोपीय देशों ख़ासकर जर्मनी के साथ अमरीका के रिश्तों में इस लीक की वजह से काफ़ी तनाव आया।

"मैं दुनिया के लोगों को बताना चाहता हूं कि अमरीका उन आम लोगों की बिल्कुल निगरानी नहीं करता है जिनसे अमरीका को कोई ख़तरा नहीं है."

बराक ओबामा, अमरीकी राष्ट्रपति

इस भाषण में उन्होंने अपने मित्र देशों के नेताओं की चिंताओं को भी दूर करने की कोशिश की। उनका कहना था,-

"मैं अपने मित्र देशों और साझेदार देशों के नेताओं से कहना चाहूँगा कि अगर किसी विषय पर मुझे उनकी सोच के बारे में जानना होगा तो मैं फ़ोन उठाकर उनसे बात कर लूँगा, न कि उनकी ख़ुफ़िया निगरानी करूँगा।"

ओबामा ने अपने भाषण में एनएसए कॉन्ट्रेक्टर एडवर्ड स्नोडेन का भी ज़िक्र किया जिन्होंने रूस में पनाह ले रखी है और जिनकी लीक की हुयी जानकारी से ही ये पूरा हंगामा शुरू हुआ। उनका कहना था कि स्नोडेन ने जिन दस्तावेज़ों को सनसनीख़ेज़ तरीके से लीक किया, उनकी वजह से कई अमरीकी कार्यक्रमों पर आने वाले कई सालों तक असर पड़ेगा। नागरिक अधिकारों के लिये काम करने वाली संस्थाओं ने जहाँ इन सुधारों का स्वागत किया है, वहीं उनका कहना है कि कई ऐसे पहलू हैं जिन पर और ठोस सुधार लागू किए जा सकते थे और अगर ऐसा नहीं हुआ तो इस पूरे कार्यक्रम पर ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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