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Monday, June 24, 2013

आंबेडकरी आरक्षण के खात्मे के लिए: नव साम्राज्यवाद का स्वागत एच एल दुसाध

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-20

आंबेडकरी आरक्षण के खात्मे के लिए: नव साम्राज्यवाद का स्वागत

                                                       एच एल दुसाध  

प्राचीन काल में देवासुर संग्राम के बाद वर्ण-व्यवस्था के जिस अर्थतंत्र पर हिन्दू-साम्राज्यवाद शिखर पर पहुंचा और परवर्तीकाल में  दो नव-साम्राज्यवादियों –इस्लामिक और ब्रितानी- के प्रभुत्व के बावजूद भी अटूट रहा एवं जिसके विरुद्ध आधुनिक युग में सशस्त्र संग्राम प्लासी से शुरू हुआ था,उसके ध्वंस का जबरदस्त सामान मंडलोत्तर भारत में जुटा.दलितों को वितरणहीनता  से निजात दिलाने के दूरगामी लक्ष्य को लेकर कांशीराम ने वर्ण-व्यवस्था में वितरणशून्यता का शिकार बनाई गई जातियों की जातिचेतना का राजनीतिकरण करने की जो प्रक्रिया शुरू की ,मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद उसमे भारी उछाल आ गया.तब 6000 कलहरत जातियों के  मध्य आरक्षण के साझा स्वार्थ के कारण जबरदस्त भाईचारा पैदा हुआ.भाईचारे का मतलब हिन्दू साम्राज्यवाद के सुविधाभोगी वर्ग के खिलाफ तीव्र आक्रोश.सदियों की वर्ण-व्यवस्था के वंचना की पीड़ा बहुजनों में इस कदर पूंजीभूत हुई कि शासक जातियों के लिए चुनाव जीतकर सत्ता में जाना दुष्कर हो गया.जो आरक्षण वंचितों की एकता का आधार बनकर हिदू साम्राज्यवादियों की सत्ता की जमीन दरकाना शुरू किया,उसके खिलाफ  तरह-तरह के दाह से लेकर धर्म तक के हथियार का प्रयोग हुआ ,पर सबसे कारगर रही चाणक्य नीति.

अटलजी जिन्हें  आदर से गुरुघंटाल कहते रहे ,वे नरसिंह राव जी किन्तु आधुनिक भारत के चाणक्य के रूप में मशहूर रहे.मंडल के बाद सत्ता में आनेवाले आधुनिक चाणक्य ने मंडलवादी –आरक्षण के विरोध का दृष्टिकटु प्रदर्शन न करते हुए चाणक्य नीति का अवलंबन किया.प्राचीन चाणक्य ने रास्ते में पड़ी कंटीली घास (कुश) को ऊपर से न काटकर उसके समूल नष्ट करने का मन्त्र अपने वंशधरों को दिया था.आधुनिक चाणक्य ने उसी प्राचीन चाणक्य नीति का अनुसरण हिन्दू –आरक्षण के मखमली मार्ग में उभरी कंटीली घास (अम्बेडकरी आरक्षण) का समूल नष्ट करने की परिकल्पना की.क्योंकि संयोग से उन्हें भूमंडलीकरण की अर्थनीति नामक मट्ठा मिल गया था जिसका प्रयोग उन्होंने 24 जुलाई 1991 से करना शुरू किया.ऐसा करते देख दलित बुद्धिजीवियों का माथा तो ठनका ,पर अटलजी के हाथों में सत्ता की बागडोर जाते देख वे आश्वस्त हो गए क्योंकि उन्हें लगा स्वदेशी के परम हिमायती राष्ट्रवादी अटलजी मट्ठे का प्रयोग नहीं करेंगे.लेकिन सत्ता में आते ही अटलजी गुरुघंटाल को बौना बनाने में जुट गए.उन्हें डर  था कि पक्ष-विपक्ष में बैठे आरक्षित वर्गों के संख्या गरिष्ठ सांसद,कहीं कंटीली घास की रक्षा के लिए उन्हें खुद ही सत्ताच्युत न कर दें.इसलिए अपनी पहली बार की 13 दिवसीय पाली में एनरान को वरदान देनेवाले अटलजी केंद्र की सत्ता में दुबारा आते ही सबसे पहले 1429 वस्तुओं पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिए जबकि इसे टाले रखने का उनके पास दो साल का और समय था.अपने गुरु घंटाल के अधूरे पड़े काम को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए उन्हें जरुरत थी किसी ऐसे शख्स की जिसके दिलों में आरक्षण शूल की भांति चुभ रहा हो.ऐसे व्यक्ति के रूप में उनदिनों अरुण शौरी से बेहतर कोई और नहीं था.वार्शिपिंग फाल्स गॉड के प्रकाशन के बाद दलितों से मिले लांक्षन और अपमान का बदला लेने के लिए शौरी भी मौके की ताक में थे.अतः दलितों की भावना की पूरी तरह अनदेखी करते हुए अटलजी ने शौरी को अपनी टीम में शामिल करने में जरा भी बिलम्ब नहीं किया.आरक्षण के खात्मे के लिए शौरी जैसे जहीन व्यक्ति का चयन अटल का कितना निर्भूल निर्णय था,इसका साक्षी राजग काल इतिहास है.

वास्तव में भूमंडलीकरण एक वैश्विक परिघटना होने के बावजूद मंडलोंत्तर भारत में जिस तरह इसके विरोध में सारी  हदें तोड़नेवाले महान नेताओं तक ने इसे लागु करवाने में भारी तत्परता दिखाया ,उसे एक साजिश से भिन्न देखना उसका सरलीकरण करना होगा.इस विषय में प्रसिद्ध समाज विज्ञानी रजनी कोठारी ने उन दिनों एक बहुत ही सटिक  टिपण्णी की थी .उन्होंने कहा था-''जनता अपनी तरफ से राज्य पर दबाव डाल रही है कि वह ऐसा न करे.यह दबाव जातीय और क्षेत्रीय आन्दोलनों के साथ-साथ लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए चलाये जा रहे वर्ग और जाति आधारित संघर्ष के रूप में देखा जा रहा है.पर,समस्या यह है कि इसी समय राज्य की बागडोर सम्भालनेवालों ने तक़रीबन नियोजित रूप से अपनी पकड़ ढीली कर दी है.सामाजिक और क्षेत्रीय दायरे के प्रति उनका सरोकार कम पड़ गया है.एक तरफ राज्य की पुनर्संरचना होने की कोशिश हो रही है,दूसरी तरफ राज्य अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से मुंह चुरा रहा है.''

बहरहाल रजनी कोठारी ने उनदिनों जो संकेत किया की राज्य ने नियोजित रूप से अपनी पकड़ ढीली कर दी;संवैधानिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराना शुरू किया और भूमंडलीकरण की दौर में इच्छाकृत रूप से कमजोर हो गया ,वह सिर्फ और सिर्फ आरक्षण के खात्मे के लिए किया गया था.इसमें वाजपेयी एंड कम्पनी का कमज़ोर पड़ना काफी हैरानी की बात रही .कारण वे लोग भूमंडलीकरण  के कुप्रभाओं से देश को आगाह करते  हुए 1980 के दशक से ही स्वदेशी के सबसे बड़े पैरोकार दत्तोपंत ठेंगड़ी के नेतृत्व  शोर मचाते हुए कहते रहे- अब जो आर्थिक स्थितियां और परिस्थितयां बन या बनने जा रही हैं ,उसके फलस्वरूप देश आर्थिक रूप से विदेशियों का गुलाम बन जायेगा .तब हमें राजनीतिक आजादी की तरह आर्थिक आज़ादी का दूसरा स्वातंत्र्य युद्ध लड़ना पड़ेगा.''

किन्तु वही राष्ट्रवादी जब सत्ता में आये तो बकायदे विनिवेश मंत्रालय खोलकर सरकारी उपक्रमों को औने-पौने दामों में बेचना शुरू किये .यहाँ तक कि उनके निशाने पर सुरक्षा तक से जुड़े सरकारी उपक्रम भी आ गए.ऐसा क्यों कर हो गया कि जो राष्ट्रवादी अस्सी के दशक में विदेशियों द्वारा आर्थिक रूप से गुलाम बनाये जाने की आशंका से मरे जा रहे थे ,वे ही सत्ता में आने पर वैसी परिस्थितियों के निर्माण में जुट गए.इसका कारण और कुछ नहीं भारतीय इतिहास की वह अभ्रांत सचाई रही कि भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है.आरक्षण पर संघर्ष के चलते जो मुल्क सहस्राधिक वर्षो तक मुसलमान और ईसाईयों का गुलाम रहा,21 वीं सदी में भी उसी के चलते एक बार फिर आर्थिक रूप से विदेशियों का बनाना अवधारित है.आज भारत की भावी आर्थिक स्थिति के विषय में बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं.कहा जा रहा है कुछ दशकों के मध्य ही भारत आर्थिक क्षेत्र में विश्व शक्ति बनाने जा रहा है.मूर्खों के स्वर्ग में वास करनेवाले हमारे अर्थशास्त्री और बुद्धिजीवी भविष्य की अप्रिय तस्वीर देख कर भी आँखे मूंदे हुए हैं.सच तो यह है कि आनेवाले कुछ दशकों  के मध्य ही देश के सार्वजानिक उपक्रम स्वदेशी उद्यमियों के हाथों होते हुए बहुराष्ट्रीय निगमों के स्वामित्व में चले जायेंगे और हमारे उद्योगपति मैनुफक्चरर्स से ट्रेडर्स में तब्दील हो  जायेंगे तथा बचे-खुचे कुटीर उद्योग हो जायेंगे पूरी तरह निष्प्राण .उस समय तक जमींदारी उन्मूलन के सहारे भूस्वामी बने पिछड़े भी अपनी जमीनें विदेशी जमींदारों को बेंचकर कृषि मजदूर के रूप में कार्य करने की मानसिकता विकसित कर चुके होंगे.तब क्रीम विदेशी ले जायेंगे और उनके छोड़े हुए जूठन पर कब्ज़ा ज़माने के लिए कलहरत हिन्दुस्तानी आपस में संघर्ष करेंगे.इन सारी परिस्थितियों के लिए जिम्मेवार होगी हिन्दू आरक्षणवादियों  की स्वार्थपरता जिन्होंने अम्बेडकरी आरक्षण के खात्मे के लिए नव-साम्राज्यवाद का मार्ग प्रशस्त किया है.

मित्रों!आप जानते हैं कि मार्क्सवादियों ने 12-16 मार्च 2013 तक चंडीगढ़ के भकना भवन में  एक संगोष्ठी आयोजित कर  'जाति  उन्मूलन की समाजवादी परिकल्पना' पर चर्चा कराइ थी.जिन मार्क्सवादियों ने हमेशा जाति के प्रश्न की अनदेखी की उनका उसके उल्मूलन की परिकल्पना प्रस्तुत करना,मैं नहीं जानता आपको कैसा लगा पर, मुझे तो बहुत ही हास्यास्पद लगा.किन्तु यह भारत है जहाँ लोकतंत्र है और जिसमें  कम्युनिस्ट देशों की तरह किसी को अपना विचार रखने की मनाही नहीं है.खैर मार्क्सवादियों ने उस संगोष्ठी में अपने चिरपरिचित बौद्धिक अहंकार के साथ अपनी जो बात रखी ,वह नागवार लगने के बावजूद मैं उससे प्रायः निर्लिप्त रहा.किन्तु उन्होंने जिस तरह गौतम बुद्ध और बाबासाहेब आंबेडकर को ख़ारिज करने की साथ तथा उनका योग्य जवाब देनेवाले देश के सर्वाधिक सक्रिय दलित पत्रकार पलाश बिश्वास के प्रत्युत्तर का माखौल उड़ाया,मेरे लिए और खामोश रहना संभव नहीं रहा.मैंने  उनके उस बौद्धिक दु:साहस का माकूल जवाब देने के लिए 'हिन्दू साम्रज्यवाद की ढाल:मार्क्सवादी'शीर्षक से आपके नाम एक अपील 20 मार्च 2013  को जारी किया था.पर,आपने अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखाया,जिसके लिए आप से कुछ भी शिकायत है. मैंने उस अपील में लिखा था-हालाँकि इनसे(मार्क्सवादियों) लड़ाई करना कठिन है .कारण, इन्होंने जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थान से लेकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया तक में गहरी पैठ बना ली है.पर,चूँकि इनके इरादे कुत्सित तथा लक्ष्य भारत के जन्मजात शोषकों (सवर्णों)का हित पोषण है,इसलिए थोड़ी सी बौद्धिक कवायद के द्वारा इनको वैचारिक रूप से ध्वस्त किया जा सकता है.इसके लिए इनकी सीमाओं को पहचानना जरुरी है.'

बहरहाल मित्रों मैं यह छिपाऊंगा नहीं कि मार्क्सवाद की प्रयोगभूमि पश्चिम बंग में  लगातार 33 साल रहकर नियमित रूप से मार्क्सवादियों का बौद्धिक दम्भ चाक्षुष करते रहने के कारण मेरे मन में उनके लिए अपार घृणा रही है.ऐसे में जिस तरह उन्होंने चंडीगढ़ में आंबेडकर और बुद्ध को खारिज किया मुझे उनको योग्य जवाब देने तथा जाति उन्मूलन का मार्क्सवादी (समाजवादी )की जगह अम्बेडकरवादी परिकल्पना प्रस्तुत करने का संकल्प लेना पड़ा और 27 मार्च से जवाब देना शुरू किया .मेरा  प्रत्युत्तर अब समाप्ति पर है.मौजूदा लेख श्रंखला का बीसवां लेख है और अगले दो तीन अंको में यह पूर्ण हो जायेगा.उसके बाद मार्क्सवाद और भारतीय मार्क्सवादियों से जुड़े दस सवाल आपके साक्षात्कार के लिए भेजूंगा.आपका जवाब आने पर उम्मीद करता सितम्बर में यह सब पुस्तक के रूप में सामने आ जाएगा.

जाति उन्मूलन की अम्बेडकरवादी परिकल्पना प्रस्तुत करने में पूर्व मैंने बहुजनवादी नज़रिए भारत में वर्ग संघर्ष के इतिहास को ब्याख्यायित करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि सदियों से भारत में संघर्ष वर्ण-व्यवस्था के सुविधाभोगि और  वंचित,दो वर्गों के मध्य होता है और संघर्ष का मुख्य मुद्दा रहा है आरक्षण .बहरहाल प्रस्तुत लेख के आधार पर निम्न शंकाएं आपके समक्ष  रख रह हूँ-                         

1-बहुत से लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरसिंह की बाबरी ध्वंस में कही मूक सहमती रही .इसके पीछे उनकी मंशा थी की न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.वही नरसिंह राव जब मंडल रपट प्रकाशित होने के बाद सत्ता में आये तो 24 जुलाई 1991 को भारत को भूमंडलीकरण की धारा में शामिल करने का ऐतिहासिक फैसला ले लिए.आरक्षित वर्ग के  बुद्धिजीवियों का मानना रहा है उसके पीछे उनकी दूरगामी रणनीति आरक्षण को  सिर्फ कागजों  तक सिमटा देने की थी.आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?

2- स्वदेशी जागरण मंच के जरिये राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े लोग अस्सी के दशक से ही यह प्रचार चला रहे थे की आनेवाले दिनों में राजनीतिक आज़ादी की भांति ही विदेशी प्रभुत्व से देश को मुक्त करने के लिए आर्थिक आज़ादी की लड़ाई लड़नी पड़ सकती है .किन्तु जब स्वयंसेवी प्रधानमंत्री सत्ता में आये तो उन्होंने डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संघ) की अर्थनीति लागू करने में कांग्रेसी नरसिंह राव से भी ज्यादे तत्परता दिखाई.दलित बुद्धिजीवियों को अटलजी की उस तत्परता के पीछे आरक्षण के खात्मे की ही परिकल्पना नज़र आई थी.आप बतावें क्या दलित बुद्धिजीवियों का वैसा सोचना गलत था?

3-देश की दोनों प्रमुख सवर्णवादी पार्टियों(कांग्रेस और भाजपा) ने मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के बाद आरक्षण के खात्मे लायक आर्थिक नीतियाँ बनाकर देश को आर्थिक रूप से विदेशियों का गुलाम बनाने लायक जो हालात पैदा किया ,उसके आधार पर क्या दावे से नहीं कहा जा सकता कि भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है तथा जिस तरह  250 साल पूर्व सवर्णों के आरक्षण से इर्ष्याकातर होकर अस्पृश्यों ने 1757 के प्लासी-युद्ध के रास्ते ब्रितानी साम्राज्यवाद का मार्ग प्रशस्त किया  कुछ वैसे  ही मंडल के दिनों में अम्बेडकरवादी आरक्षण के विस्तार से जल-भुनकर सवर्णवादी कांग्रेस-भाजपा ने नव-साम्राज्यवाद के हित में किया है ?

तो मित्रों आज इतना ही ,मिलते हैं कुछ दिन बाद कुछ और शंकाओं के साथ .

24 जून 2013  

        


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