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Wednesday, June 12, 2013

भाजपा का मूसलयुद्ध

भाजपा का मूसलयुद्ध

Wednesday, 12 June 2013 09:58

अरविंद मोहन 
जनसत्ता 12 जून, 2013: गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को कार्यकर्ताओं की इच्छा और उससे भी बढ़ कर उनकी खुद की महत्त्वाकांक्षा के चलते भाजपा की चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाने का फैसला करते समय पार्टी के नेताओं को ही नहीं, किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि बीमार घोषित बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी अगले ही दिन मोदी के साथ भाजपा की भी मिट्टी पलीद कर देंगे। वे उम्रदराज हैं। पार्टी के अंदर काफी हद तक अकेले पड़ गए थे। जिन्ना वाले बयान के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनको किनारे करने में लगा था और स्वयं नरेंद्र मोदी उनकी परवाह करना छोड़ चुके थे। 
आडवाणी चुनावी कमान मोदी को देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने एक और समांतर पद बना कर नितिन गडकरी को उसकी जिम्मेदारी देने का सुझाव दिया था, जिसे गडकरी और पार्टी दोनों ने ठुकरा दिया। उन्होंने मोदी के मुकाबले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खड़ा करने का प्रयास किया, लेकिन वे भी इसके लिए तैयार नहीं थे। फिर बीमारी और ब्लॉग के जरिए भी उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की, पर भाजपा और संघ के नेतृत्व ने कोई परवाह नहीं की। तब पार्टी को बनाने वाले इस नेता ने अपने इस्तीफे से सबको अपनी हैसियत का अंदाजा करवा दिया। 
एक दिन पहले तक जो नेता उनको कोई तवज्जो नहीं दे रहे थे, अगले ही दिन उनको जैसे सांप सूंघ गया। आडवाणी के इस दांव में वक्त के चुनाव के अलावा कुछ खास नया नहीं था। और यह अवसर भी उन्हीं लोगों ने बना दिया, जो उनसे राजनीति सीख कर उनको पटखनी देना चाहते थे।
एक रोज बाद ही आडवाणी इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी हो गए, संघ की सलाह और संसदीय बोर्ड के अनुरोध पर। मगर हर आदमी यही जानना चाहता था कि आडवाणी ने ऐसा क्यों किया। उनके सबसे करीब मानी जाने वाली सुषमा स्वराज ने भी यही कहा कि आडवाणी जी ने इस फैसले की भनक भी नहीं दी थी। बाकी सब तो अंदाजा ही लगा रहे हैं, जबकि सबको पता है कि उन्होंने क्यों फैसला किया। पर आज कोई यह बात कहने का साहस नहीं कर रहा है कि वे अपने लिए पद के महत्त्वाकांक्षी हैं, वे 'एक्सपायर्ड दवा' हैं, वे दादाजी हैं, उन्हें अब संन्यास ले लेना चाहिए। क्या सब जान कर अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं! अब ऐसा नहीं है कि 1942 में संघ की शाखा में जाना शुरू करने वाले आडवाणी के लिए पिछले सत्तर साल में सब कुछ उनके मन मुताबिक ही हुआ हो और किसी फैसले से उनकी असहमति न रही हो। ऐसे हजारों फैसले होंगे और आडवाणी उन सबको मानते हुए यहां तक आए हैं और पार्टी को भी यहां तक ले आने में बड़ी भूमिका निभाई है। 
असल में आठ और नौ जून को गोवा और दिल्ली में जो कुछ हुआ वह सिर्फ एक राजनीतिक फैसला और पार्टी कार्यकर्ताओं के सबसे पसंदीदा नेता को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बना देना भर नहीं था। यह न तो कोई संवैधानिक पद है न पार्टी के अंदर इसका कोई विधान है। और यह भी नहीं हो सकता कि यह फैसला बिना पूर्व परामर्श के हुआ हो। संभव है आडवाणी को नरेंद्र मोदी को आगे करने का फैसला रास न आया हो। पर गोवा में मोदी को आगे करने का फैसला ही नहीं हुआ, आडवाणी को हाशिये पर और अपमानित करने का काम भी हुआ। दिल्ली में उनके घर के बाहर दादाजी विश्राम करो जैसे नारे लगे। मोदी ने कैसे 'जीत' मनाई यह सबने देखा और यह सब आडवाणी के जले पर नमक छिड़कने जैसा ही था।
उनके इस्तीफे के बाद सभी नेता दिल्ली में जुटे, पर मोदी ने दिल्ली आना और उनका आशीर्वाद लेना गवारा नहीं किया। फिर यह खबर भी साथ ही चली कि संघ और मोदी किसी किस्म के समझौते और झुकने को तैयार नहीं हैं। यह भी संभव है कि किसी ने उनकी तबीयत के बारे में पूछे बगैर घोषणा कर दी हो। जिस किस्म के बयान मोदी समेत कई भाजपा नेताओं के आ रहे थे उसमें ऐसी घोषणा गलतबयानी का एक अंश भर है। 
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने तत्काल आपात बैठक करके उनके इस्तीफे को नामंजूर किया। जो राजनाथ सिंह चुनाव अभियान समिति का प्रमुख मोदी को बनाने के अपने फैसले को अपने जीवन का सबसे बड़ा और सुखद फैसला बता रहे थे वही आडवाणी का इस्तीफा किसी भी कीमत पर न मानने की घोषणा कर रहे थे। अब मसला यह है कि आडवाणी इस्तीफा वापस लेने को राजी हुए हैं तो किन शर्तों पर। 
यह संभव नहीं है कि भाजपा नरेंद्र मोदी को चुनने का फैसला पलट दे। यह हो सकता है कि विधानसभा चुनावों के लिए कोई और समिति बना कर मोदी के समांतर किसी आडवाणी-भक्त को बैठा दिया जाए। यह चर्चा भी उड़ी कि आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष बना दिया जा सकता है। पर वैसी सूरत में मोदी पार्टी में रह पाएंगे, कहना मुश्किल है। 

आडवाणी ने इस्तीफा भले वापस लेने का संसदीय बोर्ड का अनुरोध मान लिया हो, वे पुन: भाजपा की राजनीति के केंद्र में नहीं आ सकते। पर भाजपा का उन्होंने काफी नुकसान कर दिया है। संघ समेत उनके विरोधियों का पार्टी पर कब्जा हो चुका है और उनके अपने काफी सारे लोग भी पाला बदल चुके हैं। 
यों प्रदेशों में भाजपा कई बार टूट चुकी है- कर्नाटक का उदाहरण सबसे नया है। पर यह भी सही है कि भाजपा (और कांग्रेस से भी) से जो बाहर गया बहुत सफल नहीं हो पाया है। लालकृष्ण आडवाणी कर्नाटक के लिंगायत नेता येदियुरप्पा जैसी भूमिका में आ जाएंगे यह अटकल लगाने वाले भी थे। पर आडवाणी ने कदम पीछे खींचे तो इसमें ज्यादा हैरत की बात नहीं है।
इतना जरूर है कि अपने इस्तीफे से उन्होंने भाजपा के मौजूदा नेतृत्व और नरेंद्र मोदी की 'सत्ता' को काफी हद तक ध्वस्त कर दिया है। उनके इस्तीफे ने अव्वल तो मोदी के समर्थन में आ गई पार्टी को शीर्षासन करा दिया। फिर जद (एकी) को सांस लेने और मजबूती से मोदी का जवाब देने का अवसर दे दिया है, वरना मोदी पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले नीतीश और उनकी पार्टी को भाजपा ने ठीक से घेर लिया था। इसमें महाराजगंज उपचुनाव के नतीजे ने भी अपनी भूमिका निभाई थी। पर आडवाणी का इस्तीफा आते ही जद (एकी) नेताओं के तेवर तीखे बदल गए। शरद यादव ने राजग के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया। 
तीसरी चीज यह हुई है और आगे भी होगी कि एक बार मोदी की चमक उतरने और उनके इकबाल को इतनी साफ  चुनौती मिलने के बाद उन प्रदेशों के क्षत्रप भी मजे से उनके 'डिक्टेट' को लेने से इनकार कर देंगे, जहां अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। वसुंधरा राजे की कार्यशैली पिछली दफा राजनाथ सिंह के लिए ही सबसे बड़ा सिरदर्द बनी थी और उन्होंने गडकरी को भी कटारिया की यात्रा के सवाल पर पानी पिला दिया था। और अगर कहीं राजग को बचाने को भाजपा ने प्राथमिकता दी और आडवाणी की राजी-खुशी से मायने रखने लगी तो मोदी का गुब्बारा पूरा फूलने के पहले ही फट जाएगा।
मोदी और अभी के अधिकतर भाजपा नेता तो आडवाणी की ही 'रचना' हैं, सो उनके नाम पर आडवाणी के भड़कने को निजी कुंठा और अब भी सत्ता का मोह न छूटना बताने में संघ का हजार मुखों वाला दुष्प्रचार तंत्र पीछे नहीं रहेगा। उनके पछतावे और बार-बार की रथयात्रा की चर्चाएं पहले संघ परिवार की तरफ से आती रही हैं। 
आजकल ब्लॉग और सोशल मीडिया में यही चर्चा छाई हुई है। मान-मनौवल के बीच उनकी परवाह न करने और उनकी उपेक्षा करने जैसी चर्चाएं भी आने लगी हैं। और यह भी साफ दिखता है कि इस मान-मनौवल में आडवाणी के घर जुटने वाले लोग और हैं, राजनाथ सिंह के घर जुटने वाले और। बहुत कम लोग हैं, जो दोनों घरों पर आते-जाते दिखते हैं। बीच-बचाव में एस गुरुमूर्ति और राकेश सिन्हा जैसे 'बाहरी' लोग ही प्रमुख बने हैं। साफ है कि पार्टी में लकीरें खिंच चुकी हैं। इसमें रोज पाला बदलने वाले होंगे, पर उनसे पंचायत नहीं कराई जा सकती। जब तक दोनों पक्षों का भरोसा न हो, पंच का मतलब ही नहीं बनता। आज जद (एकी) और शिवसेना जैसे सहयोगी भी पंचायत करने की स्थिति में नहीं हैं।
आडवाणी की राजनीति से कभी भी सहमति न रखने वाले इस लेखक जैसे काफी सारे लोगों का मानना है कि दुष्प्रचार अपनी जगह है, पर जो बातें आडवाणी ने अपने इस्तीफे में उठाई हैं उनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा अपने राजनीतिक दर्शन और 'पार्टी विद ए डिफरेंस' की स्थिति से नीचे गई है और हर नेता अपने-अपने निजी एजेंडे से काम कर रहा है। इस काम में नरेंद्र मोदी अव्वल हैं तो राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और संघ के शीर्ष वाले लोग भी अलग नहीं दिखते। सब कुछ जान कर ये सभी छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए उनका साथ देने लगे हों तो चाहे आडवाणी हों या कोई और, अगर वह कुछ बुनियादी सच्चाइयों की तरफ ध्यान दिलाता है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। 
आज कांग्रेस और भाजपा में अर्थनीति, विदेश नीति और शासन के तरीके में क्या फर्क रह गया है? स्वदेशी को छोड़ कर कांग्रेस से भी ज्यादा विदेशपरस्त अर्थनीति और अमेरिकापरस्त विदेश नीति अपनाने के बाद अब अगर राजनाथ सिंह को स्वदेशी और सर्वोदय की याद आती है तो यह एक दिखावे से अलग क्या हो सकता है? मोदी अस्सी फीसद रोजगार देने के झूठ पर तालियां बटोरने लगें तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। और सबसे बड़ी बात यह है कि अगर मोदी को आगे करने और इस शैली में आगे करने से विपक्षी अभियान कमजोर होता है, भ्रष्टाचार से दागदार यूपीए को फिर से शासन में लौटने का अवसर मिल जाता है तो यह विडंबना ही होगी।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/46752-2013-06-12-04-30-10

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