टेलिविज़न की बायलाइन
अख़बारों की तरह टीवी ने भी बायलाइन की मर्यादाएं कभी तय नहीं कीं, न न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन ने खुद कीं, न प्रेस कौंसिल को ही कोई मतलब था
जगमोहन फुटेला/ अख़बार के लिए बायलाइन बनी कि बायलाइन के लिए अख़बार, पता नहीं. लेकिन उस का अर्थ तो अनर्थ होने की हद तक होता ही रहा है. इस लिए ये बहस भी अब व्यर्थ है कि क्या नाम खुद खबर से भी बड़ा है!
लेकिन नारायण परगाईं ने उस बहस को एक नया नाम और आयाम दिया है. मैं अपनी बात करूं तो बहुत सी स्मृतियां सजीव हो आई हैं. संदीप यश मेरे देखते देखते वो पहला टीवी पत्रकार था जो चलते चलते 'पीस टू' करने लगा था. लेकिन कहानी तो बहुत पीछे से शुरू होती है.
सुना है खबर पे नाम चढ़ाने की परंपरा इंग्लैंड से शुरू हुई. राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी भी अपने नाम से खबरें लिखते रहे हैं. लेकिन मेरा मानना ये है कि खबर पे नाम उस दाम के बदले भी दिया गया है जो कि अन्यथा अख़बार को देना पड़ता. काम नाम देने से हो जाए तो दाम कौन दे? ऐसे ऐसे अख़बार हो गए जो एक एक खबर में दस दस नाम देने लगे. मुझे आज भी याद है कि जब पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को मानव बम के ज़रिए सचिवालय में ही मार गिराया गया तो पंजाब के एक बड़े हिंदी अख़बार ने छापा कि फलां रिपोर्टर के मुताबिक़ वहां से बरामद कार का रंग सफ़ेद, फलां के मुताबिक़ काला, फलां के मुताबिक़ हरा और फलां के मुताबिक़ नीला था. कोई ऐसा रंग नहीं छोड़ा अख़बार ने कि जो लिख न दिया हो. उस ने पक्का इंतजाम कर दिया था कल को ये लिखने का कि उस ने तो पहले तो कह दिया था कि कार रंग क्या था!
मुझे डा. मेहर सिंह की याद आती है. बुखार की शिकायत ले के आये किसी भी मरीज़ को वे कम से कम चार तरह की पुड़िया दिया करते थे...आज इस की तीन खुराकें ले लेना, कल तक ठीक न हो तो इस की. न उतरे तो ये और और वो भी काम न करे तो फिर चार नंबर वाली पुड़िया से तीन खुराकें. और फिर भी ठीक न हो सरकारी अस्पताल में दिखा लेना. मलेरिया, निमोनिया सब तरह की दवा का दाम होता था मात्र दस रूपये. सुबह से शाम तक दो सौ मरीज़ मामूली बात थी. अब इस दस में से एक चवन्नी आप कुनेन की गोलियों की निकाल लें तो दस जमा दो सौ के हिसाब से साढ़े नौ सौ रुपए रोज़ उन के तब भी बन जाते थे जब नई मारुती कार अस्सी हज़ार में आ जाती थी. अखबारों ने अपने संवादाताओं को दी जाने वाली बायलाइन भी कुनेन की गोली की तरह बेची. कुछ इस इफ़रात से कि बायलाइन के नशे में रिपोर्टर सप्लीमेंट ले ले के आते रहे. ऐसा नशा था बायलाइन का कि रिपोर्टर कुछ ले के जाने की बजाय दे के ही जाता रहा.
हां, कुछ अंग्रेजी अख़बारों ने ज़रूर बायलाइन रिपोर्टर की बजाय खबर देख के दी. लेकिन टीवी जब आया तो अखबारों से आये रिपोर्टरों को लगा कि कैसे बताएं अपने उन पुराने सूत्रों और नेताओं को कि वो वही फलां अख़बार वाला पत्रकार है जिसे उस की आतुर निगाहें आज भी ढूंढती होंगी. खबर के अंत में नाम जाना शुरू हुआ...फलां कैमरामैन के साथ फलां चैनल के लिए मैं फलां.
अब इस में भी एक दिक्कत हो गई. नाम एक, इनाम एक, मगर लिफ़ाफ़ा उसी नाम के दूसरे रिपोर्टर के घर पंहुचने लगा. ये भी हुआ कि अच्छा काम आप कर रहे हो, बधाई आप की नामराशि को जा रही है. मसला खड़ा हुआ तो मांग भी उठी. भाई लोगों ने कहा कि नाम काफी नहीं, शक्ल भी दिखनी चाहिए. हालांकि शक्ल के मामले में कुछ कमज़ोर रिपोर्टरों को इस पे ऐतराज़ भी था. लेकिन खूबसूरती को पर्दों की सीमाओं में बाँध कौन पाया है? और उस की ज़रूरत भी हो तो फिर तो रोकता ही कौन? 'पीस टू कैमरा' होने लगा...और वो होने ही लगा तो उस में प्रयोग और दुरुपयोग भी.
मेरे साथ एक चैनल में ऐसी लड़की थी जो किसी कालोनी में कोई स्टोरी करने जाती तो खटिया के साथ बंधे तौलिए में लेटे बच्चे को हिलाते डुलाते पीस टू करने लगती. उस का ये भी तर्क था कि कालोनी जैसी जगह पे खुद रिपोर्टर को भी साफ़ सुथरे कपडे पहन के नहीं जाना चाहिए. वो ऐसे ऐसे कपड़े पहन के आने लगी थी कि नज़र उठा के उस की तरफ देखने में मुझे शर्म आने लगी थी. वो आड़ी स्ट्राइप वाले ऐसे ऐसे टॉप पहन के आफिस आने लगी थी कि उस के 'पीस टू' वाली ख़बरों पे 'केवल वयस्कों के लिए' लिखना ज़रूरी लगने लगा था. उसे जब वो सब करने से मना किया गया तो नीचे से ऊपर तक सब को गालियां बकने के बाद उस ने मेरे खिलाफ़ भद्दा एसएमएस भेजने की झूठी रिपोर्ट लिखा दी थी. हालांकि वो झूठी साबित होने पर उस ने माफियां भी मांगी.
ये सब होते हवाते अलग किस्म के 'पीस टू' की हवस तो जारी रही. लोग पहाड़ों पे चढ़ और पानी में उतर कर पीस टू करते रहे. मैंने भैंस की पीठ पे चढ़ के पीस टू करते रिपोर्टर देखे. अख़बारों की तरह टीवी ने भी बायलाइन की मर्यादाएं कभी तय नहीं कीं. न न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन ने खुद कीं. न प्रेस कौंसिल को ही कोई मतलब था. सीमाएं जब खुद रिपोर्टरों को तय करनी थीं तो वे फिर किसी भी हद तक जा सकते थे. गए और 'न्यूज़ एक्सप्रेस' के नारायण परगाईं की तरह बंदे बाढ़ को में खड़ा कर के उस की पीठ पे चढ़ गए. परगाईं को चैनल ने निकाल दिया. लेकिन नारायण परगाईं के एक मिसाल बन जाने के बाद भी ये विकृति का विनाश या विकल्प दोनों नहीं है. क्या करोगे जब कल कोई कोठों और वेश्यावृत्ति पे 'पीस टू' करने लगेगा?
(Journalist community.com से)
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