Friday, 29 March 2013 10:40 |
मणींद्र नाथ ठाकुर आम लोगों को लगता है कि उनके साथ धोखा हो रहा है। परमाणु ऊर्जा को सही ठहराया जा रहा है, वालमार्ट को गरीब किसानों के लिए लाभदायक बताया जा रहा है, बीटी बैंगन को स्वास्थ्यवर्धक साबित किया जा रहा है। अब वे कह रहे हैं कि देश के युवाओं को विश्वस्तरीय शिक्षा दी जाएगी। इस सब में फायदा किसका हो रहा है, समझना मुश्किल नहीं है। तो ऐसे राज्य पर क्या भरोसा हो सकता है। राज्य के प्रति जनता में इतना अविश्वास पहले कभी नहीं देखा गया था। इस बढ़ते अविश्वास का समाज पर क्या असर होगा यह समझना मुश्किल नहीं है। लोगों में गहरा अविश्वास और भय घर करता जा रहा है। किसी भी तरह से अपने भविष्य को सुरक्षित रखने की होड़ मची है। किसी भी तरह से धन कमा कर बाजार में अपनी जगह बनाए रखना ही जीवन का एकमात्र उद््देश्य हो गया है। नैतिक मूल्यों का अब कोई मतलब ही नहीं रह गया है। समाज में संघर्ष की स्थिति बनती जा रही है। ऐसे में अस्मिता की खोज में मनुष्य छद्म अस्मिताओं को वास्तविक मान लेता है और उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाता है। मनुष्य के स्वभाव में दस तत्त्व होते हैं- चार पुरुषार्थ (अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष) और छह विकार (ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह)। पहले चार तत्त्व मनुष्य को मानव-सुलभ गुण देते हैं। जबकि दूसरे छह तत्त्व उसे इस गरिमा से परे ले जाते हैं और उसके स्वभाव में विकृति पैदा करते हैं। किसी देश और काल में मनुष्य के स्वभाव में किन तत्त्वों की प्रधानता रहेगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी सामाजिक परिस्थिति क्या है। राज्य पर उठते भरोसे की वजह से मनुष्य के स्वभाव की विकृतियां ज्यादा प्रभावकारी हो जाती हैं। पूंजीवाद में मनुष्य इन दसों तत्त्वों को बाजार के लिए प्रयोग में लाता है। अगर राज्य अंकुश न रखे तो बाजार मनुष्य के विकारों को उकसा कर भी लाभ कमाने से नहीं चूकता। नवउदारवाद में राज्य की बदलती भूमिका ने न केवल बाजार को निरंकुश होने दिया है बल्कि अपनी सामान्य जिम्मेदारियों को निभाने में भी राज्य रुचि नहीं ले रहा है। आश्चर्य यह है कि राजनीतिक राज्य की विफलताओं से कोई सबक लेने के बजाय उन परदा डालने के तर्क गढ़ते रहते हैं। उन्हें लगता है कि जनता इतनी नादान है कि वे अपनी मंशा को इन दलीलों से छिपा सकते हैं। गौर करने की बात है कि अगर मनुष्य के स्वभाव की विकृतियां भी स्वाभाविक हैं, तो उनकी मर्यादित मात्रा में उपस्थिति ही उसे बहुआयामी और रोचक व्यक्तित्व प्रदान करती है। लेकिन अगर विकृतियां ही आदर्श बन जाएं तो समाज को चिंतित होना चाहिए। जैसे सिनेमा में खलनायक की महत्त्वपूर्ण भूमिका तो होती है, लेकिन जब खलनायक ही पूजनीय हो जाए तो समझना चाहिए कि संकट आसन्न है। नवउदारवादी नीतियां भारतीय समाज को इसी दिशा में धकेल रही हैं। छिछली आधुनिकता और पूंजीवाद के इस चरम उत्कर्ष पर भारतीय जनमानस खुद को ठगा-सा महसूस कर रहा है। ऐसे में अगर कोई फासीवादी नेतृत्व उभरता है तो उसे इसी परिस्थिति की उपज मानना होगा। उसके लिए इन नीतियों के पुरोधा जिम्मेवार होंगे। नवउदारवादी ताकतों ने फासीवाद का डर दिखा कर बहुत दिनों तक समाजवादियों और वामपंथियों को अपने साथ रखा ताकि उनकी ताकत कमजोर हो जाए। और अब आहिस्ता-आहिस्ता नवउदारवादी ताकतों का असली चेहरा नजर आने लगा है। भारतीय राज्य के मजबूत होने की जो दुहाई दी जा रही है वह वास्तव में प्रजातंत्र और पंूजीवाद के बिखरते रिश्तों की तरफ संकेत कर रही है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पूंजीवाद वक्त आने पर फासीवाद का भी सहारा ले सकता है। प्रजातंत्र के प्रति उसका मोह तब तक ही है जब तक प्राकृतिक संपदाओं का दोहन शांतिपूर्वक संभव हो। यह समझना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र को यहां तक लाने के लिए कौन जिम्मेदार है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41482-2013-03-29-05-10-41 |
Friday, March 29, 2013
किस ओर जा रहे हैं हम
किस ओर जा रहे हैं हम
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