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Saturday, March 30, 2013

आदिवासियों का पुनर्वास

आदिवासियों का पुनर्वास
(10:31:05 PM) 30, Mar, 2013, Saturday
कुछ दिन पूर्व कई अखबारों में छपी एक खास खबर पढ़कर उन लोगों को भारी राहत महसूस हुई होगी जो आदिवासियों की पुनर्वास समस्या को लेकर चिंतित रहते हैं। आहत पहुंचानेवाली वह खास खबर यह थी कि दामोदर घाटी परियोजना के लिए विस्थापित किये गए आदिवासियों को अब दामोदर घाटी निगम ने नौकरी देने की बात मान ली है। यह एक बहुत बड़ी खबर जिसके महत्व का आकलन करने के लिए हमें 60 वर्ष पूर्व के इतिहास में जाना पड़ेगा। काबिले गौर है कि 1953 में दामोदर घाटी परियोजना के लिए लगभग बारह हजार परिवारों से 41 हजार एकड़ जमीन इस शर्त पर ली गई थी कि जमीन के मुआवजे के अतिरिक्त प्रत्येक परिवार के ही एक सदस्य को नौकरी दी जायेगी। किन्तु नौकरी देना तो दूर निगम के अधिकारियों ने जमीन का मुआवजा तक सहजता से नहीं दियाष। बहरहाल मुआवजा तो जैसे तैसे मिला पर, पुनर्वास के नाम पर बारह हजार लोगों में सिर्फ 340 लोगों को ही नौकरी मिल पाई। इस बीच आठ हजार ऐसे लोगों को विस्थापित बताकर नौकरी दे दी गई जिनकी हकीकत में एक इंच भी जमीन परियोजना के प्रयोजन से नहीं ली गई थी।
हताश निराश आदिवासी अंतत: सुप्रीम कोर्ट के शरणापन्न हुए, जहां उनकी जीत हुई। किन्तु सर्वोच्च न्यायालय में जीत के बावजूद निगम के अधिकारियों ने उनका अधिकार नहीं दिया। लिहाजा सात साल पूर्व उन्होंने निगम में नौकरी का हक अर्जित करने के लिए ''घटवार आदिवासी महासभा'' के बैनर तले मैथन और पंचेत से लेकर कोलकाता और दिल्ली तक अविराम संघर्ष चलाया। पर, किसी भी तरह से बात बनती न देखकर उन्होंने 18 मार्च से परियोजना के बाहर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल करने की  घोषणा कर दी। इसका असर हुआ और धनबाद के उपायुक्त की मध्यस्थता में त्रिपक्षीय समझौते के हालात बने। समझौते के बाद आदिवासियों ने अपना प्रस्तावित आन्दोलन वापस लेने की घोषणा कर दी है। समझौते में तय हुआ है कि निगम के अधिकारी विस्थापित परिवारों के सत्यापन के लिए परियोजना हेतु ली गई भूमि का राजस्व के अभिलेखों में पड़ताल करेंगे। उधर विस्थापित अपने परिवारजनों के साथ मिल बैठकर उस सदस्य का नाम तय करेंगे जो नौकरी का पात्र होगा। समझौते पर अमल करने के लिए मध्यस्थता करने वाले उपायुक्त ने एक उपसमिति बना दी है जिसकी आगामी 23 अप्रैल को बैठक होगी एवं जिसमें समझौते के अमल की प्रगति पर समीक्षा होगी।
बहरहाल, दामोदर घाटी परियोजना से विस्थापित हुए आदिवासियों के संघर्ष के फलस्वरूप जो मौजूदा प्रगति दिख रही है उसके आधार पर आश्वस्त हुआ जा सकता है कि उस अंचल के आदिवासियों के पुनर्वास की समस्या हल हो जायेगी। लेकिन इससे राहत की साँस भले ही ली जाय, संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। अभी भी ढेरों ऐसे इलाके हैं जहां लगी परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए आदिवासियों के पुनर्वास की समस्या हल नहीं हो पाई है। इसके कारण तरह-तरह की समस्याओं का उद्भव हुआ जिसमें माओवाद का  उभार भी है। अत: अब जबकि यह साफ हो चुका है कि आदिवासियों के पुनर्वास का सही निराकरण न होने के कारण माओवाद सहित अन्य कई  समस्यायों का उद्भव हो रहा है, हमें उन कारणों की सही पड़ताल करनी होगी जो इसके समाधान में बाधक हैं। इसमें दामोदर घाटी परियोजना के विस्थापितों का पुनर्वास एक बेहतर दृष्टान्त साबित हो सकता है।
हम दामोदर घाटी के विस्थापितों की समस्या पर गंभीरता पर विचार करें तो यह साफ नजर आयेगा यह निगम के अधिकारी थे जिनके कारण नौकरी तो नौकरी विस्थापित आदिवासियों को जमीन का मुआवजा तक सही समय पर नहीं मिल पाया और नौकरी पाने लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट के द्वारस्थ होना पड़ा तथा जिन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर ऐसे आठ हजार लोगों को विस्थापित बताकर नौकरी दे दिया जिनकी एक इंच जमीन भी परियोजना के लिए नहीं ली गई थी। अगर अधिकारियों ने सयिता दिखाते हुए विस्थापितों को समय पर जमीन का मुआवजा दिलाने के साथ ही निगम में उनकी नौकरी का बन्दोवस्त कर दिया होता तो न तो उन इलाकों में माओवाद का प्रसार होता, न ही आज आदिवासी इलाकों में शुरू होनेवाली परियोजनाओं पर ग्रहण ही लगता। इस तथ्य से आज एक बच्चा भी वाकिफ है कि मुख्यत: विस्थापित आदिवासियों के पुनर्वास की समस्या के जरिये ही माओवादियों ने आदिवासी इलाकों में अपना वर्चस्व स्थापित किया और बाद में वे नई-नई परियोजनाओं का यह कहकर विरोध करने लगे कि इससे आदिवासियों का विस्थापन और शोषण होता है। अगर परियोजनाओं के अधिकारी विस्थापितों के पुनर्वास समस्या का सही तरह से निराकरण किये होते आज माओवादी नई परियोजनाओं के निर्माण में एवरेस्ट बनने का कतई मौका नहीं पाते। बहरहाल, यहां लाख टके का सवाल पैदा होता है कि पढ़े-लिखे अधिकारियों ने अंजाम से वाकिफ होने के बावजूद विस्थापित आदिवासियों के पुर्नवास के प्रति क्यों उदासीनता का परिचय दिया। कारणों की तह में जाने पर पर जो प्रधान कारण नजर आयेगा, वह है जाति-प्रथा।
आदिवासियों के दुर्भाग्य से आजाद भारत की सत्ता वेदविश्वासी उन उच्च वर्णीय हिन्दुओं के हाथ में आई जो अस्पृश्य तो अस्पृश्य, आदिवासियों को भी मनुष्य रूप में आदर देने की मानसिकता से पुष्ट नहीं थे। हजारों सालों से सभ्य समाज से दूर जंगल, पहाड़ों में धकेले गये आदिवासियों को सभ्य व उन्नततर जीवन प्रदान करने का ठोस प्रयास आजाद भारत सवर्ण शासकों ने किया ही नहीं। आदिवासी इलाकों में लगनेवाली परियोजनाओं को हरी झंडी दिखानेवाले यही उच्च वर्णीय शासक ही थे। इन परियोजनाओं में बाबू से लेकर मैनेजर तक के पदों पर शासक जातियों की संतानों का दबदबा रहा। यदि इन्होंने उन परियोजनाओं में आदिवासियों को श्रमशक्ति , सप्लाई, डीलरशिप, ट्रांसपोटर्ेशन इत्यादि में न्यायोचित भागीदारी तथा विस्थापन का उचित मुआवजा दिया होताए, ये परियोजनाएं उनके जीवन में चमत्कारिक बदलाव ला देतीं। यही नहीं, इन इलाकों में ढेरों उच्च जातीय लोग पहुंचे जिन्होंने अपनी तिकड़मबाजी से वहां अपना राज कायम कर उन्हें गुलाम बना लिया। जमीन उनकी और फसल काटते रहे बाबाजी और बाबूसाहेब। ये उनके श्रम के साथ ही उनकी इजत-आबरू भी बेरोक-टोक लूटते रहे। इन इलाकों में ट्रांसपोटर्ेशन, सप्लाई, डीलरशिप, इत्यादि तमाम व्यवसायिक गतिविधियों पर कब्जा बाबूसाहेब, बाबाजी और सेठजी ने जमा लिया। तो साफ  नजर आता है उच्च वर्णीय हिंदू ही आदिवासियों के शोषण, वंचना के मूल में रहे हैं। सवाल पैदा होता है उन्होंने आदिवासियों का निर्ममता से शोषण क्यों किया 'इसका निर्भूल जवाब 'जाति का उच्छेद' पुस्तक में 'आदिवासी समस्या की जड़' का संधान करते हुए डॉ. आंबेडकर ने दिया है । उन्होंने इसके लिए जाति-प्रथा को जिम्मेवार ठहराते हुए यह बताया है कि वेद-विश्वासी हिंदुओं के लिए वेद-निन्दित अनार्य आदिवासियों की ईसाई मिशनरियों की भांति सेवा करके उनको सभ्य व उन्नत जीवन प्रदान करना किसी भी तरह मुमकिन नहीं रहा है। अत: यह स्पष्ट है कि आदिवासियों की पुर्नवास समस्या के लिए जिम्मेवार उच्च-वर्णीय हिंदू अधिकारियों की जातिवादी मानसिकता है। चूंकि आदिवासी इलाके में सयि माओवादी नेतृत्व खुद भी उच्च वर्ण से आता है, अत: वह न तो अधिकारियों की इस  मानसिकता को उजागर करेगा और न  ही उन पर कोई दबाव बनाएगा। ऐसे में अगर आदिवासी इलाकों में लगनेवाली परियोजनाओं से आदिवासियों के जीवन में बहार लानी है तो गैर-मार्क्स माओवादियों को अधिकारियों की जातिवादी मानसिकता से निपटने का कोई अतिरिक्त उपाय करने के लिए आगे आना होगा।
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/3618/10/0

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