भीम सिंह
जनसत्ता, 24 अक्तूबर, 2011 : जम्मू-कश्मीर में 1990 से आए दिन कोई न कोई ऐसी प्रचंड ज्वाला भड़कती है कि नागरिकों की सुरक्षा और मानवधिकारों की बलि चढ़ जाती है।
कभी घर से नदी तक जाने वाली मासूम महिलाओं की हत्या हो जाती है, कभी घर में काम करने वाले लोगों का बेरहमी से कत्ल हो जाता है और कभी दर्जनों लोगों का कत्लेआम। यहां तक कि हर हफ्ते सेना का कोई न कोई अधिकारी या जवान अज्ञात आतंकियों की गोलियों से शहीद हो जाता है।
जम्मू-कश्मीर का साठ वर्षों का इतिहास बताता है कि राज्य की त्रासदी शुरू होती है अब्दुल्ला खानदान की भ्रष्ट, निरंकुश हुकूमत से, जिन्हें राजग का भी संरक्षण मिला और यूपीए का भी, और आज भी मिल रहा है। फिर लोकपाल या जन लोकपाल कानून बन जाए तो भी जम्मू-कश्मीर में सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में हो रहे अपराधों पर कोई अंकुश नहीं लग सकता, क्योंकि संसद का बनाया हुआ कोई भी कानून जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हो सकता। अगर किसी बुद्धिजीवी या राजनीतिज्ञ को इसमें कोई संदेह हो तो उसे धारा-370 का अध्ययन कर लेना चाहिए। यहां तक कि मानवाधिकार या मौलिक अधिकारों का एक अध्याय 1981 तक लागू नहीं था। आज भी जम्मू-कश्मीर के लोगों को भारत सरकार की वजह से मौलिक अधिकार नहीं मिले हैं, वे तो देश के सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश की वजह से मिल पाए हैं। अत: इसका श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को ही जाता है।
कुछ समय पहले की एक चर्चित घटना पूरे भारत के लोगों को मालूम हो चुकी है। उनतीस सितंबर को जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी यानी नेशनल कॉन्फ्रेंस के तीन कार्यकर्ताओं को रात के साढ़े आठ बजे अपने घर बुलाया। वजह यह थी कि दो कार्यकर्ताओं ने तीसरे कार्यकर्ता यूसुफ हाजी पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के सामने एक गंभीर इल्जाम लगाया था। आरोप यह था कि यूसुफ हाजी ने इन दोनों से विधान परिषद सदस्य बनवाने के लिए 1 करोड़ 18 लाख से भी ज्यादा रुपए लिए थे- मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, और उनके पिता फारूक अब्दुल्ला (जो भारत सरकार में मंत्री हैं) के नाम पर। हाजी युसूफ ने स्वीकार किया कि उन्होंने ये पैसे लिए थे और मुख्यमंत्री और उनके पिताजी के हवाले कर दिए थे।
उनतीस सितंबर की शाम का वाकया यह है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के इन तीनों कार्यकर्ताओं को जब अपने घर में बुलाया, तब हाजी यूसुफ ने मुख्यमंत्री से उनके पैसे लौटाने की बात की। मुख्यमंत्री हाजी यूसुफ को एक अलग कमरे में ले गए। फिर घंटे भर में रात के करीब दस बजे जब हाजी यूसुफ बाहर निकले तो उन्हें खून की उल्टियां हो रही थीं। यह ब्योरा दरअसल चश्मदीद गवाह और एक शिकायतकर्ता का सार्वजनिक वक्तव्य है, जो टीवी चैनलों पर प्रसारित भी हुआ है। मुख्यमंत्री ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि उन्होंने आईजीपी अपराध शाखा और राज्य के गृह सचिव को उनतीस सितंबर को अपने घर में तलब किया और यूसुफ हाजी को उनके हवाले कर दिया था।
यह बात साफ हो जाती है कि मुख्यमंत्री ने पुलिस महानिरीक्षक एजाज अली को अपने घर में बुला कर हाजी यूसुफ को वहां से ले जाने का आदेश दिया। यूसुफ को अस्पताल के बजाय अपराध शाखा के मुख्यालय में ले जाया गया। उनके दो मोबाइल फोन बंद कर दिए गए, उनके सिम बदल दिए गए। उनके घर वाले उनको पूरी रात ढूंढ़ते रहे। उनके घर वालों को दूसरे रोज यानी तीस सितंबर को सूचित किया गया कि हाजी यूसुफ की लाश वे पुलिस अस्पताल से उठा लें।
दूसरी त्रासदी यह है कि हाजी यूसुफ की मौत के बारे में कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई, जो दफा 174/176 भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) में करना लाजिमी है। इसके बजाय तीस सितंबर को एक अन्य एफआईआर (217/2011-420) रणबीर दंड संहिता के तहत दर्ज की गई। इस बात को जम्मू-कश्मीर के गृह सचिव बीआर शर्मा, डीजीपी कुलदीप खोडा और आईजीपी अपराध शाखा के ऐजाज अली ने एक साझा प्रेस-कॉन्फ्रेंस में तीन अक्तूबर को श्रीनगर में जाहिर किया। इतना ही नहीं, इन तीनों उच्चाधिकारियों ने हाजी यूसुफ की हत्या होने के बारे में एफआईआर दर्ज करने से भी इनकार कर दिया और इसके लिए तर्क दिया कि डॉक्टरों की रिपोर्ट के मुताबिक हाजी युसूफ की मौत हृदय गति रुकने (सीएडी) के कारण हुई है। यही बात मुख्यमंत्री ने अपनी अलग प्रेस-कॉन्फ्रेंस में जोर देकर कही थी।
मुख्यमंत्री ने बजाय इसके कि वे पुलिस को तुरंत एफआईआर दर्ज करने का आदेश देते, उन्होंने प्रेस-कॉन्फ्रेंस में बताया कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से इस घटना के बारे में उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश द्वारा जांच कराने का अनुरोध किया गया है। या तो मुख्यमंत्री कानूनी तकाजों से अनजान थे या लगता है वे लोगों को गुमराह करने के लिए ऐसी बात कह रहे थे। क्योंकि उच्च न्यायालय का वर्तमान न्यायाधीश कत्ल के मामले में जांच-पड़ताल कर ही नहीं
इस घटना में जो सबसे गंभीर पहलू है वह यह कि एक व्यक्ति की रहस्यमय हालत में मौत तब हुई जब वह अपराध शाखा की हिरासत में था और उसे हिरासत में मुख्यमंत्री के आदेश से ही लाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह निर्देश दिया था कि जब भी कोई व्यक्ति हिरासत में लिया जाए तो उसके घर वालों या नजदीकी रिश्तेदारों को सूचित करना अनिवार्य होगा और अगर ऐसा नहीं किया जाता तो वह एक जुर्म समझा जाएगा। फिर, जो व्यक्ति हिरासत में लिया जाए उसे अपने वकील से भी बात करने का अधिकार होगा। इस मामले में तो हाजी युसूफ के मोबाइल फोन भी बंद कर दिए गए, उनके सिम भी बदल दिए गए और उनकी मौत भी हिरासत में ही हुई।
यह त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती। मुख्यमंत्री और डीजीपी ने स्वीकार किया है कि अपराध शाखा के मुख्यालय से यूसुफ को अस्पताल ले जाया गया। कितने बजे ले जाया गया? क्या उनके घर वालों या वकीलों को इसकी सूचना दी गई? पुलिस अस्पताल में क्यों ले जाया गया, जबकि उससे ज्यादा नजदीक कुछ अच्छे सिविल और सरकारी अस्पताल भी मौजूद थे?
अनुमान है कि हाजी यूसुफ की मौत अस्पताल लाने से पहले ही हो चुकी थी और फिर उन्हें पुलिस अस्पताल में सिर्फ उनकी मृत्यु के कारणों पर पर्दा डालने और एक ऐसा गलत रिकार्ड तैयार करने के लिए ले जाया गया, जिससे कि उनके घर वालों और लोगों को गुमराह किया जा सके। हाजी यूसुफ के पुत्र और दूसरे घर वालों ने यह बात खुल कर कही है कि यूसुफ के चेहरे, सिर और शरीर पर जख्म मौजूद थे और उन्होंने इस घटना के कुछ फोटो भी जारी किए हैं।
जम्मू-कश्मीर के हर बुद्धिजीवी और हर आम आदमी के मन में दृढ़ धारणा बन चुकी है कि यूसुफ के कातिलों को कानून के शिकंजे में तभी लाया जा सकता है, जब इस सारे मामले की जांच ऐसी एजेंसी या व्यक्ति को सौंपी जाए, जिस पर जम्मू-कश्मीर सरकार या वहां के प्रशासन का कोई प्रभाव न हो। जम्मू-कश्मीर की कोई भी पुलिस एजेंसी अपने डीजीपी और गृह सचिव के फैसले के खिलाफ जा ही नहीं सकती और उन्होंने तीन अक्तूबर को एक खुली प्रेस-कॉन्फ्रेंस में कह दिया था कि हाजी यूसुफ की मौत प्राकृतिक मौत थी, दिल के दौरे से हुई, और यही बात मुख्यमंत्री ने भी कही है। इसलिए जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं और खासकर हाजी यूसुफ के परिवार की संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार के सामने एक ही रास्ता है कि सारे मामले की निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करे, जिसके दायरे में यूसुफ की रहस्यमय मौत से लेकर विधान परिषद की सदस्यता के लिए हुए सौदे तक सब कुछ शामिल हो।
ऐसा प्रतीत होता है कि दलील, वकील और अपील की वहां कोई गुंजाइश या मर्यादा ही नहीं है। लोगों का सरकार से जैसे कोई संपर्क ही नहीं रहा है। भ्रष्टाचार जम्मू-कश्मीर में किसी दूसरे प्रदेश से कम नहीं है। भारत सरकार ने करीब साढेÞ पांच अरब रुपए का अनुदान दिया था करनाह के भूकम्प पीड़ितों को। उसके बाद कांग्रेस की भी दो साल सरकार रही। आज तक उस राशि का कोई लेखा-जोखा नहीं है। करीब सात अरब रुपए कश्मीर में चौरासी किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन बिछाने के लिए खर्च हो गए और इस रेलवे लाइन पर सिर्फ गड़रियों की भेड़-बकरियां चहलकदमी करती हैं।
कश्मीर के नेताओं के लिए एक बहुत बड़ा शिकार सामने आ गया। बनिहाल से काजीकुंड तक जवाहर टनल से नीचे एक और सुरंग बनाने के लिए 11 अरब रुपए खर्च किए जाएंगे। इसका लाभ पर्यटकों को होगा या कश्मीर घाटी या जम्मू के लोगों को, इसका जवाब तो आने वाले समय में ही मिलेगा। यह परियोजना राजग सरकार के समय में स्वीकार की गई थी, जिसे अब यूपीए सरकार लागू करने जा रही है।
इन घटनाओं से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि भ्रष्टाचार जम्मू-कश्मीर में असीमित है और इस भ्रष्टाचार की अगुआई करते आए हैं नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के प्रदेश के नेता। यह भी एक प्रकार से जम्मू-कश्मीर के मानवाधिकारों का घोर हनन है। हमने कई बार इस बात पर जोर दिया कि कश्मीर में गलीचे जैसे लघु उद्योगों का विकास किया जाए। जम्मू क्षेत्र में पर्यटन को अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर बढ़ाया जा सकता है। कश्मीर की ट्रेन और बनिहाल की सुरंग की जगह अगर ऊधमपुर को किश्तवाड़ तक जोड़ दिया जाए या जम्मू को पुंछ तक मिला दिया जाए, तो जम्मू के पर्यटन में क्रांति आ सकती है, छोटे उद्योगों को बढ़ावा मिल सकता है।
No comments:
Post a Comment