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Friday, June 4, 2010

Fwd: जातिगत जनगणना का खौफ ♦ रवीश कुमार /



---------- Forwarded message ----------
From: Nikhil Anand <nikhil.anand20@gmail.com>
Date: 2010/6/4
Subject: जातिगत जनगणना का खौफ ♦ रवीश कुमार /


जातिगत जनगणना का खौफ

♦ रवीश कुमार

जाति और जनगणना की बहस में रवीश कुमार भी शामिल हो गये हैं। जातिगत जनगणना पर रवीश कुमार का आलेख राजस्थान पत्रिका में छपा है। रवीश कुमार ऐतिहासिक तथ्यों का हवाला देकर बता रहे हैं कि जातिगत जनगणना की शुरुआत अंग्रेजों ने नहीं की थी। रवीश नहीं मानते कि जाति गिनने से जातिवाद बढ़ेगा…

ब्रिटिश हुकूमत से दो सौ साल पहले राजस्थान के मारवाड़ में जनगणना हुई थी। इस जनगणना में जाति के हिसाब से घरों की गिनती हुई थी। इसे 1658 से 1664 के बीच मारवाड़ राजशाही के महाराजा जसवंत सिंह राठौर के गृहमंत्री मुन्हटा नैन्सी ने कराया था। इतिहासकार नॉर्बेट पेबॉडी ने अपने इस अध्ययन से साबित करने की कोशिश की है कि जनगणना औपनिवेशिक दिमाग की उपज नहीं थी। इससे पहले कि हम यह कहें कि औपनिवेशिक हथियार के रूप में जनगणना का इस्तेमाल हुआ, तो हमें मारवाड़ के देसी प्रयास को भी ध्यान में रखना होगा। सब कुछ बाहर से थोपा नहीं जा रहा था।

इस वक्त हमारे देश में जनगणना चल रही है। सरकार को फैसला करना है कि जाति की गणना हो या नहीं। यह बहस पुरानी है कि जाति की गिनती से समाज बंट गया। इतिहासकारों ने यह भी साबित किया है कि ब्रिटिश हुकूमत की जनगणना से कई जातिगत सामाजिक ढांचे खड़े हो गये। नयी जातियां बन गयीं। जातियों के बीच पहचान की दीवारें मजबूत हो गयीं।

नैन्सी ने जाति के हिसाब से जोधपुर और आसपास के जिलों में घरों की गिनती करायी थी। इस तरह की व्यवस्था दूसरे इलाकों में थी, जिसे तब खानाशुमारी के नाम से जाना जाता था। नैन्सी के समय में खास जाति के घरों को गिना गया था। यह भी हो सकता है कि कई जातियों के पास घर ही न हों। कई राजस्थानी रजवाड़ों के पास गांवों में जाति के हिसाब से घरों की गिनती होती थी। इस तरह की गिनती राजस्व वसूली की सुविधा के लिए शुरू हुई थी। मारवाड़ में अलग-अलग जाति के लोगों पर अलग अलग कर थे। इसीलिए नैन्सी की गिनती में आबादी की कुल संख्या का पता नहीं चलता है क्योंकि लोगों की गिनती नहीं हुई थी।

इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं, कि कई ब्रिटिश प्रशासकों को जाति की संख्या उपयोगिता और प्रमाणिकता पर शक था। फिर भी यह कार्यक्रम चलता रहा, जिसे 1931 के बाद से बंद कर दिया गया। तब तक भारत की राजनीति में अंबेडकर एक हस्ती के रूप में उभरने लगे थे। जाति पर बहस तेज हो चुकी थी। जाति सुधार से लेकर जाति तोड़ो जैसे आंदोलन चलने लगे थे। हाल ही में पेंग्विन से आयी विक्रम सेठ की मां लीला सेठ की आत्मकथा में लिखा है कि तीस के दशक में उत्तर प्रदेश के रहने वाले उनके नाना ने जातिसूचक मेहरा शब्द हटा दिया था। अगर जाति जनगणना से सिर्फ जातिगत पहचान मजबूत ही हुई, तो फिर टूटने की बात कहां से निकली। कहीं ऎसा तो नहीं कि हम सिर्फ एक चश्मे से देख रहे हैं।

यह सही है कि जातिगत जनगणना के बाद जातिगत संगठन बने, लेकिन तब जाति के हिसाब से समाज में ऊंच-नीच थी। जाति को चुनौती देने के लिए संख्या सबसे कारगर हथियार बन गयी। जातिगत ढांचे को कमजोर करने में संख्या की राजनीति के योगदान को हमेशा नजरअंदाज किया जाता है। संख्या की राजनीति न होती, तो मायावती ब्राह्मणों से सामाजिक राजनीतिक संबंध कायम न करतीं। उन्हें बहुमत नहीं मिलता, जबकि बीएसपी की शुरुआत ही इस नारे से हुई थी कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।

ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्री जितेंद्र नारायण ने अपने शोध में लिखा है कि 1934 में बिहार कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कायस्थों का प्रतिशत 53 था। 1935 की वर्किंग कमेटी में राजपूतों और भूमिहारों ने मिलकर चुनौती दी और कायस्थों का वर्चस्व घटकर 28 प्रतिशत रह गया। संख्या के आधार पर सत्ता संघर्ष का नतीजा ही था कि 1967 में बिहार में पहली बार 71 बैकवर्ड विधायक जीत कर आये। कायस्थों ने पिछड़ों से हाथ मिलाकर भूमिहार और राजपूतों के गठजोड़ को मात दी। कायस्थ मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद ने पिछड़ों के नेता रामलखन सिंह यादव को मंत्री बना दिया।

संख्या की लडाई में सब जातियों ने सुविधा के हिसाब से कभी हाथ मिलाया, तो कभी तोड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि राजनीति में कोई भी जाति किसी के लिए अछूत नहीं रही। जातिगत अहंकार टूट गया। यह भी सही है कि जातिगत चेतना का प्रसार हुआ। स्वाभाविक था, जब जाति की सीढ़ी का इस्तेमाल सत्ता की प्राप्ति के लिए होगा, तो कायस्थ महासभा और ब्राह्मण महासभा का गठन हुआ। जातिगत पत्रिकाएं निकलीं। हर जाति सामाजिक दायरे में अपनी श्रेष्ठता का दावा करने लगीं। नये-नये टाइटल निकाले गये और ब्राह्मणों से बाहर की जातियां जनेऊ करने लगीं। आजादी के बाद से जातिगत जनगणना नहीं हुई, तो क्या सत्ता संघर्ष या समाज से जाति गायब हो गयी। इसलिए जाति की गणना होनी चाहिए। इससे जाति मजबूत नहीं होगी।

ravish kumar(रवीश कुमार। टीवी का एक सजग चेहरा। एनडीटीवी इंडिया के फीचर एडिटर। नामी ब्‍लॉगर। कस्‍बा नाम से मशहूर ब्‍लॉग। दैनिक हिंदुस्‍तान में ब्‍लॉगिंग पर एक साप्‍ताहिक कॉलम। इतिहास के छात्र रहे। कविताएं और कहानियां भी लिखते हैं। उनसे ravish@ndtv.com पर संपर्क किया जा सकता है।)




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