हमने रेड कॉरिडोर में असहाय आदिवासियों के आंसू देखे!
http://mohallalive.com/2010/06/23/chidambarams-crocodile-tears-by-gladson-dungdung/♦ ग्लैडसन डुंगडुंग
यह फैक्ट फाइडिंग रिपोर्ट मूलत: अंग्रेजी में है और इसे हिंदी में अनुवाद करा कर स्वयं ग्लैडसन डुंगडुंग ने हमें उपलब्ध कराया है। हम ग्लैडसन के आभारी है। ये रिपोर्ट बताती है कि माओवाद पर दबिश के नाम पर हमारे जवान कितनी बर्बरता पर उतर आये हैं : मॉडरेटर
पत्नी के मारे जाने के बाद जयराम सिंह, बच्चों के साथ
13 जून 2010 को झारखंड के 12 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की यात्रा सूर्योदय से पहले ही शुरू हो गयी थी। हमने सुना था कि लातेहार के बरवाडीह प्रखंड के लादी गांव की एक खरवार आदिवासी महिला, पुलिस और माओवादियों के बीच हुई मुठभेड़ की शिकार हो गयी। उस महिला का नाम जसिंता था। वह सिर्फ 25 साल की थी। गांव में अपने पति और तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रही थी इसलिए हम घटना की हकीकत जानना चाहते थे। हम जानना चाहते थे कि क्या वह माओवादी थी?
सबसे महत्वपूर्ण बात जो हम जानना चाहते थे, वह यह था कि किस परिस्थिति में सरकारी बंदूक ने उससे जीने का हक छीन लिया और सूर्योदय से पहले ही उसके तीन छोटे-छोटे बच्चों के जीवन को अंधेरे में डाल दिया गया? हम यह भी जानना चाहते थे कि इस अपराध के बाद राज्य की क्या भूमिका है? और निश्चित तौर पर हम यह भी जानना चाहते थे कि क्या जसिंता के तीन बच्चे हमारे बहादुर जवानों के बच्चों के तरह ही मासूम हैं?
सूर्योदय होते ही हमारे फैक्ट फाइडिंग मिशन का चारपहिया घूमना शुरू हो गया। जेठ की दोपहरी में हमलोग चिदंबरम के 'रेड कॉरिडोर' में घूमते रहे। शायद यहां के आदिवासियों ने 'रेड कॉरिडोर' का नाम भी नहीं सुना होगा और निश्चित तौर पर वे इस क्षेत्र को 'रेड कॉरिडोर' की जगह 'आदिवासी कॉरिडोर' कहना पसंद करेंगे। जो भी हो, इतना घूमने के बाद भी हम लोगों ने माओवादियों को नहीं देखा। लेकिन हमने जला हुआ जंगल, पेड़ और पतियां देखी। माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन चलाते समय अर्द्धसैनिक बलों ने हजारों एकड़ जंगल को जला दिया है। शायद वे माओवादियों का शिकार तो नहीं कर पाये होंगे, लेकिन उन्होंन खुबसूरत पौधे, जड़ी-बूटी, जंगली जानवर, पक्षी और निरीह कीट-फतंगों को जलाकर राख कर दिया है। उन्होंने जंगली जानवर, पक्षी और हजारों कीट-फतंगों का घर जला डाला है। अगर यही काम यहां के आदिवासी करते तो निश्चित तौर पर वन विभाग उनके खिलाफ वन संरक्षण अधिनियम 1980 और वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत कार्रवाई करता।
सात घंटे की थकान भरी लंबी यात्रा के बाद हमलोग लादी गांव पहुंचे। जो लातेहार जिला मुख्यालय से 60 किलोमीटर और बरवाडीह प्रखंड मुख्यालय से 22 किलोमीटर की दूरी पर जंगल के बीच में स्थित है। लादी गांव दरअसल खरवार बहुल गांव है। इस गांव में 83 परिवार रहते हैं, जिसमें 58 परिवार खेरवार, दो परिवार उरांव, 11 परिवार पराहिया, 10 परिवार कोरवा, एक परिवार लोहरा और एक परिवार साव है। इस गांव की जनसंख्या लगभग 400 है। गांव की अर्थव्यवस्था कृषि और वन पर आधारित है, जो पूरी तरह मानसून पर निर्भर करती है। यहां के खरवार समुदाय की दूसरा महत्वपूर्ण पारंपरिक पेशा पत्थर तोड़ना है, जिससे प्रति परिवार को रोज लगभग 80 रुपये तक की आमदनी होती है। यद्यपि गांव के लोग अपने कामों में व्यस्त थे लेकिन गांव में पूरा सन्नाटा पसरा हुआ था। ऐसा महसूस हो रहा था कि पूरा गांव खाली है। गांव में किसी के चेहरा पर मुस्कान नहीं थी। उनके चेहरे पर सिर्फ शोक, डर, भय, अनिश्चितता और क्रोध झलक रहा था।
हमलोग 28 वर्षीय जयराम सिंह के घर गये, जिसकी पत्नी जसिंता की गोली लगने से 27 अप्रैल को मौत हो गयी थी। हम मिट्टी, लकड़ी और खपड़े से बने एक सुंदर लाल रंग से सुसज्जित घर में घुसे। घर का वातावरण शोक, पीड़ा और क्रोध से भरा पड़ा था। परिवार के सदस्य चुप थे लेकिन शोक, दुःख, पीड़ा, भय और क्रोध उनके चेहरे पर झलक रही थी। हमें खटिया पर बैठने को कहा गया। कुछ समय के बाद जयराम सिंह अपने दो बच्चे – पांच साल की अमृता और तीन साल के सूचित के साथ हमारे सामने आया। जयराम बोलने की स्थिति में नहीं था। वह अभी भी अपनी पत्नी को खोने की पीड़ा से उबर नहीं पाया था। जब भी कोई उसे उस घटना के बारे में पूछता, वह रोने लगता। वह वन विभाग का एक अस्थायी कार्मचारी है, जिसकी वजह से जब उसके घर में घटना घटी, तब वह गारू नाम की जगह पर ड्यूटी पर बजा रहा था।
जयराम ने हमें बताया कि उसके तीन बच्चे भी हैं। हमने उनके दो बच्चों को देखा, जिनके चहरे पर निराशा छायी हुई थी। हम एक और बच्ची को भी देखना चाहते थे, जो सिर्फ एक साल की है। उसका नाम विभा कुमारी है। वह दूधपीती बच्ची है। मां के मारे जाने के बाद वह अपनी दादी की गोद में ही खेलती रहती है। तीनों बच्चे और उनके पिता की हम तस्वीर लेना चाहते थे, इसलिए हमने विभा को भी हमारे पास लाने को कहा। लेकिन वह हमें देखते ही रोने लगी। वह अपने पिता की गोद में बैठने के बाद भी रोती रही। शायद उसे यह लग रहा होगा कि हम उसे उसके परिवार से छीनने के लिए आये हैं, जिस तरह से उसे उसकी मां को छीन लिया गया। मैं उसको देख कर व्यथित था। मैंने उसे रोते हुए देखा। वह चुप ही नहीं होना चाहती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर उसका सुनहरा बचपन छीन लिया गया था।
जयराम सिंह का छोटा भाई विश्राम सिंह, जो घटना के समय घर में मौजूद था, ने हमें घटना के बारे में बताया कि 27 अप्रैल को 'मिट्टी के लाल घर' में क्या हुआ था। शाम के लगभग साढ़े सात बज रहे थे। गांव के सभी लोग खाना खाने के बाद सोने की तैयारी में जुटे थे। उसी समय गांव में गोली चलने की आवाज सुनाई दी। कुछ समय के बाद पुलिस ने ग्राम प्रधान कामेश्वर सिंह के घर को घेर लिया। उसके बाद पुलिस वालों ने चिल्ला कर कहा कि घर से बाहर निकलो, नहीं तो घर में आग लगा देंगे। इस बात को सुनकर कामेश्वर सिंह का परिवार घबरा कर घर से बाहर निकला। कामेश्वर सिंह और उसके बड़े बेटे जयराम सिंह वन विभाग में अस्थायी कार्मचारी हैं, जिसकी वजह से वे घर पर नहीं थे। पुलिस की आवाज सुनकर कामेश्वर सिंह का छोटा बेटा विश्राम सिंह (18) दरवाजा खोलकर बाहर निकला। बाहर निकलते ही जवानों ने उसे पकड़कर पीठ के पीछे दोनों हाथ बांध कर उस पर बंदूक तान दिया।
उसके बाद पुलिस के जवान ने विश्राम सिंह की भाभी जसिंता से कहा कि घर के अंदर और कौन है? इस पर उन्होंने उनके चरवाहा पुरन सिंह (62) के अंदर सोने की बात कही। पुलिस ने उसे उठाकर बाहर लाने को कहा। जब जसिंता चरवाहा को लेकर बाहर आ रही थी, तो पुलिस ने उसके ऊपर गोली दाग दी। गोली उसके सीने में लगी और वह वहीं ढेर हो गयी। पुलिस ने फिर गोली चलायी, जो पुरन सिंह के हाथ में लगी। वह घायल हो गया। लाश देखकर परिवार के सदस्य रोने-चिल्लाने लगे तो पुलिस ने कहा कि चुप रहो, नहीं तो सबको गोली मार देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि तुम लोग माओवादियों को खाना खिलाते हो, इसलिए तुम्हारे साथ ऐसा हो रहा है। घटना के बाद पुलिस तुरंत लाश, घायल पूरन सिंह समेत पूरे परिवार को उठाकर ले गयी और परिवार वालों को धमकी देते हुए कहा कि लोगों को यही बताना है कि जसिंता मुठभेड़ में मारी गयी और प्रदर्शन वगैरह नहीं करना है।
गांव वालों को यह पता नहीं था कि लाश कहां है, इसलिए उन्होंने 28 अप्रैल 2010 को महुआटांड-डालटेनगंज मुख्य सड़क को जाम कर दिया। इसके बाद सदर अस्पताल, लातेहार में लाश का पोस्टमॉर्टम होने के बाद पुलिस ने विश्राम सिंह से सादा कागज पर हस्ताक्षर करवाने के बाद लाश को अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को सौंप दिया। विश्राम सिंह चार हजार रुपये पर भाड़ा में लेकर गाड़ी से लाश को गांव लाया। उसके बाद बरवाडीह के सीओ ने पारिवारिक लाभ योजना के तहत परिवार को 10 हजार रुपये दिया। 30 अप्रैल 2010 को मृतक के परिजन और गांव वाले जसिंता की हत्या के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने के लिए बरवाडीह थाना गये लेकिन वहां के थाना प्रभारी रतनलाल साहा ने मुकदमा दर्ज नहीं किया। सिर्फ डायरी में सूचना दर्ज की और उन्हें डरा-धमका कर घर वापस भेज दिया।
लेकिन गांव वालों के लगातार विरोध के बाद प्रशासन को मृतक के परिजनों को मुआवजे के रूप में तीन लाख रुपये देने की घोषणा करनी पड़ी। पुलिस ने परिजनों को मुआवजा राशि देने के लिए एक स्थानीय पत्रकार मनोज विश्वकर्मा को मध्यस्थता के काम में लगाया। 14 मई 2010 को मनोज विश्वकर्मा मृतक के पति जयराम सिंह को लेकर बरवाडीह थाना गया। थाना प्रभारी वीरेंद्र राम ने जयराम सिंह को एक सादा कागज पर हस्तक्षर कर 90 हजार रुपये का चेक लेने को कहा। जब जयराम सिंह ने सादा कागज पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया तो थाना प्रभारी ने उसे खाली हाथ गांव वापस भेज दिया। यह हस्यास्पद ही है कि एक तरफ जयराम सिंह से उसकी पत्नी छीन ली गयी, उसके छोटे-छोटे बच्चों को रोते-बिलखते छोड़ दिया गया और उनके मिलने वाले मुआवजा को भी हड़पने का पूरा प्रयास चल रहा है। नीचे से ऊपर तक दौड़ने के बावजूद गुनहगारों को दंडित नहीं किया गया है।
ग्रामप्रधान कामेश्वर सिंह का चरवाहा पूरन सिंह इस गोली कांड में विकलांग हो गया है और अभी भी लातेहार सदर अस्पताल में इलाज करा रहा है। वहां सशस्त्र बल की निगरानी में उसे रखा गया है। लातेहार के सिविल सर्जन अरुण तिग्गा को यह जानकारी ही नहीं थी कि पूरन सिंह किस तरह का मरीज है। पूरन सिंह की बातों से भी स्पष्ट है कि यह घटना मुठभेड़ का परिणाम नहीं है। लेकिन बरवाडीह थाने की पुलिस ने इसे मुठभेड़ करार देने के लिए रातदिन एक कर दिया है। पुलिस के अनुसार जसिंता की हत्या माओवादियों की गोली से हुई है।
मृतक के घर का मुआयना करने से स्पष्ट है कि उसके घर में घुसने के लिए एक ही तरफ से दरवाजा है। घर की दीवार में लगी दो गोलियों के निशान हैं, जो प्रवेश द्वार की ओर से चलायी गयी है। मुठभेड़ की स्थिति में घर के अंदर से माओवादियों द्वारा दरवाजे की तरह गोली चलायी गयी होती। जसिंता देवी के मारे जाने के बाद पुलिस घर के अंदर घुसी और छानबीन किया, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। अगर घर के अंदर माओवादी होते तो उन्हें पुलिस पकड़ लेती क्योंकि घर में दूसरा दरवाजा नहीं होने की वजह से उनके भागने की कोई संभावना नहीं बनती है। घटना स्थल का मुआयना करने, मृतक के परिजन, चरवाहा और ग्रामीणों की बात से यह स्पष्ट है कि जसिंता की हत्या मुठभेड़ में नहीं बल्कि पुलिस द्वारा की गयी हत्या है। लेकिन बरवाडीह की पुलिस यह कतई मानने को तैयार नहीं है। पुलिस ने हत्या के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज नहीं ही किया लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी परिजनों को नहीं दिया। जयराम सिंह के पास उसकी पत्नी की हत्या से संबंधित कोई कागज नहीं है। यहां आज भी पुलिस अत्याचार जारी है। थाना जाने पर दहाड़ना, गांव वालों को प्रताड़ित करना, किसी भी समय घरों में घुसना, मार-पीट गाली-गलौज करना और किसी को भी पकड़कर ले जाना।
इस हत्याकांड के बाद जयराम सिंह एक पिता के साथ-साथ मां की भूमिका भी अदा कर रहा है। उसकी सबसे छोटी बेटी विभा गाय के दूध से जिंदा है। वह सिर्फ इतना कहता है कि उसको न्याय चाहिए। वह अपनी पत्नी के हत्यारों को दंडित करवाना चाहता है। उसके तीन बच्चे हैं, इसलिए वह सरकार से 5 लाख रुपये मुआवजा, एक सरकारी नौकरी और उनके बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा की मांग कर रहा है। लेकिन उसकी पीड़ा को सुनने वाला कोई नहीं है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब हमारे बहादुर जवान मारे जाते हैं, तो उस पर मीडिया में बहस का दौर चलता है लेकिन विभा, सूचित और अमृता के लिए मीडिया के लोग बहस क्यों नहीं कर रहे हैं? क्यों वो खुबसूरत चेहरे टेलेविजन चैनलों में निर्दोष आदिवासियों के बच्चों के अधिकारों की बात नहीं करते हैं जब वे सुरक्षा बलों की गोलियों से अनाथ बना लिये जाते हैं? क्या ये बच्चे निर्दोष नहीं हैं? क्यों लोग उन निरीह आदिवासियों की बातों पर विश्वास नहीं करते हैं, जो रोज सुरक्षा बलों की गोली, अत्याचार और अन्याय के शिकार हो रहे हैं? क्यों यह परिस्थिति बनी हुई है कि लोगों के अधिकारों को छीनने वाले सुरक्षाकर्मियों की बातों पर ही हमेशा भरोसा किया जाता है? क्या यही लोकतंत्र है?
मिट्टी के लाल घर की पीड़ा, विभा का रोना-बिलखना और पुलिस अधिकारी का वही रौब। यह सब कुछ देखने और सुनने के बाद हम लोग रेड कॉरिडोर से वापस आ गये। लेकिन हमारा कंधा खरवार आदिवासियों के दुःख, पीड़ा और अन्याय को देखकर बोझिल हो गया था। पुलिस जवानों के अमानवीय कृत्य देखकर हमारा सिर शर्म से झुक गया था और विभा की रुलाई ने हमें अत्यधिक सोचने को मजबूर कर दिया। मैं मां-बाप को खोने का दुःख, दर्द और पीड़ा को समझ सकता हूं। लेकिन यहां बात बहुत ही अलग है। जब मेरे माता-पिता की हत्या हुई थी, उस समय मैं उस दुःख, दर्द और पीड़ा को समझने और सहने लायक था। लेकिन जसिंता के बच्चे बहुत छोटे हैं। विशेष तौर पर विभा के बारे में क्या कहा जा सकता है। उसको तो यह भी पता नहीं है कि उसकी मां कहां गयी, उसके साथ क्या हुआ ओर क्यों हुआ?
विभा अभी भी अपनी मां के आने की बाट जोहती है। वह सिर्फ मां की खोज में रोती है। दूध पीने की चाहत मे बिलखती है और मां की गोद में सोने के लिए तरसती है। क्या वह हमारे देश के बहादुर जवानों के बच्चों की तरह मासूम नही है? क्या हम सोच सकते हैं कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी, जब वह यह जान जाएगी कि हमारे बहादुर जवानों ने उसकी मां को घर में घुसकर गोली मार दी? उसका गुस्सा किस हद तक बढ़ जाएगा, जब वह यह जान जाएगी कि उसके मां के हत्यारे सरकार से सहायता मिलने वाली राशि को भी गटकना चाहते थे? क्या उसके क्रोध की सीमा नहीं टूट जाएगी, जब वह यह जान जाएगी कि उसकी मां के हत्यारों ने उसके परिवार और गांववालों पर माओवादी का कलंक लगा कर उन पर जम कर अत्याचार किया? क्या हम अपने बहादुर जवानों को उनके किये की सजा देंगे या विभा, सूचित और अमृता जैसे हजारों निर्दोष बच्चों को रोते, विलखते व तड़पते छोड़कर उनकी कब्रों पर शांति की खोज करेंगे? सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र आदिवासियों को न्याय देगा? क्या वे अपने अधिकार का स्वाद चखेंगे? क्या उनके साथ कभी इंसान सा व्यवहार किया जाएगा? विभा का लगातार रोना हमें खतरे की घंटी से आगाह तो कर ही रहा है, साथ ही एक नयी दिशा की ओर इशारा भी कर रहा है, लेकिन क्या हम उसे समझना चाहते हैं?
(ग्लैडसन डुंगडुंग। मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक। उलगुलान का सौदा नाम की किताब से चर्चा में आये। आईआईएचआर, नयी दिल्ली से ह्यूमन राइट्स में पोस्ट ग्रैजुएट किया। नेशनल सेंटर फॉर एडवोकेसी स्टडीज, पुणे से इंटर्नशिप की। फिलहाल वो झारखंड इंडिजिनस पीपुल्स फोरम के संयोजक हैं। उनसे gladsonhractivist@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
दम तोड़ती सिसकती अकेली जिंदगी
अब्राहम हिंदीवाला ♦ मुंबई आये सभी ख्वाहिशमंदों से एक ही गुजारिश है कि कुछ पाने की उम्मीद में दोस्तों और रिश्तों को न खोएं। अपने पास कुछ दोस्तों और संबंधियों को रखें, जिनसे अपनी हार शेयर करने में शर्मिंदगी न हो। वे रहेंगे तो हम लड़खड़ाने, लुढ़कने, फिसलने और गिरने पर भी जिंदा रहेंगे।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया, मीडिया मंडी »
मुकेश कुमार ♦ लोग यह समझने लगे हैं कि प्रेस ऐसी ताकत है, जिसके सहारे दूसरों के गलत कामों की तरफ उंगली उठायी जा सकती है, और अपने गलत कामों पर पर्दा डाला जा सकता है। भारत में अंग्रेज छापाखाना लेकर आये ताकि गुलामी की जंजीर को और मजबूती से जकड़ा जाए। लेकिन हमारे जुझारू नेताओं ने छापाखाने को हथियार की तरह प्रयोग किया। पिछले लोकसभा चुनावों में मीडिया के एक बड़े हिस्से ने जिस तरह बड़े पैमाने पर पैसे लेकर विज्ञापनों को खबर की शक्ल में छापा, उसे एक मिशन की नीलामी नहीं, तो और क्या कहा जाएगा? तब प्रभाष जोशी और विनोद दुआ जैसे कुछ पत्रकारों ने इस मसले को जोर-शोर से उठाया था। लेकिन आंदोलन से व्यवसाय बन चुकी पत्रकारिता के कथित कर्णधारों को कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
नज़रिया, मीडिया मंडी »
नवीन कु रणवीर ♦ रवीश कुमार जवाब दें? एनडीटीवी इंडिया में शुक्रवार 25 जून 2010 को रात 9:30 बजे रवीश की रिपोर्ट में जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल को लेकर डिस्क्लेमर भी दिखाया था, परंतु उसके बावजूद भी देश के हर राज्य का वो वर्ग इतना सक्षम नहीं है कि सवर्ण समाज के द्वारा दी गयी इस घृणा पर गर्व कर सके। पंजाब में दलितों की आर्थिक स्थित अच्छी है। कैसे है, ये भी आप जानते हैं। उन्होंने समाज के उस वर्ग का ही बहिष्कार किया, जिसने उनसे घृणा की। पंजाब में डेरा संप्रदाय हमेशा से एक ताकत और पहचान का प्रतीक रहा है। आपकी रिपोर्ट का असर ये पड़ेगा कि जिन राज्यों का हमने जिक्र किया, वहां के सवर्ण अब खुले तौर पर लोगों को इन जाति-सूचक शब्दों के उच्चारण से बुलाएंगे, गाने गाकर चिढ़ाएंगे।
नज़रिया, मीडिया मंडी »
विनीत कुमार ♦ रवीश ने अपनी रिपोर्ट में जिन माध्यमों के जरिये दलितों की नयी पहचान बनने की बात की है, उन माध्यमों के विश्लेषण से दलित विमर्श के भीतर एक नये किस्म की बहस और विश्लेषण की पूरी-पूरी गुंजाइश बनती है। जिन माध्यमों को कूड़ा और अपसंस्कृति फैलानेवाला करार दिया जाता रहा है, वही किसी जाति के स्वाभिमान की तलाश में कितने मददगार साबित हो सकते हैं, इस पर गंभीरता से काम किया जाना अभी बाकी है। इलीटिसिज्म के प्रभाव में मशीन औऱ मनोरंजन के बीच पैदा होनेवाली संस्कृति पर पॉपुलर संस्कृति का लेबल चस्पां कर उसे भ्रष्ट करार देने की जो कोशिशें विमर्श और अकादमिक दुनिया में चल रही हैं, उसके पीछ कोई साजिश तो जरूर लगती है।
मोहल्ला दिल्ली, शब्द संगत »
डेस्क ♦ अभी जो 19 जून बीता, शनिवार का दिन था। उस दिन लिखावट की गोष्ठी में विष्णु नागर ने अपनी कविताएं पढ़ीं। मयूर विहार में राजीव वर्मा के घर की खुली और हवादार छत पर शाम ढलते ही कविता का माहौल बन गया। वहीं यह पता भी चला कि अब हर 15 दिन पर यहां कविगोष्ठी जमा करेगी। बड़े शहर में कस्बाई आत्मीयता से भरी इस कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए। विष्णु नागर अभी पिछले दिनों 60 बरस के हुए। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी रचनात्मक सक्रियता कायदे से बनी हुई है। अंतिका प्रकाशन से उनकी कविताओं का संकलन इसी साल छप कर आया है : घर के बाहर घर। संबोधन पत्रिका ने उन पर विशेषांक निकाला है, जिसका अतिथि संपादन किया है युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय ने।
नज़रिया, मीडिया मंडी, मोहल्ला भोपाल »
शेष नारायण सिंह ♦ 25 सितंबर को 2001 को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुकदमा चलाने का केस बहुत कमजोर है। जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा, उस वक्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की जिम्मेदारी थी। यही नहीं, उस वक्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश की सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी मौजूद थे। सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है, जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके। अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है, उससे एंडरसन बिलकुल पाक-साफ इंसान के रूप में सामने आता है।
मोहल्ला मुंबई, सिनेमा »
अब्राहम हिंदीवाला ♦ प्रकाश झा की 'राजनीति' ने हिंदी फिल्मों में एनआरआई और शहरी विषय-वस्तु के ट्रेंड को करारा जवाब दिया है। 'राजनीति' के पोस्टर और विज्ञापन में 'करारा हिट' लिखा जा रहा है। मैं तो चाहूंगा कि प्रकाश झा और सफल हों। उन्होंने 'मृत्युदंड' से अलग सिनेमाई भाषा गढ़ने की यात्रा आरंभ की थी। 'राजनीति' उसका एक माइलस्टोन है। सफर लंबा है और अन्य फिल्मकारों की जरूरत है। उम्मीद है कि प्रकाश झा के पांव नहीं उखड़ेंगे… उनका साथ देने और भी फिल्मकार आएंगे। मैं तो कहूंगा कि आप भी 'राजनीति' की कामयाबी के जश्न में शामिल हों। फिल्म देख ली है तो फिर से देखें। नहीं देखी हो तो जरूर देखें।
नज़रिया, रिपोर्ताज »
डेस्क ♦ जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता और ईपीडब्ल्यू के सलाहकार संपादक गौतम नवलखा तथा स्वीडिश पत्रकार जॉन मिर्डल कुछ समय पहले भारत में माओवाद के प्रभाव वाले इलाकों में गये थे, जिसके दौरान उन्होंने भाकपा माओवादी के महासचिव गणपति से भी मुलाकात की थी। इस यात्रा से लौटने के बाद गौतम ने यह लंबा आलेख लिखा है, जिसमें वे न सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट के निहितार्थों की गहराई से पड़ताल करते हैं, बल्कि माओवादी आंदोलन, उसकी वजहों, भाकपा माओवादी के काम करने की शैली, उसके उद्देश्यों और नीतियों के बारे में भी विस्तार से बताते हैं। पेश है हाशिया से साभार इस लंबे आलेख का हिंदी अनुवाद। अनुवादक की जानकारी नहीं मिल पायी है।
मीडिया मंडी, स्मृति »
पशुपति शर्मा ♦ मेट्रो से घर पहुंचने तक कई मित्रों के फोन आये। किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। सब एक दूसरे से एक-दो लाइनों में बात करते और फिर शब्द गुम हो जाते। अखिलेश्वर का मेरठ से फोन आया – भैया विनय नहीं… उसके बाद न वो कुछ बोल सका और न मैं। इसी तरह ब्रजेंद्र, उमेश… सभी इस खबर के बाद अजीब सी मन:स्थिति में थे। शिरीष से बात की और ये सूचना दी तो वो भी सन्न रह गया। विनय अब तुमसे तो कोई सवाल नहीं कर सकता लेकिन एक दूसरे से ताकत बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। विनय ऐसी भी क्या जल्दी थी? एक दिन ऑफिस छूट ही जाता तो क्या होता?खैर, तुमने भी तो शायद ये नहीं सोचा था कि चलती ट्रेन के पहिये तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं…
रिपोर्ताज, स्मृति »
ग्लैडसन डुंगडुंग ♦ मिट्टी के लाल घर की पीड़ा, विभा का रोना-बिलखना और पुलिस अधिकारी का वही रौब। यह सब कुछ देखने और सुनने के बाद हम लोग रेड कॉरिडोर से वापस आ गये। लेकिन हमारा कंधा खरवार आदिवासियों के दुःख, पीड़ा और अन्याय को देखकर बोझिल हो गया था। पुलिस जवानों के अमानवीय कृत्य देखकर हमारा सिर शर्म से झुक गया था और विभा की रुलाई ने हमें अत्यधिक सोचने को मजबूर कर दिया। मैं मां-बाप को खोने का दुःख, दर्द और पीड़ा को समझ सकता हूं। लेकिन यहां बात बहुत ही अलग है। जब मेरे माता-पिता की हत्या हुई थी, उस समय मैं उस दुःख, दर्द और पीड़ा को समझने और सहने लायक था। लेकिन जसिंता के बच्चे बहुत छोटे हैं।
रिपोर्ताज »
राहुल कुमार ♦ पत्थर के उन टुकड़ों के चारों ओर रातों-रात पिलर ढाल दिये गये। छत की ढलाई हो गयी। सुबह जब निकला, तो देखा कि ईंट जुड़ाई का काम चल रहा था। इतनी तेज गति से किसी काम को देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। 24 घंटे के अंदर रिफाइनरी की जमीन पर एक ऐसा ढांचा तैयार था, जिसे तोड़ने के नाम पर ही मार-काट शुरू हो जाती है। मंदिर बनकर तैयार हो गया। मंदिर, जिसे देखकर लोग साइकिल से हों, मोटर साइकिल से हों, पैदल हों या चार चक्के से… एक हाथ से ही सही… सर झुकाकर प्रणाम की मुद्रा में जरूर आते हैं। फिर चाहे मंदिर की बुनियाद अधर्म से हथियायी जमीन पर ही क्यों न रखी गयी हो। अब दूर-दूर तक उपवन लगने लगे हैं। मंदिर दिनों-दिन अपना दायरा बढ़ा रहा है।
मोहल्ला भोपाल, रिपोर्ताज, समाचार »
आवेश तिवारी ♦ सोनभद्र से आठ नदियां गुजरती हैं, जिनका पानी पूरी तरह से जहरीला हो चुका है। यह इलाका देश में कुल कार्बन डाइऑक्साइड के उत्स्सर्जन का 16 फीसदी अकेले उत्सर्जित करता है। सीधे सीधे कहें तो यहां चप्पे चप्पे पर यूनियन कार्बाइड जैसे दानव मौजूद हैं, इसके लिए सिर्फ सरकार और नौकरशाही तथा देश के उद्योगपतियों में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के लिए मची होड़ ही जिम्मेदार नहीं है। सोनभद्र को ध्वंस के कगार पर पहुंचाने के लिए बड़े अखबारी घरानों और अखबारनवीसों का एक पूरा कुनबा भी जिम्मेदार है। कैसे पैदा होता है भोपाल, क्यों बेमौत मरते हैं लोग? अब तक वारेन एंडरसन के भागे जाने पर हो हल्ला मचाने वाला मीडिया कैसे नये नये भोपाल पैदा कर रहा है, आइए इसकी एक बानगी देखते हैं।
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Palash Biswas
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