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Saturday, May 10, 2014

बामुलाहिजा होशियार! मीडिया सेनसेक्स सुनामी मध्ये संस्थागत संघी महाविनाश के लिए हो जाये तैयार!अब देश भर में पहचान शिनाख्त के लिए नंगा परेड का आगाज होने वाला है।

बामुलाहिजा होशियार! मीडिया सेनसेक्स सुनामी मध्ये संस्थागत संघी महाविनाश के लिए हो जाये तैयार!अब देश भर में पहचान शिनाख्त के लिए नंगा परेड का आगाज होने वाला है।


जय हो कल्कि अवतार।



पलाश विश्वास


रोड शो,पेड न्युज व्यूज विजुअल और विज्ञापनी जिंगल के मध्य एक लाख करोड़ के सट्टा का नतीजा अब आने  ही वाला है।


किसका न्यारा किसका वारा,कौन दिवालिया,इस पर बारह को मतदान के बाद शाम छह बजे से नये सिरे सट्टा सर्वेक्षण चलेगा 16 मई तक।


अपना पांच साला  ब्रह्मास्त्र मताधिकार का इस्तेमाल कर चुके देश की नागरिकता थक हारकर सो जाने वाली है अगले चुनाव तक।अच्छे दिनों के ख्वाब को जीते सीते हुए।रोजगार के दफ्तर खत्म होंगे।पहले ही नवउदारी विकास में अप्रासंगिक हो चुके आरक्षण का भी पटाक्षेप तय है सामाजिक समरसता और डायवर्सिटी के तहत अवसरों और संसाधनों के संघी वर्णवर्चस्वी बंटवारे के साथ।


भूमि सुधार के बजाय जमीन डकैती का सिलसिला शुरु होने ही वाला है।


चुनावी सोशल संपर्क साधने सुनामी तैयार करने वाली युवा सेना के होश भी ठिकाने लगने हैं और स्नातक की डिग्री हासिल करने के लिए भी लाखों की पूंजी लगने वाली है।


व्यवसायिक प्रशिक्षण हासिल करने की गली गली दुकानों से संघी कैरियर काउंसिलिंग केंद्रों पर लंबी कतारें लगने वाली है।


ताजा स्टेटस लाजवाब है। हिंदू राष्ट्र के सिपाहसालार भाजपा को गंगा में विसर्जित करके सीधे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सरकार बनाने की कवायद शुरु हो गयी है बिना चुनाव नतीजे के किये।


आनंद तेलतुंबड़े के शब्दों में संघी भावी प्रधानमंत्री साझा सरकार के सारे पुल जला चुके हैं।मायावती और ममता ने तो खुल्ला ऐलान कर दिया है कि किसी भी सूरत में केसरिया सरकार को समर्थन नहीं करेंगी।बाकी लोगों को जैसे सांप सूंघ गया है।


सत्ताशिकार को घात लगाये इंतजार कर रहे हैं अस्मिताओं और पहचान के तमाम सौदागर तो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के नुमाइंदों ने नई सरकार के एजंडे और नीति निर्धारण की कमान हासिल करने के लिए अपनी बिसात सजा दी है।


संघी बैठक में मोहन भागवत के दरबार में पेशी हो रही है भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह जो प्रधानमंत्रित्व के डमी प्रत्याशी भी हैं नितिन गडकरी की तरह।भावी प्रधानमंत्री का मंत्रिमंडल भी जनादेश आने से पहले तय है और उसमें तमाम अति परिचित भाजपाई चेहरे सिरे से गायब हैं।


मीडिया और शेयर बाजार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सरकार बना दी है।


देश में नमो सुनामी है या नहीं,सोलह को उसकी चपेट में आयेगा देश या बच जायेगा फिलहाल।असली सुनामी तो शेटर बाजार दलाल स्ट्रीट में है,जहां सेनसेक्स तेइस हजार पार।


आर्थिक सुधारों के नाम जारी नरमेध राजसूय के तेइसवें साल हर सेक्टर में अबाध पूंजी निवेश सुनिश्चित और पूंजी को हर किस्म की छूट राहत रियायत प्रोत्साहन,हर जरुरी सेवा का बाजार में तब्दीली,हर सब्सिडी के खात्मे और हर सर्वस्वहारा के सफाये के चाकचौबंद इंतजामात हो जाने का अश्लील जश्न शुरु हो चुका है।


अटल सरकार के अधूरे विनिवेश निजीकरण एजंडा पूरा करना सर्वोच्च प्राथमिकता है तो नागरिकता संशोधन कानून और बायमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के आधार पर सर्वस्वाहारा तबके के धार्मिक पहचान की धर्मोन्मादी राजनीति के जरिये सफाये का लंबित प्रकल्प अब कार्यान्वित होगा सीधे संघकमान के संस्थागत महाविनाश एजंडे के तहत।


मुसलमान घुसपैठियों को देश निकाले का रणहुंकार कोई चुनावी समीकरण है,इस दीर्घकालीन रणनीति का यह आकलन सिरे से गलत है।


मुकम्मल कारपोरेट राज के लिए,अबाध पूंजी प्रवाह के लिए हर क्षेत्र में हर सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए,संसाधनों को बाजार में झोंकने के लिए और हर रंग, हर समुदाय,हर नस्ल,हर पहचान से जुड़े निःशस्त्र असहाय सर्वस्वहाराओं की चहुंमुखी बैदखली के लिए, संविधान के मौलिक अधिकारों,नागरिक और मानवाधिकारों के हनन के लिए संस्थागत महाविनाश के लिए घुसपैठियों के बहाने देशभर के मुसलमानों के खिलाफ युद्धघोषणा की रणनीति समझी जानी चाहिए।


नागरिकता संशोधन के सर्वदल समर्थित संघी कानून के प्रावधानों के मुताबिक 18 मई,1948 से यह देशनिकाला हिंदुओं के अलावा अहिंदू आदिवासियों,शहरी गंदी बस्तियों के चेहराविहीन जनसमूहों की अमोघ नियति है और यह सर्वस्वहाराओं को उनकी हासिल संपत्ति से बेदखल करने की चाकचौबंद व्यवस्था है।


मोदी ने अर्णव राय के जी हुजूर साक्षात्कार में भी इस एजंडे पर जोर दिया है और विभाजन के शिकार हिंदुओं, बांग्लादेश और पाकिस्तान समेत दूसरे देशों से आये हिंदुओं को नागरिकता देने के संकल्प के साथ मुसलमानों को घुसपैठिया करार देकर देशनिकाला का फतवा जारी किया है,जबकि मौजूदा नागरिकता संशोधन कानून को रद्द किये बिना हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता का छलावा शारदा फर्जीवाड़ा के अलावा कुछ भी नहीं है।


हमें अफसोस है कि 1999 से अबतक डिजिटल बायोमेट्रिक नागरिकता के तहत जो संस्थागत महाविनाश का कारपोरेट प्रकल्प जारी है,उसे समझने में हमारे अति बुद्धिमान लोग चूक गये।


हमें अफसोस है कि देश के मूर्धन्य इतिहासकार इरफान हबीब और रोमिला थापर की अगुवाई में तमाम मेधा शिखरों ने इस फासिस्ट युद्धघोषणा का विरोध केजरीवाल शैली में किया है।


प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करने वाले केजरीवाल का कोई विरोध पूंजी से नहीं है।हो भी नहीं सकता,वे अंतरराष्ट्रीय पूंजी के प्रधानमंत्रित्व के काला घोड़ा हैं।वाराणसी में विदेशी वित्त पोषित उनके समर्थकों के हुजूम और टीएडीे पानेवाले समर्थकों के करिश्मे के मद्देजर यह समझा जा सकता है।


हालत यह है कि अगर मुसलमानों ने एकमुश्त वोट कर दिया झाड़ू पर ,तो देशी कारपोरेट पूंजी की कड़ी शिकस्त होगी अंतरराष्ट्रीय पूंजी के मुकाबले।


इन्हीं अरविंद केजरीवाल और दूसरे जनांदोलन के झंडेवरदारों ने अबतक इस डिजिटल बायोमेट्रिक महाविनाश को रोकने खातिर न नागरिकता संशोधन कानून और न ही निलेकणि इंफोसिस आधार योजना को रद्द करने की कोई मांग उठायी है।


देश के धर्मनिरपेक्ष स्वर का आलाप बंगाल के धर्मनिरपेक्ष जनविरोधी जनविश्वासघाती वर्णवर्चस्वी पाखंड से अलग क्या रसायन है,इसे मोदी ममता नागरिकता संवाद के बरअक्श 2005 में पहली यूपीए सरकार के जमाने में संघी राजग पार्टनर बाहैसियत बंगाल में अपनी सीट के अलावा सारी की सारी सीटें गवाँने वाली लोकसभा में इकलौती तृणमूली सदस्य ममता बनर्जी के उस महाविस्फोटक फ्लैशबैक में जाइये,जहां दीदी ने मतदाता सूचियों के बंडल के बंडल बिखेरकरके बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ मोदी से बहुत पहले जिहाद का ऐलान किया था। अब वह वामदलों की तुलना में ज्यादा आरक्रामक धर्मनिरपेक्ष हैं।


हम अधपढ़ है।खाड़ी युद्ध शुरु होते न होते जब हमने अमेरिका से सावधान लिखा तब भी बहुत सारे मित्र हमारा माखौल उड़ा रहे थे लेकिनतब भी देश भर के शीर्षस्थ से लेकर नवोदित कवियों के अलावा महाश्वेता देवी और मैनेजर पांडेय जैसे लोगों ने,देशभर में लगुपत्रिका संपादकों ने उस मुहिम को चलाने में हमारी मदद की थी।


नागरिकता संशोधन विधेयक संसद में पेश  होने से पहले वेबसाइट पर मसविदा जारी होते  ही, आधार प्रकल्प शुरु होते ही हम अपनी सीमाबद्धता के साथ उसके खिलाफ देशभर में अभियान चलाते रहे।


वामपंथी मित्रों ने जब इस महाविनाश के पक्ष में खड़ा होना शुरु किया तो हमने बेहिचक विचारधारा के पाखंड से तौबा बोलकर बामसेफ के मंच तक का इस्तेमाल किया।


अब तो माननीय गोपालकृष्ण जी की टीम का साथ है।


लेकिन जो सबसे ज्यादा समझदार लोग हैं,जिनकी लेखकीय वक्तव्य शैली दक्षता शिखरों को स्पर्श करती है,वे पूरे तेइस साल तक सुधार कार्निवाल में कैसे शरीक हैं.यह समझ से बाहर है।और डिजिटल बायोमेट्रिक नागरिकता के जरिये जल जंगल जमीन संसाधन नागरिकता मानवाधिकार से बेदखली के खिलाफ कोई अभियान चलाये बिना वे या तो हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता दिला रहे हैं या मुसलमानों को देश निकाले का फतवा दे रहे हैं।


यह गोधरा से शुरु देशव्यापी वैदिकी कर्मकांड की आध्यात्मिक प्राविधि है या सीधे तौर पर बाबा रामदेव और तमाम पुज्यनीय बाबाओं का वैष्णव योगाभ्यास।


बांग्ला में अनभ्यस्त होे के बाद भी हमने लिखा और अंग्रेजी में भी।लेकिन जिस बंगाल में सबसे ज्यादा विश्ववंदित परिवर्तनवादी क्रांतिकारी विद्वतजनों का वास है,उनमें से किसी ने इस महाविनाश के खिलाफ अब तक कोई प्रतिवाद दर्ज नहीं कराया।नंदीग्राम सिंगुर आंदोलन के समझदार साथियों ने भी नहीं,जैसे कि उनका समझना है कि यह मामला सर्वस्वाहारा दलित शरणार्थियों का ही है।क्रांतिकारियों में खलबली तो नमो ने मचा दी मुसलिमविरोधी युद्धघोषणा से।


दर हकीकत हिंदू मुसलिम संप्रदायों और साप्रदायिक नस्ली जाति पहचान के आर पार यह बायोमेट्रिक नागरिकता का जुड़वां प्रकल्प सैन्य कारपोरेट भारत राष्ट्र का अपने सभी नागरिकों के विरुद्ध,हां,जो सत्ता वर्ग में अनियंत्रित अराजक तत्व हैं,जिन्हें उग्रवादी माओवादी आतंकवादी राष्ट्रविरोधी तमगों से पहचाना जाता है,खुल्लम खुल्ला युद्ध का ऐलान है,जिसको नमो स्वर मिला है छलावा से भरपूर।


हत्याएं अंधाधुंध हो रही हैं,लेकिन एफआईआर तक लिखाने की हिम्मत नहीं है हमारे समाज के सफेदपोश पढ़े लिखे लोगों में।


अब नमो वक्तव्य का विरोध धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हो रहा है,लेकिन इस आसण्ण संस्थागत महाविनाश के प्रतिरोध के लिए एक भी शब्द नहीं है।


हम समझ नहीं पा रहे कि क्या इस देश के इतिहासकारों को भी हम जनविरोधी कारपोरेट गुलाम अर्थशास्त्रियों की केरी में शामिल करें या नहीं।


अपने प्रभात पटनायक की मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था पर समझ निःसंदेह आदरणीया अरुंधति राय जी के स्तर पर है।लेकिन उनके अर्थशास्त्र में इस मुक्त बाजारी संघी सस्थागत महाविनाश की काट है नहीं,ऐसा निष्कर्ष निकालने का अधिकारी तो मैं नहीं हूंं।


हम तो सूचनाएं भर सहेजते हैं,जो कोई पत्रकार कर सकता है।पत्रकार विशेषज्ञ नहीं हो सकता,वह देश और आवाम की धड़कनें जैसे सुनता है, वैसा जसका तस पेश कर सकता है। हम अब तक जो लेखन करते रहे हैं या जहां भी जो बोलते रहे हैं, वह एक मीडियाकर्मी की सीमाबद्धता के बावजूद अपने सर्वस्वहारा तबके के प्रति पारिवारिक विरासत का पितृदाय है,और कुछ नहीं।


रोमिला थापर,इरफान हबीब,प्रभात पटनायक,वरवरा राव,महाश्वेता देवी जैसे लोग अगर बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता पर मुखर होते तो कम से कम गोपाल कृष्ण जी की मेहनत बेकार नहीं जाती।


हम तो रोजाना रोजमनामचा लिखते हैं,जिसमें अशुद्धियां ही नजर आती है लोगों को।बंगाल के शरणार्थी राजनेता सुकृति विश्वास का तो फतवा है कि अधूरी जानकारी है हमारे पास।


हम कब पूरी जानकारी होने का दावे कर रहे हैं?हमे अपनी सीमाों का पता है।लेकिन जिनके पास पूरी जानकारी है और कांख में वह जानकारी लिए वे सत्ता के गलियारे में दुकानदारी चला रहे हैं ,उनसे तो हम फिरभी बेहतर हैं।


दरवज्जे पर मौत घात लगाये बैठी है और खिड़कियों पर भी खौफनाक मौत का पहरा।मृतात्माएं जाग गयी हैं और लामबंद हैं हमारे विरुद्ध।हम महज धर्मनिरपेक्षता और विचारधारा की जुगाली कर रहे हैं।और कुछ भी नहीं।कुछ भी तो नहीं।


अगर प्रतिरोध की ताकतों को गोलबंद करने के लिए हम कोई पहल नहीं कर सकते तो उदित राज,राम विलास पासवान और अठावेल होकर इस केसरिया महाविनाश का इस्तकबाल करें। तो हो सकता है कि तलवार जो गरदन पर लटकी हो,वह कुछ देर के लिए ठिठक जाये आपकी सही पहचान शिनाख्त करने के लिए।पहचान शिनाख्त करने के नंगे परेड को हमने मेरठ के दंगों में देखा है।


अब देश भर में पहचान शिनाख्त के लिए नंगा परेड का आगाज होने वाला है।

जय हो कल्कि अवतार।


हमारे आदरणीय आनंद तेलतुंबड़े के आकलन से हम सहमत हैंः


अपने एक हालिया साक्षात्कार में मोदी द्वारा इस बात पर घुमा फिरा कर दी गई सफाई की वजह से एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता पर बहस छिड़ गई, कि क्यों उसने मुस्लिम टोपी नहीं पहनी थी.  मानो मुसलमानों के प्रति मोदी और उसकी पार्टी के रवैए में अब भी संदेह हो, फिर से पेशेवर धर्मनिरपेक्ष उस मोदी के बारे में बताने के लिए टीवी के पर्दे पर बातें बघारने आए, जिस मोदी को दुनिया पहले से जानती है. यहां तक कि बॉलीवुड भी धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी चिंता जाहिर करने में पीछे नहीं रहा. चुनावों की गर्मा-गर्मी में, सबसे ज्यादा वोट पाने को विजेता घोषित करने वाली हमारी चुनावी पद्धति में, व्यावहारिक रूप से इन सबका मतलब कांग्रेस के पक्ष में जाता है, क्योंकि आखिर में शायद कम्युनिस्टों और 'भौंचक' आम आदमी पार्टी (आप) को छोड़ कर सारे दल दो शिविरों में गोलबंद हो जाएंगे. वैसे भी चुनावों के बाद के समीकरण में इन दोनों से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. कम्युनिस्टों का उनकी ऐतिहासिक गलतियों की वजह से, जिसे वे सही बताए आए हैं, और आप का इसलिए कि उसने राजनीति के सड़े हुए तौर तरीके के खिलाफ जनता के गुस्से को इस लापरवाही से और इतनी हड़बड़ी में नाकाम कर दिया. अरसे से गैर-भाजपा दलों के अपराधों का बचाव करने के लिए 'धर्मनिरपेक्षता' का एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन किसी भी चीज की सीमा होती है. जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की करतूतों और अयोग्यताओं ने हद पार कर दी है और इस तरह आज भाजपा को सत्ता के मुहाने पर ले आई है, तो ऐसा ही सही. यह धर्मनिरपेक्षता का सवाल नहीं है. यह स्थिति, जिसमें घूम-फिर कर दो दल ही बचते हैं, एक बड़ा सवाल पेश करती है कि क्या भारतीय जनता के पास चुनावों में सचमुच कोई विकल्प है!....


धर्मनिरपेक्षता के हौवे ने एक तरफ तो भाजपा को अपना जनाधार मजबूत करने में मदद किया है, और दूसरी तरफ कांग्रेस को अपनी जनविरोधी, दलाल नीतियों को जारी रखने में. पहली संप्रग सरकार को माकपा का बाहर से समर्थन किए जाने का मामला इसे बहुत साफ साफ दिखाता है. यह बहुत साफ था कि सरकार अपने नवउदारवादी एजेंडे को छोड़ने नहीं जा रही है. लेकिन तब भी माकपा का समर्थन हासिल करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम की एक बेमेल खिचड़ी बनाई गई. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर, जब असहमतियां उभर कर सतह पर आईं, तो माकपा समर्थन को वापस ले सकती थी और इस तरह सरकार और समझौते दोनों को जोखिम में डाल सकती थी. लेकिन इसने बड़े भद्दे तरीके से सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर समर्थन जारी रखा और कांग्रेस को वैकल्पिक इंतजाम करने का वक्त दिया. जब इसने वास्तव में समर्थन वापस लिया, तो न तो सरकार का कुछ नुकसान हुआ और न समझौते का. बल्कि सांप्रदायिकता का घिसा-पिटा बहाना लोगों के गले भी नहीं उतरा. अक्सर धर्मनिरपेक्षता जनता की गुजर बसर की चिंताओं पर कहीं भारी पड़ती है!


अगर मोदी आ गया तो

इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी अब तक आए सभी प्रधानमंत्रियों से कहीं ज्यादा अंधराष्ट्रवादी होगा. अब चूंकि इसके प्रधानमंत्री बनने की संभावना ही ज्यादा दिख रही है तो इस पर बात करने से बचने के बजाए, अब यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि बुरा क्या हो सकता है. यह साफ है कि मोदी कार्यकाल बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा, जिन्होंने उसको खुल्लमखुल्ला समर्थन दिया है. लेकिन क्या कांग्रेस सरकार क्या उनके लिए कम फायदेमंद रही है? यकीनन मोदी सरकार हमारी शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों का भगवाकरण करेगी, जैसा कि पहले की राजग सरकारों के दौरान हुआ था. लेकिन तब भी यह बात अपनी जगह बरकरार है कि उसके बाद के एक दशक के कांग्रेस शासन ने न उस भगवाकरण को खत्म किया है और न कैंपसों/संस्थानों को इससे मुक्त कराया है. यह अंदेशा जताया जा रहा है कि यह जनांदोलनों और नागरिक अधिकार गतिविधियों पर फासीवादी आतंक थोप देगा. तब सवाल उठता है कि, जनांदोलनों पर थोपे गए राजकीय आतंक के मौजूदा हालात को देखते हुए-जैसे कि माओवादियों के खिलाफ युद्ध, उत्तर-पूर्व में अफ्स्पा, मजदूर वर्ग पर हमले, वीआईपी/वीवीआईपी को सुरक्षा देने की लहर-जो पहले से ही चल रहा है उसमें और जोड़ने के लिए अब क्या बचता है? लोग डर रहे हैं कि मोदी संविधान को निलंबित कर देगा, लेकिन तब वे शायद यह नहीं जानते कि जहां तक संविधान के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से भाग 4 की बात है-जिसमें राज्य के नीति निर्देशक तत्व हैं-संविधान मुख्यत: निलंबित ही रहा है.


यह सच है कि इतिहास में ज्यादातर फासिस्ट चुनावों के जरिए ही सत्ता में आए हैं लेकिन वे चुनावों के जरिए हटाए नहीं जा सके. चाहे मोदी हो या उसकी जगह कोई और, अगर वो ऐसे कदम उठाने की कोशिश करेगा तो बेवकूफ ही होगा, क्योंकि ऐसा निरंकुश शासन सबसे पहले तो नामुमकिन है और फिर भारत जैसे देश में उसकी कोई जरूरत भी नहीं है. बल्कि ये सारी बातें भीतर ही भीतर पहले से ही मौजूद है और अगर हम धर्मनिरपेक्षता का अंधा चश्मा पहने रहे तो यह सब ऐसे ही चलता रहेगा.


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