माय नेम इज़ खान… और मैं हीरो जैसा नहीं दिखता…
माय नेम इज़ खान… और मैं हीरो जैसा नहीं दिखता…
♦ निखिल आनंद गिरि
इरफान खान का जेएनयू आना ऐसा नहीं था, जैसे सलमान खान किसी मॉल में आएं और भगदड़ मच जाती हो। भीड़ थी, मगर अनुशासन भी था। वो खुद चिल्लाने के लिए कम और एक संजीदा एक्टर को सुनने का मूड बनाकर ज्यादा आयी थी। करीब दो घंटे तक इरफान बोलते रहे और एक बार भी धक्कामुक्की या हूटिंग जैसी हरकतें नहीं हुईं। इस भीड़ में मैं इरफान से दस कदम की दूरी पर अपनी जगह बना पाया था। मैं उस पान सिंह तोमर को नजदीक से देखने गया था, जिसने चौथी पास एक फौजी के रोल में बड़ी आसानी से कह दिया कि 'सरकार तो चोर है, इसीलिए हम सरकारी नौकरी के बजाय फौज में आये।' और ये भी कि 'बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में'। गर्मी के मौसम में भी गले में मफलर लटकाये इरफान सचमुच बॉलीवुड की भेड़चाल से अलग दिखते हैं। जेएनयू की उस भीड़ में ही मौजूद कुछ लड़कियों की जुबान में कहें तो 'अरे, ये तो कहीं से भी हीरो जैसा नहीं लगता।'
सचमुच, इरफान हीरो जैसा कम और एक हाजिरजवाब युवा ज्यादा लगने की कोशिश कर रहे थे। जेएनयू में पान मिलता नहीं, मगर बाहर से मंगवाकर पान चबाते हुए बात करना शायद माहौल बनाने के लिए बहुत जरूरी था। एकदम बेलौस अंदाज में इरफान ने लगातार कई सवालों के जवाब दिये। जैसे अपने रोमांटिक दिनों के बारे में कि कैसे वो दस-पंद्रह दिनों तक गर्ल्स हॉस्टल में रहने के बाद पकड़े गये और उनके खिलाफ हड़ताल हुई। या कि 'हासिल' के खांटी इलाहाबादी कैरेक्टर में ढलने के लिए उन्हें कैसे तजुर्बों से गुजरना पड़ा। हालांकि, राजनीति या सिनेमा पर पूछे गये कई सीरियस सवालों पर अटके भी और हल्के-फुल्के अंदाज में टाल भी गये।
हाल ही में रिलीज हुई पान सिंह तोमर में इरफान की एक्टिंग ने उन्हें बॉलीवुड के मौजूदा दौर के सबसे बड़े अभिनेताओं में शामिल कर दिया है। वो एक सेलेब्रिटी तो नहीं, मगर आम और खास दोनों तरह के दर्शकों में बेहद पसंद किये जाने लगे हैं। उनकी आवाज की गहराई, बोलने का अंदाज और हाजिरजवाबी जैसे जेएनयू की उस शाम दिखी, वो फिल्मी पर्दे से बिल्कुल अलग नहीं लगी। वो हर जगह एक जैसे ही नजर आते हैं। हद तक नैचुरल दिखने वाले एक एक्टर। माइक बार-बार खराब होने, जेएनयू के सिर के ऊपर से दर्जनों बार हवाई जहाज के गुजरने और जैसे-तैसे सवालों से दो घंटे तक टकराते हुए भी चेहरे पर कोई फिजूल का उतार-चढ़ाव नहीं था।
इरफान को सिनेमा में पहचान दिलाने वाले आज के दौर के सबसे काबिल निर्देशक तिग्मांशु धूलिया भी यहां पहुंचने वाले थे, मगर किसी वजह से नहीं आ सके। वो आते तो सिनेमा पर कुछ और सवाल सुनने को मिल सकते थे, और सटीक जवाब भी। दरअसल, मेरे वहां पहुंचने की खास वजह तिग्मांशु को ही एक नजर नजदीक से देखना था। एक एक्टर से ज्यादा जरूरी मुझे हमेशा से एक निर्देशक लगता है।
बहरहाल, सिर्फ इरफान के साथ भी भीड़ जमी रही, जिन्होंने बड़ी ईमानदारी से कई सवालों पर अपनी राय रखी। इरफान ने कहा कि उन्हें अपने साथ लगा 'खान' का टैग किसी बोझ जैसा लगता है। उनका बस चले तो वो अपने नाम से इरफान भी हटाना चाहेंगे और उस घास की तरह सूरज की रोशनी महसूस करना चाहेंगे, जिसकी पहचान सिर्फ जमीन से जुड़ी होती है। आखिर-आखिर तक प्रोग्राम खिंचने लगा था। हालांकि कार्यक्रम के मॉडरेटर अविनाश दास और प्रकाश सवालों को बढ़िया मिक्स कर रहे थे, ताकि भीड़ वहां बनी रहे। हां, एकाध शुद्ध हिंदी में पूछे गये सवालों को मॉडरेटर साहब जिस तरह मजाक उड़ाने के अंदाज में मजे ले-लेकर पढ़ रहे थे, वो भीड़ को भले गुदगुदा रहा था, मगर उस सवाल पूछने वाले को बड़ा हिंसक लग रहा होगा, जिसने दिल लगाकर अंग्रेजी होते जा रहे सेलिब्रिटी युग में अपनी भाषाई काबिलियत के हिसाब से एक बेहतर सवाल हिंदी में रखने की जुर्रत की थी। थोड़ा सा अफसोस मुझे भी हुआ था, लेकिन भीड़ में हर एक का ध्यान तो नहीं रखा जा सकता। वो भी तब जब इरफान के पसंदीदा लेखक कोई और नहीं हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय नामों से एक उदय प्रकाश रहे हैं।
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(निखिल आनंद गिरी। सांस्कृतिक अभिरुचियों से संपन्न युवा पत्रकार। प्रभात खबर से पत्रकारिता की शुरुआत। जामिया से पत्रकारिता में डिप्लोमा। जी न्यूज में लंबे समय तक काम किया। बुरा-भला नाम का एक ब्लॉग भी है। उनसे memoriesalive@gmail.com पर सपंर्क किया जा सकता है।)
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