अरविंद मोहन
जनसत्ता 14 फरवरी, 2012: उत्तर प्रदेश के चुनाव में दो दौर के मत पड़ने के
साथ ही यह साफ होता लग रहा है कि इस बार की लड़ाई कुछ ज्यादा मुश्किल होने
जा रही है। एक उलझन चुनाव में पड़ने वाले मतों ने भी पैदा कर दी है। अक्सर
बदलाव के मूड में आए मतदाता ज्यादा उत्साह से वोट देने निकलते हैं। सो
हैरानी नहीं कि समाजवादी पार्टी ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा भी इसे
अपने-अपने पक्ष में लहर के तौर पर बता रही हैं। सपा मुख्य विपक्षी दल ही
नहीं है, पांच साल सड़क से लेकर विधानसभा तक उसने ही मायावती सरकार से
लोहा लिया है। पर ग्रामीण क्षेत्रों में और दलित बस्तियों में मतदान
देखने वालों को बसपा भी कमजोर नहीं लगती।
ऐसे में ज्यादा मतदान की एक व्याख्या राजनीतिक चेतना और गोलबंदी बढ़ने के
रूप में की जा सकती है, पर उत्तर प्रदेश में एक गौरतलब पहलू अगड़ी जातियों
और नौजवान मतदाताओं की उदासीनता टूटना भी है। यह लोकतंत्र की खूबी है कि
इसमें हर छोटे से छोटे समूह का भी व्यावहारिक वजन दुगुना हो जाता है- वह
पाला बदल कर किसी को नुकसान और उसके प्रतिद्वंद्वी को लाभ पहुंचा सकता
है। मंडल और उसके बाद की दलित क्रांति के बाद उदासीन हो गए अगड़ों को इस
चुनाव में अपनी इस ताकत का अहसास हुआ है तो अभी तक किसी गिनती में न आने
वाली छोटी-छोटी जातियों के लोग भी गोलबंद होकर बाहर आए हैं।
लेकिन मुश्किल यह है कि अगड़े मतों पर भी चारों प्रमुख दलों की दावेदारी
है। अगड़े खूब मन से भले ही सपा और बसपा को न चाहते हों, पर सत्ता में
इनके साथ हिस्सेदारी से उन्हें कहां परहेज है! इस बार खास बात यह है कि
उनके लिए भाजपा और कांग्रेस का विकल्प भी उपलब्ध है, क्योंकि इन दलों ने
खासकर कांग्रेस ने बहुत मेहनत की है। इस चौकोने मुकाबले में भी दिलचस्प
बातों की भरमार है। सबसे बड़ी दिलचस्पी तो चारों प्रमुख पार्टियों के
उतार-चढ़ाव को लेकर है, क्योंकि इससे न सिर्फ उनका और उनके आकाओं का,
बल्कि उत्तर प्रदेश के बीस करोड़ से ज्यादा लोगों और मुल्क की राजनीति का
भविष्य भी जुड़ा हुआ है।
दिलचस्पी की तात्कालिक वजह चुनाव के अवसर पर पार्टियों द्वारा की गई
कवायद भी है। कांग्रेस और राहुल गांधी ने तो काफी पहले यह कवायद शुरू कर
दी थी, पर मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने पूरे पांच साल
कसरत की है- विधानसभा से लेकर गली-गली तक। काफी मार भी खाई, जेल भी गए,
साइकिल भी दौड़ाई। भाजपा ने थोड़ी देर से शुरुआत की, मगर अब नेताओं की पूरी
फौज जुट गई है- ज्यादा निशाना तो विपक्ष पर है, पर कई बार आपस में भी
निशानेबाजी हो जाती है।
अकेले बस्ती में तिरसठ हवाई यात्राएं होना लड़ाई की गंभीरता को बताता है।
मायावती तैयारियों में तो कमजोर नहीं थीं, पर वे खुल कर इसे जाहिर करने
से बच रही थीं- उन्हें अपने लोगों से ही बगावत का डर था, जो कुछ हद तक
सही साबित हुआ। वे अप्रैल में चुनाव चाहती थीं और इसके लिए उन्होंने
सेकेंडरी परीक्षा जल्दी कराने का दांव भी चला था जो नाकाम हो गया।
पर चुनावी लड़ाई में सबसे बड़ी इंजीनियरिंग मायावती और बसपा ने ही की है-
आधे से ज्यादा विधायकों का टिकट काटने से लेकर उन सभी सामाजिक समूहों के
लोगों को टिकट देने में होशियारी दिखाना जिनके वोट पिछले लोकसभा चुनाव
में अदलते-बदलते दिखे थे। इसी क्रम में मुसलमानों के हिस्से पिछली बार से
पचीस टिकट अधिक आ गए हैं।
कहने को कांग्रेस ने प्रदेश के पिछडेÞपन का मुद्दा उठाया है, पर अस्मिता
की राजनीति में सबसे आगे वही है। एक पिछड़े को मुख्यमंत्री पद का दावेदार
बनाने से लेकर मुसलिम आरक्षण का झुनझुना उसी ने बजाया है। उसने नीतीश
फार्मूले की तर्ज पर अति पिछड़ा और अति दलित को आरक्षण में अलग कोटा देने
का जुमला भी उछाल दिया है। और फिर जब अंत में भाजपा सक्रिय हुई तो वह
सीधे राम मंदिर का मुद््दा उठा लाई। सपा ने ऐसा कोई स्पष्ट कार्ड नहीं
चला, जाति और संप्रदाय के लिहाज से सक्रिय होने के बावजूद।
इसलिए पहले दो चरणों में यह देखने की दिलचस्पी सबसे अधिक है कि शतरंज के
मोहरों की तरह चली गई इन चालों का क्या प्रभाव पड़ता है। क्या मायावती
टिकट काट कर और विभिन्न समूहों के टिकट कम-ज्यादा करके अपना किला बचा
पाती हैं?
मायावती के लिए यह काम आसान नहीं लगता, क्योंकि अवध और पूर्वांचल के इस
इलाके में उन्हें पिछली बार जबर्दस्त सफलता मिली थी। और टिकट काटने पर
भले ही यहां पूरब जितनी नाराजगी न हो, पर उसका भी नुकसान पार्टी को हो
रहा है। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में इसी इलाके में ज्यादा अच्छी जीत
दर्ज की थी और यहां से उसके विधायक कम हैं, सांसद ज्यादा। पर कुर्मी,
मुसलमान, गैर-जाटव दलित और ब्राह्मण का जीतने लायक आधार बनाने का काम ठोस
रूप ले पाया हो इसकी परीक्षा सबसे अच्छी तरह इसी इलाके में होगी। कुछ
सीटों पर ऐसा हुआ होगा, पर पूरे अवध और पूर्वांचल के सियासी परिदृश्य में
ऐसा बदलाव नहीं दिखता।
अवध और पूर्वांचल का यह इलाका सबसे पिछड़ा है और यहां विकास प्रमुख मुद्दा
बनता दिख रहा है। बीस-बाईस साल के कोरे स्लेट और राहुल गांधी के चलते
कांग्रेस को उसी से ज्यादा लाभ मिलता लग रहा है, पर इस मामले में
समाजवादी पार्टी सबसे आगे लगती है। जब शासन और विकास मुद्दा हो तब सपा का
रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता, पर अवध में मायावती के शासनकाल
में पैदा हुई नाराजगी का लाभ लेने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में सपा ही
है। और जाने क्यों मायावती राज-काज की जगह पहचान की राजनीति को ही आगे रख
रही हैं। भाजपा का इस इलाके का पिछली बार का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है,
पर उसका अति पिछड़ा वोट पाने का प्रयास नया है और कई जगहों पर सफल होता
लगता है, भले ही कुशवाहा कांड से उसके शहरी और अगड़ा समर्थक कुछ भड़के हों।
समाजवादी पार्टी से स्पष्टत: कोई नया मतदाता समूह जुड़ता नहीं दिखता, पर
शासन से नाराजगी वाले यानी एंटी-इंकम्बैंसी वाले ज्यादातर वोट उससे जुड़
जाएं तो अचरज नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा रुझान दिखा तो फिर कुछ अन्य समूह
भी सपा की तरफ झुक सकते हैं जो अभी किसी जगह बंधे नहीं हैं और शासन बदलने
के साथ सत्ता में भागीदारी भी चाहते हैं। ठाकुर समेत अगड़े मतदाताओं के
साथ ऐसा होता लगता भी है। यही चीज कांग्रेस के साथ भी हो सकती है। होने
को तो यह भाजपा के साथ भी हो सकता है, पर पहले चरण में उसकी तुलना में
सपा और कांग्रेस की स्थिति बेहतर रही। अलबत्ता दूसरे चरण में भाजपा भी
लड़ाई में आ गई। इससे यह भी होगा कि चरण-दर-चरण पहले वाले दौर का रुझान ही
मजबूत होता जाएगा।
अब तक जो दो-तीन प्रमुख मत-सर्वेक्षण हुए हैं उन पर शत-प्रतिशत तो दांव
नहीं लगाया जा सकता, पर वे इस रुझान को जरूर बता रहे हैं कि मायावती की
टिकटों भर से चली गई रणनीति बहुत कारगर नहीं हो रही है। बल्कि सहारा के
तीन लाख सैंपल वाली रायशुमारी समेत सभी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि मायावती
के वोट बैंक में बड़ी सेंध लग रही है। स्टार-नेल्सन का सर्वेक्षण दो दौर
में उनके मतों में लगातार गिरावट को दिखा रहा है और अगर पिछले चुनाव से
तुलना करें तो यह गिरावट सात फीसद से अधिक की है। महज एक महीना पहले के
सर्वे से तीन फीसद का फर्क आ गया है। यह रुझान रहा तो चुनाव तक और भी
नुकसान हो सकता है। साफ लग रहा है कि मायावती भले ही अपने पुराने वोटों
पर पकड़ बनाए हुई हैं, पर उनकी सोशल इंजीनियरिंग का असर कम होता जा रहा
है। कई सभाओं में उनकी स्पष्ट बौखलाहट को भी इसी के साथ जोड़ कर देखा जाना
चाहिए।
सात में में से केवल दो चरण का वोट पड़ने पर भविष्यवाणी करने का कोई मतलब
नहीं है। पर इतना साफ लग रहा है कि ये चरण उत्तर प्रदेश चुनावों का
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दौर हैं और भले ही पूरे प्रदेश के भूगोल, इतिहास
और नागरिक शास्त्र में काफी फर्क हो, पर यहां से निकले संकेत दिन-ब-दिन
ज्यादा मजबूत होते जाएंगे। पूर्वांचल पहुंचते ही कांग्रेस कुछ कमजोर और
भाजपा थोड़ी मजबूत हो जाती है, पर सपा सिर्फ पश्चिम में कमजोर है। वहां
आखिरी दो दौर में मत पड़ने हैं।
अगर हवा का रुख उसकी तरफ हुआ तो अंतिम दौर आते-आते वह पहलवान हो चुकी
होगी। अगर बसपा ने चुनावी सर्वेक्षणों की भविष्यवाणियों को दरकिनार करके
पहले दो दौर में अपना किला बचाने में सफलता पा ली तो आगे वह भी जमती
जाएगी। पर शासन से पैदा नाराजगी, टिकट काटने में अपनों से हुई अनबन,
अवध-पूर्वांचल का पिछड़ापन और इस इलाके में कांग्रेस और सपा का अच्छा आधार
उसके लिए बड़ी चुनौती बन कर आए हैं।
नेताओं की प्रतिक्रियाएं और उनकी मुद्राएं देखें तो मुलायम सिंह परिवार
को छोड़ कर कोई बहुत आश्वस्त नहीं लगता। अवध-पूर्वांचल में मुलायम सिंह और
समाजवादी पार्टी की गहरी पैठ है। अलबत्ता पश्चिम और बुंदेलखंड में उनकी
कमजोरी जगजाहिर है। दूसरी ओर, जिस तरह से बेनी बाबू और पीएल पुनिया उलझे
या आदित्यनाथ की भाजपा के ही कई नेताओं से ठनी है वह सब भी इन कथित
राष्ट्रीय पार्टियों की कमजोर स्थिति की ओर इशारा करता है। घोषणापत्र और
वायदों के बगैर अपनी वापसी के लिए जूझ रहीं मायावती आत्मविश्वास दिखाने
का चाहे जितना प्रयास करें, पर उनकी बेचैनी भी जब-तब प्रकट हो ही जाती
है।
Tuesday, February 14, 2012
शुरुआती संकेतों के मायने
Tuesday, 14 February 2012 09:53
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment