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Friday, July 2, 2010

Fwd: चाहता हूं, इतिहास के गोरे पन्‍ने थोड़े सांवले हो जाएं



---------- Forwarded message ----------
From: avinash das <avinashonly@gmail.com>
Date: 2010/7/2
Subject: चाहता हूं, इतिहास के गोरे पन्‍ने थोड़े सांवले हो जाएं
To: mohallalive@gmail.com



यह कविता सबसे पहले हमारे पत्रकार दोस्‍त विष्‍णु राजगढ़‍िया ने भेजी। कविता को लेकर पहले जैसा हुलास अब बाकी नहीं है, इसलिए मेल बॉक्‍स में विष्‍णु जी की पाती यूं ही पड़ी रही। उनसे एक दो बार फोन पर बात हुई, तो उन्‍होंने जोर देकर कहा कि आपको कविता पढ़नी चाहिए। अभी कल राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर गया, तो रंग प्रसंग के कमरे में कवि नीलाभ किसी से फोन पर बातें कर रहे थे और इस कविता की तारीफ दर तारीफ किये जा रहे थे। कह रहे थे, रेयाज के ब्‍लॉग पर है यह कविता। तब मुझे लगा कि मामला गंभीर है और मैंने उन्‍हीं से लेकर रणेंद्र जी की ये कविता पढ़ी। रणेंद्र जी अपने मित्र हैं और मुझे वाकई शर्मिंदगी हुई कि मैंने इतने कैजुअल ढंग से इस पूरे मामले को क्‍यों लिया। इस कविता में कवि कहता है कि वह उन तमाम चीजों पर कविता लिखने की कोशिश कर रहा है, जिनको इतिहास और जीवन के धवल-सवर्ण पन्‍नों जगह नहीं मिलती।



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चाहता हूं, इतिहास के गोरे पन्‍ने थोड़े सांवले हो जाएं

2 July 2010 7 Comments

♦ रणेंद्र

यह कविता सबसे पहले हमारे पत्रकार दोस्‍त विष्‍णु राजगढ़‍िया ने भेजी। कविता को लेकर पहले जैसा हुलास अब बाकी नहीं है, इसलिए मेल बॉक्‍स में विष्‍णु जी की पाती यूं ही पड़ी रही। उनसे एक दो बार फोन पर बात हुई, तो उन्‍होंने जोर देकर कहा कि आपको कविता पढ़नी चाहिए। अभी कल राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर गया, तो रंग प्रसंग के कमरे में कवि नीलाभ किसी से फोन पर बातें कर रहे थे और इस कविता की तारीफ दर तारीफ किये जा रहे थे। कह रहे थे, रेयाज के ब्‍लॉग पर है यह कविता। तब मुझे लगा कि मामला गंभीर है और मैंने उन्‍हीं से लेकर रणेंद्र जी की ये कविता पढ़ी। रणेंद्र जी अपने मित्र हैं और मुझे वाकई शर्मिंदगी हुई कि मैंने इतने कैजुअल ढंग से इस पूरे मामले को क्‍यों लिया। इस कविता में कवि कहता है कि वह उन तमाम चीजों पर कविता लिखने की कोशिश कर रहा है, जिनको इतिहास और जीवन के धवल-सवर्ण पन्‍नों जगह नहीं मिलती : अविनाश

शब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौंदर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन

जीवन ही ठीक से जान लूं अबकी बार

जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछुए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूं

अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताये मीडिया के
आठों पहर शोर से गूंजता दिगंत
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता

अभी तो,
राजपथ की एक-एक इंच
सौंदर्य सहेजने और बरतने की अद्‌भुत दमक से
चौंधियायी हुई हैं हमारी आंखें

अभी तो,
राजधानी के लाल सुर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं

अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरुक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है

अभी तो,
राजपरिवारों और सुखयात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमांत किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की वर्दियां पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चंद जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैं

अभी तो,
बस्तर की इंद्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लंबी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैं

अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आंचल की छांह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फंस कर छूट गया है

अभी तो,
तीन दिन – तीन रात अनवरत चलने से
तुंबे से सूज गये पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गये
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिवाइयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किंतु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है

अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूं
वह गेहूं की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी

अभी तो,
चाहता हूं कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहू का सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें

लेकिन सौंदर्य के साधक, कलावंत, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिंतित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परंपरा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही

अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएं
द्रौपदी संताल, सीके जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और … और …

गोरे पन्ने थोड़े संवला जाएं

अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उंगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूं

(रणेंद्र। कथाकार, कवि। लंबे अरसे से विभिन्‍न पदों पर रहते हुए झारखंड सरकार में नौकरी। विभिन्‍न अखबारों-पत्रिकाओं में स्‍तंभ और रचनात्‍मक लेखन। सुधीर पाल के साथ मिल कर झारखंड इनसाइक्‍लोपीडिया का संपादन। एक उपन्‍यास ग्‍लोबल गांव के देवता ज्ञानपीठ से प्रकाशित। उनसे kumarranendra@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है।)

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Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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