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Tuesday, August 15, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-चार रवींद्र की चंडालिका में बौद्धमय भारत की गूंज है तो नस्ली रंगभेद के खिलाफ निरंतर जारी चंडाल आंदोलन की आग भी है। चंडालिका का सामाजिक यथार्थ सुदूर अतीत का बौद्धकालीन यथार्थ नहीं है यह रवींद्रसमय का चंडाल वृत्तांत है पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-चार

रवींद्र की चंडालिका में बौद्धमय भारत की गूंज है तो नस्ली रंगभेद के खिलाफ निरंतर जारी चंडाल आंदोलन की आग भी है।

चंडालिका का सामाजिक यथार्थ सुदूर अतीत का बौद्धकालीन यथार्थ नहीं है यह रवींद्रसमय का चंडाल वृत्तांत है

पलाश विश्वास

रवींद्र की रचनाधर्मिता सिरे से सामाजिक यथार्थ की जमीन पर आधारित है।वे भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्या असमानता और अन्याय  के नस्ली भेदभाव को कमानते रहे हैं और इसीलिए उनका धर्म मनुष्यता का धर्म है और उनका जीवन दर्शन भी मनुष्यता का दर्शन है।रवींद्र की चंडालिका में बौद्धमय भारत की गूंज है तो नस्ली रंगभेद के खिलाफ निरंतर जारी चंडाल आंदोलन की आग भी है।

इतिहास बोध और वैज्ञानिक दृष्टि रवींद्र दर्श की सबसे बड़ी विशेषताएं है।जाहिर है कि प्रतिक्रियावादी,प्रतिगामी,इतिहास और विज्ञानविरोधी नस्ली रंगभेद के राजकाज के वे सबसे बड़े शत्रु हैं और वर्चस्ववादी विद्वतजनों के लिए भी उनकी प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता के अखंड पाखंड के बावजूद रवींद्रनाथ दुश्मन नंबर वन है।

रवींद्र के राष्ट्रवादविरोधी मनुष्यता के विमर्श का मूल स्वर अस्पृश्य चंडालिका की जीवनयंत्रणा है और गौरतलब है कि यह चंडालिका प्रकृति है और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता का वृत्तांत है चंडालिका तो यह चंडाल आंदोलन और भारत के तमाम किसान आदिवासी जनविद्रोहों और आंदोलनों के इतिहास की निरंतरता भी है।

जाहिर है कि  सामाजिक विषमता,असमता और अन्याय के खिलाफ उनकी रचनाधर्मिता के मूल स्वर को ही साहित्य और संस्कृति पर काबिज विद्वतजनों के सत्ता वर्ण वर्चस्व ने सिरे से ऩजरअंदाज करके उस पर किसी भी स्तर पर  कोई चर्चा उसी तरह नही होने दी जैसे कि सत्ता वर्ग की राजनीति ने अस्पृश्यता  के विशुद्ध रंगभेदी भारतीय सामाजिक यथार्थ को सिरे से नजरअंदाज कर दिया और असमानता और अन्याय की मनुस्मृति विधान को भारत के संविधान का पर्याय बना दिया है।

राष्ट्रवाद पर लिखे आलेख की शुरुआत में ही वे लिखते हैंः

OUR REAL PROBLEM in India is not political. It is social. This is a condition not only prevailing in India, but among all nations. I do not believe in an exclusive political interest. Politics in the West have dominated Western ideals, and we in India are trying to imitate you. We have to remember that in Europe, where peoples had their racial unity from the beginning, and where natural resources were insufficient for the inhabitants, the civilization has naturally taken the character of political and commercial aggressiveness. For on the one hand they had no internal complications, and on the other they had to deal with neighbours who were strong and rapacious. To have perfect combination among themselves and a watchful attitude of animosity against others was taken as the solution of their problems. In former days they organized and plundered, in the present age the same spirit continues - and they organize and exploit the whole world.

But from the earliest beginnings of history, India has had her own problem constantly before her - it is the race problem. Each nation must be conscious of its mission and we, in India, must realize that we cut a poor figure when we are trying to be political, simply because we have not yet been finally able to accomplish what was set before us by our providence.


ऱूस से लिखे पत्रों में सोवियत संघ में कृषि सुधार और सामुदायिक कृषि पर रवींद्रनाथ ने विस्तार से लिखा है।ये पत्र हिंदी में अनूदित हैं और वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की ई पत्रिका पर उपलब्ध है।

इन पत्रों में जाहिर है कि रवींद्र नाथ ने उसी तरह दलित शब्द का प्रयोग नहीं किया है,जैसे अस्पृश्यता के खिलाफ बुद्धकथा केंद्रित गीति नाट्य चंडालिका में दलित शब्द का प्रयोग नहीं हुआ। इसलिए इस अनुवाद से रवींद्र के दलित विमर्श के बारे में पाठकों की कोई धारणा नहीं बनी होगी।

सोवियत संघ में सामुदायिक कृषि का ब्यौरा देते हुए रवींद्रनाथ ने भारतीय किसानों और मेहनतकशों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का बेहद दर्दनाक चित्रण किया है, जिसकी मूल संवेदना तक पहुंचने के लिए बांग्ला में लिखे मौलिक पत्रों का पाठ जरुरी है।

शुरुआत में ही बंगाल के अछूत किसानों और मेहनतकशों की हालत के बारे में रवींद्र ने लिखा हैः

চিরকালই মানুষের সভ্যতায় একদল অখ্যাত লোক থাকে, তাদেরই সংখ্যা বেশি, তারাই বাহন; তাদের মানুষ হবার সময় নেই; দেশের সম্পদের উচ্ছিষ্টে তারা পালিত। সব চেয়ে কম খেয়ে, কম পরে, কম শিখে, বাকি সকলের পরিচর্যা করে; সকলের চেয়ে বেশি তাদের পরিশ্রম, সকলের চেয়ে বেশি তাদের অসম্মান। কথায় কথায় তারা রোগে মরে, উপোসে মরে, উপরওয়ালাদের লাথি ঝাঁটা খেয়ে মরে—জীবনযাত্রার জন্য যত-কিছু সুযোগ সুবিধে সব-কিছুর থেকেই তারা বঞ্চিত। তারা সভ্যতার পিলসুজ, মাথায় প্রদীপ নিয়ে খাড়া দাঁড়িয়ে থাকে—উপরের সবাই আলো পায়, তাদের গা দিয়ে তেল গড়িয়ে পড়ে।

सतह से नीचे जिंदगी गुजर बसर करने वालों के प्रति कुलीन सवर्ण वर्चस्व के समांतर सोवियत व्यवस्था में किसानों और मेहनतकशों की चर्चा में रवींद्रनाथ ने सीधे तौर पर अस्पृश्यता का उल्लेख नहीं किया है लेकिन जूठन पर जीने वाले लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थितियों,वंचना और उत्पीड़ना का वृतांत वहां है,जैसे उनकी मशहूर कविता दो बीघा जमीन बेदखली की कथा है,जो भारतीय अर्थव्यवस्था का मौलिक चरित्र है-अस्पृश्यों,बहुजनों के जल जंगल जमीन के अपहरण और विकास की कथा।

इसी सिलसिले में चंडालिका बेहद महत्वपूर्ण है.जहां सीधे तौर पर भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता के विरुद्ध रवींद्रनाथ उसी तरह प्रहार करते हैं,जैसे भारत के मूलनिवासी बहुजन आंदोलन के तमाम नेता और विचारक महात्मा ज्योतिबा फूले,नारायण स्वामी,बाबासाहेब अंबेडकर और पेरियार।

चंडालिका की कथा रवींद्रनाथ ने प्राचीन बौद्ध साहित्य से उठाया है और इसमें अछूत कन्या प्रकृति के हाथों पेयजल स्वीकार करने के बाद जो प्रेमकथा और विरह वृतांत है और भिक्षु आनंद को जादू से अपनी तरफ खींचने का उपक्रम है,उसके सौंदर्य शास्त्र पर खूब चर्चा होती रही है।

प्रकृति के प्रेमजाल से मुक्त होने के लिए आनंद गौतम बुद्ध से प्रार्थना करते हैं और महात्मा बुद्ध उन्हें मुक्त करते हैं।इसमे सभी मनुष्यों की समानता और आत्मसम्मान की स्वीकृति और अस्पृश्यता से मुक्ति के बुद्धम् शरणम् गच्छामि के विमर्श को सिरे से नजरअंदाज किया गया है।

बंगाल में मनुस्मृति व्यवस्था कभी लागू नहीं थी।

ब्राह्मणधर्म के भूगोल से बंगाल और समूचा पूर्वोत्तर भारत बाहर रहा है।

पाल वंश के पतन के बाद राजा बल्लाल सेन के शासनकाल में बंगाल में राजकीय संरक्षण में  आर्यावर्त से ब्राह्मणधर्म आयातित किया गया,जिसे चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव आंदोलन से सामाजिक वैधता मिली।

अन्यथा बल्लाल सेन ने बंगाल के बहुसंख्य बौद्धों का व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण जबरन किया और ब्राह्मणधर्म के हिंदुत्व की जाति व्यवस्था को अस्वीकार करने की वजह से भारी पैमाने पर बौद्धों ने इस्लाम अपना लिया।

जाहिर है कि चंडालिका का सामाजिक यथार्थ सुदूर अतीत का बौद्धकालीन यथार्थ नहीं है यह रवींद्रसमय का चंडाल वृत्तांत है,जिसे साहित्य के वर्चस्ववादी सौंदर्यशास्त्र के विशुद्धतावादी कुलीनतंत्र के लिए विमर्श से बाहर रखने की राजनीति पर चर्चा लगभग असंभव है,क्योंकि बहुजनों और अस्पृश्यों को  रवींद्र साहित्य के बारे में जानकारी नहीं के बराबर हैं और उन्हें रवींद्र नाथ के खिलाफ लामबंद कर दिया गया है।

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में बंगाल,बिहार,झारखंड,छत्तीसगढ़,असम,पूर्वी बंगाल,पूर्वोत्तरसे लेकर समूचे मध्य भारत ,महाराष्ट्र और आंध्र तक शूद्रों और आदिवासियों का राज रहा है।

किसानों और आदिवासियों ने पलाशी की लड़ाई के तुरंत बाद एक के बाद एक जनविद्रोह का सिलसिला जारी रखा जो भारत की स्वतंत्रता के बाद भी जल जंगल जमीन का सिलसिलेवार आंदोलन है।

इसी सिलसिले में बंगाल का चंडाल आंदोलन बेहद महत्वपूर्ण है,जो सेनवंश के राजकाज के दौरान संगठित तौर पर चल नहीं सका और वैष्णव आंदोलन की उदारता की वजह से प्रतिरोध की जमीन बनी नहीं।लेकिन इस्लामी शासन के दौरान जनपदों की लोकसंस्कृति के माध्यम से अस्पृश्यता के खिलाफ महासंग्राम निरंतर जारी रहा है।

ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध चुआड़ विद्रोह,संथाल और मुंडा विद्रोह,भील विद्रोह,नील विद्रोह,संन्यासी विद्रोह जल जंगल जमीन के हकहकूक के आंदोलन थे,जो सवर्ण शासकों और जमींदारों के खिलाफ आंदोलन थे।

रवींद्र नाथ ने चंडालिका की कथा बौद्ध कथा से ली,लेकिन उल्लेखनीय यह है कि बंगाल में अस्पृश्यता निषेध से पहले तक अछूतों को चंडाल ही कहा जाता था और अस्पृश्यता के खिलाफ ऐतिहासिक चंडाल आंदोलन बंगाल में ही हुआ।नील विद्रोह का नेतृ्तव करने वालों में ब्राह्मणधर्म के खिलाफ मतुआ आंदोलन के प्रवर्तक हरिचांद ठाकुर भी थे,जो भूमि सुधार की मांग लेकर उनीसवीं सदी से आंदोलन चला रहे थे।

वीकिपीडिया के मुताबिकः

Namasudra, also known as Namassej or Namassut, is an Indian avarna community originally from certain regions of Bengal, India. The community was earlier known as Chandala or Chandal,[1] a term usually considered as a slur.[2] They were traditionally engaged in cultivation and as boatmen.[3] They lived outside the four-tier ritual varna system and thus were outcastes [4][5]

Joya Chatterji mentions that "in the 1870s, Chandals of Bakarganj and Faridpur boycotted caste Hindus "when they refused to accept an invitation to dine from a Chandal headman; and henceforth they "battled continuously to improve their ritual position" and later claimed the "more respectable title of 'Namasudra' and Brahmin status".[6] However, Niharranjan Ray, a historian, believed that they have a closer relation with north Indian Brahmins, saying "they are of the same line as the Brahmans of north India; indeed there is a closer relation between the north Indian Brahmans and the Bengali Namahsudras than between the north Indian Brahmans and the Bengali Brahmans, Kayasthas and Vaidyas."[7]

From the late 1930s, attempts by the Namasudras of Bengal Presidency, British India, to improve the way in which society perceived them received support from the bhadralok (an influential class). The bhadralok, to increase their own power in Bengal, sought to enlarge their political base by bringing the Namasudras into a united Hindu political community.[6]

Sekhar Bandyopadhyay mentions that the Dalit of Bengal became involved in the Partition related movement, and the "two most important communities, who dominated dalit politics in the province, were the Namasudras and the Rajbanshis".[1]Bandyopadhyay also mentions that the Namasudras, earlier known as the Chandals, who mostly inhabited the districts of East Bengal, were forced to migrate to West Bengal during the Partition of India in 1947.[1]

प्रसिद्ध दलित चिंतक एके विश्वास ने चंडाल आंदोलन के बारे में विस्तार से लिखा है,जो फारवर्ड प्रेस में हिंदी में अनूदित और प्रकाशित है।

चंडालिका के रवींद्र विमर्श की समझ के लिए उसी आलेख का एक अंश पेश हैः


बंगाली बौद्धिक वर्ग, पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने और उदारवादी मानवीय मूल्यों, विज्ञान के सिद्धांतों और आधुनिक ज्ञान से परिचित होने के बावजूद, जाति की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था। 20वीं सदी के पूर्वाद्ध का एक दस्तावेज यह बतलाता है कि ब्राह्मण और अन्य ऊँची जातियां, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) की सबसे बड़ी हिंदू जाति चांडाल के बारे में क्या सोचते थे: "(1) चांडाल गांवों के बाहर रहते हैं; (2) कुत्ते और गधे उनकी संपत्ति हैं; (3) वे शवों से उतारे गए चिथड़े पहनते हैं; (4) वे आवारा होते हैं; (5) उनका मुख्य पेशा शवों को जलाना है; (6) वे राजा के आदेश पर अपराधियों को फांसी पर चढ़ाते हैं; व (7) वे अछूत हैं।" अपने एक लेख में, बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाल के चांडालों के बारे में मनु के दकियानूसी विचारों को उचित ठहराया था। चांडाल, बंगाल के सामाजिक न्याय आंदोलन के अगुवा थे।

पहली 'आम हड़ताल'

ऊँची जातियों के दमनचक्र और शोषण ने चांडालों को उन्हें सताने वालों के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया। फरीदपुर के जिला मजिस्ट्रेट सीए कैली ने 8 अप्रैल, 1873 को ढाका के संभागीय आयुक्त को चिट्ठी लिखकर सूचित किया कि उस साल चांडालों ने "जिले में आम हड़ताल की और यह निर्णय किया कि वे उच्च वर्ग के किसी भी सदस्य की किसी भी हैसियत से सेवा नहीं करेंगे, जब तक कि उन्हें हिंदू जातियों में उससे बेहतर स्थान प्राप्त न हो जाए, जो उन्हें वर्तमान में प्राप्त है।"

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गुरुचंद ठाकुर

एक समकालीन इतिहासविद ने इस हड़ताल को ऊँची जातियों का सामाजिक बहिष्कार निरूपित किया। चांडालों ने तय किया कि वे न तो ऊँची जातियों के लोगों की ज़मीनें जोतेंगे और ना ही उनके घरों की छतों को फुंस से ढकेंगे। यह हड़ताल चार से पांच महीने चली। यह भारत की पहली ऐसी आम हड़ताल थी, जिसके संबंध में आधिकारिक अभिलेख उपलब्ध हैं। अन्य जिलों जैसे बारीसाल, ढाका, जैसोर, मैमनसिंह व सिलहट के चांडालों ने भी फरीदपुर के अपने साथियों से हाथ मिला लिया। सन 1871 की जनगणना के अनुसार, बंगाल में 16,20,545 चांडाल थे। इन पांच विशाल जिलों के हड़ताली चांडालों की संख्या 11,91,204 (कुल आबादी का 74 प्रतिशत) थी। भद्रलोक (ब्राह्मणों, बैद्यों और कायस्थों का जाति सिंडीकेट) को निशाना बनाने वाली इस विशाल हड़ताल की सफलता, निरक्षर चांडालों की संगठनात्मक और परस्पर एकता कायम करने की क्षमता की द्योतक थी।


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