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Thursday, September 1, 2016

हत्याकांडों के शहीदों के लिए न्याय मांगते हुए ऐसा लगता है कि उन शहीद हुए लोगों और राज्य के लिए लड़ने वालों को, सिर्फ हत्याकांडों के लिए ही न्याय नहीं चाहिए,बल्कि जैसा राज्य बन गया है,उसका इन्साफ किये जाने की भी दरकार है.


इंद्रेश मैखुरी


उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान 1994 में आज ही के दिन-1 सितम्बर को खटीमा में जघन्य गोलीकांड हुआ,जिसमे 7-8 लोगों को अपनी जान गंवानी पडी.शांतिपूर्ण तरीके से जुलूस निकाल रहे लोगों पर गोली चलाना एक बर्बर कृत्य था.लोगों के अहिंसक आन्दोलन को भी तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार ने बेहद क्रूर तरीके से निपटने का रास्ता चुना ,जिसमें लोगों के हताहत होने का सिलसिला खटीमा से शुरू हो कर मसूरी,मुजफ्फरनगर तक जारी रहा.राज्यपाल का शासन हुआ तो श्रीयंत्र टापू गोलीकांड हुआ.एक आजाद देश में लोकतान्त्रिक तरीके से अलग राज्य की मांग की कीमत हमने 40 से अधिक शहादतों के रूप में चुकाई.हैरत यह है कि इन जघन्य हत्याकांडों के घटित होने के 22 वर्षों के बाद भी हम न्याय का इन्तजार कर रहे हैं.इसी बीच में जिसके लिए ये शहादतें हुई, वह राज्य भी अस्तित्व में आ चुका है.लेकिन पिछले 15 सालों में कांग्रेस-भाजपा के बारी-बारी सत्ता में आने के चक्रानुक्रम के साथ जैसा राज्य बना है,क्या ऐसे राज्य के लिए तमाम शहादतें और कुर्बानियां थी? जमीन,शराब और खनन के माफिया के वर्चस्व वाले,नेताओं-नौकरशाहों के भ्रष्टाचारी गठबंधन वाले,राज्य को देख कर तो ऐसा नहीं लगता कि ऐसे जनता के हितों पर कुठाराघात करते राज्य के लिए किसी को भी शहीद होना चाहिए.हत्याकांडों के शहीदों के लिए न्याय मांगते हुए ऐसा लगता है कि उन शहीद हुए लोगों और राज्य के लिए लड़ने वालों को, सिर्फ हत्याकांडों के लिए ही न्याय नहीं चाहिए,बल्कि जैसा राज्य बन गया है,उसका इन्साफ किये जाने की भी दरकार है.

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