जो नपुंसक है,वह मजनूं कैसे हुआ करै हैं,कोई महाजिन्न से पूछकर बतावै!
जिन्हें किसानों की खुदकशी से मुनाफावसूली का बिजनेस राजकाज चलाना हो,वे क्या किसानों की परवाह करें।औरत की देह जिनके लिए मांस का दरिया हो वे क्या किसी की अस्मत के आगे सर नवाये क्योंकि उनका मजहब भी झूठा,ईमान भी फरेब,इबादत सरासर बेईमानी और रब भी उनका किराये का,नपुंसक है या नहीं वह रब भी वे तय करें कि इस देश के किसान किसी लिहाज से रब से कम नहीं।
बादल फटने लगे हैं कारवां की जिद में
हम डूब में हैं और पता नहीं है हमें
सहर होगी या नहीं फिर कभी
अंधियारे के राजकाज में जाहिर
यह भी सिरे से नामालूम
हिंदू राष्ट्र में खून किसी का खौलता नहीं
कि किसी खुदा का फतवा है कि
इस देश के किसान या मजनूं है
या फिर नपुंसक सिरे से,जाहिर
कि खुदकशी कर रहे किसान
वे हरगिज नपुंसक नहीं यारो
जो बीवी से मुंह चुराते हैं
जो बोल रहा है बेखौफ वह लेकिन
सैन्य राष्ट्र के फासिज्म के लिए
बेहद खतरनाक देशद्रोही
हर शख्स लेकिन न मणिपुर है
और न छत्तीसगढ़,शुक्रिया
पलाश विश्वास
तुर्की की इस तस्वीर में फिलहाल हम नहीं है,लेकिन हो सकते हैं शामिल कभीभी।
Turkey: 30 young socialists massacred in Suruç suicide bombing » peoplesworld The attack in the southern city of Suruç targeted a gathering of 300 Socialist Youth Associations Federation (SGDF) members from Istanbul.
इन सभी को सलाम कि वे इंसानियत के कातिर कुर्बान हो गये।
कारंवां कहीं नजर ही नहीं आ रहा है दोस्तों।बादलों की जिद की क्या औकात।वली जो कहलाये इन दिनों वह दरअसल मवाली है,वली तो हरगिज नहीं।मानसून पूरा का पूरा फट जाया करें ,लेकिन हमारी नींद में खलल यकीनन होगी नहीं।चीखें चाहे जितनी तेज हों खिड़कियों पर दीवारें बसा लेंगे हम और सुनामी और भूकंप के सिलसिले में मलाई रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग की औलाद बने रहेंगे हम।
वरना यह क्या कि इस देश का कौन शख्स है ऐसा शंहशाह आलम जहांपनाह कि उसका खेती और देहात से कोई रिश्ता नाता न रहा हो कभी।जिसकी कोई पीढ़ी कभी काश्तकारी या शेतकरी से नत्थी हुई न कभी।फिर भी खुदा का फरमान है कि किसान जो खुदकशी करै हैं वे या तो मजनू हैं या पिर नपुंसक है।
हकीकत चाहे जो हो,लेकिन समझ में न आने वाली बात तो यह है कि जो नपुंसक है,वह मजनूं कैसे हुआ करै हैं,कोई महाजिन्न से पूछकर बतावै!
बाल की खाल निकालें तो बात निकलेंगी और हजारों हजार साल की दूरियां तय करके बाबुलंद सवालिया निशान बन जायेगी कि जो असल में वली है,या रब,वही दरअसल नपुंसक है और नपुंसक कोई और जो हो,सो हो,वली या मजनूं हरगिज हो नहीं सकता।रंगा सियार जैसे शेर नहीं हो सकता।
मोहतरमा कोई अजीज पढ़ रही हों तो तोबा,हमारी गुस्ताखी माफ करें कि हम दुनियाभर की औरतों की तौहीन करने वाले नहीं हैं ,इस पर भी यकीन करें।औरतखोर मर्दों के फासिज्म के हालाते बयां पर हम महज तकनीकी खामी बता रहे हैं।
वरना औरतों के खिलाफ यह उतनी ही बड़ी बदतमीजी है जितनी इस देश के लोगों के मुंह और पेट तक अन्न पहुंचाने वालों की।
जिन्हें किसानों की खुदकशी से मुनाफावसूली का बिजनेस राजकाज चलाना हो,वे क्या किसानों की परवाह करें।औरत की देह जिनके लिए मांस का दरिया हो वे क्या किसी की अस्मत के आगे सर नवाये क्योंकि उनका मजहब भी झूठा,ईमान भी फरेब,इबादत सरासर बेईमानी और रब भी उनका किराये का,नपुंसक है या नहीं वह रब भी वे तय करें कि इस देश के किसान किसी लिहाज से रब से कम नहीं।
मुहब्बत की तमीज जिन्हें है नहीं हरगिज,वेही हैं फासिज्म के राजकाज के सिपाहसालार और नफरत ही उनका कारोबार।
महब्बत का किस्सा अजब गजब है।
मुहब्बत का जलवा अजब गजब है।
मसलन जिस महाश्वेता दी को व्हील चेयर पर बिठाकर 21 जुलाई की रैली में अपनी ढहती हुई साख पर परदा डालने के लिए ले आयीं दीदी हमारी और बेहद अस्वस्थ जिनसे उनने कहलवाया कि बंगाल अव्वल ठैरा और बाकी राज्यों में राजकाज फिसड्डी, मुहब्बत का कारनामा यह कि वही महाश्वेतादी बादल फटते नजारों के बीच डूबते हुए कोलकाता में भीगी भीगी बहारों की फिजां में घर से ऐसे निकली जैसे हानीमून पर हों और सीद्धे पहुंच गयी नवान्न।
गलत न समझें ,वे ममता नाम की किसी मुख्यमंत्री के दरवज्जे मत्था ठेकने नहीं गयीं जो खुद उन्हें आंदोलन की जननी कहकर हजार बार सलाम करती हैं और उनके बुलावे पर कहीं भी जा सकती हैं।
बंगाल में तृणमूली क्या खाक समझेंगे किसी महाश्वे देवी को।वामपंथी तो खैर कभी न समझे हैं उन्हें।इन दिनों कोलकाता में महाश्वेता दी को ममता के अलावा कोई पूछता भी नहीं है।हम भले इत्तफाक करें या न करें ममता के कामाज राजकाज से उनकी शुक्रिया कि वे कमसकम हमारी महाश्वेता दी को पलक पांवड़े पर बिठाये रखा हैं जबकि हमने उन्हें तन्हा तन्हा छोड़ दिया है।
किसान का बेटा हूं।फिर देश के किसानों की तरह अधनंगे,कैंसर से रीढ़गले लेकिन सीधी रीढ़ के पुलिनबाबू का बेटा हूं और बसंतीपुर का वारिश हूं,रब से भी खौफ नहीं करने की विरासत है हमारी कि हमारी हजारों पुश्तें जल जंगल जमीनकी हिफाजत के वास्ते कुर्बान हैं,इसलिए महाश्वेता दी के लिखे हमारे इतिहास के पन्नों को भूल नहीं सकता चाहें वे तन्हा हालत में किसी से भी नत्थी हों।
बादल क्यों फटते हैं,हमें मालूम है।
हिमालय क्यों ज्वालामुखी में तब्दील है,हमें मालूम है यकीनन।
हमें मालूम है कि क्यों छत्तीसगढ़,मणिपुर या कश्मीर आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे के लाल निशान हैं।
हमें मालूम है कि सोने का भाव अचानक क्यों गिर रहा है और सेनसेक्स का सेक्स क्या है।
हमें मालूम है कि डूब का सिलसिला कहां से शुरु है।
हमें मालूम है कि समुंदर क्यों जल रहा है और दसों दिशाओं में कमल क्यों खिलखिलाकर खिल रहा है।
यही हमारा अपराध है चाहे तो तीस्ता बना दो या साईबाबा।
जिस मुल्क में फासिज्म का राजकाज हो,सिर्फ नपुंसकों को बोलने लिखने की इजाजत हो और बाकी लोग खामोश हैं,सोच और ख्वाबों पर जहां पाबंदी हो और परिंदे या तितलियों के डैनों पर जहां जंजीरे हों और हर घर पिंजड़ें में तब्दील हो,खेत खलिहान जल रहे हों,किसान खुदकशी कर रहे हो,सबकुछ लुट रहा हो,डाकुओं और रहजनों के इस मुकाम पर सच जानना और सच कहना भी किसी कत्ल के मुकदमे में चश्मदीद गवाह होना है और मारे जाना है।
महब्बत का किस्सा अजब गजब है।
मुहब्बत का जलवा अजब गजब है।
बहरहाल महाश्वेता देवी को हमने अकेले में नवान्न के सारे गीत सिलसिलेवार गाते हुुए सुना है।जो नवान्न उनके पति और नवारुण दा के पिता बिजन भट्टाचार्य ने लिखा था और मामूली तकरार से जिस पति से उनका तलाक हो गया था और दूसरी शादी भी कर ली थी महाश्वेता देवी ने।अपने इकलौते बेटे से तजिंदगी अलग रहीं जो और कैंसर से घुट घुटकर मरते इकलौते बेटे के सिर पर हाथ फेरने जो कभी नहीं गयीं,बरसात के इस मौसम में वे भयंकर अस्वस्थता के हाल में उसी नवान्न को छूने चली गयीं किसी की खातिर।
मुहब्बत का किस्सा अजब गजब है।
मुहब्बत का जलवा अजब गजब है।
फासिज्म का कारिंदा क्या जाने की मुहब्बत क्या है।
सुहागरात से पहले पत्नी का परित्याग करने वालों की जमात क्या जानें कि मजनूं की क्या औकात है।
कोई नपुंसक ही यह हिमाकत कर सकै है कि कहैं कि नुंसक हैं ,इसीलिए खुदकशी कर रहे हैं किसान।
क्यों भइये,बाबासाहब के नाम रोना क्यों,जबकि हमने उनके संविधान खत्म होने दिया और अब रिजर्व बैक का काम भी तमाम!
राजन साहब,मरी आवाज आप तक पहुंच रही है तो गुजारिश है कि अब पहेलियां बूझने की तकलीफ हरगिज न करें कि फासिज्म के राजकाज में अब रिजर्व बैंक की कोई भूमिका है नहीं,हो भी तो रिजर्व बैंक के गवर्नर नाम के मैनेजर की सेवाओं की भारतीय महाजनी औपनिवेशिक सामंती सैन्य अर्थव्यवस्था को कोई जरुरत हैं नहीं।
शुक्र मनाइये कि फासिज्म के राजकाज से आपको बार बार रेट में कटौती के आदेश अब फिर नहीं मिलेंगे।बाजार को जैसी और जितनी कटौती पुरकश मुनाफावसूली के लिए जरुरी होगी,वैसा बाजार के लोग खुद ही कर लेंगे और इसके लिए बगुला विशेषज्ञों की समिति बनने वाली है जिसमें जाहिर है कि सरकारी आदमी कोई रहेगा नहीं और आप होंगे तो बी आपकी चलेगी नहीं।
योजना आयोग का खात्मा जैसे हो गया वैसे ही हूबहू भारतीय रिजर्व बैंक का अवसान है।इमारत चाहे बनी रहे,बंक भी शायद वही हो,लेकिन मौद्रिक बंदोबस्त और भारतीय बैंकिंग से भारतीयरिजर्व बैंक का नाता हमेशा हमेशा के लिए खत्म होने वाला है।वह भी आपही के कार्यकाल में।
जैसे बैंकिंग अधिनियम में संशोधन के जरिये सरकारी क्षेत्र के बैंकों में शेयर रखने की हदबंदी खत्म करके उन्हें आजाद कर दिया गया है और हर सरकारी बैंक का प्रबंधन निजी हाथों में है वैसे ही रिजर्व बैंक के सारे सत्ताइस महकमे निजी क्षेत्र के सेवकों के हवाले हैं और आपके उच्च विचारों से हम अबतक अनजान हैं।
मीडिया की खबर यह है कि सरकार ने नीतिगत दर के निर्धारण में रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति के निर्णय पर केंद्रीय बैंक प्रमुख के 'वीटो' के अधिकार को वापस लेने का प्रस्ताव किया है। इस प्रस्ताव से रिजर्व बैंक प्रमुख की शक्तियां कम हो सकती हैं।
वित्त मंत्रालय ने भारतीय वित्तीय संहिता (आईएफसी) के संशोधित मसौदे को जारी किया है। इसमें यह प्रस्ताव किया गया है कि शक्तिशाली समिति में सरकार के चार प्रतिनिधि होंगे और दूसरी तरफ केंद्रीय बैंक के 'चेयरपर्सन' समेत केवल तीन लोग होंगे।
संहिता के मसौदे में 'रिजर्व बैंक के चेयरपर्सन' का उल्लेख है, न कि गवर्नर का। फिलहाल रिजर्व बैंक के प्रमुख गवर्नर हैं। वित्तीय क्षेत्र में बड़े सुधार के इरादे से लाए जा रहे आईएफसी में मौद्रिक नीति समिति का प्रस्ताव किया गया है, जिसके पास प्रमुख नीतिगत दर के बारे में निर्णय का अधिकार होगा और खुदरा मुद्रास्फीति पर उसकी निगाह होगी तथा खुदरा मुद्रास्फीति वार्षिक लक्ष्य सरकार हर तीन साल में केंद्रीय बैंक के परामर्श से तय करेगी।
मसौदे में कहा गया है, प्रत्येक वित्त वर्ष के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के संदर्भ में वार्षिक मुद्रास्फीति लक्ष्य का निर्धारण केंद्र सरकार रिजर्व बैंक के परामर्श से तीन-तीन साल में करेगी। इस मसौदे पर लोगों से 8 अगस्त तक टिप्पणी मांगी गई है।
गले गले तक विदेशी कर्ज,व्याज,मुनाफावसूली और टैक्स होलीडे के एफडीआई बजट और सरकारी चुनाव खर्च के अलावा वित्तीय नीति तो कोई होती नहीं कारपोरेट वकीलों के प्रबंधन में,मौद्रिक कवायद जो मुनाफावसूली और बुलरन के लिए होती है,वह रेटिंग अब राजन साहेब का वीटो नहीं है।
वद दिन भी दूर नहीं,जब बारत मुकम्मल अमेरिका होगा,रिजर्व बैंक नहीं,कोई और नोट छाप रहा होगा और बैंकिंग पूरी की पूरी विदेशी होगा।रिजर्व बैंक का जैसे काम तमाम हुआ,बैंकिग अधिनियम में पास बेहिसाब शेयरों के दम बाकी बैंक भी उसी तरह झटके से विदेशी हो जायेंगे।
दिवालिया होगी तो आम जनता,बाकी रईस तो देनदारी और करज से नजात पाने के लिए शौकिया दिवालिया हो जाते हैं और चियारिनों का जलवा फरेब निकाह कर लेते हैं।
यह बहुत बड़ा मसला है हमारे लिए क्योंकि इस तिलिस्म का सारा कारोबार,सारी आर्थिक गतिविधियों के तार और समावेशी विकास से लेकर समता और सामाजिक न्याय के सारेमसले भारतीय रिजर्व बैंक से जुड़े हैं,जिसकी कुल अवधारणा लोकल्याणकारी राज्य की रुह है।
जो हो रहा है वह दरअसल संपूर्ण निजीकरण,संपूर्ण विनिवेश,संपूर्ण विनियंत्र और संपूर्ण विनियमन के जरिये हमारा सबकुछ बाजार के हवाले करने का पुख्ता इंतजाम है और इस मुद्दे पर नगाड़े सारे रंग बेरंग खामोश है और बाकी नौटंकी चालू आहे।
सुबह सुबह इकोनामिक टाइ्म्स में वह खबर पढ़ ली,जिसकी चेतावनी सरकारी बैंकों के श्रमिक कर्मचारी नेताओं,अफसरों और आम कर्मचारियों से पिछले कमसकम दस साल से हम देते रहे हैं।
होता मैं अगर हातिम मियां तो बूत में जान डाल देता और फिर बाबासाहेब से पूछते कि किन नाचीजों के लिए आपने अपनी जिंदगी लगा दी जिन्हें अपने वजूद से भी दगा करने की आदत है।
बहरहाल हातिम ताई महज एक कहानी यमन के राजकुमार हातिम की है, जिसमें वे सात सवालों के जवाब खोजने एक सफर में निकल जाते हैं। अंतिम सवाल के जवाब मिलने के बाद एक युद्ध होता है जिसमें हातिम जीत जाता है और कहानी खत्म हो जाती है।
हमारी तो किसी एक सवाल के मुखातिब होने की औकात नहीं है।जंग क्या खाक लड़ेंगे हम।
हम जो कर सकते हैं वही करते रहेंगे और कर भी रहे हैं वहीं कि बाबासाहेब के नाम रोयेंगे और बाबा साहेब का किया धरा सबकुछ तबाह होते देख भी लेंगे।
बहरहाल जाति उन्मूलन की एडजंडे की बात हम नहीं कर रहे हैं और न बाबासाहेब के समता और सामाजिक न्याय पर कुछ अर्ज कर रहे हैं।भारतीय रिजर्व बैंक बना ही नहीं होता अगर बाबासाहेब प्राब्लम आफ रुपी न लिखते और उस पर जांच आयोग बैठाकर ब्रिटिश हुकूमत ने रिजर्व बैंक की नींव न डाली होती।यह रिजर्व बैंक भी मानता है और हमारे लोगों को मालूम नहीं है।
हम न जाने कितनी पुश्तें और अछूत पिछड़े बने रहने को बेताब हैं और हकीकत से मुंह चुराते रहेंगे सिर्फ जूठन खाते रहकर मलाई में डुबकी लगाने की ख्वाहिशें पालकर।
इतिहास और भूगोल के बदलते नजारें देखने की आंखें कब होंगी हमारे पास न जाने।
फिर हम वही गधों की बिरादरी हैं,बाबासाहेब की मेहरबानी से तनिको कुर्सी पर जमने की आदत हुई है और पुरखों तरह फचेहाल नहीं हैं,सूट बूटचाई के शौकीन हैं और देसी बोल नहीं सुहाते चुंकि जुबान अंग्रेजी टर्राती है।
बाकी हम वही गधों की बिरादरी हैं जो मलमलकर केसरिया मेंहदी चाहे जहां जहां लगा लें केसरिया अश्वमेध के घोड़े हर्गिज न होंगे क्योंकि विशुद्ध आर्यरक्त से देश के बहुजनों का कोई रिश्ता कभी नहीं रहा है और राजकाज मुकम्मल मनुस्मृति शासन है हिंदू राष्ट्र में।
हमें माफ करें कि बिन अर्थशास्त्री हुए हम आर्थिक मसलों पर लगातार अपने लोगों को आगाह करते रहे है क्योंकि राजकाज, राजनय और राजनीति का कुल मसला आर्थिक है और मनुस्मृति भी कोई धर्मशास्त्र नहीं है,मुकम्मल अर्थशास्त्र है।
ग्लोबीकरण,उदारीकरण और निजीकरण का कुल मतलब भी बहुजनों, जो हमारे लिए समूचा उत्पादक वर्ग है,जिसे बाबासाहेब वंचित कहा करते थे और उन्हीं के हक हकूक तय करने में बाबासाहेब ने जिंदगी खपा दी,उन्हीं बहुजनों का सिरे से सफाया है।जो फिर हिंदू राष्ट्र पैदल सेना है।

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