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Sunday, February 15, 2015

गुरू वहै चिनगी जो मेला परंपरा और प्रयोग चिन्तन और रचना के विकल्प।

गुरू वहै चिनगी जो मेला
परंपरा और प्रयोग चिन्तन और रचना के विकल्प। पहले का अनुकरण करो तो नया कुछ भी न मिले पर जिन्दगी चैन से कट जाती है। न संघर्ष होता है न विवाद। क्योंकि इसमें अपना कुछ होता ही नहीं। जो होता भी है वह 'उसने कहा था' या बँधा-बँधाया तर्क जाल। किसी न किसे बहाने परंपरा का पिष्टपेषण। अधिक से अधिक मौन सहमति। उपलब्धि राजयोग, पद, प्रतिष्ठा, वैभव और दायित्व! किसी न किसी तरह से नवोन्मेष को अवरुद्ध करना। सामन्ती समाज के साये में जीते पितरों का निर्देश - यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं ना चरणीयं नाचरणीयं। भले ही तुम्हारे निष्कर्ष सही हों, लेकिन समाज की मान्यताओं के अनुकूल न हों तो उन्हें अपने मन में ही रखो। कहो वही, जो लोग कहते हैं या मानते हुए से दिखते हैं। इसी में श्रेय है। यही प्रेय है। अर्थ के चक्कर में मत पड़ो। केवल शब्दों की अनुकृति करो। अनुकृति ही श्रेयस्कर है।
यह उनका मत है जिनके किसी ऋषि ने यह भी कहा था कि सत्य का मुख सोने के पात्र से ढका हुआ है, अतः सत्य और वास्तविक धर्म को जानने के लिए उसे हटाना आवश्यक है। सोने का पात्र या निहित स्वार्थ। लेकिन जिसने भी हटाने की चेष्टा की या तो उसे भी अवतार के जाल में निबद्ध कर लिया गया अथवा असुर बना दिया गया। चार्वाक ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत तक सीमित कर दिये गये। कौत्स ऋषि इसलिए इतिहास में दफन कर दिये क्योंकि उन्होंने वेदों को मात्र पूर्वजों की लोकवार्ता कह दिया था। सुकरात की मान्यताओं की समीक्षा करने के कारण गैलीलियो आजीवन लांच्छना भोगते रहे। अनहलक या मैं भी वही हूँ (सोऽहमस्मि ) कहने पर मंसूर को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। यह कल ही नहीं हुआ, आज भी हो रहा है। जिस किसी ने भी मूल में जाना चाहा, उसे या तो भटका दिया गया या नास्तिक करार कर दिया। स्वयं वेद मंत्रों के अभिप्राय से अनभिज्ञ आचार्यों ने स्नातकों को निर्देश दिया- वैदिक ऋचाओं का अर्थ जानने की चेष्टा मत करो, इसका सस्वर उच्चारण ही पर्याप्त है। वही फलदायक होता है। आज भी यही हमारी शिक्षा व्यवस्था का सार है। रटन्त विद्या खोदन्त पानी। हम अगली पीढि़यों को यह सन्देश देने से कतराते रहे कि विद्या भी रटन्त से नहीं खोदन्त से ही फलीभूत होती है। कारण! रटन्त विद्या समाज और सत्ता के ठेकेदारों के हितों के अनुकूल थी और खोदन्त विद्या उनके हितों या यथास्थिति पर कुठाराघात कर सकती थी।
मैं सिरफिरा! बचपन से मान्यताओं और मन्तव्यों के मूल तक पहुँचने का प्रयास करता रहा। दादी से पूछता रहा, पिता से पूछता रहा। ऐसा करने से क्या होता है? ऐसा क्यों कहा गया है? दादी कबीर के भजन सुना देती, पिता यद्यपि परम्परा की दुहाई देकर मेरा मुख बन्द कर देते, पर वे स्वयं यायावर थे। रोजी-रोटी के चक्कर में अविभाजित बंगाल में वर्षों भटके थे। बीसवीं शताब्दी के उदय काल में उभरती हुई विचारधाराओं ने उनका भी स्पर्श किया था। अतः परंपरा के पोषक होते हुए भी वे अनुदार हो ही नहीं सकते थे। सामाजिक परिवेश के अनुसार उसकी सारी परंपराओं और संस्कारों का अनुसरण करते हुए भी, वे उन से आबद्ध नहीं थे। फिर भी अपने पुत्र के किसी भी प्रकार के झंझट में पड़ने की चिन्ता तो होती ही है।
यह संयोग था कि देर से ही सही, मुझे अपने शैक्षिक जीवन में अधिकतर अध्यापक भी ऐसे मिले जिनमें छात्रों की जिज्ञासा को तुष्ट करने की ही नहीं उसे और भी बढ़ाने की प्रवृत्ति थी। राजकीय महाविद्यालय, नैनीताल के अंग्रेजी के प्राध्यापक डा. ओमप्रकाश माथुर प्रायः छात्रों से उनके द्वारा नवाधीत पुस्तकों के बारे में पूछते रहते थे। उन में से यदि कोई पुस्तक उन्हें नयी लगती तो वे छात्र से माँगने में भी संकोच नहीं करते थे। अधीत पुस्तकों की विषयवस्तु की साझा समीक्षा भी होती थी।
इतिहास के आचार्य अवधबिहारीलाल अवस्थी भारत के प्राचीन इतिहास ओर संस्कृति के अध्यापक की अपेक्षा उसके भावुक भक्त अधिक थे। यह भावुकता इतनी अधिक थी कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की वाल्हीक विजय को पढ़ाते-पढ़ाते उनके शरीर मे ओज का संचार होने लगता और भुजाएँ मानो फड़कने लगतीं थीं, तो हूणों के विरुद्ध संघर्ष के दौरान स्कन्दगुप्त के तीन दिन तक भूमि में सो कर रात बिताने का वर्णन उनकी छलछलाती आखों में दृश्यमान हो उठता था। इतिहास के प्रति उनका यह लगाव मेरे अन्तःकरण को इतना छू गया कि यदि वे हमारे विद्यालय को छोड़कर लखनऊ विश्वविद्यालय नहीं चले गये होते या मेरे पास लखनऊ में रह सकने के संसाधन होते तो मैं भी प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति को ही अग्रेतर अध्ययन के औपचारिक विषय के रूप में चुनता। फिर भी उनके सान्निध्य में मैं इतना इतिहास पी गया कि वह मेरी अन्तरात्मा का विषय बन गया। यहाँ तक कि अग्रेतर उपाधि और आजीविका के लिए हिन्दी साहित्य की शरण में जाने के बावजूद, उनके सान्निध्य के छः दशक बाद भी इतिहास के प्रति मेरा लगाव कम नहीं हुआ है।
इस भक्तिमार्गी सनातनी और घोर मर्यादावादी संत या दूसरे शब्दों में घोर घनजंघी (जनसंघी) किन्तु परम आत्मीय आचार्य की छत्रछाया से हट कर हिन्दी साहित्य के द्वार पर आते ही मुझे उनके बिल्कुल उलट, परम तंत्राचार्य, स्वभाव से पंचमार्गी, मार्क्सवादी चिन्तक, और हर प्रकार की वर्जना से मुक्त आचार्य विश्वंभरनाथ उपाध्याय का सान्निध्य मिला। वे आचार्य थे और मैं शिष्य। विचारधारा के स्तर पर हम दोनों एक प्रकार से दोस्त थे। एक अवधूत की तरह उनके जीवन का कोई भी पक्ष आवृत नहीं था। कोई वर्जना नहीं थी। एक ओर वे मार्क्सवादी थे तो दूसरी ओर अपने घर के पार्श्व में स्थित सार्वजनिक भूमि को हथियाने के लिए उस पर विश्वम्भर महादेव का मंदिर बनाने से भी उन्हें परहेज नहीं था। स्वभाव से अक्खड़ और बुन्देलखंडी ऐंठन के बावजूद, विश्वविद्यालय के कुलपति का पद पाने के लिए 'दैनिक अमर उजाला' में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायमसिंह के हिन्दी प्रेम पर स्तुतिपूर्ण लेख लिखने और कुलपति का दूसरा कार्यकाल पाने के लिए राज्यपाल मोतीलाल बोहरा की चरण वन्दना से भी परहेज नहीं रहा और न अपने इस आचरण को बताने में कोई संकोच। एक प्रकार से वे भगवती चरण वर्मा की कहानी 'वसीयत' के नायक चूड़ामणि मिश्र के साक्षात प्रतिरूप थे और मैं उनके लिए परम विश्वसनीय जनार्दन मात्र।
व्यक्तिगत स्तर पर इन दोनों आचार्यों से गहन आत्मीय सम्बन्ध होते हुए भी वे मेरे आदर्श नहीं थे। अवस्थी जी प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के तथ्यों के अगाध भंडार थे, पर उनमें इतिहास दृष्टि का अभाव था। उपाध्याय जी विद्वान और इतिहास दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी अपने युग के अधिकतर आचार्यों की तरह आचरण निरपेक्ष व्यक्ति थे। इन दोनों के प्रति गहन लगाव होते हुए भी मेरी अन्तरात्मा ने इन्हें कभी स्वीकार नहीं किया।
आगे चल कर अपने जीवन में अनेक चूड़ामणि मिश्रों से साक्षात्कार हुआ। सम्मोहक व्याख्यान देने में इतने माहिर कि लगता था इस गलीज दुनिया में अकेले वे ही दूध के धुले हैं। कबीर के शब्दों में कथनी मीठी खाँड सी... एक से एक बड़ा छद्म। उपाध्याय जी और इन छद्मों में एक अन्तर था। उपाध्याय जी छ्द्म नहीं थे, न दूसरों के लिए और न अपने लिए। न कोई वर्जना न कोई दुराव। विशुद्ध चार्वाक।
बी.ए. के दिनों में बुद्ध से मैं इतना प्रभावित हुआ कि वे मेरे मन में समाहित हो गये। प्रायः मन ही मन बुद्ध का भावन करता। न अहं, न छिपाव, न दुराव, न गुरुडम, अनुभव की कसौटी पर कसा हुआ चिन्तन। विचारों में न कोई जटिलता, न आडंबर। सीधे और सपाट। जन सामान्य के लिए सहज और सुबोध। उससे भी मह्त्वपूर्ण उनका यह संदेश कि किसी भी समस्या या वैचारिक उलझन के निदान के लिए केवल मेरी ओर मत देखो, उन्हें स्वयं भी हल करने का प्रयास करो- अप्प दीपो भव!
सातवें दशक के हिसाब से प्रतिष्ठित राजकीय माध्यमिक विद्यालय में हिन्दी साहित्य का अध्यापक बनना भी मुझे बड़ा रास आया। एक से एक मेधावी और जिज्ञासु छात्र मिले। किसी अन्य विषय के अध्यापक को उड़ान भरने के लिए इतना निर्बन्ध आकाश तो मिल ही नहीं सकता। फिर यह भी मेरा सौभाग्य था कि परिवेश ने मेरे पंख उगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। छात्रों के साथ बिना किसी आवरण के अविरल विचारोत्तेजक और स्वच्छन्द संवादों और उनकी वैचारिक जिज्ञासाओं का समाधान करने का प्रयास करते-करते मुझे भी गहराई में जाने की आदत पड़ गयी। सच तो यह है कि मेरे रचनाकार के निर्माण में अध्यापकों का उतना योगदान नहीं है, जितना मेरे उन छात्रों का है, जो मेरी दीर्घकालीन शीतनिद्रा के अन्तरालों में मुझे झकझोरते रहे। यह उन्हीं का योगदान है कि मैं अपनी अवधारणाओं और संकलित साक्ष्यों की उनके भौतिक और ऐतिहासिक, सामाजिक और भाषायी परिप्रेक्ष्य में बार-बार समीक्षा करने की प्रेरणा पाता और प्रचलित मान्यताओं पर सवाल उठाता रहा।
औपचारिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद अध्यापन के साथ-साथ अतीत और वर्तमान को परखने में लगा । वर्षों उपरान्त जब एक गैर परंपरागत अन्वेषक के रूप में मेरी छोटी-मोटी पहचान बनने लगी, मित्रों ने दिनमान और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में मेरे सिरफिरे प्रयासों से उपलब्ध सर्वथा नवीन सूचनाओं के बारे में लिखना आरंभ किया, और मुझे विश्वविद्यालयी विचारगोष्ठियों में भाग लेने के अवसर मिलने लगे, तो मेरे आत्मीय आचार्य डा. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने लिखा:
'आपके मन में जो शाश्वत शोधक छिपा है, उसी ने आपको औपचारिक शोध से बचा कर, छोटी नौकरी की सीमाओं से बाँध कर आपको अज्ञात के रोमांच में निमग्न कर दिया। शुरू में लगा था कि यह मार्ग मूर्खतापूर्ण है पर अब लगता है कि आपके मन का राहुल सांकृत्यायन अन्ततोगत्वा सफल हुआ। इतना लम्बा अन्तराल रंग लाया। बधाई! मुझे गर्व है कि आपके अन्तर्मन के उस अविनाशी राहुल को जगाने में मेरा भी थोड़ा-बहुत योगदान रहा। वह राहुल मुझमें भी था, पर मैं सामाजिक यातना और अभावों से बचने के लिए औपचारिक उपाधियों के लिए भी जागरूक रहा और इसीलिए मुझे इतना कष्ट नहीं हुआ। जो मैं नहीं कर सका, वह आप कर रहे हैं। मुझे भय था कि कि आप महत्वाकांक्षा के अभाव में अकिंचन जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो गये हैं, पर शाप भी वरदान होता है, यह आपके जीवन से सिद्ध हो गया है। इस चिनगारी को सुलगाये रहें। गुरू वहै चिनगी जो मेला, जो सुलगाय ले सो चेला।' ( 17 फरवरी 1976)
जब तक सेवा में रहा, रोटी से जुड़ी प्रतिबद्धताओं में इतना खो गया कि उससे बाहर ही नहीं निकल पाया। आठों याम उसी में रम गया। लेकिन इससे जो उपलब्धि हुई, वह मुझे किसी बड़े से बड़े औपचारिक पुरस्कार से भी अधिक मूल्यवान और स्पृहणीय लगती है। खास तौर से जब मेरे किसी पुराने और अब पत्रकार छात्र और उसके देश.विदेश में कार्यरत सहपाठियों को बीस साल बाद भी 'तारे जमीन पर" फिल्म में आमिर खान द्वारा अभिनीत नायक में मेरा प्रतिबिम्ब दिखाई देने लगता है:
(गुरु पूर्णिमा पर श्री ताराचन्द्र त्रिपाठी जी की याद: रामनगर के राजकीय इंटर कॉलेज की उपलब्धियाँ और श्री त्रिपाठी जी पर्यायवाची कहे जा सकते हैं, उससे पहले भी यह विद्यालय अपने अनुशासन और पढ़ाई के लिये जाना जाता था, मगर जी. आई. सी. के माहौल को जीवंत बनाने में उन्होंने अपनी प्रतिभा और अनुभव झोंक दिया था। वह जितने भी साल हमारे स्कूल के प्रधानाचार्य रहे, उन वर्षों को स्कूल का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। तारे जमीन पर फिल्म देखने के बाद मुझे लगा कि त्रिपाठी जी भी कुछ-कुछ शिक्षक बने आमिर खान जैसा ही रोल निभा रहे थे। उस वक्त, भले ही उन्हें ठीक से समझा न गया हो। मगर प्रतिभाओं की पहचान और उन्हें तराशने का काम उन्होंने बखूबी किया। उनके दौर में बने पढ़ाई के उम्दा माहौल से जी. आई. सी. जैसे सुविधाओं को मोहताज स्कूल ने न जाने कितने इंजीनियर, डॉक्टर और जीवन के विविध क्षेत्रों में काम करने वाले बेहतर नागरिक दिये। एक इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य को कैसा होना चाहिये तो मेरा जबाव होगा, बिल्कुल हमारे त्रिपाठी जी की तरह, रचनात्मक, स्वप्नदर्शी, कड़क अनुशासक और मित्रवत। मुझे उम्मीद है, उनके सान्निध्य में पढ़े.बढ़े विद्यार्थी भी उन्हें इसी रूप में याद करते होंगे' )
सेवा के भार से मुक्त हुआ। नयी पीढ़ी को सँवारने का जुनून मेरे अपने बच्चों के भी काम आया। फलतः सेवा से मुक्त होने तक मैं घरेलू दायित्वों से भी मुक्त हो गया। बच्चे बेहतर आजीविका की तलाश में दूर चले गये। अब समस्या यह है कि उनके साथ रहते हैं, तो अपना परिवेश छूटता है और परिवेश से जुड़ते हैं तो दादागिरी का आनन्द दुर्लभ हो जाता है। अकेलेपन के बोध से बचने के लिए तथागत द्वारा सुझाये मध्यम मार्ग का सहारा लिया और कभी उनके साथ और कभी अपने साथ। एक प्रकार से पूरे उत्तरी महाद्वीपों की रज को माथे पर लगाने का सौभाग्य पा गया। जब भी अकेलापन चुभता है, विरासत में प्राप्त चिनगी को सुलगाने में लग जाता हूँ।
जितना भी सुलगा सका, उसे और सुलगाने के लिए अपनी अन्य रचनाओं के साथ इसे भी आपको सौंप रहा हूँ। क्या पता ........या कुमाऊनी का धैं कस........?
वस्तु मेरी है, साक्ष्य परंपरागत और गैर परंपरागत स्रोतों और कहीं.कहीं गूगल महोदय से भी लिये गये हैं। कलेवर, मेरे प्रिय मित्र श्री प्रदीप पाँडे और ज्ञानोदय प्रकाशन के प्रबन्धक श्री अशोक कंसल तथा उनके कुशल शब्द संयोजक श्री श्यामसिंह नेगी की देन है। सभी मेरे आत्मीय हैं अतः शाब्दिक आभार व्यक्त करना, उनके प्रति परायेपन को वाणी देना होगा।
मेरी सद्यप्रकाशित पुस्तक 'शब्द, भाषा और विचार' की भूमिका से

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