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Friday, April 4, 2014

अपसंस्‍कृति की संस्‍कृति

अपसंस्‍कृति की संस्‍कृति

Author:  Edition : 

saifai-mahotsavसमाजवादी सरकार का 'सैफई महोत्सव' सिनेमाई सितारों के वैभव का बिंदास प्रदर्शन करके गुजर गया। इस महोत्सव को अपसंस्कृति का सांस्कृतिक विद्रुप इसलिए माना जा रहा है,क्योंकि यह आयोजन जिस समय सैफई की धरती पर रंगीनियां बिखेर रहा था,उसी समय मुजफ्फरनगर दंगों के पीडि़त खुले आसमान में हड्डियां कंपकपा देने वाली ठंड की मानव निर्मित त्रासदी झेल रहे थे। जाहिर है,ऐसे में एक संवेदनशील और जवाबदेही सरकार का दायित्व बनता है कि वह राहत-शिवरों में कराह रहे लोगों की सुध लेता? वैसे तो वृहत्तर भारत का लोक उत्सवधर्मी है,इसमें किसी को कोई संदेह भी नहीं है। लेकिन किसी प्रदेश की पूरी की पूरी सरकार ठंड से तीन दर्जन से ज्यादा बच्चों की मौत और हजारों लोगों के विस्थापन की पीड़ा से रूबरू होने के बावजूद फूहड़ और भड़काऊ आयोजन के रंग में डूबकर सत्ता के मद में चूर हो जाए तो यह स्थिति समाजवादी चरित्र और लोकतांत्रिक भावना को जानबूझकर नजरअंदाज करने की मानी जाएगी? प्रजातंत्र की जनकल्याणकारी सरकारों से अधिकतम संवेदनशील होने की अपेक्षा की जाती है, न कि संवेदनशून्य हो जाने की?

उत्तर प्रदेश के शासक पिता-पुत्र को मुजफ्फरनगर दंगों और सैफई महोत्सव से जुड़ी खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में पूर्वाग्रही मानसिकता और षड्यंत्र की बू आ रही है। जब कोई शासक नीरो की तरह बंसी बजाने लगता है, तो उसे ऐसा ही भ्रम होता है। और सावन के अंधों को सब जगह हरा-हरा ही दिखता है। मीडिया की जबावदेही विसंगतियों पर प्रश्न खड़े करना और सत्ता के स्याह पक्ष को प्रकट करना है। विज्ञापन अथवा अन्य राजनीतिक लाभ से विभूषित करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मीडिया हकीकत से आंख मूंद ले? इसके उलट सत्ताधारियों का जरूर यह कर्तव्य बनता है कि उनकी असफलताओं की कोई खबर आकार ले रही है तो वे उससे सामना करें और समस्या के निराकरण की दिशा में जरूरी पहल करें? किंतु उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐसा करने की बजाए, जले पर नमक छिड़कने का काम किया। गोया, उसने सैफई महोत्सव में तो आठ-दस करोड़ रुपए खर्च किए ही, सत्रह मंत्री और विधायकों को अध्ययन के बहाने कई देशों में सैर-सपाटे के लिए भेज दिया। अब इस फिजूलखर्ची पर मीडिया सवाल नहीं उठाएगा तो क्या सरकार का जयगान करने लग जाएगा? यदि आप वाकई सच्चे समाजवादी होते अथवा आपके अंतर में कहीं आत्मा होती, तो आप यात्रा और महोत्सव की मौज-मस्तियों में डूबने की बजाय असहायों के दुख-दर्द में साथ खड़े होते?

चित्रपट के कलाकारों को नचाने का काम अखिलेश सरकार ने ही किया हो, ऐसा नहीं है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारें भी इसी प्रकृति की हैं। एक नबंवर को इन दोनों प्रदेशों का स्थापना दिवस पड़ता है। इस दिन ये सरकारें भी लोक संस्कृति के सरंक्षण के बहाने फिल्मी सितारों के फूहड़ व भड़काऊ प्रदर्शन करने लगी थीं। इन सरकारों ने भोपाल में जहां हेमा मलिनी और संगीतकार एआर रहमान के कार्यक्रम कराए, वहीं रायपुर में बिंदास अभिनेत्री करीना कपूर के साथ गायक सोनू निगम के कार्यक्रमों को जमीन पर उतारा। इन्हें पौने दो-दो करोड़ रुपए बतौर पारिश्रमिक दिए गए। आवास, आहार और आवागमन की पंचसितारा व्यवस्थाओं का खर्च अलग से उठाया गया। वैचारिक विपन्नता का यह चरम इसलिए भी ज्यादा हास्यास्पद, लज्जाजनक व आश्चर्य में डालने वाला है,क्योंकि इन दोनों प्रांतों में उस भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं,जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ध्वजा फहराने का दंभ भरती है। जबकि विडंबना यह है कि संस्कृति के सरंक्षण के बहाने सिने सितारों की प्रस्तुतियां, लोक की जो स्थानीय सांस्कृतिक पहचान है,उसे ही लीलने का काम कर रहीं हैं।

यह सांस्कृतिक संरक्षण का बाजारी मुखौटा है। इसमें प्रच्छन्न शोषण तो है ही,भष्ट आचरण भी परिलक्षित होता है? यह कदाचार चतुराई भरा है। इसमें प्रत्यक्ष रूप में न तो संस्कृतिकर्मियों की बेदखली का शोषण और अवमानना दिखाई देता है और न ही लेन-देन का कारोबारी कुचक्र। सिनेमाई महिमामंडन होता ही इतना मायावी है कि देशज लोक कितना ही उत्पीडि़त क्यूं न हो, वह दिखाई नहीं देता। देशज लोक की यह उपेक्षा आगे भी जारी रहती है,तो तय है,लोककर्मी और बदतर हालत में पहुंचने वाले हैं। भारत के राज्य ऐसे हैं,जहां समृद्ध लोक संस्कृति बिखरी पड़ी है। आर्थिक वंचना की पीड़ा झेलते हुए भी ये लोक कलाकार मंच मिलने पर स्वर्णिम आभा रचने को तत्पर दिखाई देते हैं। इन्हीं लोक प्रस्तुतियों को हम स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के अवसरों पर रचकर राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय गौरव का अनुभव करते हैं। गौरवशाली इन लोक धरोहरों के प्रदर्शन का अवसर इन लोक कलाकारों को मिलता तो उन्हें दिया जाने वाला पारिश्रमिक उनकी बदहाल होती आर्थिक स्थिति को संवारता। लोक प्रस्तुतियों के माध्यम से बड़ी आबादी भारतीय ज्ञान परंपरा, मिथक और इतिहास बोध से परिचित होती। लेकिन यहां चिंताजनक है कि हमारे सत्ता संचालक देशज सांस्कृतिक मूल्यों से कट रहे हैं और संस्कृति के नाम पर सिनेमाई छद्म को महत्त्व देने लग गए हैं। यह स्थिति महानगरीय सार्वदेशिक संस्कृति का विस्तार है, जिसमें लोग अपनी जड़ों से कटते चले जाते हैं और संस्कृति को सामाजिक सरोकारों से काटकर,मनोरंजन के फूहड़ प्रदर्शन में बदल देते हैं। ठीक इसी तरह के भौड़े प्रदर्शन हमें टीवी के पर्दे पर हास्य और बिग शो जैसे कार्यक्रमों में दिखाई देते हैं।

हमारी लोक संस्कृतियां हैं, जो अवाम को भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम रूपों से परिचित कराती हैं। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और पुराण कथाओं के लघु रूप लोक प्रस्तुतियों में अंतर्निहित हैं। वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, बौद्ध, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, परनामी, कबीरपंथी आदि अनेक धर्म व विचार भिन्नता में आस्था रखने वाले लोगों में पारस्परिक सौहार्द का मंत्र लोक श्रुतियां ही रचती हैं। जो आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है,उसके जनमानस में आत्मसात हो जाने की प्रकृति, देशज लोक सांस्कृतिक मूल्यों से ही पनपती है। आंतरिक एकता जो शाश्वत और सनातन है,बाहरी वैविध्य जो अल्पजीवी और महत्त्वहीन है,जीवन दृष्टि के इस समावेशी मूल्य के प्रचार का कारक यही लोक धरोहरें हैं।

सिनेमाई नायिकाओं के नृत्य से कहीं ज्यादा प्रभावकारी व उपदेशी संपे्रषणीयता लोक नृत्यों और लोकनर्तकियों की भाव भंगिमाओं एवं उनके बोलों में निहित है। भगवान शिव के तांडव नृत्य से नृत्य लोक में आया। यही पहले लोक नृत्य के रूप में प्रचलित व प्रतिष्ठित हुआ और बाद में शास्त्रीय नृत्य के मूल का आधार बना। समारोहों की उत्सवधर्मिता के लिए लोक और शास्त्रीय नर्तकों को भी बुलाया जा सकता है। जीवन और प्रकृति के घनिष्ठ रूपों में तादात्म्य स्थापित करने के कारण, लोक नृत्य अलग-अलग वर्गों के व्यवसाय से प्रभावित होकर अनेक रूप धारण करते हैं। बदलते मौसम में कृषक समाज के सरोकार भी लोक नृत्य और गीतों से जुड़े होते है,जो कर्तव्य के प्रति चेतना के प्रतीक होते हैं। हमारे लोक में ऐसे अनेक प्रतीक है,जो अपनी विलक्षणता के कारण सार्वभौमिक हैं। उदाहरण स्वरूप 'सिंह' वीरता का 'श्वेत' रंग पवित्रता और शांति का 'सियार' कायरता का और 'लोमड़ी' चतुराई का प्रतीक पूरी दुनिया में माने जाते हैं। हरेक देश के लोक साहित्य में ये इन्हीं अर्थों के पर्याय हैं।

अफसोस है कि भूमंडलीय आर्थिक उदारवाद का सांस्कृतिक सत्य, स्थानीय लोक सांस्कृतिक विराटताओं के बीच एकरूपता का विद्रूप रचने लग गया है। हजारों साल से अर्जित जो ज्ञान परंपरा हमारे लोक में अद्वितीय वाचिक और लिखित संग्रहों के नाना रूपों में सुरक्षित है, उसे छद्म संस्कृति द्वारा विलोपित हो जाने के संकट में डाला जा रहा है। इस संकट को भी वे राज्य सरकारें आमंत्रण दे रही हैं,जो संस्कृति के संरक्षण का दावा करने से अघाती नहीं हैं। क्या यह सांस्कृतिक छद्म नहीं हैं?

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