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Thursday, May 2, 2013

सुरंगों में सूखती नदियां

सुरंगों में सूखती नदियां


उत्तराखण्ड राज्य समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरुप बिगड़ गया है. ढालदार पहाड़ी पर बसे हुये गांवों के नीचे धरती को खोदकर बांधों की सुरंग बनाई जा रही है...

सुरेश भाई 

उत्तराखंड में इन बांधों का निर्माण करने के लिये निजी कम्पनियों के अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कम्पनियों को बुलाया जा रहा है. राज्य सरकार ऊर्जा प्रदेश का सपना भी इन्हंी के सहारे पर देख रही है. ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिये पारम्परिक जल संस्कृति और पारम्परिक संरक्षण जैसी बातों को बिलकुल भुला दिया गया है. इसके बदले रातों रात राज्य की तमाम नदियों पर निजि क्षेत्रों के हितों में ध्यान में रखकर नीति बनाई जा रही है. नीजि क्षेत्र के प्रति सरकारी लगाव के पीछे भी, दुनियां के वैश्विक ताकतों का दबाव है.

hydro-power-plant-barrage-dams

दूसरी ओर इसे विकास का मुख्य आधार मानकर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग को कुचला जा रहा है. बांध बनाने वाली व्यवस्था ने इस दिशा में संवादहीनता पैदा कर दी है. वह लोगों की उपेक्षा पर उतारु हो गयी है. उतराखण्ड में जहां -जहां पर टनल बांध बन रहे हैं, वहां-वहां पर लोगों की दुविधा यह भी है, कि टिहरी जैसा विशालकाय बांध तो नहीं बन रहा है? जिसके कारण उन्हें विस्थापन की मार झेलनी पड़ सकती है. अतः कुछ लोग विस्थापन क मांग करते भी दिखाई दे रहे हैं. जबकि सरकार का मानना है कि इस तरह के बांधों से विस्थापन नहीं होगा, परन्तु यह गौरतलब है कि टनल के आउटलेट और इनलेट पर बसे हुये सैकड़ों गांव की सुरक्षा कैसी होगी ? 

सन 1991 के भूकम्प के समय उतरकाशी में मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण के टनल के ऊपर के गांव तथा उसकी कृषि भूमि भूकम्प से जमीदोज हुई है, और कृषि भूमि की नमी लगभग खत्म हुई है. इसके अलावा जहां पर सुरंग बांध बन रहे हैं वहां के गांव के धारे व जलस्रोत सूख रहे हैं. पर्यावरण प्रभाव आंकलन की इस रिपोर्ट पर भी जनप्रतिनिधि बोलने को तैयार नहीं हैं. कई उदाहरण हैं, जिनमें जनप्रतिनिधियों या नेता लोग अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये लोगों के साथ सौदाबाजी या मांग आधारित पत्रों की लाग-लपेट में जन विरोधी परियोजनाओं के क्रियान्वयन में सफल हो जाते हैं. लेकिन कुछ वर्षों बाद ही लोगों को यह छलावा समझ में आ जाता है. यह तब होता है, जब लोगों के आशियाने और आजीविका नष्ट होने लगती है. 

टिहरी बांध निर्माण के दौरान यही देखने को मिला. बाद में जब बांध की झील बनने लगी तो यही लोग कहने लगे कि जनता के साथ अन्याय हो गया है. अतः यह समझने योग्य बात है कि जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कम्पनी की पैरवी की है वे ही बाद में टिहरी बांध झील बनने के विरोधी कैसे हो गये ? यह एक तरह से आम जनता के हितों के साथ खिलवाड़ नहीं तो दूसरा क्या कहेंगे. यही समझौते पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घनसाली में फलेण्डा लघु जल विद्युत, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बुढाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण करवाने के लिये, लोगों को पैसे और रोजगार का झूठा आश्वासन देकर किया गया है. लगभग ये बातें सभी समझौतों में सामने आ रही है. 

इस प्रकार इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान लोगों के बीच में एक ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एकतरफा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को ही मिलता है. परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण ही बाद में समझ में आने लगती है. इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट (330 मेगावाट) की पर्यावरणीय रिपोर्टकी खामियां 80 प्रतिशत निर्माण के बाद याद आई.

suresh-bhaiसुरेश भाई उतराखण्ड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं तथा उत्तराखण्ड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।

http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-02/71-movement/3965-surangon-men-sookhti-nadiyan-by-suresh-bhai

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