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Sunday, July 30, 2017

हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के कट्टर विरोधी रवींद्र नाथ को निषिद्ध करके दिखाये,संघ परिवार को बंगाल की चुनौती पलाश विश्वास

हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के कट्टर विरोधी रवींद्र नाथ को निषिद्ध करके दिखाये,संघ परिवार को बंगाल की चुनौती

पलाश विश्वास

संदर्भः आज रवींद्र नाथ को प्रतिबंधित करने की चुनौती देता हुआ बांग्ला दैनिक आनंद बाजार पत्रिका में प्रकाशित सेमंती घोष का अत्यंत प्रासंगिक आलेख,जिसके मुताबिक रवींद्र नाथ का व्यक्तित्व कृतित्व संघ परिवार और उसके हिंदू राष्ट्रवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है।उनके मुताबिक रवींद्रनाथ का लिखा,कहा हर शब्द विशुद्धता के नस्ली ब्राह्मणावादी हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ है। रवींद्रनाथ ही इस अंध राष्ट्रवाद के प्रतिरोध में एक अजेय किला हैं और मोर्चा भी।जो बांग्ला पढ़ सकते हैं,वे अवश्य ही यह आलेख पढ़ें।


Rabindranath Tagore

নিষিদ্ধ করলেন না?

সেমন্তী ঘোষ

স্কুল সিলেবাসের বইপত্র খুঁটিয়ে পড়ে গোলমেলে জিনিসগুলো বাদ দেওয়ার দায়িত্ব পড়েছিল বত্রা মশাই-এর উপর। তিনি একটা পাঁচ-পাতা জোড়া লম্বা নিষেধাজ্ঞা ফিরিস্তি বানিয়ে দিয়েছেন, মির্জা গালিব, এম এফ হুসেন, আকবর, আওরঙ্গজেব, আমির খুসরু, কত নাম তাতে। এই বৃহৎ ও সমৃদ্ধ লাল-তালিকাটির বেশ উপরের দিকেই ছিলেন রবি ঠাকুর।

भारतीयता और भारत की कल्पना रवींद्र नाथ की गीतांजलि के बिना असंभव है,जिसे संघ परिवार भागवत गीता के महाभारत में बदलने की कोशिश कर रहा है।

रवींद्र नाथ सिर्फ हिंदुत्व के खिलाफ ही नहीं,हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ ही नहीं,राष्ट्रवाद के खिलाफ भी थे।उनका कहना था कि राष्ट्रवाद मनुष्यता का अपमान है।रवींद्र नाथ ने जब यह बात कही थी,तब हिटलर मुसोलिनी के अंध राष्ट्रवाद से पूरी दुनिया जख्मी और लहूलुहान थी।लातिन अमेरिका,यूरोप और चीन,रूस,जापान की यात्रा के दौरान बी रवींद्रनाथ लगातार इस राष्ट्रवाद के खिलाफ बोलते लिखते रहे हैं।

हम आज के संदर्भ में राष्ट्रवाद के केसरियाकरण के बाद कश्मीर, मध्यभारत और आदिवासी भूगोल, असम,मणिपुर,समूचे पूर्वोत्तर भारत,दार्जिलिंग, तमिलनाडु और समूचे दक्षिण भारत के खिलाफ लामबंद राष्ट्रवादी बजरंगी सेना,साहित्य.संस्कृति और इतिहास के केसरियाकरण के संदर्भ में राष्ट्रवाद का महिमामंडित वीभत्स चेहरा देख सकते हैं।यह राष्ट्रवाद विशुद्धता का नस्ली फासिस्ट राष्ट्रवाद है जिसके तहत नागरिकों को अपनी देह,मन,मस्तिष्क,विचारों और ख्वाबों पर भी कोई अधिकार नहीं है।यह सैन्य पारमाणविक राष्ट्र की गुलाम प्रजा का राष्ट्रवाद है,जो नागरिकता और मानवाधिकार के विरुद्ध है।

यही वजह है कि जहां बंकिमचंद्र,उनके आनंद मठ और वंदेमातरम के महिमामंडन से हिंदुत्व के अश्वमेधी अभियान को सुनामी में तब्दील करने पर लगा है संघ परिवार,तो वहीं रवींद्रनाथ के रचे राष्ट्रगान में विविधता और बहुलता के जयगान के खिलाफ है बजरंगी सेना।

संजोगवश बांग्लादेश में भी कट्टरपंथी इस्लामी राष्ट्रवाद रवींद्रनाथ,रवींद्र रचनासमग्र, बांग्लादेश के रवींद्र रचित राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला और रवींद्रनाथ के मानवता वादी विश्वबंधुत्व के दर्शन के खिलाप संघ परिवार की तरह लामबंद है।

तब हम भाषाबंधन के संपादकीय में कृपाशकंर चौबे और अरविंद चतुर्वेद के साथ थे।महाश्वेता देवी प्रदान संपादक थीं।नवारुण दा संपादक।भारतीय भाषाओं के साहित्य के सेतुबंधन के उद्देश्य लेकर निकली इस पत्रिका के संपादक मंडल में वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल और पंकज बिष्ट जैसे लोग थे।

नवारुण दा शब्दों के आशय और प्रयोग को लेकर बेहद संवेदनशील थे।उन्होंने ही ग्लोबेलाइजेशन का अनुवाद ग्लोबीकरण बताया क्योंकि उनके नजरिये से यह वैश्वीकरण नहीं है,बल्कि वैश्वीकरण के खिलाफ मुक्तबाजार की नरसंहार संस्कृति के कारपोरेट वर्चस्व है यह।

रवींद्रनाथ की अंतरराष्ट्रीय नागरिकता के मानवतावाद को हमारे नवारुण भट्टाचार्य  हिंदुत्व के राष्ट्रवाद की जगह असल वैश्वीकरण ,ग्लोबेलाइजेशन मानते थे,जो मुक्तबाजारी कारपोरेट एकाधिकार के साम्राज्यवाद के उलट है तो सैन्य राष्ट्रवाद के खिलाफ भी।

महाश्वेता दी ने भी अपनी सारी रचनाओं में इस सैन्य राष्ट्रवाद के खिलाफ आदिवासियों,किसानों और महिलाओं के जल जंगल जमीन के हक हकूक की जनांदोलनों की बात की है।

गौरतलब है कि पंडित जवाहरलाल नेहरु भी रवींद्र दर्शन के मुताबिक राष्ट्रवाद की विशुद्धता के विपरीत पंचशील के विश्वबंधुत्व,विविधता और बहुलता के पक्षधर थे,जिन्हें संघ परिवार ने भारतीय इतिहास से गांधी के साथ मिटाने का बीड़ा उठा लिया है।गांधी नेहरु चूंकि राजनीति की वजह से हाशिये पर डाले जा सकते हैं लेकिन जहां बंगाल और बांग्लादेश में हर स्त्री की दिनचर्या में रवींद्र संगीत रचा बसा है,वहां रवींद्रनाथ को मिटाना उसके बूते में नहीं है।

बंगाल के खिलाफ ताजा वर्गी हमले के प्रतिरोध में अकेले रवींद्रनाथ काफी हैं।

अस्पृश्यता के खिलाफ,सामाजिक बहिस्कार के खिलाफ,नस्ली विशुद्धता के खिलाफ बौद्धमय भारत के प्रवक्ता रवींद्रनाथ के मुताबिक भारतवर्ष हिंदुस्तान नहीं है,यह भारत तीर्थ है,जहां विश्वभर से मनुष्यता की विविध धाराओं का विलयहोकर एकाकार मनुष्यता की संस्कृति है।

रवींद्र की यह संस्कृति संघ परिवार के आनंद मठ  नस्ली राष्ट्वाद के खिलाफ है।इसलिए अंबेडकर को आत्मसात कर लेने के बावजूद रवींद्र के दलित विमर्श को आत्मसात करना संघ परिवार के लिए असंभव है।   

सेमंती घोष के मुताबिक रवींद्रनाथ की हर रचना,उनके तमाम पत्र,उनका संगीत,उनके वक्तव्य और उनका व्यक्तित्व संघ परिवार के हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ है।लेकिन मरे हुए रवींद्रनाथ का कम से कम बंगाल में सर्वव्यापी असर इतना प्रबल है कि संघ परिवार उन्हें प्रतिबंधित करने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहा है।

नवजागरण की विरासत को समझे बिना रवींद्र साहित्य,रवींद्र दर्शन को समझना असंभव है।हिंदी के आलोचक डा.शंभूनाथ ने नवजागरण की विरासत पर महत्वपूर्ण शोध किया है,लगता है कि सरकारी खरीद के अलावा यह अत्यंत महत्वपूर्ण शोध आम हिंदी पाठकों तक नहीं पहुंचा है।

रवींद्रनाथ के पिता देवर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ब्रह्मसमाज आंदोलन में प्रमुख थे और इस आंदोलन का केंद्र ठाकुरबाड़ी जोड़ासांको था,जो स्त्री मुक्ति आंदोलन का केंद्र भी था। कुलीन, सवर्ण हिंदुओं के लिए ब्रह्मसमाजी मुसलमानों, ईसाइयों और अछूतों के बराबर अस्पृश्य शत्रु थे।

यही वजह रही है कि बंगाली भद्रलोक विद्वतजनों ने नोबेल पुरस्कार पाने से पहले रवींद्रनाथ को कभी कवि माना नहीं है।

दूसरी ओर,उनकी रचनाओं और जीवन दर्शन में महात्मा गौतम बुद्ध का सर्वव्यापी असर है और उनकी समूची रचनाधर्मिता अस्पृश्यता के नस्ली हिंदुत्व के खिलाफ निरंतर अभियान है।

हमने अछूत रवींद्रनाथ के इस दलित विमर्श पर करीब दस बारह साल पहले कवि केदारनाथ सिंह के कहने पर सिलसिलेवार काम किया था।महज तीन महीने के भीतर एक किताब की पांडुलिपि उन्हें सौंपी थी,जिसे उन्होंने प्रकाशन के लिए दरियागंज , दिल्ली के प्रकाशक हरिश्चंद्र जी को सौंपी थी।हमने केदारनाथ जी से निवेदन किया था कि वह पांडुलिपि वे संपादित कर दें।हरिश्चंद्र जी ने छापने का वायदा किया था।लेकिल दस बारहसाल से वह पांडुलिपि उनके पास पड़ी है।मेरे पास जो मूल पांडुलिपि थी,वह बाकी चीजों,संदर्भ पुस्तकों और प्रकाशित सामग्री के साथ चली गयी।

अब बेघऱ, बेरोजगार हालत में नये सिरे से काम करना मुश्किल है हमारे लिए।भारतीय भाषाओं के युवा रचनाकार,आलोचक इस अधूरे काम को पूरा कर दें तो रवींद्र  ही नहीं,भारत और भारतीय दर्शन परंपरा को समझने,विविधता,बहुलता और सहिष्णुता की परंपरा को मजबूत करने में मदद मिलेगी।मेरे पास न वक्त है और न संसाधन।


उत्तर भारत में रवींद्र नाथ के साथ मिर्जा गालिब,अमीर खुसरो, प्रेमचंद, पाश जैसे रचनाकारों के खिलाफ संघ परिवार के फतवे और पाठ्यक्रम बदलकर साहित्य और इतिहास को बदलने के केसरिया उपक्रम के खिलाफ साहित्यिक सांस्कृतिक जगत में अनंत सन्नाटा है।

इसके विपरीत बंगाल में इसके खिलाफ बहुत तीखी प्रतिक्रिया है रही है और संस्कृतिकर्मी सड़कों पर उतरने लगे हैं।

गायपट्टी के केसरिया मीडिया के विपरीत बंगाल के सबसे लोकप्रिय दैनिक भी इस मुहिम में शामिल है।बाकी मीडिया भी हिंदुत्वकरण के खिलाफ लामबंद है।

आज ही आनंदबाजार में नवजागरण के मार्फत विशुद्धता के हिंदुत्व पर कुठाराघात करने वाले ईश्वरचंद्र विद्यासागर का वसीयतनामा छपा है,जिसमें उन्होंने अपने पुत्र को त्याग देने की घोषणा की है।उन्होंने परिवार और महानगर कोलकाता छोड़कर आखिरी वक्त आदिवासी गांव और समाज में बिताया।

नवजागरण की विरासत में शामिल विद्यासागर,राजा राममोहन राय,माइकेल मधुसूदन दत्त के सामाजिक सुधारों के चलते भारतीय समाज आधुनिक बना है,उदार और प्रगतिशील भी।

माइकेल के मेघनाद वध काव्य और रवींद्रनाथ के खिलाफ संघियों ने बंगाल में घृणा अभियान चलाने की कोशिश की तो उसका तीव्र प्रतिरोध हुआ।लेकिन बाकी भारत में साहित्य,संस्कृति और इतिहास के केसरियाकरण की कोई प्रतिक्रिया नहीं है।

मैंने इससे पहले लिखा है कि बंगाली दिनचर्या में रवींद्रनाथ की उपस्थिति अनिवार्य सी है,  जाति,  धर्म,  वर्ग, राष्ट्र, राजनीति के सारे अवरोधों के आर पार रवींद्र बांग्लाभाषियों के लिए सार्वभौम हैं, लेकिन बंगाली होने से ही लोग रवींद्र के जीवन दर्शन को समझते होंगे, ऐसी प्रत्याशा करना मुश्किल है।

इसके बावजूद संघ परिवार के रवींद्र और दूसरे भारतीय लेखकों के खिलाफ,साहित्य और संस्कृति के केसरियाकरण खिलाफ जो तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है,उससे साफ जाहिर है कि संस्कृति विद्वतजनों की बपौती नहीं है।


बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।

उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।


गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।


उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।




गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।अगर कांटेट के लिहाज से देखें तो फासिजम के राजकाज के लिए सबसे खतरनाक मुक्तिबोध है,जो वर्गीय ध्रूवीकरण की बात अपनी कविताओं में कहते हैं और उनका अंधेरा फासिज्म का अखंड आतंकाकारी चेहरा है।शायद महामहिम बत्रा महोदय ने अभी मुक्तबोध को कायदे से पढ़ा नहीं है।

बत्रा साहेब की कृपा से जो प्रतिबंधित हैं,उनमें रवींद्र,गांधी,प्रेमचंद,पाश, गालिब को समझना भी गोबरपंथियों के लिए असंभव है।

जिन गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रामराज्य और मर्यादा पुरुषोत्तम को कैंद्रित यह मनुस्मृति सुनामी है,उन्हें भी वे कितना समझते होंगे,इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है।

कबीर दास और सूरदास लोक में रचे बसे भारत के सबसे बड़े सार्वजनीन कवि हैं,जिनके बिना भारतीयता की कल्पना असंभव है और देश के हर हिस्से में जिनका असर है। मध्यभारत में तो कबीर को गाने की वैसी ही संस्कृति है,जैसे बंगाल में रवींद्र नाथ को गाने की है और उसी मध्यभारत में हिंदुत्व के सबसे मजबूत गढ़ और आधार है।

ঠিকই তো, সংঘের পক্ষে রবীন্দ্রনাথকে হজম করা অসম্ভব

নিষিদ্ধ করলেন না?

সেমন্তী ঘোষ

না — মেনে নেওয়া যাচ্ছে না। রবীন্দ্রনাথের এই হাঁড়ির হাল মেনে নেওয়া অসম্ভব। কী করি! দীননাথ বত্রাকে একটা ফোন করব? বলব, মশাই দেখুন একটু, আপনিই পারেন আমাদের বাঁচাতে! এই তো সে দিন আপনি বললেন, রবীন্দ্রনাথের লেখা স্কুল সিলেবাস থেকে বাদ দেওয়া হবে। কেন তবে আপনার কথা না শুনে ওরা এখন পিছু হটছে? কেন মিথ্যে করে বলছে, আপনার শিক্ষা সংস্কৃতি উত্থান ন্যাসকে না কি আরএসএস-এর অংশ বলা যায় না? সে দিন আবার শুনলাম, পশ্চিমবঙ্গের আরএসএস ক্যাপটেন বিদ্যুৎ মুখুজ্জে বলছেন, অমন কথা নাকি ন্যাস বলেনি। দেখুন তো, কী কাণ্ড, সাজিয়ে গুছিয়ে দিনকে রাত করে রবি ঠাকুরকে লাস্ট মোমেন্টে বাঁচিয়ে দেওয়া? না, এ সব সহ্যের অতীত! আপনার উচিত, সোজা মাঠে নেমে ব্যাপারটা নিজে সামলানো। শুধু রবীন্দ্রনাথের লেখাপত্র নয়, রবীন্দ্রনাথ নামে লোকটাকেই এক ধাক্কায় নিষিদ্ধ করে দেওয়া। এর পর থেকে যেন ওঁকে 'বিপ' ঠাকুর ছাড়া আর কিছু না বলা হয়।

স্কুল সিলেবাসের বইপত্র খুঁটিয়ে পড়ে গোলমেলে জিনিসগুলো বাদ দেওয়ার দায়িত্ব পড়েছিল বত্রা মশাই-এর উপর। তিনি একটা পাঁচ-পাতা জোড়া লম্বা নিষেধাজ্ঞা ফিরিস্তি বানিয়ে দিয়েছেন, মির্জা গালিব, এম এফ হুসেন, আকবর, আওরঙ্গজেব, আমির খুসরু, কত নাম তাতে। এই বৃহৎ ও সমৃদ্ধ লাল-তালিকাটির বেশ উপরের দিকেই ছিলেন রবি ঠাকুর। কে জানে এখন কী অবস্থা, বকুনি খেয়ে নামটা তালিকা থেকে কাটা যাচ্ছে কি না! অথচ ন্যাস-প্রধান ওরফে সংঘ-নেতা বত্রা তো ঠিকই ধরেছিলেন, সংঘীয় জাতীয়তাবাদ আর বিজেপীয় হিন্দুত্ববাদের ঘোর শত্রু বলে যদি বিশ শতকের ভারত থেকে মাত্র একটি লোককেও বেছে নিতে বলা হয়, প্রথম নামটাই হওয়া উচিত রবীন্দ্রনাথ। আরএসএস-ই যদি রবীন্দ্রনাথকে বাদ না দেয়, আর কে দেবে? উচিত তো ছিল, এখনই জোড়াসাঁকো শান্তিনিকেতন সব ব্যারিকেড দিয়ে ঘিরে দেওয়া, নোটিস সেঁটে দেওয়া— ডেঞ্জার জোন, নো এনট্রি ইত্যাদি। এমনিতেই বাঙালির গোটা তিনেক প্রজন্ম ইতিমধ্যে রবীন্দ্রনাথের কুপ্রভাবে ফর্দাফাঁই। এখনই সাবধান না হলে মানবতাবাদ ইত্যাদি হাবিজাবি দিয়ে আরও কত সুকুমারমতি বালকবলিকার ব্রেনওয়াশ হবে, কে জানে!

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নিষিদ্ধ করতে গিয়ে বত্রা 'ন্যাশনালিজম' প্রবন্ধের যে বাক্যগুলি বেছেছেন, সেগুলো কিন্তু মোক্ষম। পড়লেই ভারতের সব সংঘবাদী বুঝে যাবেন, কী বিপজ্জনক লোককে এত দিন মাথায় তোলা হচ্ছিল। সত্যি তো, যে লোকটা এক গোঁ ধরে লিখে যায় যে, জাতীয়তাবাদ আর মানবতাবাদের মধ্যে প্রবল বিরোধিতা আছে, আর তাই মানবতাবাদকে বাদ দিয়ে যে জাতীয়তাবাদটা পড়ে থাকে, সেটা সাংঘাতিক বিপজ্জনক— তাকে কি এক্ষুনি 'বিপ' করা উচিত না? দীননাথ বত্রা মশাইয়ের মতামতটাই ধরা যাক না কেন। ২০১৪ সালে গুজরাতের জন্য গোটা ছয়েক টেক্সট বই লিখেছিলেন তিনি। সেখানে প্রাচীন ভারতের অসামান্য কৃতিত্বের অজানা সব তথ্য পরিবেশন করেছিলেন, সংঘীয় মতে যাতে নতুন প্রজন্ম সুশিক্ষিত হয়। লিখেছিলেন, প্রাচীন ভারতই প্রথম গাড়ি আবিষ্কার করে, বিমানও। এমনকী রকেটও। গোটা বিশ্বের জ্ঞানভাণ্ডার প্রাচীন ভারত থেকেই টুকলি করা বলে অন্য কোনও দেশের সংস্কৃতি, জ্ঞানবিজ্ঞান না জান়লেই চলে, এ কথাই কত সুন্দর করে বুঝিয়েছিলেন বত্রা। আর সেখানে দেখুন, রবীন্দ্রনাথ কী জিনিস। আজ কেন, সেই পরাধীন দেশেও প্রাচীন ভারতের জয়গান তাঁর সহ্য হয়নি, এমনকী গ্যালভানিক ব্যাটারি যে গল্বন ঋষির আবিষ্কার, সেই মহান্ সত্যটি নিয়েও তিনি ব্যঙ্গবিদ্রুপ করে প্রবন্ধ লিখেছিলেন, অহো, কী দুঃসহ স্পর্ধা! আবার, গাঁধীজির অসহযোগ নীতিকেও তিনি পাত্তা দেননি, স্বাধীনতা আর আত্মশক্তির নামে বেশি বেশি স্বদেশিপনা তাঁর না-পসন্দ্। স্বদেশি আন্দোলনের পিছনপানে চাওয়া দেশপ্রেম তাঁর পোষাচ্ছিল না বলে লিখেছিলেন: 'আমাদের অতীত তাহার সম্মোহনবাণ দিয়া আমাদের ভবিষ্যৎকে আক্রমণ করিয়াছে।' তাঁর কড়া সমালোচনা শুনে গাঁধী বা দেশবন্ধুর মতো নেতারা কেবল তর্ক করে পার পাননি, নিজেদের মত চুপচাপ খানিক পাল্টেও নিয়েছিলেন। রবীন্দ্রনাথের পাল্লায় পড়ে তাঁদের জাতীয়তাবাদের জানলাগুলো একটু খুলে দিতে হয়েছিল, ভারতীয়ত্ব বস্তুটিকে একটু বড় করে দেখতে হয়েছিল। দেখুন কাণ্ড। গাঁধী যাঁকে সামলাতে পারেননি, বত্রাদের আগমার্কা জাতীয়তার সিলেবাসে তাঁর নামের পাশে লালকালির ঢ্যাঁড়া পড়বে না, এও কি হয়?

তাঁর জাতীয়তাবাদ-বিরোধিতা শুনে সে দিন বিদেশেও লোকজনের চোখ কপালে। এই তো ঠিক একশো বছর আগে, ১৯১৬-১৭ সালে কী কাণ্ডই না হল তাঁর 'জাতীয়তাবাদ' বক্তৃতা নিয়ে, আমেরিকা জাপান চিনে! আমেরিকা সফরের পর বলাবলি হল, ছেলেপিলের মাথা খাচ্ছেন প্রাচ্যের সাধু-টাইপ লোকটি, নয়তো কেউ বলতে পারে, জাতি নিয়ে গর্ব করাটা আসলে 'ইনসাল্ট টু হিউম্যানিটি'? চিনে রটে গেল, একটা পরাধীন হতভাগ্য দেশের মানুষ বলেই এই ভারতীয় কবি অমন মিনমিনে, কেবল শান্তি ঐক্য এই সব ন্যাকা-কথা। জাপানে যখন তিনি পৌঁছলেন, ভিড়ে ভিড়াক্কার। আর সফরশেষে, তাঁর জাতীয়তাবাদ-তর্জন শোনার পর ফেরার দিন বিদায় দিতে এলেন মাত্র জনা দুই-তিন! তাদের মতে, দেশ ও জাতির জন্য কাজ যে লড়াই দিয়েই শুরু করতে হয়, সেটাও লোকটা বোঝে না। বড় বড় চিন্তাবিদরা এ দিকে রবীন্দ্রনাথের কথা শুনে মুগ্ধ, সে-ও ভারী বিপদ! টেগোর না কি ভবিষ্যৎ-দ্রষ্টা, prescient! আর দেশের মাটিতে জওহরলাল নেহরু কী বললেন, সেটা নিশ্চয়ই বত্রাদের মনে করাতে হবে না! নেহরুর মতে, রবীন্দ্রনাথ হলেন 'ইন্টারন্যাশনালিস্ট পার এক্সেলেন্স', শ্রেষ্ঠ আন্তর্জাতিকতাবাদী, যিনি একাই ভারতের জাতীয়তাবাদের ভিতটাকে চওড়া করে দিয়েছেন!—জাতীয়তাবাদের ভিত চওড়া! তবেই বুঝুন! নেহরুকে মোদীরা নির্বাসন দিলেন, আর নেহরুর রবীন্দ্রনাথকে এখনও দিলেন না?

একটা সন্দেহ হচ্ছে। সিলেবাসে 'ন্যাশনালিজম' লেখাটি ছিল বলে ওইটাই বত্রা ব্রিগেড বেশি করে খেয়াল করেছেন। কিন্তু ভদ্রলোকের সব লেখাই যে আরএসএস-এর 'বিপ' পাওয়ার যোগ্য, সেটা এখনও ওঁরা বোঝেননি! আরে মশাই, একটু উল্টে দেখুন ভারতবর্ষীয় সমাজ, হিন্দু-মুসলমান নিয়ে প্রবন্ধগুলো, গোরা, ঘরে বাইরে, উপন্যাস ক'টা। খেয়াল করে দেখুন গাদা গাদা গান-কবিতায় কী সব বলেছেন উনি। শুধু জাতীয়তাবাদ নয়, হিন্দু ভারত ব্যাপারটাই মানেন না ভদ্রলোক! আর্য-অনার্য-হিন্দু-মুসলমান-শক-হূণ-পাঠান-মোগল, সব নিয়ে নাকি ভারত বানাতে হবে, এই তাঁর আবদার। জাতিভেদ, বর্ণাশ্রম তো একদম উড়িয়ে দিয়েছেন। কত বড় দুঃসাহস যে বলেছেন, ব্রাহ্মণরা যেন মন শুচি করে তবেই এগিয়ে আসেন 'ভারততীর্থ' তৈরির কাজে। স্পষ্টাস্পষ্টি বলেছেন, আর্য দ্রাবিড় হিন্দু মুসলমান ইত্যাদি 'বিরুদ্ধতার সম্মিলন যেখানে হইয়াছে সেখানেই সৌন্দর্য জাগিয়াছে।' ভারতবর্ষ বলতে মিলন মিশ্রণ সম্মিলন— ঘ্যানঘ্যান করে সেই এক কথা, সারা জীবন। রাষ্ট্র বলতেই যদি একচালা একরঙা কিছু তৈরি হয়, সেই ভয়ে সমানে বলে গিয়েছেন, ছোট ছোট সমাজ নিজেরাই রাষ্ট্র গড়বে, ছোট গ্রাম, ছোট পল্লি, ছোট গোষ্ঠী, সম্প্রদায়।— এ সব পড়লে বত্রা-রা পারবেন স্থির থাকতে? রাষ্ট্রীয় স্বয়ংসেবক সংঘের সেবক তাঁরা, তাঁরা না শপথ নিয়েছেন যে তাঁদের রাষ্ট্র মহৎ বৃহৎ হিন্দু রাষ্ট্র, উচ্চবর্ণের পবিত্র ব্রাহ্মণ্য হিন্দুত্ব ছাড়া সব সেখানে অশুচি, অগ্রাহ্য এবং হন্তব্য? তাঁদের ভারতবর্ষ আর রবীন্দ্র ঠাকুরের ভারতবর্ষের মধ্যে এ রকম মুখোমুখি সোজাসুজি সংঘর্ষ, তবু লালকালির ঢ্যাঁড়া পড়বে না? যিনি বলেন 'মুক্ত যেথা শির', যিনি 'তুচ্ছ আচারের মরুবালুরাশি'তে এত কাঁড়ি কাঁড়ি আপত্তি তোলেন, এই নতুন গোরক্ষক ভারত সে লোকের মাথায় ঘোল ঢেলে বিদেয় দেবে না?

শুধু লেখাপত্র নয়, লোকটার গোটাটাই বেদম গোলমেলে। নিজের বেঁচে থাকাটাই কেমন একটা ভাঙাভাঙি দিয়ে গড়া। বাড়িটাও কেমনধারা, এক দিকে বেম্মপনা, অন্য দিকে বিলিতি দোআঁশলাপনা, গানবাজনায় বিলিতি ছাপ, পোশাকআশাকে মুসলমানি আদল। আর তিনি নিজে? কোনও একটা ছাঁচে তাঁকে কেউ না ফেলতে পারে, এই হল তাঁর জীবনভ'র লড়াই। আইডেন্টিটি দেখলেই সেটাকে ভেঙেচুরে নতুন করে গড়ে নাও, তবেই না কি বিশ্বমানবের দিকে এগিয়ে যাওয়া— আরে, সংঘবাদের সাক্ষাৎ অ্যান্টিথিসিস তো এই লোকটাই! দিবে আর নিবে, মেলাবে মিলিবে, কথাটার মধ্যে কী সাংঘাতিক অন্তর্ঘাত, ভেবে দেখেছেন এক বার? তাই বলছিলাম, নতুন ভারততীর্থে রবীন্দ্রনাথ মানুষটাকেই নিষিদ্ধ করা হোক।

http://www.anandabazar.com/editorial/rss-affiliated-body-recently-suggested-removal-of-works-of-rabindranath-tagore-from-school-textbook-1.649946?ref=editorial-new-stry


Friday, July 28, 2017

फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।

फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।

शायद जब तक जीता रहूंगी मेरी चीखें आपको तकलीफ देती रहेंगी,अफसोस।

जो बच्चे 30-35 साल की उम्र में हाथ पांव कटे लहूलुहान हो रहे हैं,उनमें से हरेक के चेहरे पर मैं अपना ही चेहरा नत्थी पाता हूं।

बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।

उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।

जैसे इस वक्त सारे के सारे लोग नीतीश कुमार के खिलाफ बोल लिख रहे हैं।जैसे कि बिहार का राजनीतिक दंगल की देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो।

डोकलाम की युद्ध परिस्थितियां, प्राकृतिक आपदाएं,किसानों की आत्महत्या,व्यापक छंटनी और बेरोजगारी, दार्जिंलिंग में हिंसा, कश्मीर की समस्या, जीएसटी, आधार अनिवार्यता, नोटबंदी का असर , खुदरा कारोबार पर एकाधिकार वर्चस्व, शिक्षा और चिकित्सा पर एकाधिकार कंपनियों का वर्चस्व, बच्चों का अनिश्चित भविष्य, महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार,दलित उत्पीड़न की निरंतरता,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार संस्कृति जैसे मुद्दों पर कोई बहस की जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं है।

गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।

पलाश विश्वास

सत्ता समीकरण और सत्ता संघर्ष मीडिया का रोजनामचा हो सकता है,लेकिन यह रोजनामचा ही समूचा विमर्श में तब्दील हो जाये,तो शायद संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती।आम जनता की दिनचर्या,उनकी तकलीफों,उनकी समस्याओं में किसी की कोई दिलचस्पी नजर नहीं आती तो सारे बुनियादी सवाल और मुद्दे जिन बुनियादी आर्थिक सवालों से जुड़े हैं,उनपर संवाद की स्थिति बनी नहीं है।

हमारे लिए मुद्दे कभी नीतीशकुमार हैं तो कभी लालू प्रसाद तो कभी अखिलेश यादव तो कभी मुलायसिंह यादव,तो कभी मायावती तो कभी ममता बनर्जी।हम उनकी सियासत के पक्ष विपक्ष में खड़े होकर फासिज्म के राजकाज का विरोध करते रहते हैं।

जैसे इस वक्त सारे के सारे लोग नीतीश कुमार के खिलाफ बोल लिख रहे हैं।जैसे कि बिहार का राजनीतिक दंगल की देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो।

डोकलाम की युद्ध परिस्थितियां, प्राकृतिक आपदाएं,किसानों की आत्महत्या,व्यापक छंटनी और बेरोजगारी, दार्जिंलिंग में हिंसा, कश्मीर की समस्या, जीएसटी, आधार अनिवार्यता, नोटबंदी का असर , खुदरा कारोबार पर एकाधिकार वर्चस्व, शिक्षा और चिकित्सा पर एकाधिकार कंपनियों का वर्चस्व, बच्चों का अनिश्चित भविष्य, महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार,दलित उत्पीड़न की निरंतरता,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार संस्कृति जैसे मुद्दों पर कोई बहस की जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं है।

लोकतंत्र का मतलब यह है कि राजकाज में नागरिकों का प्रतिनिधित्व और नीति निर्माण प्रक्रिया में जनता की हिस्सेदारी।

सत्ता संघर्ष तक हमारी राजनीति सीमाबद्ध है और राजकाज,राजनय,नीति निर्माण,वित्तीय प्रबंधन,संसाधनों के उपयोग जैसे आम जनता के लिए जीवन मरण के प्रश्नों को संबोधित करने का कोई प्रयास किसी भी स्तर पर नहीं हो रहा है।

सामाजिक यथार्थ से कटे होने की वजह से हम सबकुछ बाजार के नजरिये से देखने को अभ्यस्त हो गये हैं।

बाजार का विकास और विस्तार के लिए आर्थिक सुधारों के डिजिटल इंडिया को इसलिए सर्वदलीय समर्थन है और इसकी कीमत जिस बहुसंख्य जनगण को अपने जल जंगल जमीन रोजगार आजीविका नागरिक और मानवाधिकार खोकर चुकानी पड़ती है,उसकी परवाह न राजनीति को है और न साहित्य और संस्कृति को।

हम जब साहित्य और संस्कृति के इस भयंकर संकट को चिन्हित करके समकालीन संस्कृतिकर्म की प्रासंगिकता और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाये,तो समकालीन रचनाकारों में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई है।

बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।

इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।

उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।




गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।अगर कांटेट के लिहाज से देखें तो फासिजम के राजकाज के लिए सबसे खतरनाक मुक्तिबोध है,जो वर्गीय ध्रूवीकरण की बात अपनी कविताओं में कहते हैं और उनका अंधेरा फासिज्म का अखंड आतंकाकारी चेहरा है।शायद महामहिम बत्रा महोदय ने अभी मुक्तबोध को कायदे से पढ़ा नहीं है।

बत्रा साहेब की कृपा से जो प्रतिबंधित हैं,उनमें रवींद्र,गांधी,प्रेमचंद,पाश, गालिब को समझना भी गोबरपंथियों के लिए असंभव है।

जिन गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रामराज्य और मर्यादा पुरुषोत्तम को कैंद्रित यह मनुस्मृति सुनामी है,उन्हें भी वे कितना समझते होंगे,इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है।

बंगाली दिनचर्या में रवींद्रनाथ की उपस्थिति अनिवार्य सी है,  जाति,  धर्म,  वर्ग, राष्ट्र, राजनीति के सारे अवरोधों के आर पार रवींद्र बांग्लाभाषियों के लिए सार्वभौम हैं,लेकिन बंगाली होने से ही लोग रवींद्र के जीवन दर्शन को समझते होंगे,ऐसी प्रत्याशा करना मुश्किल है।

कबीर दास और सूरदास लोक में रचे बसे भारत के सबसे बड़े सार्वजनीन कवि हैं,जिनके बिना भारतीयता की कल्पना असंभव है और देश के हर हिस्से में जिनका असर है। मध्यभारत में तो कबीर को गाने की वैसी ही संस्कृति है,जैसे बंगाल में रवींद्र नाथ को गाने की है और उसी मध्यभारत में हिंदुत्व के सबसे मजबूत गढ़ और आधार है।

निजी समस्याओं से उलझने के दौरान इन्हीं वजहों से लिखने पढ़ने के औचित्य पर मैंने कुछ सवाल खड़े किये थे,जाहिर है कि इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है।

मैंने कई दिनों पहले लिखा,हालांकि हमारे लिखने से कुछ बदलने वाला नहीं है.प्रेमचंद.टैगोर,गालिब,पाश,गांधी जैसे लोगों पर पाबंदी के बाद जब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा तो हम जैसे लोगों के लिखने न लिखने से आप लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।अमेरिका से सावधान के बाद जब मैंने साहित्यिक गतिविधियां बंंद कर दी,जब 1970 से लगातार लिखते रहने के बावजूद अखबारों में लिखना बंद कर दिया है,तब सिर्फ सोशल मीडिया में लिखने न लिखने से किसी को कोई फ्रक नहीं पड़ेगा।

कलेजा जख्मी है।दिलोदिमाग लहूलुहान है।हालात संगीन है और फिजां जहरीली।ऐसे में जब हमारी समूची परंपरा और इतिहास पर रंगभेदी हमले का सिलसिला है और विचारधाराओं,प्रतिबद्धताओं के मोर्टे पर अटूट सन्नाटा है,तब ऐशे समय में अपनों को आवाज लगाने या यूं ही चीखते चले जाना का भी कोई मतलब नहीं है।

जिन वजहों से लिखता रहा हूं,वे वजहें तेजी से खत्म होती जा रही है।वजूद किरचों के मानिंद टूटकर बिखर गया है।जिंदगी जीना बंद नहीं करना चाहता फिलहाल,हालांकि अब सांसें लेना भी मुश्किल है।लेकिन इस दुस्समय में जब सबकुछ खत्म हो रहा है और इस देश में नपुंसक सन्नाटा की अवसरवादी राजनीति के अलावा कुछ भी बची नहीं है,तब शायद लिखते रहने का कोई औचित्यभी नहीं है।

मुश्किल यह कि आंखर पहचानते न पहचानते हिंदी जानने की वजह से अपने पिता भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल और पश्चिम पाकिस्तान के विभाजनपीड़ितों के नैनीताल की तराई में नेता मेरे पिता की भारत भर में बिखरे शरणार्थियों के दिन प्रतिदिन की समस्याओं के बारे में रोज उनके पत्र व्यवहार औऱ आंदोलन के परचे लिखते रहने से मेरी जो लिखने पढ़ने की आदत बनी है और करीब पांच दशकों से जो लगातार लिख पढ़ रहा हूं,अब समाज और परिवार से कटा हुआ अपने घर और अपने पहाड़ से हजार मील दूर बैठे मेरे लिए जीने का कोई दूसरा बहाना नहीं है।

फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।

शायद जब तक जीता रहूंगी मेरी चीखें आपको तकलीफ देती रहेंगी,अफसोस।

अभी अखबारों और मीडिया में लाखों की छंटनी की खबरें आयी हैं।जिनके बच्चे सेटिल हैं,उन्हें अपने बच्चों पर गर्व होगा लेकिन उन्हें बाकी बच्चों की भी थोड़ी चिंता होती तो शायद हालात बदल जाते।

मेरे लिए  रोजगार अनिवार्य है क्योंकि मेरा इकलौता बेटा अभी बेरोजगार है।इसलिए जो बच्चे 30-35 साल की उम्र में हाथ पांव कटे लहूलुहान हो रहे हैं,उनमें से हरेक के चेहरे पर मैं अपना ही चेहरा नत्थी पाता हूं।

अभी सर्वे आ गया है कि नोटबंदी के बाद पंद्रह लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं।जीएसटी का नतीजा अभी आया नहीं है।असंगठित क्षेत्र का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है और संगठित क्षेत्र में विनिवेश और निजीकरण के बाद ठेके पर नौकरियां हैं तो ठीक से पता लगना मुश्किल है कि कुल कितने लोगों की नौकरियां बैंकिंग, बीमा, निर्माण,  विनिर्माण, खुदरा बाजार,संचार,परिवहन जैसे क्षेत्रों में रोज खथ्म हो रही है।

मसलन रेलवे में सत्रह लाख कर्मचारी रेलवे के अभूतपूर्व विस्तार के बाद अब ग्यारह लाख हो गये हैं जिन्हें चार लाख तक घटाने का निजी उपक्रम रेलवे का आधुनिकीकरण है,भारत के आम लोग इस विकास के माडल से खुश हैं और इसके समर्थक भी हैं।

संकट कितना गहरा है,उसके लिए हम अपने आसपास का नजारा थोड़ा बयान कर रहे हैं।बंगाल में 56 हजार कल कारखाने बंद होने के सावल पर परिव्रतन की सरकार बनी।बंद कारखाने तो खुले ही नहीं है और विकास का पीपीपी माडल फारमूला लागू है।कपड़ा,जूट,इंजीनियरिंग,चाय उद्योग ठप है।कल कारखानों की जमीन पर तमाम तरहके हब हैं और तेजी से बाकी कलकारखाने बंद हो रहे हैं।

आसपास के उत्पादन इकाइयों में पचास पार को नौकरी से हटाया जा रहा हो।यूपी और उत्तराखंड में भी विकास इसी तर्ज पर होना है और बिहार का केसरिया सुशासन का अंजाम भी यही होना है।

सिर्फ आईटी नहीं,बाकी क्षेत्रों में भी डिजिटल इंडिया के सौजन्य से तकनीकी दक्षता और ऩई तकनीक के बहाने एनडीवी की तर्ज पर 30-40 आयुवर्ग के कर्मचारियों की व्यापक छंटनी हो रही है।

सोदपुर कोलकाता का सबसे तेजी से विकसित उपनगर और बाजार है,जो पहले उत्पादन इकाइयों का केद्र हुआ करता था।यहां रोजाना लाखों यात्री ट्रेनों से नौकरी या काराबोर या अध्ययन के लिए निकलते हैं।चार नंबर प्लैटफार्म के सारे टिकट काउंटर महीनेभर से बंद है।आरक्षण काफी दिनों से बंद रहने के बाद आज खुला दिखा।जबकि टिकट के लिए एकर नंबर प्लेटफार्म पर दो खिडकियां हैं।

सोदपुर स्टेशन के दो रेलवे बुकिंग क्लर्क की कैंसर से मौत हो गयी हैा,जिनकी जगह नियुक्ति नहीं हुई है।सात दूसरे कर्मचारियों का तबादला हो गया है और बचे खुचे लोगं से काम निकाला जा रहा है।

आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है।

आर्थिक सुधारों,नोटबंदी,जीएसटी,आधार के खिलाफ आम लोगों को कुछ नहीं सुनना है।उनमें से ज्यादातर बजरंगी है।

बजरंगी इसलिए हैं कि उनसे कोई संवाद नहीं हो रहा है।

बुनियादी सवालों और मुद्दों से न टकराने का यह नतीजा है,क्षत्रपों के दल बदल, अवसरवाद जो हो सो है,लेकिन जनता के हकहकूक के सिलसिले में सन्नाटा का यह अखंड बजरंगी समय है।


Thursday, July 27, 2017

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में ओबीसी कार्ड और जयभीम कामरेड पलाश विश्वास

मनुस्मृति नस्ली  राजकाज राजनीति में ओबीसी कार्ड और जयभीम कामरेड
पलाश विश्वास
अब तक संघ परिवार के खिलाफ विपक्ष की सारी राजनीति ओबीसी क्षत्रपों की मोर्चाबंदी की रही है,जो मनुस्मृति की अश्वमेधी सेना के खिलाप रेत के किले के सिवाय़ कुछ नहीं है।जाति और पहचान के वोटबैंक समीकरण से सबसे बड़ी अस्मिता और पहचान हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला असंभव है,इस सच का सामना बार बार हो रहा है।
एक के बाद एक क्षत्रप भारतीयलोकतंत्र और आम जनता के साथ विश्वासगात कर रहे हैं लेकिन वोटबैंक समीकरण की इस राजनीति के अलावा नस्ली कारपोरेट फासिज्म के मुकाबले के बारे में सोचने से बी हम लगातार इंकार करते हुए संघ परिवार की राजनीति को ही मजबूत बनाने में लगे हैं क्योंकि ओबीसी संघ परिवार का ट्रंप कार्ड है,जिसे हम सिरे से नजरअंदाज कर रहे हैं।
सत्ता के लिए ही नीतीश कुमार और लालू का गठबंधन बना है और इस कथित महागठबंधन के बावजूद नीतीश कुमार और शरद यादव उसीतरह संघपरिवार के कारिंदे बने रहे हैं,जैसे मुलायमसिंह यादव।बिहाल में जो हुआ या होगा,उसपर चौंकेने की गुंजाइश नहीं है।मेघालय समेत पूरब और पूर्वोत्तर में बंगाल में ही अब भाजपा सरकार बनने की देरी है,जहां केसरिया सेना मजबूती के साथ मोर्चा संभाले हुए है।बिहार के पतन के बाद बंगाल जीत लेने के बाद संघ परिवार को रोकना बेहद मुश्किल होगा और हम अब भी इस सच का मुकाबला करने को तैयार नहीं है।
नीतीश को लेकर रोना गाना बंद करके सच का सामना करने की पहल तो करें।

अस्मिता और पहचान की राजनीति के तहत क्षत्रपों ने भारतीय लोकतंत्र का गुड़ गोबर कर दिया है और इसमें  भी ओबीसी क्षत्रपों का रोल सबसे ज्यादा भयंकर है।मनुस्मृति विधान के हिंदू राष्ट्र में ओबीसी कार्ड का इस्तेमाल संघ परिवार किस तरह करता रहा है,इसपर जय भीम कामरेड,आनंद पटवर्धन की बहुचर्चित फिल्म और छात्र युवाओं के आंदोलन की पृष्ठभूमि में पिछले साल हमने एक वीडियो अपलोड किया था।ओबीसी देश की सबसे बड़ी जनसंख्या है जो बजरंगी पैदल सेना बन गयी है और इस वजह से संघ परिवार को हिंदू कारपोरेट राष्ट्र बनाने में इतनी भारी कामयाबी मिल रही है।नीतीश कुमार को सारे लोग इस वक्त गरिया रहे हैं लेकिन ओबीसी कार्ड में तब्दील सारे क्षत्रपों की भूमिका पर चर्चा बेहद जरुरी है और इस सिलसिले में पहचान की राजनीति के तिलिस्म को तोड़कर प्रतिरोध की जमीन तैयार करना उससे भी जरुरी है।इस बहस के लिए मैं अपना वह पुराना वीडियो जो पूरे देश को संबोधित करने के लिए अंग्रेजी में है,आज फेसबुक पर लगा रहा हूं।

Saturday, July 22, 2017

डोक ला1 में तनाव भारत की भूटान नीति और चीन का भय आनंद स्वरूप वर्मा

आनंद स्वरूप वर्मा

अब से चार वर्ष पूर्व 2013 में भूटान की राजधानी थिंपू में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यिक समारोह हुआ था जिसमें सांस्कृतिक क्षेत्र के बहुत सारे लोग इकट्ठा हुए थे। 'अतीत का आइना' (दि मिरर ऑफ दि पास्ट) शीर्षक सत्र में डॉ. कर्मा फुंत्सो ने भारत और भूटान के संबंधों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं थीं। डॉ. कर्मा फुंत्सो ''हिस्ट्री ऑफ भूटान'' के लेखक हैं और एक इतिहासकार के रूप में उनकी काफी ख्याति है। उन्होंने भारत के साथ भूटान की मैत्री को महत्व देते हुए कहा कि''कभी-कभी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो जाती हैं जैसी कि अतीत में हुईं।'' उनका संकेत कुछ ही दिनों पूर्व हुए चुनाव से पहले भारत द्वारा भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी बंद कर देने से था। उन्होंने आगे कहा कि''शायद भूटान के लोग हमारी स्थानीय राजनीति में भारत के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते लेकिन अपने निजी हितों के कारण राज्य गलतियां करते रहते हैं। उनके इस कदम से दोस्ताना संबंधों को नुकसान पहुंचता है।''अपने इसी वक्तव्य में उन्होंने यह भी कहा था कि भारत के ऊपर अगर हमारी आर्थिक निर्भरता बनी रही तो कभी यह मैत्री बराबरी के स्तर की नहीं हो सकती। उन्होंने भूटान के लोगों को सुझाव दिया कि वे भारत से कुछ भी लेते समय बहुत सतर्क रहें।

डॉ. कर्मा ने ये बातें भूटान के चुनाव की पृष्ठभूमि में कहीं थी। हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि उस चुनाव के मौके पर ऐसा क्या हुआ था जिसने भूटान की जनता को काफी उद्वेलित कर दिया था। 13 जुलाई2013 को वहां संपन्न दूसरे आम चुनाव में प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने उस समय की सत्तारूढ़ ड्रुक फेनसुम सोंगपा (डीपीटी) को हराकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। पीडीपी को 35 और डीपीटी को 12 वोट मिले। इससे पहले 31 मई को हुए प्राथमिक चुनाव में डीपीटी को 33 और पीडीपी को 12 सीटों पर सफलता मिली थी। आश्चर्य की बात है कि 31 मई से 13 जुलाई के बीच यानी महज डेढ़ महीने के अंदर ऐसा क्या हो गया जिससे डीपीटी अपना जनाधार खो बैठी और पीडीपी को कामयाबी मिल गयी।

दरअसल उस वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में भारत सरकार ने किरोसिन तेल और कुकिंग गैस पर भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी पर रोक लगा दी। यह रोक भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के निर्देश पर लगायी गयी। डीपीटी के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री जिग्मे थिनले से भारत सरकार नाराज चल रही थी। भारत सरकार का मानना था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री थिनले मनमाने ढंग से विदेश नीति का संचालन कर रहे हैं। यहां ध्यान देने की बात है कि 1949 की 'भारत-भूटान मैत्री संधिमें इस बात का प्रावधान था कि भूटान अपनी विदेश नीति भारत की सलाह पर संचालित करेगा। लेकिन 2007 में संधि के नवीकरण के बाद इस प्रावधान को हटा दिया गया। ऐसी स्थिति में भूटान को इस बात की आजादी थी कि वह अपनी विदेश नीति कैसे संचालित करे। वैसेअलिखित रूप में ऐसी सारी व्यवस्थाएं बनी रहीं जिनसे भूटान में कोई भी सत्ता में क्यों न होवह भारत की सलाह के बगैर विदेश नीति नहीं तैयार कर सकता। हुआ यह था कि 2012 में ब्राजील के रियो द जेनेरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री थिनले ने चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री से एक अनौपचारिक भेंट कर ली थी। यद्यपि भारत के अलावा भूटान का दूसरा पड़ोसी चीन ही है तो भी चीनी और भूटानी प्रधानमंत्रियों के बीच यह पहली मुलाकात थी। इस मुलाकात के बाद भारत के रुख में जबर्दस्त तब्दीली आयी और उसे लगा कि भूटान अब नियंत्रण से बाहर हो रहा है। भूटान ने चीन से 15 बसें भी ली थीं और इसे भी भारत ने पसंद नहीं किया था।

मामला केवल चीन से संबंध तक ही सीमित नहीं था। भारत यह नहीं चाहता कि भूटान दुनिया के विभिन्न देशों के साथ अपने संबंध स्थापित करे। 2008 तक भूटान के 22 देशों के साथ राजनयिक संबंध थे जो थिनले के प्रधानमंत्रित्व में बढ़कर 53 तक पहुंच गए। चीन के साथ अब तक भूटान के राजनयिक संबंध नहीं हैं लेकिन अब भूटान-चीन सीमा विवाद दो दर्जन से अधिक बैठकों के बाद हल हो चुका है इसलिए भारत इस आशंका से भी घबराया हुआ था कि चीन के साथ उसके राजनयिक संबंध स्थापित हो जाएंगे। भारत की चिंता का एक कारण यह भी था कि अगर भारत (सिक्किम) -भूटान-चीन (तिब्बत) के संधि स्थल पर स्थित चुंबी घाटी तक जिस दिन चीन अपनी योजना के मुताबिक रेल लाइन बिछा देगाभूटान की वह मजबूरी समाप्त हो जाएगी जो तीन तरफ से भारत से घिरे होने की वजह से पैदा हुई है। उसे यह बात भी परेशान कर रही थी कि थिनले की डीपीटी को बहुमत प्राप्त होने जा रहा था जिन्हें वह चीन समर्थक मानता था। इसी को ध्यान में रखकर चुनाव की तारीख से महज दो सप्ताह पहले उसने अपनी सब्सिडी बंद कर दी और इस प्रकार भूटानी जनता को संदेश दिया कि अगर उसने थिनले को दुबारा जिताया तो उसके सामने गंभीर संकट पैदा हो सकता है। भारत के इस कदम को भूटान की एक बहुत बड़ी आबादी ने 'बांह मरोड़ने की कार्रवाई माना'

भारत के इस कदम पर वहां के ब्लागोंबेवसाइटों और सोशल मीडिया के विभिन्न रूपों में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। भूटान के अत्यंत लोकप्रिय ब्लॉगर और जाने-माने बुद्धिजीवी वांगचा सांगे ने अपने ब्लॉग में लिखा 'भूटान के राष्ट्रीय हितों को भारतीय धुन पर हमेशा नाचते रहने की राजनीति से ऊपर उठना होगा। हम केवल भारत के अच्छे पड़ोसी ही नहीं बल्कि अच्छे और विश्वसनीय मित्र भी हैं। लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं इसलिए भूटान का राष्ट्रीय हित महज भारत को खुश रखने में नहीं होना चाहिए। हमें खुद को भी खुश रखना होगा।अपने इसी ब्लॉग में उन्होंने यह सवाल उठाया कि चीन के साथ संबंध रखने के लिए भूटान को क्यों दंडित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि 'कौन सा राष्ट्रीय नेता और कौन सी राष्ट्रीय सरकार अपनी आत्मा किसी दूसरे देश के हाथ गिरवी रख देती हैहम कोई पेड सेक्स वर्कर नहीं हैं जो अपने मालिकों की इच्छा के मुताबिक आंखें मटकाएं और अपने नितंबों को हिलाएं।डॉ. कर्मा ने भी थिंपू के साहित्य समारोह में भारत की नाराजगी का कारण भूटान के चीन से हाथ मिलाने को बताया था।

बहरहाल सब्सिडी बंद करने का असर यह हुआ कि जनता को भयंकर दिक्कतों से गुजरना पड़ा लिहाजा थिनले की पार्टी डीपीटी चुना हार गयी और मौजूदा प्रधानमंत्री शेरिंग तोबो की पीडीपी को कामयाबी मिली।

उपरोक्त घटनाएं उस समय की हैं जब हमारे यहां केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी। 2014 में एनडीए की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। इस सरकार ने उसी नीति कोजो मनमोहन सिंह के ही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही थीऔर भी ज्यादा आक्रामक ढंग से लागू किया।

पिछले एक डेढ़ महीने से भारत-भूटान-चीन के आपसी संबंधों को लेकर जो जटिलता पैदा हुई है उसके मूल में भारत का वह भय है कि भूटान कहीं हमारे हाथ से निकल कर चीन के करीब न पहुंच जाय। आज स्थिति यह हो गयी है कि चुंबी घाटी वाले इलाके में यानी डोकलाम में अब चीन और भारत के सैनिक आमने-सामने हैं और दोनों देशों के राजनेताओं की मामूली सी कूटनीतिक चूक एक युद्ध का रूप ले सकती है। चीन उस क्षेत्र में सड़क बनाना चाहता है जो उसका ही क्षेत्र है लेकिन भारत लगातार भूटान पर यह दबाव डाल रहा है कि वह उस क्षेत्र पर दावा करे और चीन को सड़क बनाने से रोके। भूटान को इससे दूरगामी दृष्टि से फायदा ही है लेकिन भारत इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। अब दिक्कत यह है कि सिक्किम (भारत) और तिब्बत (चीन) के बीच डोकलाम में अंतर्राष्ट्रीय सीमा का बहुत पहले निर्धारण हो चुका है और इसमें कोई विवाद नहीं है। 1980 के दशक में भूटान और चीन के बीच बातचीत के 24 दौर चले और दोनों देशों के बीच भी सीमा का निर्धारण लगभग पूरा है। यह बात अलग है कि फिलहाल जिस इलाके को विवाद का रूप दिया गया है उसमें चीन भूटान के हिस्से की कुछ सौ गज जमीन चाहता है और बदले में इससे भी ज्यादा जमीन किसी दूसरे इलाके में देने के लिए तैयार है। चीन के इस प्रस्ताव से भूटान को भी कोई आपत्ति नहीं है लेकिन भारत के दबाव में उसने इस प्रस्ताव को मानने पर अभी तक अपनी सहमति नहीं दी है। अगर चीन को भूटान से यह अतिरिक्त जमीन नहीं भी मिलती है तो भी अभी जो जमीन है वह बिना किसी विवाद के चीन की ही जमीन है। भारत का मानना है कि अगर वहां चीन ने कोई निर्माण किया तो इससे सिक्किम के निकट होने की वजह से भारत की सुरक्षा को खतरा होगा। चीन ने तमाम देशों के राजदूतों से अलग-अलग और सामूहिक तौर पर सभी नक्शों और दस्तावेजों को दिखाते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि यह जगह निर्विवाद रूप से उसकी है। अब ऐसी स्थिति में भारत के सामने एक गंभीर समस्या पैदा हो गयी है। उसने अपने सैनिक सीमा पर भारतीय क्षेत्र में यानी सिक्किम के पास तैनात कर दिए हैं और भूटान में भी भारतीय सैनिक चीन की तरफ अपनी बंदूकों का निशाना साधे तैयार बैठे हैं। स्मरणीय है कि भूटान की शाही सेना को सैनिक प्रशिक्षण देने के नाम पर पिछले कई दशकों से वहां भारतीय सेना मौजूद है।

चीन और भारत दोनों देशों में उच्च राजनयिक स्तर पर हलचल दिखायी दे रही है। तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि समस्या का समाधान बातचीत के जरिए संभव है क्योंकि अगर युद्ध जैसी स्थिति ने तीव्र रूप लिया तो इससे दोनों देशों को नुकसान होगा। शुरुआती चरण में रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे अरुण जेटली ने जो बयान दिया कि''यह 1962 का भारत नहीं है'' और फिर जवाब में चीन ने अपने सरकारी मुखपत्र में जो भड़काऊ लेख प्रकाशित किए उससे स्थिति काफी विस्फोटक हो गयी थी लेकिन समूचे मामले पर जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया दिखायी दे रही है उससे भारत को एहसास होने लगा है कि अगर तनाव ने युद्ध का रूप लिया तों कहीं भारत अलगाव में न पड़ जाए और यह नुकसानदेह न साबित हो।

26 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल जी-20 के सम्मेलन में भाग लेने चीन जा रहे हैं और हो सकता है कि वहां सीमा पर मौजूद तनाव के बारे में कुछ ठोस बातचीत हो और इससे उबरने का कोई रास्ता निकले। भारत और चीन दोनों ने अगर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया तो यह समूचे दक्षिण एशिया के लिए एक खतरनाक स्थिति को जन्म देगा।

1. इस इलाके को भूटान 'डोकलाम', भारत 'डोक लाऔर चीन 'डोंगलाङकहता है।              (19 जुलाई 2017)


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Our girls are alread world champions irrespective of Lords result,they defeated patriarchy! They have to defeat the patriarchal Khap Panchayti psyche of the society also!

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Palash Biswas

It is most important that after Harmanpreet Kaur's ton, mother reminds India of 'Save girl child' motto,as media reports.

I must add that our girls without the support of the patriarchy of BCCI which is all about IPL corporate profit making corporate economy has reached the destination to make in a profeesional team,in which every girl has a role.

It is not all about some Mithali Raj,Jhulan Goswami,Harman Preet or Smriti Mandhana.

Every girl is a perfect icon.

Harmanpreet Kaur hit 171* as India defeated defending champions Australia in the second semi-final of the ICC Women's Cricket World Cup 2017. 

Her mother Satinder Kaur urged all Indians to give their daughter a chance to live their dream!

This statement explains everything.Most of them belong to small town and may not speak English and Veda has to be play translator for them while they become player of the match.

We have individual girls in athletics, tennis, badminton, archery , wrestling,TT, gymanatic, hockey, football who represented India and fetched medals,awards in Olympics, SAF,Commonwealth,Asiad and International events as exception.But neither the society nor the nation ever tried to promote girls at any level to rise for the occasion.

If the girls are not subjected to gender bias and have equal opportunity and support,our girls may certainly compete Chinese,Japanese,Koran and European, Latin American, African and American girls as some girls already proved in sports.

Indian Woman Cricket is the best example of the gendre bias as we have seen in SRK film Chak De India.Dangal also explained the patriarchal Khap Panchayti psyche of the society.

Harmanpreet Kaur hit 171* as India defeated defending champions Australia in the second semi-final of the ICC Women's Cricket World Cup 2017.

 Her mother Satinder Kaur urged all Indians to give their daughter a chance to live their dream.

Her mother, however, took the opportunity in reminding fellow Indians the need to empower their daughters.

"I just want to say other women that the way my daughter has made us proud, they should also give their daughter a chance to live their dream and shouldn't kill them in the womb," Harmanpreet Kaur's mother Satinder Kaur told ANI.

Friday, July 21, 2017

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख सबसे बड़ा सच : मीडिया तो झूठन है, दिलों और दिमाग को बिगाड़ने में साहित्य और कला माध्यम निर्णायक, वहां भी संघ परिवार का वर्चस्व

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