हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के कट्टर विरोधी रवींद्र नाथ को निषिद्ध करके दिखाये,संघ परिवार को बंगाल की चुनौती
पलाश विश्वास
संदर्भः आज रवींद्र नाथ को प्रतिबंधित करने की चुनौती देता हुआ बांग्ला दैनिक आनंद बाजार पत्रिका में प्रकाशित सेमंती घोष का अत्यंत प्रासंगिक आलेख,जिसके मुताबिक रवींद्र नाथ का व्यक्तित्व कृतित्व संघ परिवार और उसके हिंदू राष्ट्रवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है।उनके मुताबिक रवींद्रनाथ का लिखा,कहा हर शब्द विशुद्धता के नस्ली ब्राह्मणावादी हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ है। रवींद्रनाथ ही इस अंध राष्ट्रवाद के प्रतिरोध में एक अजेय किला हैं और मोर्चा भी।जो बांग्ला पढ़ सकते हैं,वे अवश्य ही यह आलेख पढ़ें।
সেমন্তী ঘোষ
স্কুল সিলেবাসের বইপত্র খুঁটিয়ে পড়ে গোলমেলে জিনিসগুলো বাদ দেওয়ার দায়িত্ব পড়েছিল বত্রা মশাই-এর উপর। তিনি একটা পাঁচ-পাতা জোড়া লম্বা নিষেধাজ্ঞা ফিরিস্তি বানিয়ে দিয়েছেন, মির্জা গালিব, এম এফ হুসেন, আকবর, আওরঙ্গজেব, আমির খুসরু, কত নাম তাতে। এই বৃহৎ ও সমৃদ্ধ লাল-তালিকাটির বেশ উপরের দিকেই ছিলেন রবি ঠাকুর।
भारतीयता और भारत की कल्पना रवींद्र नाथ की गीतांजलि के बिना असंभव है,जिसे संघ परिवार भागवत गीता के महाभारत में बदलने की कोशिश कर रहा है।
रवींद्र नाथ सिर्फ हिंदुत्व के खिलाफ ही नहीं,हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ ही नहीं,राष्ट्रवाद के खिलाफ भी थे।उनका कहना था कि राष्ट्रवाद मनुष्यता का अपमान है।रवींद्र नाथ ने जब यह बात कही थी,तब हिटलर मुसोलिनी के अंध राष्ट्रवाद से पूरी दुनिया जख्मी और लहूलुहान थी।लातिन अमेरिका,यूरोप और चीन,रूस,जापान की यात्रा के दौरान बी रवींद्रनाथ लगातार इस राष्ट्रवाद के खिलाफ बोलते लिखते रहे हैं।
हम आज के संदर्भ में राष्ट्रवाद के केसरियाकरण के बाद कश्मीर, मध्यभारत और आदिवासी भूगोल, असम,मणिपुर,समूचे पूर्वोत्तर भारत,दार्जिलिंग, तमिलनाडु और समूचे दक्षिण भारत के खिलाफ लामबंद राष्ट्रवादी बजरंगी सेना,साहित्य.संस्कृति और इतिहास के केसरियाकरण के संदर्भ में राष्ट्रवाद का महिमामंडित वीभत्स चेहरा देख सकते हैं।यह राष्ट्रवाद विशुद्धता का नस्ली फासिस्ट राष्ट्रवाद है जिसके तहत नागरिकों को अपनी देह,मन,मस्तिष्क,विचारों और ख्वाबों पर भी कोई अधिकार नहीं है।यह सैन्य पारमाणविक राष्ट्र की गुलाम प्रजा का राष्ट्रवाद है,जो नागरिकता और मानवाधिकार के विरुद्ध है।
यही वजह है कि जहां बंकिमचंद्र,उनके आनंद मठ और वंदेमातरम के महिमामंडन से हिंदुत्व के अश्वमेधी अभियान को सुनामी में तब्दील करने पर लगा है संघ परिवार,तो वहीं रवींद्रनाथ के रचे राष्ट्रगान में विविधता और बहुलता के जयगान के खिलाफ है बजरंगी सेना।
संजोगवश बांग्लादेश में भी कट्टरपंथी इस्लामी राष्ट्रवाद रवींद्रनाथ,रवींद्र रचनासमग्र, बांग्लादेश के रवींद्र रचित राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला और रवींद्रनाथ के मानवता वादी विश्वबंधुत्व के दर्शन के खिलाप संघ परिवार की तरह लामबंद है।
तब हम भाषाबंधन के संपादकीय में कृपाशकंर चौबे और अरविंद चतुर्वेद के साथ थे।महाश्वेता देवी प्रदान संपादक थीं।नवारुण दा संपादक।भारतीय भाषाओं के साहित्य के सेतुबंधन के उद्देश्य लेकर निकली इस पत्रिका के संपादक मंडल में वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल और पंकज बिष्ट जैसे लोग थे।
नवारुण दा शब्दों के आशय और प्रयोग को लेकर बेहद संवेदनशील थे।उन्होंने ही ग्लोबेलाइजेशन का अनुवाद ग्लोबीकरण बताया क्योंकि उनके नजरिये से यह वैश्वीकरण नहीं है,बल्कि वैश्वीकरण के खिलाफ मुक्तबाजार की नरसंहार संस्कृति के कारपोरेट वर्चस्व है यह।
रवींद्रनाथ की अंतरराष्ट्रीय नागरिकता के मानवतावाद को हमारे नवारुण भट्टाचार्य हिंदुत्व के राष्ट्रवाद की जगह असल वैश्वीकरण ,ग्लोबेलाइजेशन मानते थे,जो मुक्तबाजारी कारपोरेट एकाधिकार के साम्राज्यवाद के उलट है तो सैन्य राष्ट्रवाद के खिलाफ भी।
महाश्वेता दी ने भी अपनी सारी रचनाओं में इस सैन्य राष्ट्रवाद के खिलाफ आदिवासियों,किसानों और महिलाओं के जल जंगल जमीन के हक हकूक की जनांदोलनों की बात की है।
गौरतलब है कि पंडित जवाहरलाल नेहरु भी रवींद्र दर्शन के मुताबिक राष्ट्रवाद की विशुद्धता के विपरीत पंचशील के विश्वबंधुत्व,विविधता और बहुलता के पक्षधर थे,जिन्हें संघ परिवार ने भारतीय इतिहास से गांधी के साथ मिटाने का बीड़ा उठा लिया है।गांधी नेहरु चूंकि राजनीति की वजह से हाशिये पर डाले जा सकते हैं लेकिन जहां बंगाल और बांग्लादेश में हर स्त्री की दिनचर्या में रवींद्र संगीत रचा बसा है,वहां रवींद्रनाथ को मिटाना उसके बूते में नहीं है।
बंगाल के खिलाफ ताजा वर्गी हमले के प्रतिरोध में अकेले रवींद्रनाथ काफी हैं।
अस्पृश्यता के खिलाफ,सामाजिक बहिस्कार के खिलाफ,नस्ली विशुद्धता के खिलाफ बौद्धमय भारत के प्रवक्ता रवींद्रनाथ के मुताबिक भारतवर्ष हिंदुस्तान नहीं है,यह भारत तीर्थ है,जहां विश्वभर से मनुष्यता की विविध धाराओं का विलयहोकर एकाकार मनुष्यता की संस्कृति है।
रवींद्र की यह संस्कृति संघ परिवार के आनंद मठ नस्ली राष्ट्वाद के खिलाफ है।इसलिए अंबेडकर को आत्मसात कर लेने के बावजूद रवींद्र के दलित विमर्श को आत्मसात करना संघ परिवार के लिए असंभव है।
सेमंती घोष के मुताबिक रवींद्रनाथ की हर रचना,उनके तमाम पत्र,उनका संगीत,उनके वक्तव्य और उनका व्यक्तित्व संघ परिवार के हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ है।लेकिन मरे हुए रवींद्रनाथ का कम से कम बंगाल में सर्वव्यापी असर इतना प्रबल है कि संघ परिवार उन्हें प्रतिबंधित करने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहा है।
नवजागरण की विरासत को समझे बिना रवींद्र साहित्य,रवींद्र दर्शन को समझना असंभव है।हिंदी के आलोचक डा.शंभूनाथ ने नवजागरण की विरासत पर महत्वपूर्ण शोध किया है,लगता है कि सरकारी खरीद के अलावा यह अत्यंत महत्वपूर्ण शोध आम हिंदी पाठकों तक नहीं पहुंचा है।
रवींद्रनाथ के पिता देवर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ब्रह्मसमाज आंदोलन में प्रमुख थे और इस आंदोलन का केंद्र ठाकुरबाड़ी जोड़ासांको था,जो स्त्री मुक्ति आंदोलन का केंद्र भी था। कुलीन, सवर्ण हिंदुओं के लिए ब्रह्मसमाजी मुसलमानों, ईसाइयों और अछूतों के बराबर अस्पृश्य शत्रु थे।
यही वजह रही है कि बंगाली भद्रलोक विद्वतजनों ने नोबेल पुरस्कार पाने से पहले रवींद्रनाथ को कभी कवि माना नहीं है।
दूसरी ओर,उनकी रचनाओं और जीवन दर्शन में महात्मा गौतम बुद्ध का सर्वव्यापी असर है और उनकी समूची रचनाधर्मिता अस्पृश्यता के नस्ली हिंदुत्व के खिलाफ निरंतर अभियान है।
हमने अछूत रवींद्रनाथ के इस दलित विमर्श पर करीब दस बारह साल पहले कवि केदारनाथ सिंह के कहने पर सिलसिलेवार काम किया था।महज तीन महीने के भीतर एक किताब की पांडुलिपि उन्हें सौंपी थी,जिसे उन्होंने प्रकाशन के लिए दरियागंज , दिल्ली के प्रकाशक हरिश्चंद्र जी को सौंपी थी।हमने केदारनाथ जी से निवेदन किया था कि वह पांडुलिपि वे संपादित कर दें।हरिश्चंद्र जी ने छापने का वायदा किया था।लेकिल दस बारहसाल से वह पांडुलिपि उनके पास पड़ी है।मेरे पास जो मूल पांडुलिपि थी,वह बाकी चीजों,संदर्भ पुस्तकों और प्रकाशित सामग्री के साथ चली गयी।
अब बेघऱ, बेरोजगार हालत में नये सिरे से काम करना मुश्किल है हमारे लिए।भारतीय भाषाओं के युवा रचनाकार,आलोचक इस अधूरे काम को पूरा कर दें तो रवींद्र ही नहीं,भारत और भारतीय दर्शन परंपरा को समझने,विविधता,बहुलता और सहिष्णुता की परंपरा को मजबूत करने में मदद मिलेगी।मेरे पास न वक्त है और न संसाधन।
उत्तर भारत में रवींद्र नाथ के साथ मिर्जा गालिब,अमीर खुसरो, प्रेमचंद, पाश जैसे रचनाकारों के खिलाफ संघ परिवार के फतवे और पाठ्यक्रम बदलकर साहित्य और इतिहास को बदलने के केसरिया उपक्रम के खिलाफ साहित्यिक सांस्कृतिक जगत में अनंत सन्नाटा है।
इसके विपरीत बंगाल में इसके खिलाफ बहुत तीखी प्रतिक्रिया है रही है और संस्कृतिकर्मी सड़कों पर उतरने लगे हैं।
गायपट्टी के केसरिया मीडिया के विपरीत बंगाल के सबसे लोकप्रिय दैनिक भी इस मुहिम में शामिल है।बाकी मीडिया भी हिंदुत्वकरण के खिलाफ लामबंद है।
आज ही आनंदबाजार में नवजागरण के मार्फत विशुद्धता के हिंदुत्व पर कुठाराघात करने वाले ईश्वरचंद्र विद्यासागर का वसीयतनामा छपा है,जिसमें उन्होंने अपने पुत्र को त्याग देने की घोषणा की है।उन्होंने परिवार और महानगर कोलकाता छोड़कर आखिरी वक्त आदिवासी गांव और समाज में बिताया।
नवजागरण की विरासत में शामिल विद्यासागर,राजा राममोहन राय,माइकेल मधुसूदन दत्त के सामाजिक सुधारों के चलते भारतीय समाज आधुनिक बना है,उदार और प्रगतिशील भी।
माइकेल के मेघनाद वध काव्य और रवींद्रनाथ के खिलाफ संघियों ने बंगाल में घृणा अभियान चलाने की कोशिश की तो उसका तीव्र प्रतिरोध हुआ।लेकिन बाकी भारत में साहित्य,संस्कृति और इतिहास के केसरियाकरण की कोई प्रतिक्रिया नहीं है।
मैंने इससे पहले लिखा है कि बंगाली दिनचर्या में रवींद्रनाथ की उपस्थिति अनिवार्य सी है, जाति, धर्म, वर्ग, राष्ट्र, राजनीति के सारे अवरोधों के आर पार रवींद्र बांग्लाभाषियों के लिए सार्वभौम हैं, लेकिन बंगाली होने से ही लोग रवींद्र के जीवन दर्शन को समझते होंगे, ऐसी प्रत्याशा करना मुश्किल है।
इसके बावजूद संघ परिवार के रवींद्र और दूसरे भारतीय लेखकों के खिलाफ,साहित्य और संस्कृति के केसरियाकरण खिलाफ जो तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है,उससे साफ जाहिर है कि संस्कृति विद्वतजनों की बपौती नहीं है।
बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।
उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।
गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।
उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।
गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।अगर कांटेट के लिहाज से देखें तो फासिजम के राजकाज के लिए सबसे खतरनाक मुक्तिबोध है,जो वर्गीय ध्रूवीकरण की बात अपनी कविताओं में कहते हैं और उनका अंधेरा फासिज्म का अखंड आतंकाकारी चेहरा है।शायद महामहिम बत्रा महोदय ने अभी मुक्तबोध को कायदे से पढ़ा नहीं है।
बत्रा साहेब की कृपा से जो प्रतिबंधित हैं,उनमें रवींद्र,गांधी,प्रेमचंद,पाश, गालिब को समझना भी गोबरपंथियों के लिए असंभव है।
जिन गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रामराज्य और मर्यादा पुरुषोत्तम को कैंद्रित यह मनुस्मृति सुनामी है,उन्हें भी वे कितना समझते होंगे,इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है।
कबीर दास और सूरदास लोक में रचे बसे भारत के सबसे बड़े सार्वजनीन कवि हैं,जिनके बिना भारतीयता की कल्पना असंभव है और देश के हर हिस्से में जिनका असर है। मध्यभारत में तो कबीर को गाने की वैसी ही संस्कृति है,जैसे बंगाल में रवींद्र नाथ को गाने की है और उसी मध्यभारत में हिंदुत्व के सबसे मजबूत गढ़ और आधार है।
ঠিকই তো, সংঘের পক্ষে রবীন্দ্রনাথকে হজম করা অসম্ভব
নিষিদ্ধ করলেন না?
সেমন্তী ঘোষ
না — মেনে নেওয়া যাচ্ছে না। রবীন্দ্রনাথের এই হাঁড়ির হাল মেনে নেওয়া অসম্ভব। কী করি! দীননাথ বত্রাকে একটা ফোন করব? বলব, মশাই দেখুন একটু, আপনিই পারেন আমাদের বাঁচাতে! এই তো সে দিন আপনি বললেন, রবীন্দ্রনাথের লেখা স্কুল সিলেবাস থেকে বাদ দেওয়া হবে। কেন তবে আপনার কথা না শুনে ওরা এখন পিছু হটছে? কেন মিথ্যে করে বলছে, আপনার শিক্ষা সংস্কৃতি উত্থান ন্যাসকে না কি আরএসএস-এর অংশ বলা যায় না? সে দিন আবার শুনলাম, পশ্চিমবঙ্গের আরএসএস ক্যাপটেন বিদ্যুৎ মুখুজ্জে বলছেন, অমন কথা নাকি ন্যাস বলেনি। দেখুন তো, কী কাণ্ড, সাজিয়ে গুছিয়ে দিনকে রাত করে রবি ঠাকুরকে লাস্ট মোমেন্টে বাঁচিয়ে দেওয়া? না, এ সব সহ্যের অতীত! আপনার উচিত, সোজা মাঠে নেমে ব্যাপারটা নিজে সামলানো। শুধু রবীন্দ্রনাথের লেখাপত্র নয়, রবীন্দ্রনাথ নামে লোকটাকেই এক ধাক্কায় নিষিদ্ধ করে দেওয়া। এর পর থেকে যেন ওঁকে 'বিপ' ঠাকুর ছাড়া আর কিছু না বলা হয়।
স্কুল সিলেবাসের বইপত্র খুঁটিয়ে পড়ে গোলমেলে জিনিসগুলো বাদ দেওয়ার দায়িত্ব পড়েছিল বত্রা মশাই-এর উপর। তিনি একটা পাঁচ-পাতা জোড়া লম্বা নিষেধাজ্ঞা ফিরিস্তি বানিয়ে দিয়েছেন, মির্জা গালিব, এম এফ হুসেন, আকবর, আওরঙ্গজেব, আমির খুসরু, কত নাম তাতে। এই বৃহৎ ও সমৃদ্ধ লাল-তালিকাটির বেশ উপরের দিকেই ছিলেন রবি ঠাকুর। কে জানে এখন কী অবস্থা, বকুনি খেয়ে নামটা তালিকা থেকে কাটা যাচ্ছে কি না! অথচ ন্যাস-প্রধান ওরফে সংঘ-নেতা বত্রা তো ঠিকই ধরেছিলেন, সংঘীয় জাতীয়তাবাদ আর বিজেপীয় হিন্দুত্ববাদের ঘোর শত্রু বলে যদি বিশ শতকের ভারত থেকে মাত্র একটি লোককেও বেছে নিতে বলা হয়, প্রথম নামটাই হওয়া উচিত রবীন্দ্রনাথ। আরএসএস-ই যদি রবীন্দ্রনাথকে বাদ না দেয়, আর কে দেবে? উচিত তো ছিল, এখনই জোড়াসাঁকো শান্তিনিকেতন সব ব্যারিকেড দিয়ে ঘিরে দেওয়া, নোটিস সেঁটে দেওয়া— ডেঞ্জার জোন, নো এনট্রি ইত্যাদি। এমনিতেই বাঙালির গোটা তিনেক প্রজন্ম ইতিমধ্যে রবীন্দ্রনাথের কুপ্রভাবে ফর্দাফাঁই। এখনই সাবধান না হলে মানবতাবাদ ইত্যাদি হাবিজাবি দিয়ে আরও কত সুকুমারমতি বালকবলিকার ব্রেনওয়াশ হবে, কে জানে!
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নিষিদ্ধ করতে গিয়ে বত্রা 'ন্যাশনালিজম' প্রবন্ধের যে বাক্যগুলি বেছেছেন, সেগুলো কিন্তু মোক্ষম। পড়লেই ভারতের সব সংঘবাদী বুঝে যাবেন, কী বিপজ্জনক লোককে এত দিন মাথায় তোলা হচ্ছিল। সত্যি তো, যে লোকটা এক গোঁ ধরে লিখে যায় যে, জাতীয়তাবাদ আর মানবতাবাদের মধ্যে প্রবল বিরোধিতা আছে, আর তাই মানবতাবাদকে বাদ দিয়ে যে জাতীয়তাবাদটা পড়ে থাকে, সেটা সাংঘাতিক বিপজ্জনক— তাকে কি এক্ষুনি 'বিপ' করা উচিত না? দীননাথ বত্রা মশাইয়ের মতামতটাই ধরা যাক না কেন। ২০১৪ সালে গুজরাতের জন্য গোটা ছয়েক টেক্সট বই লিখেছিলেন তিনি। সেখানে প্রাচীন ভারতের অসামান্য কৃতিত্বের অজানা সব তথ্য পরিবেশন করেছিলেন, সংঘীয় মতে যাতে নতুন প্রজন্ম সুশিক্ষিত হয়। লিখেছিলেন, প্রাচীন ভারতই প্রথম গাড়ি আবিষ্কার করে, বিমানও। এমনকী রকেটও। গোটা বিশ্বের জ্ঞানভাণ্ডার প্রাচীন ভারত থেকেই টুকলি করা বলে অন্য কোনও দেশের সংস্কৃতি, জ্ঞানবিজ্ঞান না জান়লেই চলে, এ কথাই কত সুন্দর করে বুঝিয়েছিলেন বত্রা। আর সেখানে দেখুন, রবীন্দ্রনাথ কী জিনিস। আজ কেন, সেই পরাধীন দেশেও প্রাচীন ভারতের জয়গান তাঁর সহ্য হয়নি, এমনকী গ্যালভানিক ব্যাটারি যে গল্বন ঋষির আবিষ্কার, সেই মহান্ সত্যটি নিয়েও তিনি ব্যঙ্গবিদ্রুপ করে প্রবন্ধ লিখেছিলেন, অহো, কী দুঃসহ স্পর্ধা! আবার, গাঁধীজির অসহযোগ নীতিকেও তিনি পাত্তা দেননি, স্বাধীনতা আর আত্মশক্তির নামে বেশি বেশি স্বদেশিপনা তাঁর না-পসন্দ্। স্বদেশি আন্দোলনের পিছনপানে চাওয়া দেশপ্রেম তাঁর পোষাচ্ছিল না বলে লিখেছিলেন: 'আমাদের অতীত তাহার সম্মোহনবাণ দিয়া আমাদের ভবিষ্যৎকে আক্রমণ করিয়াছে।' তাঁর কড়া সমালোচনা শুনে গাঁধী বা দেশবন্ধুর মতো নেতারা কেবল তর্ক করে পার পাননি, নিজেদের মত চুপচাপ খানিক পাল্টেও নিয়েছিলেন। রবীন্দ্রনাথের পাল্লায় পড়ে তাঁদের জাতীয়তাবাদের জানলাগুলো একটু খুলে দিতে হয়েছিল, ভারতীয়ত্ব বস্তুটিকে একটু বড় করে দেখতে হয়েছিল। দেখুন কাণ্ড। গাঁধী যাঁকে সামলাতে পারেননি, বত্রাদের আগমার্কা জাতীয়তার সিলেবাসে তাঁর নামের পাশে লালকালির ঢ্যাঁড়া পড়বে না, এও কি হয়?
তাঁর জাতীয়তাবাদ-বিরোধিতা শুনে সে দিন বিদেশেও লোকজনের চোখ কপালে। এই তো ঠিক একশো বছর আগে, ১৯১৬-১৭ সালে কী কাণ্ডই না হল তাঁর 'জাতীয়তাবাদ' বক্তৃতা নিয়ে, আমেরিকা জাপান চিনে! আমেরিকা সফরের পর বলাবলি হল, ছেলেপিলের মাথা খাচ্ছেন প্রাচ্যের সাধু-টাইপ লোকটি, নয়তো কেউ বলতে পারে, জাতি নিয়ে গর্ব করাটা আসলে 'ইনসাল্ট টু হিউম্যানিটি'? চিনে রটে গেল, একটা পরাধীন হতভাগ্য দেশের মানুষ বলেই এই ভারতীয় কবি অমন মিনমিনে, কেবল শান্তি ঐক্য এই সব ন্যাকা-কথা। জাপানে যখন তিনি পৌঁছলেন, ভিড়ে ভিড়াক্কার। আর সফরশেষে, তাঁর জাতীয়তাবাদ-তর্জন শোনার পর ফেরার দিন বিদায় দিতে এলেন মাত্র জনা দুই-তিন! তাদের মতে, দেশ ও জাতির জন্য কাজ যে লড়াই দিয়েই শুরু করতে হয়, সেটাও লোকটা বোঝে না। বড় বড় চিন্তাবিদরা এ দিকে রবীন্দ্রনাথের কথা শুনে মুগ্ধ, সে-ও ভারী বিপদ! টেগোর না কি ভবিষ্যৎ-দ্রষ্টা, prescient! আর দেশের মাটিতে জওহরলাল নেহরু কী বললেন, সেটা নিশ্চয়ই বত্রাদের মনে করাতে হবে না! নেহরুর মতে, রবীন্দ্রনাথ হলেন 'ইন্টারন্যাশনালিস্ট পার এক্সেলেন্স', শ্রেষ্ঠ আন্তর্জাতিকতাবাদী, যিনি একাই ভারতের জাতীয়তাবাদের ভিতটাকে চওড়া করে দিয়েছেন!—জাতীয়তাবাদের ভিত চওড়া! তবেই বুঝুন! নেহরুকে মোদীরা নির্বাসন দিলেন, আর নেহরুর রবীন্দ্রনাথকে এখনও দিলেন না?
একটা সন্দেহ হচ্ছে। সিলেবাসে 'ন্যাশনালিজম' লেখাটি ছিল বলে ওইটাই বত্রা ব্রিগেড বেশি করে খেয়াল করেছেন। কিন্তু ভদ্রলোকের সব লেখাই যে আরএসএস-এর 'বিপ' পাওয়ার যোগ্য, সেটা এখনও ওঁরা বোঝেননি! আরে মশাই, একটু উল্টে দেখুন ভারতবর্ষীয় সমাজ, হিন্দু-মুসলমান নিয়ে প্রবন্ধগুলো, গোরা, ঘরে বাইরে, উপন্যাস ক'টা। খেয়াল করে দেখুন গাদা গাদা গান-কবিতায় কী সব বলেছেন উনি। শুধু জাতীয়তাবাদ নয়, হিন্দু ভারত ব্যাপারটাই মানেন না ভদ্রলোক! আর্য-অনার্য-হিন্দু-মুসলমান-শক-হূণ-পাঠান-মোগল, সব নিয়ে নাকি ভারত বানাতে হবে, এই তাঁর আবদার। জাতিভেদ, বর্ণাশ্রম তো একদম উড়িয়ে দিয়েছেন। কত বড় দুঃসাহস যে বলেছেন, ব্রাহ্মণরা যেন মন শুচি করে তবেই এগিয়ে আসেন 'ভারততীর্থ' তৈরির কাজে। স্পষ্টাস্পষ্টি বলেছেন, আর্য দ্রাবিড় হিন্দু মুসলমান ইত্যাদি 'বিরুদ্ধতার সম্মিলন যেখানে হইয়াছে সেখানেই সৌন্দর্য জাগিয়াছে।' ভারতবর্ষ বলতে মিলন মিশ্রণ সম্মিলন— ঘ্যানঘ্যান করে সেই এক কথা, সারা জীবন। রাষ্ট্র বলতেই যদি একচালা একরঙা কিছু তৈরি হয়, সেই ভয়ে সমানে বলে গিয়েছেন, ছোট ছোট সমাজ নিজেরাই রাষ্ট্র গড়বে, ছোট গ্রাম, ছোট পল্লি, ছোট গোষ্ঠী, সম্প্রদায়।— এ সব পড়লে বত্রা-রা পারবেন স্থির থাকতে? রাষ্ট্রীয় স্বয়ংসেবক সংঘের সেবক তাঁরা, তাঁরা না শপথ নিয়েছেন যে তাঁদের রাষ্ট্র মহৎ বৃহৎ হিন্দু রাষ্ট্র, উচ্চবর্ণের পবিত্র ব্রাহ্মণ্য হিন্দুত্ব ছাড়া সব সেখানে অশুচি, অগ্রাহ্য এবং হন্তব্য? তাঁদের ভারতবর্ষ আর রবীন্দ্র ঠাকুরের ভারতবর্ষের মধ্যে এ রকম মুখোমুখি সোজাসুজি সংঘর্ষ, তবু লালকালির ঢ্যাঁড়া পড়বে না? যিনি বলেন 'মুক্ত যেথা শির', যিনি 'তুচ্ছ আচারের মরুবালুরাশি'তে এত কাঁড়ি কাঁড়ি আপত্তি তোলেন, এই নতুন গোরক্ষক ভারত সে লোকের মাথায় ঘোল ঢেলে বিদেয় দেবে না?
শুধু লেখাপত্র নয়, লোকটার গোটাটাই বেদম গোলমেলে। নিজের বেঁচে থাকাটাই কেমন একটা ভাঙাভাঙি দিয়ে গড়া। বাড়িটাও কেমনধারা, এক দিকে বেম্মপনা, অন্য দিকে বিলিতি দোআঁশলাপনা, গানবাজনায় বিলিতি ছাপ, পোশাকআশাকে মুসলমানি আদল। আর তিনি নিজে? কোনও একটা ছাঁচে তাঁকে কেউ না ফেলতে পারে, এই হল তাঁর জীবনভ'র লড়াই। আইডেন্টিটি দেখলেই সেটাকে ভেঙেচুরে নতুন করে গড়ে নাও, তবেই না কি বিশ্বমানবের দিকে এগিয়ে যাওয়া— আরে, সংঘবাদের সাক্ষাৎ অ্যান্টিথিসিস তো এই লোকটাই! দিবে আর নিবে, মেলাবে মিলিবে, কথাটার মধ্যে কী সাংঘাতিক অন্তর্ঘাত, ভেবে দেখেছেন এক বার? তাই বলছিলাম, নতুন ভারততীর্থে রবীন্দ্রনাথ মানুষটাকেই নিষিদ্ধ করা হোক।