बिहार जीतने के लिए देश आग के हवाले,लेकिन चीखों को हरगिज वे रोक नहीं सकते।
जनादेश मिला भी तो अंजाम वहीं आपातकाल का ही होगा।
लाल नील का लफड़ा खत्म तो हिसाब बरोबर समझें क्योंकि फिर वहीं हमीं लाल और हमीं नील।
निनानब्वे फीसद पालतू जनता सीधी रीढ़ के साथ मुकाबला में हो तो अधर्म का अंध मुक्तबाजारी हिंदुत्व राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का कत्लेआम एजंडा खत्म।
पलाश विश्वास
VK. Singh was a grand welcome in Kolkata today showing black flags #CasteAtrocities #DalitChildrenBurnedAliveInIndia #ModiRajInBihar
कोलकाता में विसर्जन अभी पूरा हो नहीं पाया,लेकिन लगता है कि हमारे कामरेड अब समझ चुके हैं असल सर्वहारा के साथ खड़े हुए बिना कयामत का यह मंजर बदल नहीं सकता।
कामरेडों ने हिंदुत्व के एजंडे का विसर्जन कर दिया है।यह किसी मंत्री या जनरल का विरोध नहीं है,नरसंहारी संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध है।
कामरेड लाल सलाम
कामरेड नील सलाम
हमारे प्रिय अमलेंदु को भी लाल सलाम,नील सलाम कि उसे भी बातें खूब समझ आती है और कोलकाता का किस्सा टांग दिया हस्तक्षेप पर।
हम बोल नहीं रहे थे।हम सड़क पर आ नहीं रहे थे और इसी का अंजाम यह कयामत का मंजर है।आजाद चीखें सबकुछ बदल देती हैं।अमेरिकाओं,यूरोप और अफ्रिका में यह इतिहास है।
हमें शक हो रहा था कि क्या आम जनता की तरह हमारे कामरेड अधपढ़ या अपढ़ हैं या उनका दिमाग भी गुड़ गोबर है और वे न राजनीति समझते हैं और न राजनय और न अर्थशास्त्र और वे बारतीय जनता का नेतृत्व के सलायक नहीं है।
पहलीबार हम कामरेडों को सही कदम उठाते हुए देख रहे हैं।
लाल नील एका को एजंडा बना लें तो सुनामी वुनामी हिंदमहासागर में दफन हो जायेगी।
आपातकाल दो साल तक जारी रहा लेकिन इन्हें दो साल की भी मोहलत नहीं मिलेगी।
वे हार रहे हैं ,जमीन चाट रहे हैं और पगला गये हैं।
दंगा फसाद उनकी जुबान है।
लबों पर सख्त पहरा इसीलिए डिजिटल बायोमैट्रिक देश में।
हर तकनीक की काट है।
लड़ाई में कोई अंतिम हथियार भी नहीं होता और न कोई जनादेश निर्मायक होता है।
जनता की गोलबंदी हो गयी और देश दुनिया में इंसानियत का मुल्क फिर आबाद हुआ तो मुंडमाला पहनकर भी उनका अंत तय।
सोशल नेटवर्किंग कोई सड़क नहीं,न मैदान है और नखेत खलिहान है।वरनम वन आगे बढ़ रहा है और तानाशाह का अंत तय है।मेल वेल बंद करके,वीडियो मिटाकर क्या उखाड़ लेगें।
सर्विस प्रोवाइडर तो हमसे ज्यादा उत्पीड़ित हैं कि खुफिया निगरानी के शिकार हैं वे भी।रोबोट सेना की क्या औकात कि लबों पर ताला जड़ दें।अभिव्यक्ति के हजारतोर तरीके हैं।उसका इतिहास भूगोल और विरासत हैं।हम तमने वाले नहीं हैं और न मैदान छोड़ने वाले हैं।
कामरेडों को फिरभी एक सलाह,जबतक संगठन और नेतृत्व में सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व देकर नस्लवादी वर्चस्व को खत्म नहीं किया जाता,जब तक पहचान और अस्मिता के तमाम दायरों और सरहदों को खत्म कर नहीं दिया जाता।
कामरेड जबतक जाति उन्मूलन के एजंडे को भारत का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो नहीं मान लेते, तबतक लोग राम की सौगंध खाकर भव्य रामंदिर के नाम या गोरक्षा आंदोलन के अरबिया भारतीय वसंत की आड़ में आर्थिक सुधारों के लिए गैरहिंदू और बहुजनों का सफाया करते हुए विशुद्धता का रंगभेद जारी रखेंगे और केसरिया सुनामी चलती रहेगी।इस नरसंहारी अश्वमेध के किलाफ लाल नील एकता सबसे जरुरी है अगर सही मायने में आपको एक फीसद की सत्ता की इस सैन्य फासिस्ट राष्ट्रव्यवस्था में बदलाव की चिंता है।
हम पालतू कुत्तों की तरह प्रभुवर्ग की सेवा में हैं और दाल रोटी से भी मोहताज हैं।
अरबों डालर के सरकारी कारपोरेट बाबा ने तो कह ही दिया है कि दाल खाने से सेहत बिगड़ेंगी।
पींगे मारतीं विकास दर और शून्य मुद्रास्फीति के बावजूद संपूर्ण निजीकरण,संपूर्ण विनिवेश,संपूर्ण एफडीआई राज के तहत हम ग्रीक ट्रेजेडी दोहरा रहे हैं और न जरुरी चीजें और न जरुरी सेवाएं खरीद सकते हैं।लोग बेमौतमारे जा रहे हैं या नर्क जी रहे हैं।
क्योंकि उत्पादन प्रणाली के बिना यह अर्थव्यवस्था सेनसेक्स और निफ्टी,अबाध विदेशी पूंजी और विदेशी हितों का तिलिस्म है और अनंत बेदखली का किस्सा हरिकथा अनंत है।
कृषि विकास दर शून्य के करीब है।
उर्वरक और कीटनाशक समृद्ध मनसेंटो बीजों की फसल से अनाज और सब्जियां जहरीली हैं तो तमाम बीमारियां और महामारियां आयातित हैं और इलाज के लिए वैसे ही पैसे नहीं हैं जैसे अनाज,दालें और सब्जियां खरीदने के पासे नहीं होते।
चरक संहिता या पतंजलि पद्धति ऐलोपैथ से सस्ता हो तो भी कोई बात बनें।वहां भी कारपोरेट मुलाफा की कपालभाति योगाभ्यास है।
उत्पादन के आंकड़े शेयर बाजार भले चंगा करें,उत्पादन कुछ भी हो नहीं रहा है।सेवाओं के भरोसे हैं हम।आयात के भरोसे हैं हम।
प्लास्टिक मनी के भरोसे हैं हम।विदेशी कर्ज और बेिंतहा कालाधन की बोझ के नीचे देश दम तोड़ रहा है।सावधान।
हम नवउदारवाद के प्रांभ से यह बार बार दोहराते रहे हैं कि दरअसल यह मंडल कमंडल विवाद देश को बाजार में तब्दील करने का खुल्ला खेल फर्रुखाबादी है और राजनेता और जनप्रतिनिधि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजंट है।
राजनीति और राजनय का राष्ट्र हित से कोई लेना देना नहीं है उसी तरह जैसे धर्म का मनुष्यता और सभ्यता से कोई लेना देना नहीं है।
हिंदुत्व का यह ग्लोबल गैर हिंदू खत्म करो,गैर नस्ली बहुजन कुत्ता हिंदुओं के सफाये का भव्य राममंदिर एजंडा दरअसल सनातन हिंदू धर्म के खात्मे का एजंडा है।
सात सौ साल के इस्लामी राज और दो सौ साल के अंग्रेजी हुकूमत के बावजूद सनातन हिंदू धर्म बचा है तो उत्पादकों के बीच भाईचारे के संबंधों की वजह से और जाति व्यवस्था के नर्क के बावजूद हिंदुत्व केमंच से फतवा जारी न होने के कारण।
अब उत्पदान प्रणाली नहीं है तो मुहब्बत भी नहीं है।न रोजगार बचा है और न आजीविका।आपराधिक गतिविधियां तेज हैं और धर्म और राजनीति भी अपराध कर्म हैं।
इसीलिए जो धार्मिक लोग हजारों साल से अमन चैन और मुहब्बत का पाठ पढ़ाते हुए कायनात की बरकतों रहमतों और नियामतों को बहाल ऱकने को रब की इबादत मानते थे, जो रुह की आजादी को मजहब का मकसद बताते थे और अमन चैन,मुहब्बत और इंसानियत को अदब और इबादत मानते थे,उनके बदले ये कैसे कारपोरेट बाबा और नफरत के अंधियारे के तमाम जहरीले नाग धर्म के नाम अपने हारों फन काढ़ कर डंस रहे हैं इंसानियत को ,कायनात को और बांट रहे हैं मुल्क सियासती हुकूमत के लिए।
सारे संत अब राजनेता हो गये हैं और धर्म कर्म से उनका कोई लेना देना नहीं है और वे अपने प्रवचन से सरहदों के आर पार धर्म कर्म का काम तमाम कर रहे हैं।
इस देश में सिर्फ हुकूमत के लब आजाद हैं और बाकी लब कैद हैं।हुकूमत को मंकी बातें कहने की इजाजत है और हमारे लबों पर चाकचौबंद पहरा है।
इस पाबंदी के खिलाफ दुनियाभर के कवि साहित्यकार,समाज शास्त्री, वैज्ञानिक, कलाकार,संस्कृतिकर्मी बगावत पर उतारु हैं।
सिर्फ बंगाल में सन्नाटा है।
ईस्ट इंडिया कंपनी की कोख से जो जमींदार तबका पैदा हुआ,वह तबसे लेकर अब तक हुकूमत के साथ है।
हम जनरल वीके सिंह की तरह उनके लिए कोई विशेषण खोज नहीं सकते।न हम इनकी कोई परवाह करते हैं।हम जमीन से बोलते हैं।
इनने भारत भर के देशी शासकों की कंपनी राज के खिलाफ 1757 में पलाशी के हार के तुंरत बाद दशकों तक जारी विद्रोह को चुहाड़ विद्रोह बता दिया तो किसानों के पहले महाविद्रोह को संन्यासी विद्रोह बता दिया,जिसके नेता हिंदू,मुसलमान,दलित,पिछड़े और आदिवासी किसान,साधु संत फकीर बाउल रहे हैं।
आनंद मठ में कंपनी राज को ईश्वर की इच्छा बताया गया है और वही हिंदुत्व के वंदे मातरम का जयघोष है।
फिर कंपनी राज नमें ही भाषा विप्लव में जमींदार मसीहावर्ग की किसी भूमिका के बारे में हमें नहीं मालूम और न असम के कछाड़ से लेकर बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम तक मातृभाषा के हकहकूक के लिए जारी लड़ाई में इन जमींदार संततियों की भूमिका है।
न ही देश भर में छितरा दिये गये दलित पिछड़े बंगाली हिंदू शरणर्थियों की आरक्षण,नागरिकता और मातृभाषा के अधिकारों की लड़ाई को इनने कभी समर्थन दिया है।
संथाल विद्रोह,मुंडा विद्रोह ,नील विद्रोह सेकर कंपनी राज की शुरआत से लेकर सत्तर दशक तक आजाद भारत में जारी तेभागा और खाद्यांदोलन का उनने कभी समर्थन किया।
1857 में पहली गोली आजादी के लिए बंगाल की बैरकपुर छावनी से चली लेकिन बंगाल के नवजागरण के जमींदार मसीहा अंग्रेजी हुकूमत का ही साथ देते रहे।
इस जमींदार तबके के भद्रलोक सुशील समाज ने ग्राम बांग्ला और लोक और मुहावरों,बोलियों को भी साहित्य और संस्कृति के हर क्षेत्र से बेदखल कर दिया।कोई ताज्जुब नहीं कि हमारे कारवें में बंगाल का एक ही चेहरा है मंदाक्रांत सेन।
बंगाल क्या सीमाओं के आर पार बंटे हुएलहूलुहान इस महादेश के पवित्र मानव महासागरे ,मिलनतीर्थे हुकूमत उन्हीं जमींदारों का है।अग्रेजों के पालतू राजरजवाड़ों के वंशजों का है और शहीदों को कोई याद बी नहीं करता है।
गोडसे का मंदिर बन गया है देश,जहां बाबासाहेब को विष्णु का अवतार बनाया जा रहा है और गांधी की फिर फिर हत्या जारी है।
इस जमींदारी के खिलाफ दुनियाभर की कला ,साहित्य,संस्कृति सारे लोग एकजुट हैं।
यह अभूतपूर्व है और ऐसा दुनिया के इतिहास में कभी नहीं हुआ।
इसके लिए,पहल के लिए हिंदी कवि हमारे दोस्त और दुश्मन उदय प्रकाश के हम आभारी हैं।
हिंदी की जमीन फिर वही कबार सूर मीरा नानक रसखान की जमीन है और हमें खुशी है कि भीतर ही भीतर सदियों से वह जमीन बची हुई है।इसी विरासत की वजह से हिंदुत्व बचा हुआ है और उसी हिंदुत्व को कत्लेआम और मुक्तबाजार का एजंडा बनाये हुए हैं धर्मोन्मादी अधर्मी।
बांग्ला भाषा भी बौद्धमय भारत की विरासत है और इस भाषा के सबसे बड़े कवि रवींद्र की सारी महत्वपूर्ण कविता में उसी बौद्धमयबारत की गूंज है बुद्धं शरणम् गच्छामि के उद्घोष के साथ।
टैगोर फिर वही बाउल है या फिर सूरदास के पद उनके कवित्व के अलंकार है।बांग्लादेशी साहित्य ग्राम संस्कृति ,लोक और बोलियों का महोत्सव है तो पश्चिम बंगाल का सांस्कृतिक माहौल राकेट कैप्सूल निवेदित शोरदोत्सव का कार्निवाल है।
इस कार्निवाल मध्ये पालतू कुत्तों में तब्दील बहुजन समाज के हक में खड़े कामरेड आगे लाल नील एका को हकीकत में बदलेंगे,आज की तारीख में केसरिया सुनामी के खिलाफ यही सबसे बड़ी उम्मीद है ,भले चुनावों में जनादेश कुछ भी हो।सड़क पर,जमीन पर मजबूती से खड़े होने के सिवाय बदलाव मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
सुबह हमने प्रवचन रिकार्ड किया था 81साल के गुलजार की पहल के मद्देनजर और भारतीय सिनेमा की भूमिका की चर्चा भी की थी कि कैसे सिनेमा भारतीय एकता,अखंडता,बहुलता और विविधता की विरासत का धारक वाहक है ।
चर्चा भी की थी कि कैसे सिनेमा भारत और भारतीयों को ही नहीं स्वतंत्रता,न्याय और समानता,भाईचारे और अमन चैन की बातें करता रहा है।क्लासिक फिल्मों की क्या कहें,घटिया से घटियाफिल्मों के जरिये बी हमारे कलाकार मूल्यबोध भारतीय नैतिकता और मूल्यबोध को हमेशा की नींव मजबूत करते रहे हैं।
हम वह वीडियो जारी नहीं कर सकें और गुलजार साहेब के साथ भारतीयसिनेमा को लाल नील सलाम कह नहीं सकें,फिलहाल इसका अफसोस है।फिरभी उम्मीद है कि च्करव्यूह आखिर टूटकर रहेगा।
तब तक हम सिर्फ इंतजार नहीं करेंगे और न हाथ पर हाथ धरे रहेंगे।
बिहार जीतने के लिए देश आग के हवाले,लेकिन चीखों को हरगिज वे रोक नहीं सकते
जनादेश मिला भी तो अंजाम वहीं आपातकाल का ही होगा।
लाल नील का लफड़ा खत्म तो हिसाब बरोबर समझें क्योंकि फिर वहीं हमीं लाल और हमीं नील।
निनानब्वे फीसद पालतू जनता सीधी रीढ़ के साथ मुकाबला में हो तो अधर्म का अंध मुक्तबाजारी हिंदुत्व राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का कत्लेआम एजंडा खत्म।