संप्रग-3 सत्ता में आया तो संघ और मोदी होंगे दोषी
मोदी 'हिन्दुत्व' के झंडाबरदार तो बन सकते हैं किन्तु भारत के प्रधानमन्त्री नहीं
चाहे राहुल गाँधी हों या नरेन्द्र मोदी हों, अर्थशास्त्र डॉ. मनमोहनसिंह का ही चलेगा
श्रीराम तिवारी
ज्यों-ज्यों आगामी लोकसभा चुनाव के दिन नज़दीक आने लगे हैं, भारतीय राजनीति में सत्ता के दलालों के दिल्-दिमाग कसमसाने लगे हैं। संघ परिवार और उसकी आनुषांगिक -राजनैतिक इकाई भाजपा ने जब नरेन्द्र मोदी रूपी तुरुप के पत्ते पर आगामी विजय अभियान का दावँ लगाया तो जदयू और भाजपा का 17 साल पुराना याराना खत्म हो गया। इस अद्भुत-अनमेल और विपरीत विचारधारा वाली ऐतिहासिक यारी के ख़त्म होने पर भाजपा और जदयू दोनों ने कल जब अपने-अपने कार्यालयों में जश्न मनाया तो इनके शुभचिंतकों को राजग के अंजाम पे रोना आया। कल तक 'साथ जियेंगे/ साथ मरेंगे… का गीत गुनगुनाते थे आज बिहार में एक-दूजे का सर फोड़ रहे हैं! एक-दूसरे के पार्टी दफ्तरों में आग लगा रहे हैं! जदयू के जो लोग फ़ासिज्म का मतलब नहीं समझते थे, आज उन्हें 'बुद्धत्व ' की प्राप्ति हो गयी कि फासिस्टों से दोस्ती यानी 'हाराकिरी' यानी राम-नाम सत्य है। सत्य बोलो/ गत्य है! और नितीश को सत्ता विहीन भी होना पड़े तो समझो सस्ते में जान छूटी। क्योंकि संघ परिवार ने एक अदद 'फ्युह्ररर' तो ढूँढ ही लिया है जिसका नाम 'नरेन्द्र मोदी है'।
विगत शताब्दी के अन्तिम दशक में जदयू-भाजपा समेत 22 पार्टियों को' जोड़कर अटल-आडवाणी ने राजग का मज़बूत एलायन्स खडा किया था। इस राजग के निर्माण में'संघ या नरेन्द्र मोदी का रंच मात्र भी योगदान नहीं रहा। अलबत्ता जॉर्ज फर्नाडीज,शरद यादव और नितीश का योगदान सुविदित है। जिनका रत्ती भर योगदान नहीं था उन्हीं विवादास्पद महानुभाव के कारण आज राजग की हालत बदतर है। इस गठबंधन या अलायन्स में अब शिवसेना -अकाली जैसे गिने-चुने दो-तीन क्षुद्र क्षेत्रीय दल ही शेष बचे हैं। शेष अधिकाँश या तो संप्रग के साथ हैं या फेडरल फ्रंट के निर्माण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। वाम मोर्चा पहले भी राजग का विरोधी था और आज भी है। हालाँकि वाम मोर्चा संप्रग और राजग की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं मानता और धर्मनिरपेक्षता तथा साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर 'संघ परिवार' की सोच को काँग्रेस की बनिस्बत ज्यादा घातक मानता है।
अटलजी के नेतृत्व में जहाँ एक ओर भाजपा को जदयू और समता पार्टी यानी- जॉर्ज, शरद, नितीश जैसे धर्मनिरपेक्ष समाजवादियों का सशर्त समर्थन हासिल था वहीँ दूसरी ओर राजनैतिक अछूतपन से भी भाजपा को कुछ हद तक राहत मिल सकी थी। इतिहास में पहली बार किसी गैर काँग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल [1999- 2004] पूरा किया था, चूँकि राजग ने डॉ. मनमोहनसिंह की विनाशकारी और प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को ही देश में पूरे जोर-शोर से लागू किया था। अत: 'शायनिंग इंडिया' और 'फील गुड' के चक्कर में, 2004 के आम चुनाव में राजग को शर्मनाक हार का सामना करना पडा था और श्री लालकृष्ण आडवानी को 'पीएम इन वेटिंग' से मुक्ति नहीं मिल सकी। यदि 2004 में राजग की जीत होती तो आडवानी जी देश के प्रधानमन्त्री होते और तब भाजपा और संघ परिवार को अपने ही वरिष्ठों का ऐसा 'लतमर्दन' करने का कुअवसर प्राप्त नहीं होता, जो इन दिनों भाजपा के वरिष्ठों/ बुजुर्गों का हो रहा है। नरेन्द्र मोदी आज जहाँ हैं शायद वहाँ नहीं होते। 2004 की हार के लिये अटल-आडवानी जिम्मेदार नहीं थे, बल्कि गुजरात के नर संहार ने मरी हुयी काँग्रेस में प्राण फूँक दिये थे। यानी मोदी ही आंशिक रूप से जिम्मेदार थे। रही -सही कसर प्रमोद महाजन, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, चन्द्र बाबू नायडू जैसे आर्थिक उदारीकरण के कुकर्मियों ने पूरी कर दी थी। संघ परिवार के गले इन आर्थिक-सामाजिक विमर्शों का कड़वा घूँट इसलिये नहीं उतरता कि वो 'वेद -सम्मत' है बल्कि उनके शागिर्दों में देशी पूँजीपतियों और ऐय्याश भूस्वामियों की गुरु दक्षिणा का असर भी प्रभावी है। देश के गरीब हिन्दू कहीं 'वर्ग संघर्ष' की ओर न आकर्षित हों इसलिये राष्ट्रवाद के रहनुमा पुनः- पुनः हिन्दुत्ववादी-बाबाओं, स्वामियों, बजरंगियों का चरणामृत पान करने के लिये उतावले हो जाया करते हैं। उनकी इस हरकत से बहुसंख्यक हिन्दू वोट का ध्रुवीकरण उनके पक्ष में उसके वावजूद भी बहुत कम होता है।
नरेन्द्र मोदी और उनके सरपरस्तों को मालूम हो कि बिहार का वोटर– यादव, कुर्मी, भूमिहार, कायस्थ, दलित – महादलित और पिछड़ा पहले है और हिन्दू बाद में। उत्तर प्रदेश के यादव मुलायम के साथ और दलित- बहुजन समाज बसपा यानी मायावती के साथ जायेंगे या कि हिन्दुत्व का अलख जगायेंगे, इसी तरह तमिलनाडु के हिन्दू करुना निधि और जय ललिता ने बाँट रखे हैं। कर्नाटक के हिन्दू तो भाजपा और मोदी को पहले ही ठेंगा दिखा चुके हैं। काँग्रेस के सिद्धारमैया अब वहाँ मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर हैं। ये तो मात्र हाँडी के दो-चार चावल हैं, पूरे देश के हिन्दू या यों कहें कि अधिकाँश हिन्दू साम्प्रदायिक आधार पर नहीं बल्कि जातीय आधार पर या आर्थिक सामजिक नीतियों के आधार पर ही वोट करते हैं। भाजपा को स्थाई रूप से वोट करने वाला अधिकाँश हिन्दू मतदाता वो होता है जो उसे काँग्रेस के सापेक्ष बेहतर विकल्प समझता है या काँग्रेस के कुशाशन से तंग है। इस तरह का स्थाई मतदाता प्रकारान्तर से हरेक राजनैतिक पार्टी के पास है और उसे कोई व्यक्ति या दल स्थानान्तरणीय नहीं बना सकता। मोदी लाख कोशिश करें वे किसी भी पार्टी के स्थाई वोटर्स को भाजपा की ओर ध्रुवीकृत नहीं कर सकेंगे। भाजपा का प्रत्येक मतदाता जरूरी नहीं की 'हिन्दुत्ववादी' हो या साम्प्रदायिक ही हो। जहाँ तक नरेन्द्र मोदी का सवाल है- उन्हें आगे बढ़ाना 'संघ परिवार' की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा हो सकता है किन्तु यदि वह योजना तात्कालिक सत्ता प्राप्ति है तो भाजपा, संघ परिवार और बचे खुचे राजग को निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि जैसा वे चाहते हैं ऐसा कोई राजनैतिक या सामाजिक ध्रुवीकरण अभी तो इस देश में सम्भव नहीं। जहाँ तक मुस्लिम और ईसाई वोटों का प्रश्न है उनका ध्रुवीकरण भाजपा और संघ परिवार के "नमो 'जाप' के कारण काँग्रेस और संप्रग के पक्ष में और ज्यादा तेजी से होगा। जिस वोट प्रतिशत पर ध्रुवीकरण का दावँ लगाया जा रहा है वो यकीनी तौर पर अहस्तान्तरणीय बना हुआ है। यानी नरेन्द्र मोदी को जिस राह पर चलने को प्रेरित किया रहा है उससे वे वाँछित सीटें लोक सभा में नहीं पहुँचा पायेंगे और वे तब गुजरात के मुख्यमन्त्री तो बने रह सकते हैं किन्तु भारत के प्रधानमन्त्री नहीं बन पायेंगे।
वैसे भी गुजरात की आर्थिक-सामाजिक स्थिति को शेष भारत के सामाजिक- आर्थिक सन्दर्भ से तुलना करने पर नरेन्द्र मोदी को निराशा ही हाथ लगेगी। क्योंकि गुजरात से बाहर उनका कहीं कोई सार्थक वैयक्तिक या संस्थागत न तो कोई योगदान है और न ही उनका कोई स्वतन्त्र जनाधार जिसे भुनाकर वे अटलबिहारी, विश्वनाथ प्रताप सिंह या चन्द्रशेखर ही साबित हो सकें। उनके हाव-भाव से अल्संख्यक मतदाताओं में जरूर असुरक्षा की मानसिकता पैदा हो रही है और उनका यही भय काँग्रेस या संप्रग-तृतीय को सत्ता में पुनः प्रतिष्ठित करने का कारक बनता हुआ नज़र आ रहा है। विश्व हिन्दू परिषद्, बाबा रामदेव, कुम्भ का संत समागम और विभिन्न शंकराचार्यों के समवेत स्वर के प्रतिबिम्ब बनकर नरेन्द्र मोदी 'हिन्दुत्व' के झंडाबरदार तो बन सकते हैं किन्तु भारत का प्रधानमन्त्री बनने के लिये उन्हें 'जन-नायक बनना होगा, अटल बिहारी बनना होगा या कम से कम एक नेक ईमानदार और सहिष्णु व्यक्ति तो बनना ही होगा। भले ही काँग्रेस की आर्थिक नीतियों से परेशान होकर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही वर्गों का आम आदमी चौतरफा मुसीबतों से जूझ रहा हो किन्तु इस आवाम को तसल्ली तो है कि भारतीय लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में वे फासिस्ज्म और हिटलरशाही को तो अपने एक अदद वोट से रोक ही सकते हैं। नितीश, शिवानन्द या शरद यादव के साथ न रहने पर भाजपा और संघ परिवार पुनः राजनैतिक अस्पृश्यता के बियाबान में धँसता जा रहा है और जाने- अनजाने ही संप्रग-3 के सत्ता सीन होने का इन्तजाम करने में मददगार बनता जा रहा है।
यह सर्वविदित है और बिडम्बना भी कही जा सकती है कि वैविध्यपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश जनित वैचारिक दिग्भ्रम, क्षेत्रीय आकाँक्षाओं और आर्थिक विषमताग्रस्त भारत में किसी एक राजनैतिक पार्टी का शासन बहरहाल सम्भव नहीं है। न्यूनतम साझा कार्यक्रम [कॉमन मिनिमम प्रोग्राम] के आधार पर तथाकथित सामान विचारधारा वाले दलों का 'गठबंधन' यदि संसदीय प्रजातन्त्र के अनुरूप सत्ता सञ्चालन करता है तो वो स्वीकार्य है किन्तु नितान्त विपरीत विचारधारा वाले, सिद्धान्तहीन, मौकापरस्त दलों का सत्ता के लिये एक हो जाना न केवल देश की जनता के साथ धोखा है अपितु इन दलों के लिये भी दूरदर्शिता पूर्ण नहीं है। जदयू और भाजपा का, काँग्रेस और मुलायम [सपा] का, द्रुमुक और काँग्रेस का और एआईडीएमके और भाजपा का गठबंधन किसी भी सैद्धान्तिक बुनियाद पर आधारित नहीं था और भविष्य में ये दल फिर से इसी रूप में या प्रकारांतर से 'गठबंधन' बनाते हैं तो देश और देश की जनता का भगवान् ही मालिक है। आज शिव सेना और अकाली दल के अलावा कोई भी भाजपा के साथ नहीं है। यदि नरेन्द्र मोदी को भाजपा और संघ परिवार ने अपने किसी खास उद्देश्य के मद्देनजर सर्वोच्च नेतृत्व का बीड़ा सौंपा तो राजग फिर इतिहास के पन्ने में ही पढ़ने को मिलेगा। यदि आगामी आम चुनाव में संप्रग सत्ता से बाहर होता है तो उसका स्वागत अधिकाँश प्रबुद्ध जन करेंगे किन्तु यदि राजग की टूट-फूट से या विपक्ष की नाकामी से संप्रग पुन: तीसरी बार सत्ता में लौटता है तो इसका ठीकरा संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी के सर फूटना तय है।
संघ परिवार और भाजपा का एक बड़ा हिस्सा यदि सोचता है कि' 'नमो' के जाप से आगामी लोक सभा चुनाव में राजग को 2 7 2 सीटें मिल जायेंगी तो यह उनका दिवा स्वप्न है । निसंदेह संप्रग -२ की नाकामयाबियाँ सर्वविदित हैं , डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियों से केवल अमीरों को फायदा हुआ है । गरीबी बढ़ी है ।भृष्टाचार का बोलवाला हुआ है ।भारतीय मुद्रा की दुर्गति हुयी है और आर्थिक नीतियों का प्रतिगामी असर सब ओर सभी को नज़र आ रहा है किन्तु डॉ मनमोहन सिंह जी जब बेफिक्री से कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी हमारे लिये कोई चुनौती नहीं ,मोदी का कोई अर्थशास्त्र नहीं और भाजपा व राजग तो मेरी ही नीतियों के अलम्बर दार हैं तथा फेडरल फ्रंट की कोई अहमियत नहीं तो बदलाव के आकाँक्षियों का और मोदी प्रेमियों का भी दिल डूबने लगता है। डॉ. मनमोहन सिंह ने तो राहुल गाँधी को आगामी प्रधानमन्त्री भी घोषित कर दिया है। लगता है वे अपने कार्यकाल के अन्तिम केबिनेट विस्तार में ज़रा ज्यादा ही मुखरित हो गये हैं। उन्होंने बड़ी चतुराई से न केवल केन्द्र सरकार न केवल काँग्रेस, न केवल राहुल गाँधी बल्कि संप्रग को भी मीडिया व जन-विमर्श के केन्द्र में खड़ा कर दिया है, जहाँ केवल नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी या राजग बनाम जदयू ही विमर्श के केन्द्र बिन्दु थे। डॉ. मनमोहनसिंह बाकई गजब के असम्वेदनशील गैर राजनैतिक व्यक्ति हैं जो आज भी ये दावा कर रहे हैं कि सत्ता में कोई भी आये आर्थिक नीतियाँ तो मेरी [डॉ. मनमोहन सिंह] ही चलेंगी। शायद उन्हें यकीन है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा और उसके नेतृत्व का क्षत-विक्षत राजग कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति पेश करने में अक्षम है, क्योंकि जिस व्यक्ति को संघ परिवार और राजग ने अपना 'चेहरा' बनाकर प्रस्तुत किया है वो व्यक्ति यानी नरेन्द्र भाई मोदी शत-प्रतिशत उन्हीं आर्थिक नीतियों के पुरोधा हैं जिन्हें देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने डॉ. मनमोहनसिंह के मार्फ़त विगत पच्चीस सालों से थोप रखा है।
यानी डॉ. मनमोहनसिंह के वैचारिक विकल्प के रूप में ही देश का सञ्चालन होगा। फिर चाहे वो संप्रग हो या राजग हो। यानी चाहे राहुल गाँधी हों या नरेन्द्र मोदी हों,अर्थशास्त्र डॉ मनमोहनसिंह का यानी एमएनसी / विश्व बेंक /आई एम् ऍफ़ और सरमायेदारों का ही चलेगा । शायद इसी वजह से डॉ मनमोहनसिंह कह रहे हैं कि
- संप्रग तीसरी बार भी सत्ता में आएगा ।।।।! अब उन्हें राहुल में अगला प्रधानमन्त्री नजर आने लगा है ।।।।।! अब उन्हें नितीश 'धर्मनिरपेक्ष ' नज़र आने लगे हैं ।।।! काँग्रेस के चिंतकों ने भी जब देखा कि देशी -विदेशी मीडिया की घड़ी का काँटा केवल और केवल नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी ,भाजपा बनाम जदयू के पॉइंट से आगे नहीं बढ़ रहा और काँग्रेस तथा संप्रग को नजर अंदाज़ कर रहा है तो उन्होंने केबिनेट विस्तार के बहाने, संगठन को मज़बूत करने के बहाने अपने 'ताश के पत्तों' को बड़ी ही धूम-धाम से और चतुराई से फेंटा कि मीडिया ने तो संज्ञान लिया ही बल्कि अभिव्यंजना का परिणाम सामने है कि आधा दर्जन ' बुजर्गों ' की बिकेविनेट में ताजपोशी कर कांग्रेसी नेता शायद साईं आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी और अन्य उम्रदराज भाजपाइयों को मानों चिढ़ा कर कह रहे हों कि भाजपा में बुजुर्गों को लतियाया जा रहा और हम काँग्रेसी अपने केन्द्रीय मन्त्री मंडल को अस्सी साल के बुजुर्गों से शोभायमान कर रहे हैं । यानी सत्ता कैसे हासिल की जाती है यह उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि सत्ता में कैसे पकड बनायी जाये ये काँग्रेसियों को खूब आता है। विपक्ष को और खास तौर से भाजपा कि वर्तमान पीढ़ी के नेताओं को स्वीकारना चाहिये कि वे अभी वैकल्पिक रूप से अधूरे हैं ! शायद यही वजह है कि काँग्रेस अपनी तमाम असफलताओं और बदनामियों के वावजूद तीसरी बार संप्रग को सत्तासीन कराने के लिये निश्चिन्त है। फिर चाहे प्रधानमन्त्री उन्हें किसी को भी बनाना पड़े क्योंकि राहुल तो तब तक प्रधानमन्त्री नहीं बनेंगे जब तक काँग्रेस को स्वयम् के दम पर 272 सीटें लोकसभा में नहीं मिल जातीं । यह अभी तो सम्भव नही क्योंकि गठ्बंधन की राजनीती का दौर अभी तो सालों -साल जारी रहेगा । फिर चाहे कोई भी तुर्रमखाँ या तीसमारखां अपने आपको भावी प्रधानमन्त्री घोषित करता रहे ।।।!
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