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Tuesday, November 18, 2014

मेहनतकश साथियो! धार्मिक जुनून की धूल उड़ाकर हक़ों पर डाका मत डालने दो! ज़िन्दगी को बदलने की असली लड़ाई में लगने की पहली शर्त है सभी मेहनतकशों की अटूट एकता !

मेहनतकश साथियो! धार्मिक जुनून की धूल उड़ाकर हक़ों पर डाका मत डालने दो!
ज़िन्दगी को बदलने की असली लड़ाई में लगने की पहली शर्त है सभी मेहनतकशों की अटूट एकता !

सम्‍पादक मण्‍डल

दिल्‍ली के त्रिलोकपूरी में दंगों की एक तस्‍वीर

दिल्‍ली के त्रिलोकपूरी में दंगों की एक तस्‍वीर

कहते हैं कि रावण अपने दस मुँहों से बोलता था। लेकिन रावण हर मुँह से एक ही बात बोलता था। मगर मोदी सरकार और उसके पीछे खड़े संघ परिवार के अनेक मुँह हैं और सब अलग-अलग बातें एक साथ बोलते रहते हैं। लोगों का ध्यान बँटाने और उन्हें अपने असली इरादों के बारे में पूरी तरह भ्रम में डालने का यह उनका पुराना आज़मूदा नुस्ख़ा है। चुनाव के पहले से ही यह खेल जारी था और सत्ता में आने के बाद और भी चतुराई के साथ खेला जा रहा है।

एक ओर नरेन्द्र मोदी 15 अगस्त को मेल-मिलाप की और झगड़े मिटाने की बातें करते हैं और अपनेआप को उदारवादी और सबको साथ लेकर चलने वाला दिखाने की हरचन्द कोशिश कर रहे हैं, दूसरी ओर उन्हीं की सरकार और पार्टी के लोग साम्प्रदायिक विष फैलाने और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के तरह-तरह के हथकण्डों में लगे हुए हैं। इतिहास, शिक्षा और संस्कृति के पूरे ढाँचे के भगवाकरण करने के क़दमों से लेकर ज़मीनी स्तर पर घनघोर साम्प्रदायिक और झूठे प्रचार में सरकार और पार्टी के अलग-अलग लोग लगे हुए हैं। मोदी देश-दुनिया में घूम-घूमकर लगातार "विकास" की बातें कर रहे हैं। वे इतना ज़्यादा 'विकास-विकास' कर रहे हैं कि बहुत से लोगों ने उनका नाम 'विकास के पापा' रख दिया है! वे लगातार देश की जनता को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि एक बार 'विकास' की आँधी, या 'विकास' की गंगा (जो चाहे समझ लीजिए) चली नहीं कि देश की सारी समस्याएँ छूमन्तर की तरह उड़ जायेंगी और सब लोग वापस रामराज्य के सुखभरे दिनों में पहुँच जायेंगे। लेकिन दूसरी ओर, देशभर में सुनियोजित ढंग से साम्प्रदायिक तनाव भड़काने और नियंत्रित दंगे-फसाद कराने की रणनीति भी जारी है, जिसके पुराने माहिर भाजपा के नये अध्यक्ष अमित शाह हैं।

modi-swordवजह साफ है। मोदी सरकार, भाजपा और संघ परिवार, सब अच्छी तरह जानते हैं कि मोदी जिस 'विकास' को लाने की बातें कर रहे हैं वह अगर आ भी गया तो मुट्ठीभर पूँजीपतियों, व्यापारियों, धनी फार्मरों और खाते-पीते मध्यवर्ग के लिए ही होगा। देश की 80-85 प्रतिशत आम मेहनतकश आबादी के लिए वह 'विनाश' ही होगा। मोदी चाहे जितनी जुमलेबाज़ियाँ कर लें, सच्चाई यही है कि उनकी आर्थिक नीतियाँ उदारीकरण-निजीकरण की उन नीतियों से बिल्कुल अलग नहीं हैं जिनके विनाशकारी नतीजों का कहर देश का अवाम पिछले 24-25 वर्षों से झेल रहा है। फर्क बस यह है कि मोदी उन नीतियों को और ज़्यादा भारी बुलडोज़र के साथ, और भी कड़क डण्डे के ज़ोर पर लागू करने का देशी-विदेशी पूँजीपतियों को वादा कर रहे हैं। उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं है। पूँजीवाद का संकट आज उस मुकाम पर पहुँच चुका है कि अपने घटते हुए मुनाफ़े को बचाने के लिए पूँजीपति वर्ग मेहनतकशों की हड्डी-हड्डी चूस लेना चाहता है। एक दशक से जारी विश्वव्यापी मन्दी पूँजीवादी वैद्य-हकीमों के तमाम नुस्ख़ों के बावजूद दूर होने का नाम नहीं ले रही है। भारत के विशाल बाज़ार, यहाँ के करोड़ों मेहनतकशों के सस्ते श्रम और अपार प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर अपना संकट हल्का करने के लिए सारे पूँजीपतियों की जीभ लपलपा रही है। जैसे किसी मरणासन्न बूढ़े को कुछ दिन और जिलाने के लिए जवान इंसान का ख़ून जबरन निकालकर चढ़ाया जाये, उसी तरह ये देशी-विदेशी लुटेरे भारत (और चीन) की इंसानी और कुदरती सम्पदा को लूटकर-चूसकर अपने मुनाफ़े के कारोबार में जान फूँकना चाहते हैं।

लेकिन वे भी जानते हैं, और उनके सबसे वफ़ादार सेवक, यानी हिटलर की भारतीय औलादें भी अच्छी तरह जानती हैं कि जनता चुपचाप इसे सहन नहीं करती रहेगी। थोथे नारों और नौटंकियों से उसे कुछ दिनों तक बहलाया-फुसलाया जा सकता है। आख़िरकार उसकी आँखों से भ्रम की पट्टी खुलेगी और तब वह इनके असली इरादों को समझकर सड़कों पर उतरने में देर नहीं करेगी। इसी दिन के लिए ये पहले से तैयारी कर रहे हैं और साम्प्रदायिक तनाव की आग को सुलगाये रखना चाहते हैं ताकि वक़्त आने पर उसके शोलों को हवा दी जा सके और लोगों को एक होकर लुटेरी सत्ता से लड़ने के बजाय आपस में लड़ाया-मराया जा सके।

Fascism crushedदूसरे, कई जगह होने वाले चुनावों में भी वोटों की फसल काटने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया जा रहा है। दिल्ली से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश तक इसे साफ देखा जा सकता है। दिल्ली में विधानसभा चुनाव की आहट होते ही जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव, झड़पों और दंगों का दौर शुरू हो गया है। बिहार में नीतीश कुमार के साथ भाजपा का गठबन्धन टूटने के बाद से साम्प्रदायिक झड़पों की पौने दो सौ घटनाएँ हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में तो लोकसभा और फिर विधानसभा उपचुनावों के समय से ही यह ख़तरनाक खेल जारी है। देश के अलग-अलग इलाक़ों में, असम से लेकर केरल तक लगातार ऐसी घटनाएँ घट रही हैं जिनमें से केवल कुछ ही मीडिया में आती हैं।

इतने बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक माहौल केवल तभी खराब होता है जब जानबूझकर योजना के तहत इस काम को अंजाम दिया जाये। जो भी सूचनाएँ और रिपोर्टें आ रही हैं उनसे पता चलता है कि संघ, भाजपा, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद आदि से जुड़े लोग स्थानीय मनमुटाव और विवादों को भड़काने और धार्मिक रंग देने का काम कर रहे हैं। जिन विवादों को स्थानीय लोग आपस में बातचीत करके सुलझा सकते थे उन्हें जानबूझकर भावनाएँ भड़काने के लिए बढ़ाया जाता है। बड़े पैमाने पर झूठी अफवाहों का सहारा लिया जा रहा है और इसमें इंटरनेट तथा फेसबुक का भी जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। अब तो सभी लोग जान चुके हैं कि पिछले साल मुज़फ्फ़रनगर के दंगों में भाजपा के नेताओं और उनसे जुड़े लोगों ने कई साल पुराना पाकिस्तान का वीडियो दिखाकर जनता को भड़काया था। हैदराबाद में तो बजरंग दल के कार्यकर्ता हिन्दू मंदिरों में गोमांस फेंकते हुए पकड़े जा चुके हैं और कर्नाटक में इसी संगठन के लोगों को पाकिस्तान का झंडा फहराते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया था। कुछ महीने पहले एक अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार के पत्रकार से बातचीत के दौरान उत्तर प्रदेश के एक बड़े पुलिस अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि कुछ लोग चाहते हैं कि तनाव और फसाद को भड़कने दिया जाये।

शहरों और गाँवों के मध्यवर्गीय और सम्पन्न लोगों में आधार बढ़ाने के साथ आर.एस.एस. बहुत व्यवस्थित ढंग से शहरों की मज़दूर बस्तियों में पैर पसार रहा है। वे जानते हैं कि आने वाले दिनों में मज़दूर वर्ग ही उसके ख़िलाफ़ सबसे मज़बूती से खड़ा होगा। इसीलिए वे अभी से उसके बीच अपना ज़हरीला प्रचार करने में लगे हैं। किसानी पृष्ठभूमि से उजड़कर आये, निराश-बेहाल असंगठित युवा मज़दूरों और लम्पट सर्वहारा की सामाजिक परतों के बीच फासिस्ट हमेशा से भरती करने में कामयाब रहते हैं। और यही काम वे हमारे यहाँ भी कर रहे हैं।

मज़दूरों और मेहनतकशों को समझना होगा कि साम्प्रदायिक फासीवाद पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। साम्प्रदायिक फासीवाद की राजनीति झूठा प्रचार या दुष्प्रचार करके सबसे पहले एक नकली दुश्मन को खड़ा करती है ताकि मज़दूरो-मेहनकशों का शोषण करने वाले असली दुश्मन यानी पूँजीपति वर्ग को जनता के गुस्से से बचाया जा सके। ये लोग न सिर्फ मज़दूरों के दुश्मन हैं बल्कि आम तौर पर देखा जाये तो ये पूरे समाज के भी दुश्मन हैं। इनका मुक़ाबला करने के लिए मज़दूर वर्ग को न सिर्फ अपने वर्ग हितों की रक्षा के लिए संगठित होकर पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ सुनियोजित लम्बी लड़ाई की तैयारी करनी होगी, बल्कि साथ ही साथ महँगाई, बेरोज़गारी, महिलाओं की बराबरी तथा जाति और धर्म की कट्टरता के ख़िलाफ़ भी जनता को जागरूक करते हुए अपने जनवादी अधिकारों की लड़ाई को संगठित करना होगा।

उन्हें यह समझना होगा कि औद्योगिक कारपोरेट घराने और वित्त क्षेत्र के मगरमच्छ नवउदारवाद की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलाना चाहते हैं। इसके लिये एक निरंकुश सत्ता की ज़रूरत है। इसलिए शासक वर्गों ने नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगाया है। धार्मिक कट्टरपंथी फासीवाद के वर्तमान उभार का कारण नरेन्द्र मोदी नहीं है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादी फासीवाद के आधुनिक संस्करण के उभार का कारण मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के असाध्य ढाँचागत संकट में है। इस पूँजीवादी संकट का एक क्रान्तिकारी समाधान हो सकता है और वह है, पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय की तथा शासन की प्रणाली को ही जड़ से बदल देना। इस समाधान की दिशा में यदि समाज आगे नहीं बढ़ेगा तो पूँजीवादी संकट का फासीवादी समाधान ही सामने आयेगा जिसका अर्थ होगा, जनवादी प्रतिरोध के हर सीमित स्कोप को भी समाप्त करके मेहनतकश जनता पर पूँजी की नग्न-निरंकुश तानाशाही स्थापित करना। और फिलहाल यही विकल्प भारतीय पूँजीपति वर्ग ने चुन लिया है।

अतीत से सबक लेकर, भारतीय पूँजीपति वर्ग फासीवाद को नियंत्रित रखते हुए उसी हद तक इस्तेमाल करना चाहता है कि वह जन-प्रतिरोध को कुचल सके, जनता की वर्ग चेतना को कुन्द कर सके और बेरोकटोक मेहनतकश जनता से मुनाफ़ा निचोड़ सके। पर स्थितियाँ उसके नियंत्रण में रहे, यह ज़रूरी नहीं। ढाँचे की गति हमेशा शासक वर्ग की इच्छा से नहीं तय होती। शासक वर्ग फासीवाद को ज़ंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं जिससे जनता को डराया जा सके और काम हो जाने पर वापस खींचा जा सके। लेकिन कुत्ता ज़ंजीर छुड़ाकर स्वतंत्र भी हो सकता है। उग्र साम्प्रदायिक नारे और दंगे उभाड़ने की साजिशें पूरे समाज को ख़ून के दलदल में डुबो सकती हैं। केवल धार्मिक अल्पसंख्यक ही नहीं, समूची गरीब मेहतनक़श आबादी को भीषण रक्तपात का कहर झेलना पड़ सकता है। संघ परिवार जो फासीवादी लहर उभाड़ रहे है, वह मुस्लिम आबादी के बीच भी धार्मिक मूलतत्ववादी फासीवादी गुटों को आधार बनाने का अवसर दे रहा है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं। दिल्ली के चुनाव में मुस्लिम इत्तहादुल मुसलमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी के साथ भाजपा के गुपचुप गँठजोड़ की ख़बरों पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।

इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद भी फासीवाद का ही दूसरा रूप है, जो मुस्लिम हितों की हिफ़ाज़त के नाम पर जिहाद का झण्डा उठाकर जो कारगुज़ारियाँ कर रहा है उससे भारत में हिन्दुत्ववादियों का ही पक्ष मजबूत हो रहा है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इतिहास गवाह है कि सर्वइस्लामवाद का नारा देने वाले वहाबी कट्टरपंथ ने पूरी दुनिया में हर जगह अन्ततः साम्राज्यवाद का ही हितपोषण किया है। आज भी, लीबिया में, इराक में, सीरिया में, मिस्र में, अफगानिस्तान में – हर जगह उनकी यही भूमिका है। भारत में हर धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी को यह बात समझनी ही होगी कि वे अपनी हिफ़ाज़त धार्मिक कट्टरपंथ का झण्डा नहीं बल्कि वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का झण्डा उठाकर ही कर सकते हैं। वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की राजनीति केवल क्रान्तिकारी मज़दूर राजनीति ही हो सकती है जो जाति और धर्म से परे व्यापक मेहनतकश अवाम की जुझारू एकजुटता कायम कर सकती है। पूँजीवादी संकट का क्रान्तिकारी समाधान यदि अस्तित्व में नहीं आयेगा, तो लाजिमी तौर पर उसका फासीवादी समाधान सामने आयेगा। क्रान्ति के लिए यदि मज़दूर वर्ग संगठित नहीं होगा तो जनता फासीवादी बर्बरता का कहर झेलने के लिए अभिशप्त होगी।

जहाँ तक संसदीय सुअरबाड़े में साठ वर्षों से लोट लगाते चुनावी वामपंथी भाँड़ों की बात है, उनकी स्थिति सर्वाधिक हास्यास्पद है। ये चुनावी वामपंथी आर.एस.एस. भाजपा को शुरू से ही हिन्दुत्ववादी फासीवादी मानते हैं, पर गैर कांग्रेस-गैरभाजपा विकल्प बनाने की कोशिश में जिन दलों के साथ साम्प्रदायिकता-विरोधी सम्मेलन आदि करते रहते हैं और मोर्चा बनाने की हिकमतें लगाते रहते हैं, उनमें से अधिकांश कभी न कभी सत्ता की सेज पर भाजपा के साथ रात बिता चुके हैं। अब उनसे घास न मिलते देख आजकल तीन प्रमुख संशोधनवादी पार्टियों – भाकपा, माकपा, भाकपा (माले-लिबरेशन) आपस में ही मोर्चा बनाकर टीन की तलवार से फासिस्टों का मुकाबला करने की रणनीति बना रहे हैं। इन चुनावी वामपंथी खोमचेवालों से पूछा जाना चाहिए कि फासीवाद के विरोध की रणनीति के बारे में बीसवीं सदी के इतिहास की और मार्क्सवाद की शिक्षाएँ क्या हैं? क्या फासीवाद का मुक़ाबला मात्र संसद में बुर्जुआ दलों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर, या फिर कुछ सम्मेलन और अनुष्ठानिक कार्यक्रम करके किया जा सकता है? अगर ये बात–बहादुर मज़दूर वर्ग की पार्टी होने का दम भरते हैं (और इनके पास सीटू और एटक जैसी बड़ी राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनें भी हैं) तो 1990 (आडवानी की रथयात्रा), 1992 (बाबरी मस्जिद ध्वंस), या 2002 (गुजरात नरसंहार) से लेकर अब तक हिन्दुत्ववादी फासीवाद के विरुद्ध व्यापक मेहनतकश जनता की लामबंदी के लिए इन्होंने क्या किया है? इन घटनाओं के बाद देश भर के शहरी ग्रामीण मज़दूरों को धार्मिक कट्टरपंथी फासीवाद विरोधी एक राष्ट्रीय रैली में भी इन्होंने जुटाने की कोशिश की? संघ परिवार का फासीवाद एक सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन है और मेहनतकश जनता का जुझारू आन्दोलन ही इसका मुक़ाबला कर सकता है। लेकिन इन संशोधनवादी पार्टियों ने तो साठ वर्षों से मज़दूर वर्ग को केवल दुअन्नी-चवन्नी की अर्थवादी लड़ाइयों में उलझाकर उसकी चेतना को भ्रष्ट करने का ही काम किया है। इनकी ट्रेडयूनियनों के भ्रष्ट नौकरशाह नेताओं ने मज़दूरों की जनवादी चेतना को भी कुन्द बनाने का ही काम किया है। मज़दूर वर्ग की राजनीति के नाम पर मज़दूरों के ये ग़द्दार केवल पोलिंग बूथ का ही रास्ता दिखाते रहे हैं। ये नकली वामपंथी, जो हमेशा से पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करते रहे हैं, उनका "समाजवाद" आज गलित कुष्ठ रोग जितना घिनौना हो चुका है। संसदीय राजनीति से और आर्थिक लड़ाइयों से इतर वर्ग संघर्ष की राजनीति को तो ज़माने पहले ये लोग तिलांजलि दे चुके हैं। अब तो उनकी चर्चा तक से इनके कलेजे काँप उठते हैं। अब एक बार फिर ये टीन की तलवार भाँज रहे हैं और इनसे जुड़े बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी मोमबत्तियाँ जलाकर फासीवाद के विरोध में कबीर और सूफ़ी सन्तों के क़लाम पढ़ और गा रहे हैं, या फिर एक-दूसरे को ही फासीवाद के विरोध में जोश दिलाने का काम करने की बाँझ कवायदें कर रहे हैं।

प्रश्न केवल चुनावी राजनीति का है ही नहीं। पूँजीवादी संकट पूरे समाज में (क्रान्तिकारी शक्तियों की प्रभावी उपस्थिति के अभाव में) फासीवादी प्रवृत्तियों और संस्कृति के लिए अनुकूल ज़मीन तैयार कर रहा है। संघ परिवार अपने तमाम अनुषंगी संगठनों के सहारे बहुत व्यवस्थित ढंग से इस ज़मीन पर अपनी फसलें बो रहा है। वह व्यापारियों और शहरी मध्यवर्ग में ही नहीं, आदिवासियों से लेकर शहरी मज़दूरों की बस्तियों तक में पैठकर काम कर रहा है। इसका जवाब एक ही हो सकता है। क्रान्तिकारी शक्तियाँ चाहे जितनी कमजोर हों, उन्हें बुनियादी वर्गों, विशेषकर मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार-उद्वेलन, लामबंदी और संगठन के काम को तेज करना होगा। जैसाकि भगतसिंह ने कहा था, जनता की वर्गीय चेतना को उन्नत और संगठित करके ही साम्प्रदायिकता का मुक़ाबला किया जा सकता है।

बुर्जुआ मानवतावादी अपीलें और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापना कभी भी साम्प्रदायिक फासीवाद का मुकाबला नहीं कर पाया है और न ही कर पायेगा। सर्वहारा वर्ग चेतना की ज़मीन पर खड़ा होकर किया जाने वाला जुझारू और आक्रामक प्रचार ही इन विचारों के असर को तोड़ सकता है। हमें तमाम आर्थिक और सामाजिक दिक्कतों की असली जड़ को आम जनता के सामने नंगा करना होगा और साम्प्रदायिक प्रचार के पीछे के असली इरादे पर से सभी नकाब नोच डालने होंगे। साथ ही, ऐसा प्रचार करने वाले व्यक्तियों की असलियत को भी हमें जनता के बीच लाना होगा और बताना होगा कि उनका असली मकसद क्या है। धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवाद का मुकाबला इसी ज़मीन पर खड़े होकर किया जा सकता है। वर्ग निरपेक्ष धर्म निरपेक्षता और 'मज़हब नहीं सिखाता' जैसी शेरो-शायरी का जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने एक बार कहा था कि यदि किसी झूठ को सौ बार दोहराओ तो वह सच बन जाता है। यही सारी दुनिया के फासिस्टों के प्रचार का मूलमंत्र है। आज मोदी की इस बात के लिए बड़ी तारीफ़ की जाती है कि वह मीडिया का कुशल इस्तेमाल करने में बहुत माहिर हैं। लेकिन यह तो तमाम फासिस्टों की ख़ूबी होती है। मोदी को फ्विकास पुरुष" के बतौर पेश करने में लगे मीडिया को कभी यह नहीं दिखायी पड़ता कि गुजरात में मोदी के तीन बार के शासन में मज़दूरों और ग़रीबों की क्या हालत है। आज आर्थिक और राजनीतिक संकट से तंग आयी जनता के सामने कारपोरेट मीडिया देश की सभी समस्याओं के समाधान के तौर पर 'सशक्त और निर्णायक' नेता के रूप में मोदी को पेश कर रहा है।

मेहनतकशों को ऐसे झूठे प्रचारों से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें यह समझ लेना होगा कि तेज विकास की राह पर देश को सरपट दौड़ाने के तमाम दावों का मतलब होता है मज़दूरों की लूट-खसोट में और बढ़ोत्तरी। ऐसे 'विकास' के रथ के पहिए हमेशा ही मेहनतकशों और गरीबों के ख़ून से लथपथ होते हैं। लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है कि हर फासिस्ट तानाशाह को धूल में मिलाने का काम भी मज़दूर वर्ग की लौह मुट्ठी ने ही किया है!

Fascism 2हमें फासीवाद को विचारधारा और राजनीति में तो परास्त करना ही होगा, लेकिन साथ ही हमें उन्हें सड़क पर भी परास्त करना होगा। इसके लिए हमें मज़दूरों के लड़ाकू और जुझारू संगठन बनाने होंगे। ग़ौरतलब है कि जर्मनी के कम्युनिस्टों ने फासीवादी गिरोहों से निपटने के लिए कारख़ाना ब्रिगेडें खड़ी की थीं, जो सड़क पर फासीवादी गुण्डों के हमलों का जवाब देने और उन्हें सबक सिखाने का काम कारगर तरीके से करती थीं। बाद में यह प्रयोग आगे नहीं बढ़ सका और फासीवादियों ने जर्मनी में अपनी सत्ता क़ायम कर ली। मज़दूर वर्ग का बड़ा हिस्सा वहाँ तब भी सामाजिक जनवादियों के प्रभाव में ही था और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की पकड़ उतनी मज़बूत नहीं हो पायी थी। लेकिन उस छोटे-से प्रयोग ने दिखा दिया था कि फासीवादी गुण्डों से सड़क पर ही निपटा जा सकता है। उनके साथ तर्क करने और वाद-विवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है। साम्प्रदायिक दंगों को रोकने और फासीवादी हमलों को रोकने के लिए ऐसे ही दस्ते छात्र और युवा मोर्चे पर भी बनाये जाने चाहिए। छात्रों-युवाओं को ऐसे हमलों से निपटने के लिए आत्मरक्षा और जनरक्षा हेतु शारीरिक प्रशिक्षण और मार्शल आर्ट्स का प्रशिक्षण देने का काम भी क्रान्तिकारी छात्र-युवा संगठनों को करना चाहिए। उन्हें स्पोर्ट्स क्लब, जिम, मनोरंजन क्लब आदि जैसी संस्थाएँ खड़ी करनी चाहिए, जहाँ राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण और तार्किकता व वैज्ञानिकता के प्रसार का काम भी किया जाये।

हम एक बार फिर मेहनतकश साथियों और आम नागरिकों से कहना चाहते हैं कि साम्प्रदायिक फासीवादियों के भड़काऊ बयानों से अपने ख़ून में उबाल लाने से पहले ख़ुद से पूछियेः क्या ऐसे दंगों में कभी सिंघल, तोगड़िया, ओवैसी, आज़म खाँ, मुलायमसिंह यादव, राज ठाकरे, आडवाणी या मोदी जैसे लोग मरते हैं? क्या कभी उनके बच्चों का क़त्ल होता है? क्या कभी उनके घर जलते हैं? हमारे लोगों की बेनाम लाशें सड़कों पर पड़ी धू-धू जलतीं हैं। सारे के सारे धार्मिक कट्टरपन्थी तो भड़काऊ बयान देकर अपनी ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा, पुलिस और गाड़ियों के रेले के साथ अपने महलों में वापस लौट जाते हैं। और हम उनके झाँसे में आकर अपने ही वर्ग भाइयों से लड़ते हैं। इसलिए, धार्मिक जुनूनी प्रचार की झोंक में बहने के बजाय इसकी असलियत को समझिये और अपनी ज़िन्दगी को बदलने की असली लड़ाई में लगने के बारे में सोचिये। सभी मेहनतकशों की एकता इसकी पहली शर्त है!

 

मज़दूर बिगुलनवम्‍बर 2014

मज़दूर बिगुल' के पाठकों से एक जरूरी अपील
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