Follow palashbiswaskl on Twitter

ArundhatiRay speaks

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Tuesday, October 15, 2013

आदिवासियों को ही असुर-राक्षस कहा धर्मग्रंथों ने

आदिवासियों को ही असुर-राक्षस कहा धर्मग्रंथों ने

महत्वपूर्ण लेख

दुर्गा पूजा के नाम पर असुरों की हत्या का उत्सव बंद होना चाहिए. महिषासुर और रावण जैसे नायक असुर ही नहीं, बल्कि भारत के समस्त आदिवासी समुदायों के गौरव हैं. वेद-पुराणों और भारत के ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को 'खल' चरित्र के रूप में पेश किया गया है, जो सरासर गलत है...

विनोद कुमार

भारतीय उप महाद्वीप के ज्ञात इतिहास में दानव, राक्षस, असुर जैसे जीव नहीं मिलते, लेकिन भारतीय वांगमय-रामायण, महाभारत, पुराण आदि ऐसे जीवों से भरे पड़े हैं. ये दानव भीमाकार, विकृताकार, काले व मायावी शक्तियों से भरे हुए ऐसे जीव हैं, जो देवताओं और मृत्युलोक यानी इस भौतिक संसार में रहने वाले भद्र लोगों को परेशान करते रहते हैं.

asur

वैसे इस बारे में विद्वान और इतिहासवेत्ता बहुत कुछ लिख चुके हैं और मान कर चला जाता है कि ये गाथाएं सदियों तक चले आर्य-अनार्य युद्ध से उपजी छायायें हैं. बावजूद इसके इन कथाओं को इस रूप में देखने वाले और अन्य सामान्य लोग सहज भाव से यह स्वीकार करते आये हैं कि दस सिर वाले रावण को मारकर राम अयोध्या लौटे होंगे और उस अवसर पर दिये जलाकर राम, लक्ष्मण और सीता का स्वागत अयोध्यावासियों ने किया होगा. तभी से दीपावली मन रही है, रावण वध का आयोजन हो रहा है.

उसी तरह पूर्वोत्तर भारत में महिषासुर का बध करने वाली दुर्गा की अराधना होती है. हाल के वर्षों में बंग समाज के लोग जिन राज्यों में गये, वहां भी अब दुर्गापूजा होने लगी है. लेकिन सामान्यतः दुर्गा पूजा बिहार, बंगाल और ओडि़सा का त्योहार है. कभी कभी यह जिज्ञासा होती है कि दुर्गा पूजा पूर्वोत्तर भारत में ही क्यों होती है. शेष भारत में क्यों नहीं. इसी तरह रावण बध भी उत्तर भारत में ही क्यों होता है. रामलीलाएं इसी क्षेत्र में क्यों आयोजित होती हैं. दक्षिण भारत में क्यों नहीं?

बहुधा यह भी देखने में आता है कि धार्मिक ग्रंथों, पुराणों में दुष्ट तो दानवों को बताया जाता है, लेकिन धुर्तई करते देवता दिखते हैं. मसलन, समुद्र मंथन तो देवता और दानवों ने मिलकर किया, लेकिन समुद्र से निकली लक्ष्मी सहित मूल्यवान वस्तुएं देवताओं ने हड़प ली. यहां तक कि अमृत भी सारा का सारा देवताओं के हिस्से गया और राहू केतु ने देवताओं की पंक्ति में शामिल होकर अमृत पीना चाहा, तो उन दोनों को सर कटाना पडा.

महाभारत में लाक्षागृह से बचकर निकलने और जंगलों में भटकने के बाद पांडव पुत्र भीम किसी दानवी से टकराये. उसके साथ कुछ दिनों तक सहवास किया और फिर वापस अपनी दुनिया में चले आये. बेटा घटोत्कच कैसे पला-बढा इसकी कभी सुध नहीं ली. हालांकि उस बेटे ने महाभारत युद्ध में अपनी कुर्बानी देकर अपने अपने पिता के कर्ज को चुकता किया.

मर्यादा पुरुषोत्तम राम और रावण के व्यक्तित्व की तो बहुत सारी समीक्षाएं हुईं. रावण सीता को हर कर तो ले गया, लेकिन उनके साथ कभी अभ्रद व्यवहार नहीं किया, जबकि राम ने अपनी ब्याहता पत्नी को लगातार अपमानित किया. लंका से लौटने के बाद उसकी अग्नि परीक्षा ली. धोबी के कहने पर गर्भवती पत्नी का परित्याग कर लक्ष्मण के हाथों जंगल भिजवा दिया. छल से बालि की हत्या की. घर के भेदी विभीषण की मदद से रावण को मारा आदि..आदि.

एकलव्य की कथा तो इस बात की मिसाल ही बन गयी है कि एक गुरु ने अगड़ी जाति के अपने शिष्य के भविष्य के लिए एक आदिवासी युवक से उसका अंगूठा ही किस तरह गुरु दक्षिणा में मांग लिया. पौराणिक गाथाओं की ये सब बातें पिछले कुछ वर्षों से तीखी बहस का हिस्सा बनी हैं.

दलितों का गुस्सा और आक्रोश पहले फूटा और वह ब्राह्मणवादी व्यवस्था से घृणा की हद तक चला गया है. पिछले कुछ वर्षों से आदिवासी समाज भी आंदोलित है. इतिहास की अलग अलग व्याख्यायें हो रही है, खासकर पुराने बंगाल-जिसमें ओडि़सा और बिहार शामिल हैं- की. इतिहास की जिन पुस्तकों की मदद से यह बहस चल रही है, उनमें सबसे ज्यादा चर्चित है डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर की 'एनल्स ऑफ रूरल बंगाल', जो 1868 में लंदन से प्रकाशित हुई.

हंटर का मानना है कि वैदिक युग के ब्राह्मणों और मनु ने जिस हिंदू धर्म की स्थापना की, वह दरअसल मध्य देश का धर्म है. मध्य देश यानी हिमालय के नीचे और विंध्याचल के ऊपर का भौगोलिक क्षेत्र. हिंदू धर्म की स्थापना मध्य एशिया से निकल कर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई सभ्यताओं को जन्म देने वाले आर्यों ने किया, जिन्होंने हिंदुस्तान में सबसे पहले उत्तर पश्चिम क्षेत्र के दो पवित्र नदियों- सरस्वती और दृश्यवती- के बीच पड़ाव डाला.

वहां से वे दक्षिण पूर्व दिशा की तरफ बढे, जिसे ब्रह्मऋषियों और वैदिक ऋचाओं के गायकों का प्रदेश माना जाता है. इसके बाद वे दक्षिण पूर्व की दिशा में बढे और गंगा नदी के किनारे किनारे बसते हुए बंगाल के मुहाने तक पहुंच गये. इसी इलाकों को मनु अपना इलाका- हिंदू धर्म का इलाका मानते हैं जो शुद्ध बोलता है, उसके बाहर तो राक्षस रहते हैं जो शुद्ध बोल नहीं सकते, अखाद्य पदार्थों का भक्षण करते हैं. जो आर्यों की तरह गौर वर्ण के नहीं, काले हैं. वे शास्त्रार्थ करने वाले लोग नहीं, बल्कि उनके हाथों में तो बांस के बड़े-बड़े धनुष और जहर बुझे तीर हैं.

हुआ यह भी कि वे यहां अपनी जडें जमा पाते और मनु द्वारा व्याख्यायित हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार कर पाते, उसके पहले ही बौद्ध धर्म यहां उठ खड़ा हुआ, जो इस इलाके के लोगों को सहज स्वीकार्य भी हुआ. यहां के राजा भी ब्राह्मण, क्षत्रिय नहीं बल्कि यहां के मूलवासी थे या वे लोग थे, जो मनु की वर्णवादी व्यवस्था के बाहर के लोग थे. चाहे वे सम्राट अशोक हों या फिर गौड़ को अपनी राजधानी बना कर 785 से 1040 ई. तक बंगाल पर शासन करने वाले राजे. उनमें से अधिकांश बौद्ध धर्म को मानने वाले थे.

कम से कम 900 ई. तक बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं का शासन था. सन् 900 ई. में खुद को हिंदू मानने वाले बंगाल के राजा आदिश्वरा ने वैदिक यज्ञ व पूजा पाठ के लिए कन्नौज से पांच ब्राह्मणों को बुलवाया. वे पांचों ब्राहमण गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे. स्थानीय औरतों के साथ घर बसाया, बच्चे पैदा किये. जब वे यहां अच्छी तरह बस गये, उसके बाद कन्नौज से उनकी वैध पत्नियां यहां आयीं. वे स्थानीय पत्नियों और कथित रूप से अवैध संतानों को वहीं छोड़कर आगे बढ गये.

उनकी अवैध संतानों से राड़ी ब्राह्मण पैदा हुए, साथ ही अनके अन्य जातियां जैसे कायस्थ आदि. यह ऐतिहासिक परिघटना 900 वीं शताब्दी की है. लेकिन ये जो मिश्रित नस्ल और जातियों का आविर्भाव हुआ वे सिर्फ मनु की वर्ण व्यवस्था के लोगों के बीच आपसी विवाह का नतीजा न होकर ब्राह्मणों और हिंदू वर्ण व्यवस्था के बाहर की जातियों के मिश्रण का भी नतीजा था.

हिंदू वर्ण व्यवस्था का अभिजात तबका ब्राह्मण ही था. जब क्षत्रियों का प्रभुत्व बढा तो परशुराम ने पृथ्वी से क्षत्रियों को समाप्त करने का संकल्प लिया था. दूसरी बात यह कि बौद्ध धर्म के पहले या बाद में मध्य देश से जो भी अतिक्रमणकारी बंगाल आये, उन्होंने स्वयं को ब्राह्मण कहकर प्रचारित किया. यह अलग बात है कि मध्यदेश के ब्राह्मणों ने बंगाल के ब्राहमणों को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया.

तो, तब के बंगाल में जिसमें वीरभूम और मानभूम शामिल थे- की आबादी के मूल तत्व कौन कौन थे? हंटर ने पंडितों के हवाले इस तथ्य का ब्योरा कुछ इस प्रकार दिया है- 1.यहां के गैर आर्यन ट्राईब 2.वैदिक व सारस्वति ब्राह्मण 3. छिटपुट वैश्य परिवारों के साथ परशुराम द्वारा खदेड़े गये मध्य देश के क्षत्रिय जो बिहार से नीचे नहीं उतर पाये 4. सन् 900 ई. में कन्नौज से लाये गये ब्राह्मण और उनके वंशज और 5. उत्तर भारत से पिछले कुछ वर्षों में आये क्षत्रिय, राजपूत, अफगान और मुसलमान आक्रमणकारी. और यह बिरादरी मनु की वर्ण व्यवस्था के हिस्सा नहीं रह गये थे.

बंगाल के ब्राह्मणों को उत्तर भारत, यानी मनु के मध्य देश के ब्राह्मणों ने राड़ी ब्राह्मणों की संज्ञा दे रखी थी और उनसे रोटी बेटी का संबंध नहीं रखते थे. अस्तु, बंगाल की आबादी दो बड़े खेमों में विभाजित थी. आक्रमणकारी आर्य, जिन्हें ब्राह्मणों जैसा दर्जा प्राप्त था और दूसरा यहां के आदिवासी जिसे आक्रमणकारियों ने यहां पाया था और जिसे वे जंगलों में खदेड़ते जा रहे थे. आर्यों को अपनी विशिष्टता का इतना अहंकार था कि वे आदिवासियों को वा-नर, मनुष्य से नीचे का जीव जंतु का दर्जा देने लगे.

आदिवासियों से उनकी नफरत की अनेक वजहें थीं. एक तो उनका वर्ण काला था, दूसरे वे ऐसी भाषा बोलते थे, जिसका उनके अनुसार कोई व्याकरण नहीं था. तीसरे उनके खान पान का तरीका और चौथा वे किसी तरह के रीचुअल में विश्वास नहीं करते थे. वे इंद्र की पूजा नहीं करते थे और उनके पास कोई ईश्वर नहीं था. वे आत्मा के अमरत्व में विश्वास नहीं करते थे. आदि..आदि.

आदिवासियों से उनकी नफरत इस कदर बढती गई कि वे उन्हें मनुष्येतर प्राणी के रूप में चित्रित करने लगे. वैदिक ऋचाओं में उन्हें दसायन, दस्यु, दास, असुर, राक्षस जैसी संज्ञाओं से संबोधित किया जाने लगा. उनके व्यक्तित्व को विरूपित कर दिखाया जाने लगा. पौराणिक कथाओं के ये दानव, राक्षस इसी टकराव की उपज हैं.

ताजा संदर्भ यह कि आदिवासी समाज को दुर्गापूजा के नाम पर महिषासुर के समारोहपूर्वक बध से आपत्ति है. असुर समाज की सुषमा असुर ने झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा कार्यालय, रांची में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपील की है कि दुर्गा पूजा के नाम पर असुरों की हत्या का उत्सव बंद होना चाहिए. महिषासुर और रावण जैसे नायक असुर ही नहीं, बल्कि भारत के समस्त आदिवासी समुदायों के गौरव हैं.

वेद-पुराणों और भारत के ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को खल चरित्र के रूप में पेश किया गया है, जो सरासर गलत है. हमारे आदिवासी समाज में लिखने का चलन नहीं था इसलिए ऐसे झूठे, नस्लीय और घृणा फैलाने वाले किताबों के खिलाफ चुप्पी की जो बात फैलायी गयी है, वह भी मनगढंत है.

आदिवासी समाज ने हमेशा हर तरह के भेदभाव और शोषण का प्रतिकार किया है. असुर, मुण्डा और संताल आदिवासी समाज में ऐसी कई परंपराएं और वाचिक कथाएं हैं जिनमें हमारा विरोध परंपरागत रूप से दर्ज है. चूंकि गैर-आदिवासी समाज हमारी आदिवासी भाषाएं नहीं जानता है, इसलिए उसे लगता है कि हम हिंदू मिथकों और उनकी नस्लीय भेदभाव वाली कहानियों के खिलाफ नहीं हैं.

उनका यह भी कहना है कि असुरों की हत्या का धार्मिक पर्व मनाना देश और इस सभ्य समाज के लिए शर्म की बात होनी चाहिए. असुर समाज अब इस मुद्दे पर चुप नहीं रहेगा. इस समाज ने जेएनयू दिल्ली, पटना और पश्चिम बंगाल में आयोजित हो रहे महिषासुर शहादत दिवस आयोजनों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर की और असुर सम्मान के लिए संघर्ष को जारी रखने का आह्वान किया.

बहुधा हम भारतीय समाज की 'सामूहिक चेतना' की बात करते हैं. क्या वास्तव में हमारे समाज की कोई सामूहिक चेतना है? या इन नस्ली भेदभाव के रहते बन सकती है? क्या हमने कभी विचार किया है कि बाजार से जुड़ कर आजकल जो दुर्गा पंडाल बनते हैं, भव्य प्रतिमाएं बनती हैं, सप्ताह दस दिन तक चलने वाले मेले ठेले में ठगा-ठगा सा खड़ा एक आदिवासी विस्फारित आंखों से इन आयोजनों को देखकर क्या महसूस करता है?

या हम इंतजार कर रहे हैं कि वह अपने ही पूर्वजों की हत्या के इस उत्सव का धीरे-धीरे आनंद लेने लगेगा? ऐसा लगता तो नहीं. क्योंकि आदिवासी और गैर आदिवासी समाज के बीच विकास के मॉडल को लेकर एक तीखा युद्ध अभी भी जारी है.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/important-articles/300-2012-04-23-13-06-14/4409-aadivasiyon-ko-hee-asur-rakshas-kaha-dharmgranthon-ne

No comments: