औरत ही तो है जिस्म बेचने वाली यौनकर्मी
अमित कुमार
गलत काम तो वो होता है ना साहब जिससे किसी का दिल दुखे, किसी के अधिकारों का हनन हो, लेकिन हमारे पास आने के बाद तो व्यक्ति खुश होकर जाता है, उसे परम संतुष्टि का अनुभव होता है और व्यक्ति की प्राकृतिक, मानसिक और नैसर्गिक जरूरत की पूर्ति होती है। तो फिर यौनकर्म गलत या असामाजिक कैसे हो सकता है? सवाल सीधे तौर पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और सामाजिक व्यवस्था में विचरण करने वाले तथाकथित सभ्य समाज से था। सवाल किया था एक यौनकर्मी ने, जिसे तथाकथित सभ्य समाज के लोग कई नामों से पुकारते हैं। नाम बताने की कोई खास जरूरत नही है क्योंकि नाम बताने पर "बदला हुआ नाम" ब्रेकेट में लिखना पड़ेगा। खैर वो महिला आगे बढ़ती है और अब सीधे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर सवाल उठाती है। कहती है संविधान के अनुसार हमें समानता से और सम्मान से जीने का अधिकार मिला है लेकिन जब सरकारी नुमाइंदे ही सारी मर्यादाओं को भूलकर ज्यादती पर उतर आते हैं तो इस व्यवस्था से न्याय की उम्मीद बेमानी सी लगती है।
एक उत्सुक पत्रकार ने सवाल किया " मैडम आप कितना पढ़ी हुयी हो" जवाब मिलाराजनीति शास्त्र में ग्रेजुएट। इसके बाद कई सवाल उठ सकते थे लेकिन नहीं उठे। मसलन इतना पढ़ने के बाद यहाँ क्यों? लेकिन वो यौनकर्मी पहले ही बता चुकी थी कि यौनकर्म धंधा भर नही बल्कि सर्विस है, कईयों के जीने का जरिया है।
बहरहाल दो दिनों तक यौनकर्मियों की समस्याओं और उनके लिये पैदा हुयी और कुछ भ्रूण हत्या की शिकार हुयी संभावनाओं पर गहन चर्चा हुयी। बैनर था यौनकर्मियों को एक मंच पर एकत्र करने वाले संगठन ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स का। बात नुमाइश से लेकर आजमाइश तक और जोर आजमाइश से जगहँसाई तक हुयी। किस्सा 51 साल के उस समाजसेवक ने भी सुनाया जिसने एक यौनकर्मी की कोख से जन्म लिया। स्कूलिंग तो जैसे-तैसे हो गयी मगर कॉलेज जाते वक्त कुछ दोस्तों ने उन गलियों से उसे निकलता देखा जो बदनाम कही जाती है। दोस्तों ने सवाल किया " अबे ये भी शौक रखता है तू, हमने तो तुझे किताबों में ही घुसा देखा था"। 51 साल का वो आदमी जो उस वक्त 20 साल का था, उसने जवाब दिया मैं यहीं रहता हूँ, यहीं जन्म लिया है। दोस्तों की तरफ से सवाल उठा "अबे तेरी माँ- बहने भी धंधा करती हैं क्या?" जवाब दिया हाँ और कॉलेज छोड़ दिया। अब तक ये शख्स यौनकर्मियों और रात के अंधेरे में रोशन होने वाली बस्तियों पर चार किताबें लिख चुके हैं और निरन्तर समाज में विचरण करते-करते कई ज़िन्दगियों को नए सवेरे की तरफ ले जा चुके हैं। "सब इन्हें बच्चू दा कहते हैं"।
51 साल के बच्चू दा बताते हैं कि समाज के लिये नैतिक और सामाजिक रेखाएं खींचने वालों ने हमेशा यौनकर्मियों को काले चश्मे से देखा जिसे दिन में लगाने पर आँखों के सामने छाँव नज़र आती है और रात में लगाने पर सिर्फ चमकती चीजें ही दिखाई देती हैं। लेकिन काला चश्मा सही तस्वीर नही खींच पाता, ये समझना किसी भी विवेकशील के लिये कठिन नही होगा। समाज के सभ्य पुरूष रात के अंधेरे में आते हैं, संतुष्टि पाते हैं और चले जाते हैं। सवाल उठता है कि रात को जिन यौनकर्मियों को रानी, मेरी जान, डार्लिंग जैसे विशेषण दिये जाते हैं, दिन के उजाले में उनकी जायज माँगों को उठाने की जिम्मेदारी सिर्फ तथाकथित असभ्य समाज या महज़ एक वर्ग तक सीमित कैसे रह सकती है?
सरकारी योजनाएं यौनकर्मियों के लिये पुनर्वास की चीख पुकार करती हैं। क्या पुनर्वास के दौरान सरकारी प्रयास एक नियमित आय यौनकर्मियों को मुहैया करवा पाएंगे? क्या सरकार के पास इसका कोई जवाब है इन युवतियों की शादी करने के लिये सरकार लड़कों की आउटसोर्सिंग किसी अन्य देश से करने पर विचार कर रही है, क्योंकि भारतीय सामाजिक व्यवस्था तो यौनकर्मियों को हेय की भावना से ही देखती आई है। इनके बच्चे जब स्कूल की तरफ बढ़ेंगे तो स्कूल के रजिस्टर और पहचान पत्र पर उन पुनर्वास कॉलोनियों का ही पता तो आएगा जहां वो रहते हैं? क्या सवाल उनकी माओं और बहनों के चरित्र को लेकर नही उठेंगे? आखिर सम्मान बचाने के लिये सरकार कितने सम्मानीय लोगों की टीम खड़ी करेगी? सवाल तो कई उठेंगे, सरकार की मंशा पर भी और उनकी पुनर्वास या बच्चू दा के शब्दों में कहें तो शोषणवास की नीतियों पर भी।
मजदूरों के अधिकारों के लिये संघर्ष करते हुए अब यौनकर्मियों के अधिकारों के संरक्षण के प्रयास में लगे समाजसेवक आनंद शर्मा यौनकर्म को कानूनी मान्यता देने की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि यौनकर्मियों के लिये भी लाइसेंस सरीखी व्यवस्था स्थापित की जानी बेहद जरूरी है। इस व्यवस्था में सरकार का ही फायदा होगा। लाइसेंसिंग व्यवस्था से यौनकर्मियों की सही संख्या का अंदाजा लग पाएगा और मानव तस्करी पर भी लगाम लग पाएगी। नाबालिग लड़कियों को भी लाइसेंसिंग व्यवस्था के बाद यौनकर्म के पेशे में आने से रोका जा सकता है। और तो और जिस तरह से वाहनों के या अन्य व्यापारों के लाइसेंस होने से सरकार के खज़ाने भरते हैं उसमें कुछ योगदान यौनकर्मियों की तरफ से भी हो जाएगा। शर्मा जी बताते हैं कि प्राचीन परंपराओं से लेकर वर्तमान समाज तक यौनकर्मियों के अस्तित्व को स्वीकारा गया है, तो जब अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया है तो मान्यता देने में समस्याएं क्यों?
सवाल आज़ादी के बाद 1956 में बने इम्मोरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट पर भी उठ रहे हैं। जिसमें वक्त के साथ संशोधन होते रहे और ट्रैफिकिंग रोकने की आड़ में यौनकर्मियों पर नकेल कसने के फेर में जमकर मानवाधिकारों के उल्लंघन की तरफ कदम बढ़ाया गया। मां कमाती है तो बच्चे का जीवन यापन उस पैसे से नही हो सकता। 50 साल पुराने वेश्यालयों के पास 2 दिन पहले धार्मिक स्थल खड़ा कर दिया गया तो वेश्यालय का अस्तित्व समाप्त। विज्ञापन से उत्पाद की बिक्री तो बढ़ती ही है इसी वजह से हर विक्रेता, उत्पादक अपनी वस्तु को बेहतर बताता है। इशारे करता है, मज़ाक करता है, सेवाओं को लुभावने तरीके से पेश करता है लेकिन अगर यौनकर्मी ने ऐसा किया तो उसे एक्ट की धारा 8 के तहत उठाकर बंद कर दिया जाएगा। फैशन शो में कम कपड़े पहनना असभ्य नही होता बल्कि फैशन की श्रेणी में आता है। फिल्मों में गर्मागर्म दृश्य फिल्म को हिट करने का हथकंडा होते हैं। चोली के पीछे क्या है? जवाब मिलता है दिल। सेंसर बोर्ड की कैंची जब इन पर नही चलती तो भेदभाव की शिकार सिर्फ यौनकर्मियां ही क्यों होएं? खैर इस तरह के सवाल तो कई हैं।
खैर बहुत से संगठन यौनकर्मियों के नाम पर फलफूल रहे हैं, लेकिन यौनकर्मियों के अधिकारों को सही ढंग से समझना जरूरी है। तकरीबन 10 लाख यौनकर्मियों को एक मंच पर लाने का दावा करता ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स अपने उद्देश्यों में कितना कामयाब हो पाएगा ये तो नेटवर्क के जज्बे पर ही आश्रित है लेकिन हां इस नेटवर्क के माध्यम से ये आह्वान जरूर हुआ कि अगर अब भी यौनकर्मियों की मांगों और उनकी स्थिति पर विचार नही किया गया तो दिल्ली दूर नही होगी। यौनकर्मियां पहले भी दिल्ली में धमक दे चुकी हैं और इस बार ताकत दोगुनी होने का दावा कर रही हैं। निश्चित तौर पर इनके ये इरादे सत्ता के गलियारों में ए.सी. की ठंडक में गर्माहट तो पैदा कर ही सकते हैं। हम भी तैयार हैं।
अमित कुमार, पेशे से पत्रकार हैं।
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