दमित सोच से उतना ही उपजा हुआ है जितना विकल्पहीनता और संवेदना के अतिरेक का परिणाम है दर्भा का हमला
सही-गलत क्या होता है राजनीति में ?
– अभिषेक श्रीवास्तव
इस बात को चार दशक से ज्यादा हो रहे हैं। घटना 1971 की है। लोकसभा के मध्यावधि चुनाव बीते ही थे और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में काँग्रेस पार्टी भारी बहुमत से केंद्र में आ चुकी थी। जैसा कि हर बड़े नेता की एक किचेन कैबिनेट हुआ करती है, श्रीमती गांधी की भी थी। इसी समूह के कुछ करीबी विश्वस्तों के साथ एक रात खाना खाते वक्त इंदिरा गांधी ने अपने ठीक सामने बैठे लोकसभा सांसद अमृत नाहटा पर औचक एक सवाल दागा था, ''नाहटा जी, राजनीति में सही-गलत क्या होता है?'' एक पल के लिये नाहटा सन्नाटे में आ गये थे, लेकिन जैसे-जैसे इस सत्संग में उनके दिन बीते, इस सवाल का मंतव्य उन्हें समझ में आता गया।
ये वही अमृत नाहटा हैं जिन्हें अचानक उस दौर में सियासी उलटबांसियों पर एक फ़िल्म बनाने का शौक चर्राया था। फिल्म बनी तो, लेकिन रिलीज कभी नहीं हो पायी क्योंकि फ़िल्म के मूल प्रिन्ट और निगेटिव आपातकाल में इंदिरा सरकार द्वारा जलवा दिये गये। सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चला, फ़िल्म के प्रिंट जलाने के दोषी संजय गांधी को कुछ दिनों की जेल हुयी जबकि उनके सह-आरोपी तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल गवाहों के मुकर जाने के चलते बच गये थे। ये सारी बातें फ़िल्म के ही नाम से लिखी गयी सवा रुपये की जेबी किताब 'किस्सा कुर्सी का' में खुद नाहटा ने बतायी हैं।
आज इंदिरा गांधी नहीं हैं, लेकिन उनका लगाया आपातकाल रोजमर्रा का अहसास बन चुका है आज संजय गांधी अपने कई संस्करणों में देश के हर गली-मोहल्ले में उछल-कूद मचाते देखे जा सकते हैं जबकि बुजुर्गवार शुक्ल दिल्ली के मेदांता अस्पताल में तीन गोलियां खाने के बाद मुसल्सिल रिस रहे खून को रोक पाने और बची-खुची सांसों को थाम लेने की जद्दोजेहद में जुटे हुये हैं। शुक्ल के अलावा 28 अन्य लोग अलग-अलग अस्पतालों में घायल पड़े हुये हैं जबकि दो दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत की खबर आ चुकी है। छत्तीसगढ़ में 25 मई को काँग्रेस के कापिफले पर हुआ नक्सली हमला अकेले मृतकों और घायलों की गिनती का सबब नहीं है। इतने लम्बे समय बाद एक बार फिर इंदिरा गांधी का सवाल सिर उठाये खड़ा है!
आखिर ऐसी क्या बात है कि जब-जब हमला इस तन्त्र की मुख्य धारा से जुड़े लोगों पर होता है, पब्लिक डोमेन में सही और गलत की विभाजक रेखायें खींची जाने लगती हैं। अचानक दो खेमे बँट जाते हैं और इंसाफ का विचार कहीं लुप्त हो जाता है। यही हुआ था जब सीआरपीएफ के जवान मारे गये थे। सही-गलत के पलड़े में 25 मई की घटना को तौलें तो शायद हम सच तक न पहुँच पायें क्यों कि हमेशा सही-गलत का सामाजिक पैमाना तय करना मुश्किल होता है। इसीलिये कभी-कभार 'पर्सनल' होना बुरा नहीं होता, खासकर तब जबकि इस हमले में मृत कम से कम एक शख्स बस्तर के कई परिवारों का लगातार पर्सनल' मामला बताया जाता रहा है। महेंद्र कर्मा- जिसने सलवा जुडुम को पैदा किया और आदिवासियों के हाथों में बन्दूक थमाई। हम कर्मा के बारे में इतना ही जानते थे, जब तक कि 25 मई को सीपीआई (माओवादी) का आधिकारिक बयान नहीं आ गया और उन्होंने कर्मा के पूरे इतिहास का कच्चा-चिट्ठा सार्वजनिक नहीं कर दिया। नीचे दी हुयी कर्मा की कुंडली बाँचें और तय करें कि क्या सही है, क्या गलतः
"आदिवासी नेता कहलाने वाले महेंद्र कर्मा का ताल्लुक दरअसल एक सामन्ती माँझी परिवार से रहा। इसका दादा मासा कर्मा था और बाप बोड्डा माँझी था जो अपने समय में जनता के उत्पीड़क और विदेशी शासकों का गुर्गा रहा था। इसके दादा के जमाने में नवब्याहता लड़कियों को उसके घर पर भेजने का रिवाज रहा। इससे यह अँदाजा लगाया जा सकता है कि इसका खानदान कितना कुख्यात था… महेंद्र कर्मा ने बाहर के इलाकों से आकर बस्तर में डेरा जमाकर करोड़पति बने स्वार्थी शहरी व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करते हुये उस (आदिवासियों के) आन्दोलन का पुरजोर विरोध किया था… 1999 में 'मालिक मकबूजा' के नाम से चर्चित एक घोटाले में कर्मा का नाम आया था। 1992-96 के बीच उसने लगभग 56 गाँवों में फर्जीवाड़े आदिवासियों की जमीनों को सस्ते में खरीद कर, राजस्व व वन अधिकारियों से साठ-गाँठ कर उन जमीनों के अन्दर मौजूद बेशकीमती पेड़ों को कटवाया था। चोर व्यापारियों को लकड़ी बेचकर महेंद्र कर्मा ने करोड़ों रुपए कमा लिये थे, इस बात का खुलासा लोकायुक्त की रिपोर्ट से हुआ था। हालाँकि इस पर सीबीआई जाँच का आदेश भी हुआ था लेकिन सहज ही दोषियों को सजा नहीं हुयी… महेंद्र कर्मा को अविभाजित मध्य प्रदेश शासन में जेल मन्त्री और छत्तीसगढ़ के गठन के बाद उद्योग मन्त्री बनाया गया था। उस समय सरकार ने नगरनार में रोमेल्ट/ एनएमडीसी द्वारा प्रस्तावित इस्पात संयंत्र के निर्माण के लिये जबरिया जमीन अधिग्रहण किया था। स्थानीय जनता ने अपनी जमीनें देने से इनकार करते हुये आन्दोलन छेड़ दिया जबकि महेंद्र कर्मा ने जनविरोधी रवैया अपनाया था। तीखे दमन का प्रयोग कर, जनता के साथ मारपीट कर, फर्जी केसों में जेलों में कैद कर आखिर में जमीनें बलपूर्वक छीन ली गयीं जिसमें कर्मा की मुख्य भूमिका रही। क्रान्तिकारी आन्दोलन के खिलाफ 1990-91 में पहला जन जागरण अभियान चलाया गया था। इसमें संशोधनवादी भाकपा ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। इस प्रतिक्रान्तिकारी व जनविरोधी अभियान में कर्मा और उसके कई रिश्तेदारों ने, जो भूस्वामी थे, सक्रिय भाग लिया था। 1997-98 के दूसरे जन जागरण अभियान की महेंद्र कर्मा ने खुद अगुवाई की थी। उसके गृहग्राम पफरसपाल और उसके आसपास के गांवों में शुरू हुआ यह अभियान भैरमगढ़ और कुटरू इलाकों में भी पहुँच चुका था। सैकड़ों लोगों को पकड़ कर, मारपीट करके जेल भेज दिया गया था। लूटपाट और घरों में आग लगाने की घटनायें हुयीं। महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया… रमन सिंह और महेंद्र कर्मा के बीच कितना बढ़िया तालमेल रहा इसे समझने के लिये एक तथ्य काफी है कि मीडिया में कर्मा को रमन मन्त्रिमण्डल का 'सोलहवाँ मन्त्री' कहा जाने लगा था। सोयम मूका, रामभुवन कुशवाहा, अजय सिंह, विक्रम मण्डावी, गन्नू पटेल, मधुकर राव, गोटा चिन्ना, आदि महेंद्र कर्मा के करीबी और रिश्तेदार सलवा जुडुम के अहम नेता बनकर उभरे थे। साथ ही, उसके बेटे और अन्य करीबी रिश्तेदार सरपंच पद से लेकर जिला पंचायत तक के सभी स्थानीय पदों पर कब्जा करके गुण्डागर्दी वाली राजनीति करते हुये, सरकारी पैसों का बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करते हुये कॉपोर्रेट कम्पनियों और बड़े व्यापारियों का हित पोषण कर रहे हैं। और सलवा जुडुम ने बस्तर के जन जीवन में जो तबाही मचाई और जो क्रूरता बरती उसकी तुलना में इतिहास में बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। कुल एक हजार से ज्यादा लोगों की हत्या कर, 640 गाँवों को कब्रगाह में तब्दील कर, हजारों घरों को लूट कर, मुर्गों, बकरों, सुअरों आदि को खाकर और लूट कर, दो लाख से ज्यादा लोगोंको विस्थापित कर, 50 हजार से ज्यादा लोगों को बलपूर्वक 'राहत' शिविरों में घसीट कर सलवा जुडुम जनता के लिये अभिशाप बना था। सैकड़ों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। कई महिलाओं की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी। कई जगहों पर सामूहिक हत्याकाण्ड किये गये। हत्या के 500,बलात्कार के 99 और घर जलाने के 103 मामले सर्वोच्च अदालत में दर्ज हैं तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन अपराधों की वास्तविक संख्या कितनी ज्यादा होगी… महेंद्र कर्मा ने खुद कई गाँवों में सभाओं और पदयात्राओं के नाम से हमलों की अगुवाई की। कई महिलाओं पर अपने पशु बलों को उकसा कर बलात्कार करवाने की दरिन्दगी भरे उसके इतिहास को कोई भुला नहीं सकता। जो गाँव समर्पण नहीं करता उसे जलाकर राख कर देने, जो पकड़ में आता है उसे अमानवीय यातनायें देने और हत्या करने की कई घटनाओं में कर्मा ने खुद भाग लिया था। इस तरह महेंद्र कर्मा बस्तर की जनता के दिलोदिमाग में एक अमानुष हत्यारा, बलात्कारी,डकैत और बड़े पूँजीपतियों के वफादार दलाल के रूप में अंकित हुआ था।"
कर्मा के इतिहास और बस्तर की जनता द्वारा उसके 'पर्सनल'प्रतिशोध की इस कहानी के बीच अचानक अज्ञेय याद आते हैं जो कहते थे कि हर किसी को अपनी ज़िन्दगी में बरती रुखाई का मोल कभी न कभी अपने निजी कोने में चुकाना ही पड़ता है। राजनीति की भूलभुलैया में हालाँकि कोने नहीं होते, वह कई दुश्चक्रों का एक 'म्यूजिकल चेयर' है इसीलिये जब अपने किये का मोल चुकाने की बारी आती है, तो मुँह ढँकने को भी जगह नहीं मिलती, जैसा कि वयोवृद्ध काँग्रेसी विद्याचरण शुक्ल के साथ हुआ। भला किसने सोचा होगा कि कभी इतना कद्दावर रहा नेता गोली खाकर अपनी समूची निरीहता में देश के सामने टीवी के परदे पर कराह रहा होगा? शुक्ल को खून से लथपथ देखना आजाद भारत में छह दशक की सत्ता की रुखाई का एक अक्स देखने जैसा था। जरूरी नहीं कि हर बार ऐसे अक्स का मतलब समझ में आ ही जाय। मसलन, छत्तीसगढ़ काँग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे की हत्या वास्तव में लोगों की समझ से परे है। जगदलपुर के जिस इलाके से काँग्रेसी विधायक कवासी लखमा आते हैं, वहाँ के लोगों को यह समझ ही नहीं आ रहा कि पटेल और उनके बेटे के साथ होने के बावजूद लखमा को एक भी छर्रा क्यों नहीं लगा। दंतेवाड़ा के लोगों के लिये एक पहेली यह भी है किसोनी सोरी और उसके परिवार की ज़िन्दगी तबाह करने वाला नेता अवधेश गौतम कैसे बच गया।
पिछले 14 साल से बस्तर में काम कर रहे एक स्थानीय पत्रकार की एक बात यहाँ बहुत काम की लगती है, "अगर हमला बीजेपी की विकास यात्रा पर हुआ होता तो सच मानिए,एक आदमी नहीं बचता।"
यह हमला सही है या गलत, सवाल यह है ही नहीं। गाड़ियों के बजाय हेलिकॉप्टर से उड़ कर आए अजित जोगी, 22 की जगह 25 अप्रैल को शुरू हुयी परिवर्तन यात्रा, कवासी लखमा और अवधेश गौतम का बच जाना, नंदकुमार पटेल का मारा जाना जबकि महेंद्र कर्मा के भीतर पचास गोलियाँ उतार दिया जाना- सब मिल कर एक ऐसा परिदृश्य गढ़ रहे हैं जहाँ राजनीति के चालू मुहावरे और फॉर्मूले नाकाम होते दिख रहे हैं। माओवादियों द्वारा इस घटना की जिम्मेदारी साफ तौर पर लेने के बावजूद अब भी कॉन्सपिरेसी थियरी गढ़ने वालों की कलम नहीं रुक रही, तो इसकी वजह इस हमले में मारे गये और बचे कुछ लोगों का हमारे पूर्वाग्रहग्रस्त सोच में नहीं अँट पाना है। एकाध उदाहरण इस सन्दर्भ में देखने योग्य हैं। हमले के ठीक अगले दिन 26 मई को 'दि हिन्दू' ने एक खबर चलायी "दि राइज ऐंड फॉल ऑफ महेंद्र कर्मा- दि बस्तर टाइगर" जिसमें बड़ी चतुराई से इस ओर इशारा किया गया कि काँग्रेस को अब महेंद्र कर्मा की जरूरत नहीं रह गयी थी। परिवर्तन यात्रा में केन्द्रीय मन्त्री जयराम रमेश के बयान के बहाने सुवोजित बागची लिखते है:-
"आखिरकार पिछले गुरुवार एक केन्द्रीय मन्त्री ने स्पष्ट कर दिया कि 'बस्तर टाइगर' अब बस्तर में पार्टी का शुभंकर नहीं रहा है। शायद पार्टी को यह अहसास हो गया था कि सलवा जुड़ुम के बाद कर्मा का जनाधार खत्म हो चुका है। इसी स्वीकार्यता के चलते उनके आकाओं ने गुरुवार को उनके अन्त की घोषणा की। उनके प्रतिद्वन्द्वी, जिनमें कुछ खुद उन्हीं के कुनबे से हो सकते हैं, उन्होंने दो दिन बार उन्हें मार दिया।"
एक बार इस किस्म की चर्चा चल पड़ी तो फिर इसे मीडिया में काफी हवा मिली। 'ओपेन पत्रिका के पत्रकार और 'हलो बस्तर' नामक किताब के लेखक राहुल पंडिता ने न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने ब्लॉग में 29 मई को नंदकुमार पटेल के उदाहरण से साफ सवाल खड़ा किया है कि माओवादियों का निशाना कहीं और था लेकिन हमले का शिकार कोई और हुआ (क्वेश्चंस रेज्ड ओवर इनटेंडेड टार्गेट ऑपफ माओइस्ट अटैक। इसके अगले ही दिन 30 मई के टाइम्स ऑफ इंडिया में कवासी लखमा की कहानी को 'कॉन्सपिरेसी'में ढालने की कोशिश की गयी है जिसका शीर्षक "एमएलए सरवाइव्स माओइस्ट्स, नाउफाउट्स कॉन्सपिरेसी थियरिस्ट्स" कहता है कि विधायक माओवादियों से तो बच गये लेकिन इस हमले में साजिश देखने वालों का शिकार हो गये।
ये सारी खबरें और विश्लेषण इस ओर इशारा कर रहे हैं कि दरअसल हम जिसे एक स्वायत्त घटना के तौर पर ले
रहे हैं, वह वैसी है नहीं। यह हमला एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का पड़ाव है जहाँ ज़िन्दगी और मौत को बाँटने वाली सरहद के दोनों ओर एक नहीं कई-कई खिलाड़ी खेल रहे हैं। यह अकेले माओवादियों और राज्य तन्त्र के बीच की दुश्मनी से नहीं उपजा है। इसमें सत्ता के अन्तर्विरोधों की पर्याप्त भूमिका है। जरा सोच कर देखिये कि यदि कल को चुनाव के बाद भाजपा की हार होती है, तो काँग्रेस से मुख्यमन्त्री पद का सबसे सशक्त दावेदार कौन होगा। यह भी, कि यदि यह घटना नहीं हुयी होती तो क्या होता। और ये सवाल जितने दिल्ली में नहीं, उससे कहीं ज्यादा रायपुर और दंतेवाड़ा में उठाये जा रहे हैं खुद काँग्रेस के अन्दरखाने ऐसी ही बातें हो रही हैं। क्या वास्तव में यह 'देश की सोच' पर हमला है जैसा कि राहुल गांधी कह रहे हैं या फिर 'लोकतन्त्र पर', जैसा कि सोनिया?
अगर 'देश की सोच' काँग्रेस की सोच है, तो बेशक राहुल गांधी सही हो सकते हैं। अगर 'लोकतन्त्र' का मतलब काँग्रेसी काफिला है, तो बेशक सोनिया गांधी भी सही हो सकती हैं। लेकिन इस देश के लोक पर हमले के उन उदाहरणों को फिर कैसे बरता जाये जिन्हें'समकालीन तीसरी दुनिया' के जून अंक के संपादकीय में गिनाया गया हैः
"जिन लोगों ने पिछले दो तीन महीनों की घटनाओं पर बारीकी देशकाल छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री रमण सिंह समकालीन तीसरी दुनिया / जुलाई 2013 से ध्यान दिया होगा उन्हें बस्तर के हाल के हादसे से कोई हैरानी
नहीं हुयी होगी। पिछले कुछ महीनों से लगातार माओवादियों को कभी सीआरपीएफ का तो कभी आंध्र प्रदेश के ग्रेहाउंड्स का और कभी 'कोबरा' (कांबैट बटालियन फॉर रेजोल्यूट ऐक्शन)सैनिकों का आक्रमण झेलना पड़ रहा था। यह सिलसिला 27-28 मार्च की रात में झारखंड के चतरा जिले से शुरू हुआ जहाँ तृतीय प्रस्तुति कमेटी (टीपीसी) नामक एक सरकार प्रायोजित संगठन और सीआरपीएफ-कोबरा बलों ने एक भारी हत्याकाण्ड को अंजाम दिया। इसमें 10 माओवादी मारे गये और भारी संख्या में लोग घायल हुये। 4 अप्रैल को महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में 7 और फिर 12 अप्रैल को गढ़चिरोली के ही धनोरा के जँगल में चार माओवादी मारे गये। 16 अप्रैल 2013 को छत्तीसगढ़ के सुकुमा जिले में एक भीषण मुठभेड़ में माओवादियों की खम्माम-करीमनगर-वारंगल डिविजनल कमेटी के महासचिव सुधाकर सहित नौ लोग मारे गये। इस लड़ाई में आंध्र प्रदेश के ग्रेहाउण्ड्स कमाण्डोज़ ने भाग लिया था। इसी मुठभेड़ में सीमा सुरक्षा बल के उस हेलीकॉप्टर पर माओवादियों ने गोली चलायी जो कमाण्डोज को ढोने के लिये गया था। भारतीय वायु सेना के इस एमआई-17 हेलीकॉप्टर के कॉकपिट में गोलियाँ लगीं और उसे वहाँ से भागना पड़ा। जनवरी में भी इस तरह की घटना हो चुकी थी जिसमें एक हेलीकॉप्टर को इसी तरह के हमले का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं 18 अप्रैल को पहली बार छत्तीसगढ़ के जँगलों के ऊपर कैमरे से लैस मानव रहित विमान को उड़ाया गया ताकि माओवादियों की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके। सुकमा जिले में 16 अप्रैल की इस मुठभेड़ के बाद संघर्ष की स्थिति में एक गुणात्मक परिवर्तन आ गया और माओवादियों ने तय किया कि अब आक्रामक पहल लेने की जरूरत है।"
एक लोकतन्त्र के भीतर 'देश की सोच'जनता की सोच होती है और जिस देश-काल में यह घटना घटी है, वहाँ जनता की सोच को सत्ता की दुनाली ने पिछले कुछ बरसों में कुँद कर दिया है। इसीलिये, यह हमला दमित सोच से उतना ही उपजा हुआ है जितना विकल्पहीनता और संवेदना के अतिरेक का परिणाम है। यही वजह है कि कुछ लोगों की मरहम-पट्टी भी की गयी है, कुछ लोगों को छोड़ भी दिया गया है और कुछ को बेरहमी से मार भी दिया गया है। तकनीकी रूप से इस घटना की निन्दा किये जाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये, लेकिन फिर यह ख्याल जरूर रखा जाना चाहिये कि ज़िन्दगी और मौत के बीच जो विरोधाभास स्पष्टतः नजर आ रहे हैं उन्हें कैसे बरता जाय। इन विरोधाभासों में साजिश खोजने के क्रम में एक बुनियादी बात और ध्यान में रखी जानी होगी कि बेहाल जनता जब मारती है तो कोई नियम-कायदा नहीं देखती। हम और आप सुरक्षित शहरों में बैठकर भले यह गुंताड़ा करते रहें कि इसे क्यों मारा और उसे क्यों छोड़ दिया, लेकिन जिन परिस्थितियों ने हजार से ज्यादा लोगों को एक साथ सशस्त्रा हमला करने की स्थिति तक ला खड़ा किया है, वहाँ जमीनी स्तर पर हमारे पूर्वाग्रहग्रस्त सवाल और आशँकायें बेमानी साबित हो जाती हैं।
इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि माओवादियों ने हमला किया है और उसे अपनी विज्ञप्ति के माध्यम से स्वीकार भी किया है। उन्होंने एक-एक मौत का अपने तईं तर्क गिनाया है, कारण दिया है और अनावश्यक हुयी मौतों पर खेद जताया है। यह राजनीतिक रूप से ईमानदार काम है, जिसकी अपेक्षा हम बाड़ के दूसरी ओर बैठे हत्यारों से नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने कभी भी इस किस्म की ईमानदारी नहीं दिखाई है। मारते हो, तो उसे स्वीकार करने का साहस भी रखो। मुझे नहीं पता कि साठ साल के इस बूढ़े, बौने और विकलाँग लोकतन्त्र में कभी भी सत्ता ने अपने हाथों हुयी हत्याओं की जिम्मेदारी ली हो। इसलिये क्या सही है और क्या गलत, इसका 'ओनस' माओवादियों पर नहीं, सत्तावादियों पर है।
बहरहाल, अन्त में दो सरलीकृत बातें। यदि हम बस्तर को राजनीतिविहीन युद्धक्षेत्र मानते हैं, तो इस घटना को युद्ध की निरन्तरता में ही देखा जाना होगा और सही-गलत की पैमाइश निरर्थक होगी। यदि वास्तव में जमीनी स्तर पर वहाँ कोई राजनीति है और यह हमला राज्य और माओवादी विचारधारा के वाहकों के बीच संघर्ष का परिणाम है, तो इस राजनीति में 'सही-गलत'की नैतिकतावादी पैमाइश पर सवाल सत्ता की ओर से खड़ा किया गया है न कि माओवादियों की तरफ से। इसलिये मौजूदा हत्याओं के लिये खुद इस देश की सत्ता और उसकी जनविरोधी नीतियाँ जिम्मेदार हैं।
जाहिर है, आज अगर आपातकाल अघोषित रूप में है तो सत्ता की अनैतिक घोषणायें भी अदृश्य ही हैं, लेकिन स्थितियाँ 1971 के मुकाबले कहीं ज्यादा विद्रूप हैं। साधन की उपेक्षा कर साध्य को हासिल करने वाला इंदिरा गांधी का वह सवाल सत्ता के लिये तो आज भी मौजूँ है, अलबत्ता इसे पूछने की बेशर्मी इंदिरा के बाद दोबारा किसी सत्ता ने अब तक नहीं दिखाई। सच मानिए, जिस दिन यह ऐतिहासिक सवाल दोबारा किसी नाहटा से उसी बेरुखी से पूछा जायेगा, काँग्रेस की 'परिवर्तन यात्रा'को भाजपा की 'विकास यात्रा'में बदलते देर नहीं लगेगी।
समकालीन तीसरी दुनिया से साभार
No comments:
Post a Comment