क्रांति हो न हो, हिंसा,घृणा और जनसंहार के खिलाफ अहिंसा,शांति और सत्य के लिए मोर्चा है यह!
जन्मजात रंगभेदी वर्चस्व के खिलाफ, मनुस्मृति राज के खिलाफ जनता के इस महाविद्रोह को जातियुद्ध में तब्दील करने की साजिशों से बचें,तभी मंजिल मिलेगी!
विधायकों,सांसदं और मंत्रियों से निवेदन है कि इस्तीफा देकर समता और न्याय की निर्णायक लड़ाई में आम जनता के साथ खड़े हो जायें सड़क पर फिर समता और न्याय पर बोले या लिखें!
हिंदूराष्ट्र का अधर्म नहीं,मनुष्यता का उत्कर्ष,समता और न्याय का बौद्धमय भारत चाहिए इस कायनात को!
गौतम बुद्ध के मूल्यों को लेकर हिंदुत्व की बात करते थे गांधी तो बौद्धमय भारत ही हिंदुत्व का असल एजंडा है।जो दरअसल वर्गहीन शोषणहीन समाज का साम्यवाद है तो बाबसाहेब का जाति उन्मूलन का एजंडा भी है।
नाथूराम गोडसे कोई गांधी का हत्यारा नहीं,बल्कि सनातन हिंदू धर्म का हत्याराहै वह और गोडसे का मंदिर बनाने वाले लोग हिंदुत्व से सहबसे बड़े कातिल हैं उसीतरह जो हिंदुत्व के एकीकरण के इस मौके पर जब अछूत और सवर्ण साथ साथ समता और न्याय की जंग लड़ रहे हैं,लाठी गोलियां खा रहे हैं,खुल्ला जातियुद्ध के मार्फत देश को फिर कुरुक्षत्र में तब्दील करने में जुटे हुए हैं।
हिंदुओं को चाहिए सबसे पहले ऐसे तत्वों को तड़ीपार करें तभी भारतवर्ष का नवनिर्माण संभव होगा।
हिंदुत्व का एजंडा दरअसल हिंदुत्व के खात्मे का एजंडा है,हिंदुओं को यह बात अबभी समझनी चाहिए।
अंबेडकर का जाति उन्मूलन एजंडा जिन्हें समझ में न आया,अब उनके लिए प्रायश्चित्त का मौका है।
बाबासाहेब की विरासत संघियों के हवाले नहीं करेंगेःप्रकाश अंबेडकर
पलाश विश्वास
एक बहुत बड़ी खबर है कि बाबासाहेब अंबेडकर के परिवार ने भारत सरकार को बाबासाहेब की रचनाएं छापने से साफ मना कर दिया है क्योंकि प्रकाश अंबेडकर के मुताबिक बाबासाहेब के आंदोलन के खिलाफ है फासिज्म का राजकाज यह और कापीराइट उनके परिवार के पास है।
प्रकाश अंबेडकर बाबासाहेब की विरासत संघियों के हवाले नहीं करेंगे।
गौरतलब है कि केंद्र सरकार बाबा साहेब के अंग्रेजी वाले लेखन के संकलन की प्रिंटिंग के लिए 14 अप्रैल की डेडलाइन पूरी करने में जुटी हुई है, लेकिन उनके पौत्र प्रकाश अंबेडकर ने प्रकाशन की इजाजत देने से मना कर दिया है।
सबसे पहले उन तमाम विधायकों,सांसदों और मंत्रियों से निवेदन हैं कि वे पहले अपना अपना पद से इस्तीफा देकर समता और न्याय की निर्णायक लड़ाई में आम जनता के साथ खड़े हो जायें सड़क पर फिर समता और न्याय पर बोलें या लिखें।
आज जनसत्ता में सांसद उदित राज का लिके का स्वागत है।
हम हालांकि इन सांसद उदित राज को जनते नहीं हैं।
हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंडरग्रेजुएट रामराज को जानते रहे हैं ,जिसको सबसे ज्यादा फिक्र साथियों के लिए रोटी का बंदोबस्त करने की थी और मेजा से गेंहू का बोरा सर पर ढोकर जो लाता था।
देवी प्रसाद त्रिपाठी के साथ दिल्ली रवाना होकर कहां से कहां वह चला गया,हमें इसकी भी उतनी परवाह नहीं है।
बहरहाल रामराज की ईमानदारी का तनिक हिस्सा अगर इस उदितराज में हैं तो वप सबसे पहले भाजपाई सांसद पद से इस्तीफा देकर मारे साथ खड़े हो जायें।
यही निवेदन सांसद संजय पासवान और दूसरे तमाम लोगों से है जो दलितों के साथ न्याय की गुहार लगाकर इस बदलाव के तूफान को दलित आंदोलन साबित करने में लगे हैं।
सवर्ण और अछूतों को कायनात के दो सिरे पर खड़ा करके सत्तर दशक के छात्र युवा आंदोलन का हश्र जो दोहराना चाहते हैं रोहित के लिए न्याय मांगने सड़क पर अस्मिता और जाति तोड़कर जमा हमारे लाठी गोली खाते हमारे दिलों के टुकड़े ,हमारे बच्चों के साथ।
सत्ता का पैबंद बने रहना जिनका शगल है,उन्हें मुबारक हो।
हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने हमें चेतावनी दी है कि हम कहीं जात के विरोध में फिर वहीं जातियुद्ध में शामिल न हो जायें।
हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने हमारे लिखे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि मनुस्मृति तो सत्ता की राजनीति है, सत्ता में शामिल तमाम दलों और चेहरों का हकीकत है।इसके तहत आम जनता का बंटवारा हर्गिज न करें हम।दलदल में न फंसे।
हम उनका यह पुराना पाठ भूले नहीं हैं।मगर दिक्कत यह है कि सदियों से जो चीखें दर्ज हुई नहीं हैं,हम पहलीबार उन्हें दर्ज करने का दुस्साहस कर रहे हैं।
तमाम चीखें लहूलुहान है और उनमें कातिलों की शिनाख्त भी है,जिनकी साफ साफ पहचान भी है।
हम उन्हें नजरअंदाज करके इस वक्त की आवाजें दर्ज नहीं कर सकते।हर चीख और हर आवाज के मजमूं से हम अक्सर सहमत होते नहीं हैं,लेकिन लोकतंत्र का तकाजा हैं कि वे चीखें जरुर दर्ज हों।
रोहित वेमुला की आत्महत्या के खिलाफ पहलीबार बहुजन व्यापक पैमाने पर सड़कों पर उतरे हैं और खुलकर बोल रहे हैं।
जाहिर है कि किन्ही किन्ही आवाज में मंडल कमंडल गूंज जरुर है,पहचान और अस्मिता की उग्र गंध भी है।
फिरभी पहलीबार लाल और नीले झंडे एकसाथ लहरा रहे हैं।
सच पूछें तो असल हिंदुत्व का यह स्वर्णकाल है जब सवर्ण और अछूत कंधे से कंधा मिलाकर न्याय और समता के लिए लड़ रहे हैं हिदूविरोधी कातिलों के गिरोह के खिलाफ।
हिंदू धर्म के सच्चे अनुयायियों को बाबासाहेब का जाति उनमूलन का एजंडा समझ में आया होता को जातियों के गठजोड़ के आगे हिंदुत्व का झंडा धूल नहीं फांक रहा होता।
न देश बंटा होता इस कदर।
आर्यों अनार्यों, सुरों, असुरों,हुण कुषाण सबके एकीकरण से जो हिंदू धर्म का भूगोल है,वे नहीं जानते कि जाति का उन्मूलन से बड़ा हिंदुत्व का भला और कुछ नहीं हो सकता।
दरअसल सत्य और अहिंसा की लड़ाई इसीलिए गांधी का हिंदुत्व रहा है और उनसे बड़ा हिंदू हाल में कोई हुआ नहीं है।
गौतम बुद्ध के मूल्यों को लेकर हिंदुत्व की बात करते थे गांधी तो बौद्धमय भारत ही हिंदुत्व का असल एजंडा है।जो दरअसल वर्गहीन शोषणहीन समाज का साम्यवाद है तो बाबसाहेब का जाति उन्मूलन का एजंडा भी है।
नाथूराम गोडसे कोई गांधी का हत्यारा नहीं,बल्कि सनातन हिंदू धर्म का हत्याराहै वह और गोडसे का मंदिर बनाने वाले लोग हिंदुत्व से सहबसे बड़े कातिल हैं उसीतरह जो हिंदुत्व के एकीकरण के इस मौके पर जब अछूत और सवर्ण साथ साथ समता और न्याय की जंग लड़ रहे हैं,लाठी गोलियां खा रहे हैं,खुल्ला जातियुद्ध के मार्फत देश को फिर कुरुक्षत्र में तब्दील करने में जुटे हुए हैं।
हिंदुओं को चाहिए सबसे पहले ऐसे तत्वों को तड़ीपार करें तभी भारतवर्ष का नवनिर्माण संभव होगा।
हिंदुत्व का एजंडा दरअसल हिंदुत्व के खात्मे का एजंडा है,हिंदुओं को यह बात अबभी समझनी चाहिए।
अंबेडकर का जाति उन्मूलन एजंडा जिन्हें समझ में न आया,अब उनके लिए प्रायशचित्त का मौका है।
दरअसल हम जनसुनवाई के लिए प्रतिबद्ध हैं।
हमारे गुरुजी ही कहा करते थे कि वर्जनाओं का धमाका होगा तो बवंडर आ जायेगा।इस महादेश में जाति से बड़ा कोई दूसरी वर्जना है ही नहीं।जन्मजात वर्चस्व और तिलिस्म के खिलाफ आजादी के बाद पहलीबार आम जनता में अस्मिताओं को तोड़कर सड़क पर आने की होड़ मची है।
जाति के नाश के लिए,समता और न्याय की मंजिल हासिल करने के लिए भारतीय इतिहास में इससे बड़ा मौका कोई बना हो तो हमें नहीं मालूम।
अब नहीं,तो कभी नहीं।
जो सचमुच इस देश में समता और न्याय के पश्क्षधर लोग हैं और मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ हैं,छोटे मोटे मतभेद , अहम,पुरानी रंजिश और कटुता भूलकर इस बुनियादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए बिना धर्म परिवर्तन के हिंसा और घृणा,रंगभेदी भेदभाव के किलाफ अहिंसा और शांति का व्रगविहीन शोषण विहीन सचमुचे के बौद्धमयभारत के निर्माण के लिए आज उन सबको सड़क पर उतरना ही है।
जो ऐसा ना करके हाथीदाँत के स्वर्णि मीनार में बैठे शोषकों और उत्पीड़कों की गलबहियों में कैद झूठो न्याय की गुहार लगा रहे हैं और समरसता की गंगा बहा रहे हैं,उन्हें बता दें कि जनता जब जागती है तो सारे चुनावी समीकरण फेल हो जाते हैं और किसी को यह समझने में देर नहीं लगती की कातिलों के वार से लहूलुहान इंसानियत के हरे जख्म पर सत्ता के इस मलहम का मकसद क्या है।जो ऐसा कर रहे हैं,उनके चेहरे बेनकाब हैं और वाकई उन्हें उत्पीड़ित जनता के सात खड़ा होना है तो पद वद छोड़कर सत्ता का पैबंद बने रहने के बजाय जनता के लिए सत्ता हासिल करने की लड़ाई में शामिल हों।
आनंद तेलतुंबड़े से भी हमारी रोज लंबी बात हो रही है।
हमारी गुरुजी की तरह उन्हें भी यह डर सता रहा है कि मनुस्मृति तिलिस्म के खिलाफ रोहित वेलुमा के बहाने जो बदलाव की जंग है वह अंततः जातियुद्ध में तब्दील ना हो जाये।
सत्तावर्ग दलित और ओबीसी का जाप करते हुए ऐसा करने की हर चंद कोशिश कर रहे हैं और समता और न्याय की मंजिल कहीं दो कदम दूरी पर ही ठहर ना जाये।
हम सत्तर के दशक के बचे हुए अग्निसाक्षियों में हैंय़उस वक्त शायद ही किसी का कोई जवान दिलोदिमाग पक रही जमीन की आंच से सुलगा ना हो और बदलाव का वैसा ख्वाब सदियों में शायद ही कभी इतने व्यापक पैमाने पर किसी पीढ़ी ने सबकुछ दांव पर लगाकर देखा हो।
जमीन की वह लड़ाई कैसे सत्ता के गलियारों में तब्दील है और कैसे देश के चप्पे चप्पे पर खून की नदियां बहने लगी,कैसे आम जनता की रोजमर्रे की जिंदगी नर्क हो गयी,कैसे लोग जल जंगल जमीनऔर नागरिकता से बेदखल होते चले गये और कैसे हम फिर हजारों हजार ईस्ट इंडिया कंपनियों के गुलाम होते चले गये और मंडल कमंडल गृहयद्ध में देश और जनता का निरंतर बंटवारा हो गया,यह इस जिंदगी का रोजनामचा है जो जिगर के खून से लिखा जाता है।
कायनात और इंसानियत के खिलाफ तमाम कातिलों के खिलाफ लड़ाई उतनी आसान भी नहीं है।
साथी पाला बदलते रहते हैं और मोर्चा टूटता बिखरता रहता है।
जैसा सत्तर के दशक में पूरी की पूरी कई नई पुरानी पीढ़ियों के एकमुश्त जनता के हक हकूक के लिए लामबंद हो जाने के बावजूद हम जाति,मजहब और भाषा के नाम लड़ते लहूलुहान होते रहे और हमने बदलाव के लिए जालिमों के नाम देश के साथ साथ कायनात की तमाम बरकतों नियामतों और रहमतों को लिख दिया,जिनने सबकुछ बेच दिया और अब न संविधान बचा है और न भारत राष्ट्र बचा है।
राष्ट्रवाद के अंध सिपाहियों पहले अपने आस पास टटोलकर तो देखें कि हिंदू हो या ना हो,वह हमारा राष्ट्र भारतवर्ष यहीं कहां को गया है।
राष्ट्रवाद के अंध सिपाहियों पहले अपने आस पास टटोलकर तो देखें कि हिंदू हो या ना हो,उस राष्ट्र के मनाम लिखा हमारा दिलोदिमाग कहां खो गया।
राष्ट्रवाद के अंध सिपाहियों सबसे पहले करचों में तब्दील टुकड़ा टुकड़ा भारतव्रष को जोड़ो फिर राष्ट्र के नाम कुर्बान होने वाले नाम लेने की औकात किसी की होगी,वरना हम वतनफरोशों की फौजे हैं।
जो गलतियां सत्तर के दशक से लगातार लगातार हम करते रहे हैं तो फिर वही इतिहास दोहराया जायेगा,जो साथी एक साथ समता और न्याय के लिए सड़क पर लाठी गोली खाने के तेवर में लामबंद हैं,वे फिर कुरुक्षेत्र में कुरुवंश के आत्मघाती महाभारत में खेत होते रहेंगे और मनुस्मृति राजकाज अबाध होगा।महाविलाप होगा।
हम कतई नहीं मानते कि रोहित वेलुमा के नाम जो तूफां उठा है ,वह दलित आंदोलन है या अपने आप में क्रांति है।
उपलब्धि सिर्फ यह है कि पहली बार हम सुन रहे हैं और देख भी रहे हैंः
रोहित वेमुला अगर एससी है तो भी ओबीसी और एसटी साथ है..
रोहित वेमुला अगर ओबीसी है तो भी एससी और एसटी साथ है..
रोहित वेमुला अगर एसटी है तो भी ओबीसी और एससी साथ है..
रोहित वेमुला अगर भारतीय है तो भी एससी,ओबीसी और एसटी साथ है..
प्रश्न ये उठता है कि रोहित बेमुला अगर एससी है तो हिन्दू है या नहीं?
प्रश्न ये उठता है कि रोहित बेमुला अगर एसटी है तो हिन्दू है या नहीं?
प्रश्न ये उठता है कि रोहित बेमुला अगर ओबीसी है तो हिन्दू है या नहीं?
प्रश्न ये उठता है कि रोहित बेमुला अगर एससी और हिन्दू है तो बजरंग दल कहाँ है?
प्रश्न ये उठता है कि रोहित बेमुला अगर ओबीसी और हिन्दू है तो RSS कहा है?
प्रश्न ये उठता है कि रोहित बेमुला अगर एसटी और हिन्दू है तो भाजपा किधर है?
दलित भेदभाव की जड़ें
रोहित वेमुला जैसी घटना से राष्ट्र को जितनी हानि होती है, उतनी शायद किसी से नहीं। इतनी बड़ी आबादी को दबा कर और अलग करके क्या किसी देश को विकसित और खुशहाल बनाया जा सकता है? दलित अपनी मुक्ति की लड़ाई खुद क्यों लड़ें, बल्कि राष्ट्रभक्ति का भाषण देने वालों को ज्यादा लड़ना चाहिए।
जनसत्ताFebruary 4, 2016 02:14 am
जातीय भेदभाव और महिला उत्पीड़न की आवाज तभी तेज होती है जब कोई घटना घट जाए। रोहित वेमुला की आत्महत्या से देश में उबाल आ गया। जो विरोध कर रहे हैं, ज्यादातर दलित हैं और यह फिर से सिद्ध होता है कि वही अपनी लड़ाई लड़ें। अगर यह राष्ट्रीय मुद्दा बना होता तो क्या भारत हजारों वर्षों तक गुलाम रहा होता? लोग प्राय: अंगरेजों को हमें गुलाम बनाने का दोष देते हैं, लेकिन क्या यह संभव होता अगर हमारे लोगों ने उनका साथ न दिया होता। अंगरेज लाखों में नहीं, हजारों में थे, तो आखिर हुकूमत कैसे कर गए? जातीय विभाजन से राष्ट्रीयता का अभाव रहा, इसलिए लोग सुविधानुसार अपनी सेवाएं अर्पित करते थे। खासकर शोषित जातियों में अपने शासन-प्रशासन का बोध रहा ही न होगा, क्योंकि वे अपने तथाकथित सवर्ण समाज के मारे थे। आश्चर्य है कि इसके बावजूद जो हिंदू समाज के संचालक थे, उन्होंने जातिविहीन समाज बनाने का आह्वान नहीं किया, जो अंतत: किसी भी बाहरी हमले को नाकाम करता है और अब भी यह राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया है। पढ़े-लिखे लोग कहते नहीं थकते कि जाति अतीत की बात हो गई, लेकिन जब शादी के लिए विज्ञापन देते हैं तो जाति के भीतर ही। रोहित वेमुला की घटना के बाद हजारों भेदभाव के मामले उभरे हैं। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी भेदभाव बड़े पैमाने पर दिखने लगा। दिल्ली विश्वविद्यालय हो, आइआइटी या अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, भेदभाव आम है। अपवाद को छोड़ कर शायद ही कोई संस्थान ऐसा है, जो जातीय उत्पीड़न न करे। ऐसे उत्पीड़न होते हैं, जिसका संबंध दूर-दराज तक तथ्यों से भी नहीं होता। एम्स के नर्सिंग कॉलेज की शिक्षिका शशि मावर का उत्पीड़न किया गया कि उनके कारण बीएससी तृतीय वर्ष के छात्र ने आत्महत्या कर ली थी, जबकि वे बीएससी चतुर्थ वर्ष और एमएससी के छात्रों को पढ़ाती थीं। मृतक छात्र से उनका कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन प्रधानाचार्य ने छात्रों को शशि मावर के खिलाफ भड़काया और इसी को आधार बना कर उन्हें दंडित किया। शशि मावर का शैक्षणिक कार्य अच्छा था और उनका चयन सामान्य श्रेणी से हुआ था, यह ईर्ष्या का एक बड़ा कारण था। अधिकतर अनुसूचित जाति/ जनजाति के शोधार्थियों ने उत्पीड़न की शिकायत की है। महिला हों तो शारीरिक शोषण का प्रयास होता है। आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली सरकार की एक दलित शिक्षिका जब कक्षा में पढ़ाती हैं तो डीन आकर बैठ जाते हैं। ऐसे में विद्यार्थी उन्हें क्या सम्मान देंगे। इस दलित शिक्षिका के पढ़ाने के प्रति भी गंभीरता नहीं होगी। अगर दलित शिक्षिका के पढ़ाने के तौर-तरीके ठीक नहीं थे, तो उन्हें अलग से समझाना चाहिए था या छात्रों के ज्ञान के मूल्यांकन के आधार पर आकलन किया जाना चाहिए था। ये भेदभाव करने वाले क्या ईसाई, यहूदी, पारसी, चीनी, अमेरिकी या मुसलिम हैं? राजनीति में इस अहम सवाल को कभी संबोधित नहीं किया गया। जो आरोप मार्क्सवादियों पर लगता है कि उन्होंने विदेशी मॉडल को ज्यों का त्यों भारत के परिप्रेक्ष्य में लागू किया, लगभग वही हम सब पर लगना चाहिए। जनतंत्र को हमने स्वीकार तो किया, जिसका आविर्भाव और विकास यूरोपीय देशों में हुआ था, लेकिन राज्य के कल्याणकारी चरित्र के बाहर नहीं जा सके। यूरोप में सरकारों की जिम्मेदारी रोटी, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान आदि की थी। जब हमने जनतंत्र को अपनाया तो इन समस्याओं के अतिरिक्त सामाजिक भेदभाव को भी ध्यान में रखना चाहिए था। हमने आंख मूंद कर नकल की। राजनीतिक दलों और नेताओं ने जाति तोड़ने की जिम्मेदारी नहीं ली और अंतत: सरकार भी इस मामले में तटस्थ रही। जिस समाज में जातिवाद नहीं था, वहां तो राज्य का चरित्र कल्याणकारी होना ही है, लेकिन हमारे समाज भिन्न हैं। जातीय भेदभाव खत्म करना राज्य के कल्याणकारी चरित्र के केंद्र में होना और सरकार को लगातार इसे संबोधित करना चाहिए था। रोहित वेमुला से भी दर्दनाक घटनाएं हुई हैं, पर जितना मीडिया में कवरेज इसको मिला किसी और घटना को नहीं। गुस्सा, दर्द और आक्रोश जो दबे हुए थे, वे इस घटना के माध्यम से प्रकट हुए। निर्भया की घटना ने दुनिया को झकझोर दिया, लेकिन ऐसा नहीं है कि वैसे जघन्य अपराध पहले न होते रहे हों। महिलाओं पर हो रहे भेदभाव, उत्पीड़न आदि पर जो गुस्सा और दर्द दबा हुआ था वह उस समय प्रकट हो गया था। मीडिया की बड़ी भूमिका रोहित वेमुला की घटना को राष्ट्रव्यापी बनाने में रही। यह भी समय और परिस्थिति की ही देन थी कि मीडिया ने इतनी हवा इस घटना को दे दी। क्या इससे हम मानें कि मीडिया का रिश्ता दर्द का है। जितना मीडिया भेदभाव करती है, उतना कोई और कर ही नहीं सकता। किसी भी राष्ट्रीय अखबार में दलित के बारे में खबर तभी छपती है जब कोई घटना घटित हो जाए जैसे- हत्या, बलात्कार आदि। साल भर के अखबार उठा कर देखें, तो दलित द्वारा लिखा लेख पढ़ने को नहीं मिलेगा। रोहित वेमुला पर मैंने लिखना चाहा तो लगभग सभी अखबारों ने मना कर दिया। इतने भी हम गए-गुजरे नहीं हैं कि लिख नहीं सकते। मीडिया सबसे ज्यादा जातिवादी है। यह तथ्यों के आधार पर कहा जा रहा है। तमाम अखबार और चैनल वार्षिक सम्मेलन करते हैं, जिसमें देश-विदेश से अतिथि और वक्ता बुलाए जाते हैं, लेकिन दलित को आमंत्रित नहीं किया जाता। दलित-आदिवासी की आबादी लगभग तीस करोड़ है। क्या पूरे देश से दो-चार भी नहीं होंगे, जो इनके वार्षिक सम्मेलन में विचार न रख सकें या मान लिया गया है कि इनके पास विचार होते ही नहीं। भेदभाव की जड़ें इतनी गहरी हैं कि जिन क्षेत्रों में दलितों और पिछड़ों की पारंगतता यानी उपलब्धि खास न हो, उन्हीं पर चर्चा और पुरस्कार आयोजित होते हैं, ताकि इन्हें बाहर रखा जा सके। चूंकि भारतीय समाज पेशे पर आधारित रहा है, इसलिए दलित-पिछड़े उन्हीं क्षेत्रों में माहिर हो सकते हैं, जो सदियों से करते आ रहे हैं। सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की कई सालों से उस समय भरमार हो जाती है जब छब्बीस जनवरी को पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, घोषित होते हंै। दलितों-पिछड़ों को पुरस्कार नहीं मिलते, तो सोशल मीडिया के माध्यम से ही उनका गुस्सा फूटता है। सारे इंजीनियरिंग आदि विषय दूसरे देशों में क्यों विकसित हुए? इसलिए कि जो हाथ चमड़ा, बर्तन, लोहा, कपड़ा आदि में सने, उनको सम्मान दिया गया। ये हाथ फिर पे्ररित हुए, आगे और अच्छा करने का सोचा और धीरे-धीरे तमाम तकनीक और नई खोजें विकसित कर ली। उन्हीं ने आगे विषय, संस्थान और डिग्री का रूप धारण किया। उदाहरण के लिए हमारे यहां जिन्होंने चमड़े के क्षेत्र में काम किया, उन्हें सम्मानित करने के बजाय अछूत का दर्जा दिया गया तो वे कैसे प्रोत्साहित होकर आगे तकनीक विकसित या शोध करते? तथाकथित राष्ट्रभक्तों से कहना है कि रोहित वेमुला जैसी घटना से राष्ट्र को जितनी हानि होती है, उतनी शायद किसी से नहीं। इतनी बड़ी आबादी को दबा कर और अलग करके क्या किसी देश को विकसित और खुशहाल बनाया जा सकता है? दलित अपनी मुक्ति की लड़ाई खुद क्यों लड़ें, बल्कि राष्ट्रभक्ति का भाषण देने वालों को ज्यादा लड़ना चाहिए। दलित-पिछड़े हजारों वर्षों से अभाव की जिंदगी जीने के आदी हो गए हैं, तो आगे भी बर्दाश्त करने की क्षमता रखते हैं, लेकिन क्या हमारा देश दौड़ में उन देशों के साथ भाग सकता है, जो विकसित हो गए हैं या उस लक्ष्य को प्राप्त कर रहे हैं। यह गारंटी है कि इतनी बड़ी आबादी को काट कर देश को विकसित नहीं किया जा सकता। अतीत से हमने कुछ नहीं सीखा है। सिकंदर ने 327 ईसा पूर्व में भारत पर हमला किया और आसानी से जीत हासिल कर ली। उसके बाद हमले-दर-हमले होते रहे और हम परास्त। यह नहीं कि हमारी बाजुओं में दम नहीं था या बुद्धि की कमी थी। कारण यह था कि हम जातियों में बंटे थे। अंगरेजों ने तो हमें दो भागों में बांटा, लेकिन हमने अपने आप को जाति के आधार पर हजारों टुकड़ों में बांट रखा है। जो राष्ट्रभक्त होने का दंभ भरते हैं, उन्हें दलितों से भी आगे आकर रोहित वेमुला जैसे मामले को उठाना चाहिए, लेकिन करते हैं दिखावा, क्योंकि लेना है वोट और प्राप्त करना है अपनी प्रसिद्धि, ज्ञान और धर्मादा क्षेत्र में प्रभुत्व। (लेखक भाजपा के सांसद हैं)
Feb 04 2016 : The Economic Times (Kolkata)
CITING COPYRIGHT, GRANDSON BLOCKS REPRINTING - Ambedkar Works' Print Hits IPR Wall
Nidhi Sharma & Akshay Deshmane |
New Delhi: |
Prakash Ambedkar refuses to part with copyright saying BJP governments represent anti-Ambedkarites
The grand plan of the Modi government to print the original collected works of Dr Bhimrao Ambedkar as part of its 125th birth anniversary celebrations has run into a copyright wall. As the Centre struggles to meet the self-imposed deadline of April 16, when the yearlong birth anniversary celebrations culminate, it is facing stiff opposition from Babasaheb's grandson Prakash Ambedkar who has refused to allow printing of the original collected works in English.
Prakash Ambedkar, who has the copyright for Babasaheb's original collected works written in English and Marathi, has been embroiled in a copyright battle with Maharashtra government for several years.Maharashtra government had entered into an agreement with Prakash Ambedkar to publish "Sampoorn Dandmay" or Collected works of Dr Ambedkar but the ag reement had lapsed in the 1990s.Even as the state government was trying to settle differences with P r a k a s h Ambedkar over an agreement, it al lowed Ambedkar Foundation under the social justice and empowerment ministry of the Centre to re-publish copies of the collected works in 2013.About 1,000 copies were printed by Ambedkar Foundation before it was stopped from printing in 2014. The state's Dr Babasaheb Ambedkar Source Material Publication Committee raised objections to Maharashtra giving permission to the Centre. Since then the Centre has not been allowed to publish the works. The social justice and empowerment ministry, which is spearheading the translation and printing initiative as a part of the birth anniversary celebrations, has written at least 12 letters to Maharashtra government over the last one year to persuade the state.Speaking to ET Prakash Ambedkar said, "Since I am holding the copy right, it's only for me to decide whether or not to give the copyright. I have not given rights to anyone (right now). They are doing anti-Ambedkarite work..." Suspecting the motives of the BJP and RSS, Prakash Ambedkar said, he won't forget "history" where the Ambedkarties were pitted against the BJP and RSS."When it (Ambedkar's complete works) were being published, during Shankarrao Chavan's time, they were against us, we are not going to forget that. It was the BJP and RSS who were against it," he said.
Documents accessed by ET under multiple RTI applications show the Centre has been repeatedly seeking permission to print the complete wo rk s o f A m b e d k a r s i n c e September 2014 from the M a h a r a s h t r a g o ve r n m e n t .Therefore it was decided to take legal opinion in such matters. So you are requested to stop reprinting of the said material and any other action related to this case immediately."
Social justice and empowerment minister Thaawar Chand Gehlot has spoken and written letters to Prakash Ambedkar and Maharashtra CM to impress on the urgency . Correspondence accessed through RTI reveals that Gehlot has written multiple letters--almost one each month--to for mer Maharashtra CM Prithviraj Chavan and, after him, Fadnavis. He has repeatedly requested them to grant a No Objection Certificate for publishing the collected works in English.
If the permission does not come by April, the Centre would have to wait till January 2017 when Babasaheb's collected works would be free of the copyright constraints.
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