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Tuesday, January 12, 2016

कैसा हो नए साल का भारत -राम पुनियानी

12 जनवरी 2016

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कैसा हो नए साल का भारत

-राम पुनियानी


नए साल (2016) में सब कुछ अच्छा हो, यह आशा करते हुए भी, यह आवश्यक है कि हम गुज़रे साल की घटनाओं को याद करें, विशेषकर उन घटनाओं को, जिनका असर आने वाले समय में भी जारी रहेगा। पिछले साल हमने देखा कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने आरएसएस के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे को लागू करने का हर संभव प्रयास किया। साध्वियों, साक्षीयों और योगियों के वक्तव्यों ने फिज़ा में अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा घोली। चाहे मसला गौमांस का हो, लवजिहाद का या तर्कवाद का-इन तत्वों ने भारतीय प्रजातंत्र, भारतीय संविधान के सिद्धांतों और सामाजिक सद्भाव को गहरी चोट पहुंचाई। अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव बढ़ा और इसके अनेक कारणों में से कुछ थे योगी आदित्यनाथ के घृणा फैलाने वाले भाषण, गिरिराज सिंह का यह वक्तव्य कि जो लोग मोदी को वोट देना नहीं चाहते वे पाकिस्तान चले जाएं और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की गौमांस खाने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह आदि। यह साफ है कि शासक दल, धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ समाज में व्याप्त घृणा को ओर बढ़ाना चाहता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में, हिंदू राष्ट्रवादियों का कुरूप चेहरा तब सामने आया जब किरण मजूमदार शॉ, नारायणमूर्ति और रघुराम राजन के स्वर में स्वर मिलाते हुए, शाहरूख खान ने कहा कि समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है। जब आमिर खान ने अपनी पत्नी किरण राव की यह आशंका सार्वजनिक की कि वे देश में स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही हैं, विशेषकर उनके पुत्र के संदर्भ में, तब पूरे देश में मानो बवाल मच गया। उनकी निंदा करने वाले बयानों की बाढ़ आ गई। जब शिष्टाचारवश शाहरूख खान ने अपने कथन के लिए क्षमा प्रार्थना की तो भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि (हिंदू) राष्ट्रवादियों ने नालायकों को सबक सिखा दिया है। यह घटनाक्रम, मोदी सरकार और संघ परिवार द्वारा देश में निर्मित वातावरण का नतीजा था। इसके समानांतर, लेखकों, कलाकारों, फिल्म निर्माताओं, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा उनको मिले पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला जारी रहा। इसकी भी कड़ी निंदा की गई और पुरस्कार लौटाने वालों का मखौल बनाया गया। ऐसा करने वालों में तथाकथित कट्टर तत्व और सोशल मीडिया में सक्रिय उनके अनुयायी शामिल थे।

इस पृष्ठभूमि में, बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे हवा के एक ताज़ा झोंके की तरह आए। प्रधानमंत्री मोदी ने इस चुनाव में विजय प्राप्त करने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया था। उन्होंने जाति और सांप्रदायिकता का कार्ड जमकर खेला। परंतु बिहार की जनता, जिसने कुछ वर्षों पहले आडवाणी के रथ को रोका था, उन मूल्यों को बचाने के लिए आगे आई जिन्हें देश ने स्वाधीनता आंदोलन के ज़रिए हासिल किया है। चुनाव नतीजों ने न केवल मोदी की घृणा की राजनीति के गुब्बारे की हवा निकाल दी बल्कि इससे अल्पसंख्यकों, और उन लोगों, जो उदारवादी और प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं, में एक नई आशा का संचार हुआ। इसके बाद पुरस्कार लौटाने का सिलसिला थम गया और घृणा फैलाने वाले लंबी छुट्टी पर चले गए।

बिहार के चुनाव नतीजों ने बहुवाद में आस्था रखने वाली शक्तियों को एक होने की प्रेरणा दी। यह प्रक्रिया चुनावी मैदान के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी शुरू हुई और प्रतिबद्ध समूहों और व्यक्तियों ने ''आईडिया ऑफ इंडिया'' की रक्षा के लिए मिलजुलकर अभियान चलाने की कोशिशें शुरू कीं। इसने समाज और विशेषकर बौद्धिक/सामाजिक कार्यकर्ता वर्ग को इस विषय पर आत्मचिंतन करने के लिए मजबूर किया कि उन शक्तियों से कैसे मुकाबला किया जाए जिन्होंने अल्पसंख्यकों का दानवीकरण और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर देश में असहिष्णुता का वातावरण निर्मित कर दिया है। देश के बौद्धिक वर्ग को शनैः शनैः यह अहसास हो रहा है कि केवल चुनावों में भाजपा को पराजित करने से हम हमारे देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था की रक्षा नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यक है कि हम सामाजिक स्तर पर भी कार्य करें और विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच एकता कायम करने के लिए, उसी तरह के मुद्दों को ढूढें, जिस तरह के मुद्दों का इस्तेमाल सांप्रदायिक ताकतों ने समाज को धर्म के आधार पर विभाजित करने के लिए किया है।

सन 2016 में विघटनकारी शक्तियां अपनी बेजा हरकतों से बाज़ आ जाएंगी, यह मानने का कोई कारण नहीं है। पिछले वर्ष हमने देखा कि हिंदुत्व की शक्तियों ने किस तरह दलितों और आदिवासियों को अपने झंडे तले लाने का प्रयास किया। सांप्रदायिक ताकतें, भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव बाबासाहेब अंबेडकर पर कब्ज़ा करने की कोशिश भी कर रही हैं। दलितों और आदिवासियों का एक बड़ा तबका और समाज के वंचित वर्गों की बेहतरी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी, इस तथ्य से अनजान नहीं हैं और वे यह प्रयास कर रहे हैं कि हिंदू राष्ट्रवादियों को आंबेडकर की शिक्षाओं को तोड़ने मरोड़ने का अवसर न दिया जाए। आने वाला साल, धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के लिए आशाओं से भरा है। उन्हें यह उम्मीद है कि समाज उनके साथ अधिक गरिमापूर्ण और मानवीय व्यवहार करेगा।

आर्थिक क्षेत्र में यह सरकार सामाजिक सुरक्षा व कल्याण की योजनाओं से अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है। इससे समाज के हाशिए पर पड़े तबकों की मूल आवश्यकताएं पूरी होने में बाधा आ रही है। ऐसे प्रयास किए जाने की जरूरत है कि भोजन का अधिकार, रोज़गार का अधिकार, सूचना का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार व शिक्षा का अधिकार सभी को उपलब्ध हो सके। सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपनी कमर कसकर ऐसे अभियान और आंदोलन चलाने चाहिए, जिनसे सरकार इन अधिकारों को देश के सभी नागरिकों को देने के लिए बाध्य हो जाए। सामाजिक आंदोलनों को ऐसे मंचों का निर्माण करना चाहिए, जहां से एकजुट होकर ये मुद्दे उठाए जाएं और समाज के कमज़ोर वर्गों के सशक्तिकरण की प्रक्रिया को गति दी जाए।

विघटनकारी राजनीति, अंततः, एकाधिकारवाद की ओर ले जाती है। 'महान नेता' के हाथों में शक्ति के केंद्रीयकरण को रोकने का एक प्रभावी तरीका यह है कि समाज के कमज़ोर वर्गों के अधिकारों की संरक्षा के लिए चलाए जा रहे अभियानों को और गहरा व व्यापक बनाया जाए। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि इस नए वर्ष में हम देश की राजनीति की दिशा को बदलें। हमें मोदी सरकार द्वारा प्रायोजित विघटनकारी सांप्रदायिक और एकाधिकारवादी एजेंडे को नकारना है। यह सरकार, प्रतिगामी हिंदू राष्ट्रवाद का राजनैतिक मुखौटा है, जिसका उद्देश्य स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और हमारे संवैधानिक सिद्धांतों को कमज़ोर करना है। जहां एक ओर यह सरकार 'संविधान दिवस' मना रही है वहीं वह भारतीय संविधान को कमज़ोर करने के लिए हर संभव प्रयास भी कर रही है। हमें उम्मीद है कि 2016 में समावेशी राजनीति की जड़ें गहरी होंगी और वर्तमान सरकार की संकीर्ण राजनीति पर रोक लगेगी। आइए, हम यह प्रयास करें कि इस साल हम महात्मा गांधी की विचारधारा, अंबेडकर के मूल्यों और जवाहरलाल नेहरू के सिद्धांतों को मज़बूती दें। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

संपादक महोदय,                  

कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।


- एल. एस. हरदेनिया


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