Friday, August 9, 2013

खोज खेवनहार की

खोज खेवनहार की

Friday, 09 August 2013 10:57

उर्मिलेश 
जनसत्ता 9 अगस्त, 2013: अपनी नीतियों और आचरण से राजनेताओं ने समाज के बड़े हिस्से को अलग-अलग तरह से निराश किया है।

आर्थिक सुधारों के दौर में तेजी से फैला खुशहाल शहरी मध्यवर्ग इस बात से बेचैन है कि उसके नेता और केंद्र-राज्य की सरकारें उसे देश के अंदर कैलिफोर्निया या न्यूयार्क जैसा माहौल क्यों नहीं देतीं! सरकार और नेताओं से बड़े पैमाने पर रियायतें पाने के बावजूद कॉरपोरेट का बड़ा हिस्सा इस बात से नाराज है कि उसे सरकारी नियम-कानून से पूरी तरह मुक्त क्यों नहीं किया जाता! आम लोग आक्रोश में हैं कि नेता और शासन उनके वोट से बनते और चलते हैं, पर इस व्यवस्था में सबसे उपेक्षित वहीं हैं। छियासठ साल बाद भी लोगों के बुनियादी मसले हल नहीं हुए। 
इन तीनों श्रेणियों में एक अच्छा-खासा हिस्सा आज नौकरशाही, सेना, निरंकुश और सांप्रदायिक सोच के नेताओं या फिर सिविल सोसायटी के नाम पर प्रकट हुए कुछ लोगों की तरफ आशा भरी नजर लगाए हुए है। जिनमें संभावना तलाशी जा रही है उनमें कुछ बहुत सुचिंतित और संतुलित किस्म के लोग हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं। पर ज्यादातर निहायत असंतुलित और यहां तक कि गैर-जनतांत्रिक मिजाज वाले हैं, जो भारत की हर समस्या के समाधान के लिए सैन्य-शासक या किसी 'ईमानदार तानाशाह' के सत्तारोहण को जरूरी बताते रहते हैं। 
इस दौर में न कोई नया जनप्रिय नेतृत्व सामने आ रहा है और न ही बदलाव का कोई बड़ा आंदोलन फूट रहा है। हाल के दिनों में जो आंदोलन सामने आए, उन्होंने कोई सार्थक राजनीतिक विकल्प नहीं पेश किया। ऐसे में लोगों को एक आसान-सा रास्ता दिख रहा है। वे गैर-राजनीतिक या राजनीति-विरोध के नाम पर तरह-तरह की सनक दिखाने वाली ताकतों के बीच देश की डगमगाती नैया का खेवनहार खोज रहे हैं। 
सन 66-67 के दौरान भी देश और राज्यों में तत्कालीन प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व से गहरी नाराजगी दिखी थी। ऐसा लगा, मानो आजादी के बाद जो लोग सत्ता चला रहे थे, उनसे जनता का मोहभंग हो गया हो। लेकिन तब लोगों के पास वैकल्पिक नेतृत्व के भरोसेमंद चेहरे भी थे। कई राज्यों में कांग्रेस को शिकस्त देकर संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं। यही हाल आपातकाल के दौर में दिखा, पहले से चल रहे बिहार और गुजरात के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने जल्दी ही पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। जेपी के नेतृत्व में युवाओं, समाजवादियों, कांग्रेस के असंतुष्टों और आपातकाल-विरोधी सोच के अन्य राजनीतिक गुटों का ध्रुवीकरण सामने आया। जनता पार्टी अस्तित्व में आई। लोगों ने नई पार्टी की तरफ आशा के साथ देखा। मगर कुछ ही समय बाद 'दूसरी आजादी' का उद्घोष व्यर्थ लगने लगा। लोगों को गहरी निराशा हुई। 
कुछ समय बाद फिर एक नई संभावना नजर आई। शीर्ष स्तर के भ्रष्टाचार से लड़ रहे लोगों का एक बड़ा तबका सन 1989-90 के दौर में सामाजिक न्याय और समान विकास के मुद््दे पर आंदोलित हुआ। फिर एक नए किस्म का नेतृत्व सामने आया। पर वह जल्दी ही अपनी चमक खो बैठा। 1991 के बाद राजनीति में बिल्कुल नया मोड़ आया। उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के रूप में। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर चीजें तेजी से बदलीं और राजनीति के मुहावरे भी। सत्ताधारी नेताओं ने अपना एजेंडा जनता पर आसानी से थोप दिया। कई दशकों से 'हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान' और 'स्वदेशी' का जाप करते आए दक्षिणमार्गी संघ-भाजपा वालों की सरकार आई तो उन्होंने राष्ट्रीय संपदा और उपक्रमों को देशी-विदेशी निजी हाथों में बेचने के लिए बाकायदा एक नया मंत्रालय बनाया- विनिवेश मंत्रालय। 
भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, जनता दल (एकी), तेलुगू देशम पार्टी, बीजू जनता दल और अन्नाद्रमुक समेत तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों को नई संस्कृति ने प्रभावित किया है। हर दल में ऐसे नेताओं की बाढ़-सी आ गई है, जिनका लगाव किसी विचार, जनता, समाज और यहां तक कि अपने दल से ज्यादा अपने-अपने कॉरपोरेट-समूहों और निजी स्वार्थों से है। यह प्रक्रिया प्रौढ़ होकर इन तमाम दलों का अंदरूनी सच बन चुकी है और नेतृत्व-शून्यता का बड़ा कारण यही है। जनता की नजर में सब एक जैसे लगने लगे हैं। 
समाज पर इसका असर भी दिख रहा है। कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो आमतौर पर लोगों ने नेताओं और दलों पर भरोसा करना छोड़ दिया है। वोट देकर वे अपने कर्तव्य का पालन कर लेते हैं, लेकिन कोई आशा नहीं रखते। यह स्थिति बेहद खतरनाक है और टेढेÞ-मेढ़े रास्ते पर चलते हमारे जनतंत्र के लिए बड़ी चुनौती भी। 
लोग बेहतर नेता और कारगर राजनीति की तलाश कर रहे हैं, पर उनके सामने कोई विकल्प नहीं है। कद््दावर नेताओं का अभाव है। सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों में विकल्पहीनता की स्थिति है। ताकतवर कॉरपोरेट घराने खुलेआम मंत्री और मुख्यमंत्री बनवा-हटवा रहे हैं। 
हाल के दिनों में मध्यवर्ग और मुख्यधारा मीडिया के बड़े हिस्से ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं, सितारा-खिलाड़ियों, अपने काम या विवाद के चलते चर्चा में आए नौकरशाहों, आइटी और सॉफ्टवेयर के कामयाब कारोबारियों या किसी प्राकृतिक आपदा में राहत-बचाव कार्य में जुटने वाले सैन्य अधिकारियों को ही समय-समय पर नायकत्व प्रदान किया है। इन सबके नाम और काम को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता, पर राजनीति और समाज-निर्माण के नायक कहां हैं? 

मीडिया की सीमा यह है कि वह हमेशा अलग-अलग क्षेत्र के 'सितारे' या 'सेलिब्रिटीज' खोजता रहता है, परिवर्तनवादी या आंदोलनकारी नहीं। हमारे विशाल मध्यवर्ग के मानस में नेताओं के मुकाबले नौकरशाह, सैन्य कमांडर, कामयाब कारोबारी, सितारा खिलाड़ी या पुनरुत्थानवादी किस्म के लोगों को ही नायक के तौर पर बसाने के पीछे यही वजह है। हम अपने चंद ईमानदार अफसरों या जान हथेली पर रख कर हर तरह के संकट में कर्तव्यनिष्ठ होकर काम करने वाले सैनिकों को कतई कम करके नहीं आंक रहे हैं, न तो अण्णा हजारे जैसों के काम की महत्ता कम कर रहे हैं। पर वे राजनीतिक तंत्र या राज-नेतृत्व का विकल्प नहीं हो सकते। 
हिंदीभाषी इलाका, जहां अतीत में एक से बढ़ कर एक बड़े नेता पैदा हुए, आज वहां दूरदर्शी नेतृत्व का सख्त अभाव है। उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय के स्वघोषित दूतों की कारगुजारियों से उनका नायकत्व अब खलनायकत्व में तब्दील हो गया है। बंगाल में टकराव की राजनीति सबसे तीखी है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में धन की ताकत अपरंपार है। ले-देकर केरल की राजनीति अब भी औरों से बेहतर दशा में है। लंबे अरसे बाद, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कर्नाटक शासन को मुख्यमंत्री के रूप में एक जनपक्षी नेता मिला है। पूर्वोत्तर के राज्यों में त्रिपुरा और मिजोरम को छोड़ दें तो शेष राज्यों का हाल बहुत बुरा है। 
झारखंड अपनी स्थापना के समय से अब तक राजनीति और राज-काज का कोई कारगर तंत्र नहीं विकसित कर सका। कई मौकों पर वह राज्यविहीनता की स्थिति में चला जाता है। और छत्तीसगढ़ जैसे नए सूबे में सर्वदलीय (भाजपा-कांग्रेस) नेतृत्व के मुकाबले जनतांत्रिक धारा से किसी संगठन या नेता का चेहरा नहीं उभरता; सामने आते हैं माओवादी! लेकिन माओवादियों के पास अब तक समाज और तंत्र की रचना का कोई सुचिंतित, जनवादी या मानवीय विकल्प नहीं नजर आया। अपेक्षया छोटे-से त्रिपुरा में मानिक-शासन की कामयाबी को छोड़ दें तो पारंपरिक वामपंथ राष्ट्रीय राजनीति में अपनी वैचारिक तेजस्विता खो चुका है। 
महज दो-ढाई दशक पहले देश के कई इलाकों में सामाजिक न्याय की लड़ाई तेज हुई थी। ऐसा लगा था कि भारत की राजनीति और अर्थतंत्र में समावेशी विकास और सकारात्मक कार्रवाई (एफर्मेटिव एक्शन) का नया दौर शुरू होने वाला है। यही धारा वामपंथियों के साथ मिल कर राजनीति और शासन के कॉरपोरेटीकरण-निगमीकरण के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ सकती थी। पर जल्दी ही इस महान संभावना का असमय अंत हो गया। सामाजिक न्याय के इन दूतों को जल्दी ही करोड़पति-अरबपति बन कर सत्ता-सुख भोगते और अपनी राजनीतिक विरासत के तौर पर अपने परिजनों को आगे करते देखा गया। इनके राजनीतिक-वैचारिक पराभव की जमीन से ही भगवा-ब्रिगेड का सुदृढ़ीकरण हुआ। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि बीते दो दशक के दौरान राजनीति, सत्ता और कॉरपोरेट का गठबंधन बेहद मजबूत हुआ है। यह संयोग नहीं कि इसी दौर में राजनीति धनवानों के धंधे के रूप में तब्दील हुई है। किसी आम कार्यकर्ता के लिए सिर्फ अपने काम के बल पर चुनाव जीतना असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल हो गया है। न तो उसे पार्टियों का टिकट मिलेगा और न ही जनता का समर्थन! 
राजनीतिक दलों में नया नेतृत्व दो ही तरीके से पैदा हो रहा है, परिवार के रास्ते या कॉरपोरेट के। क्या जनता इस दुरभिसंधि को तोड़ने के लिए स्वयं इसके मायाजाल से मुक्त हो सकेगी? किसी बड़े जन-आंदोलन या जन-जागरण के बगैर क्या यह संभव होगा? 
यह भी अनायास नहीं कि ज्यादातर बड़े दलों के बड़े नेता अक्सर कहते रहते हैं कि सरकार का काम आर्थिक कारोबार करना नहीं, सिर्फ सरकार चलाना है, आर्थिक कारोबार निजी क्षेत्र का दायरा है। क्रोनी-पूंजीवादी सिद्धांतकार बहुत पहले से यह बात कहते आ रहे हैं। आज के नेता तो सिर्फ उसे दुहरा रहे हैं। लेकिन भारत जैसे महादेश में जहां अभी गरीबी, असमान विकास और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी बड़ी आर्थिक-राजनीतिक समस्याओं को हल करना बाकी है, इस तरह के सोच और समझ की सीमाएं तुरंत सामने आ जाती हैं। 
क्या करोड़ों गरीबों की भूख, बीमारी और बेरोजगारी के समाधान का देशी-विदेशी कॉरपोरेट के पास कोई प्रारूप है? क्या पांच सितारा निजी अस्पतालों से देश की बदहाल बड़ी आबादी की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं? क्या पब्लिक स्कूल के नाम पर चल रहे निजी स्कूलों या विश्वविद्यालयों से गांव-कस्बों, छोटे-मझोले शहरों या महानगरों के गरीबों के बच्चों को शिक्षित किया जा सकेगा? जब तक राजनीति का मौजूदा ढर्रा, योजनाओं का स्वरूप और शासन का चेहरा नहीं बदलता, ये सवाल सुलगते रहेंगे। इस सवाल से ही जुड़ा है राजनीतिक नेतृत्व का भविष्य भी। इससे रूबरू हुए बगैर राजनीति की मैली चादर उजली नहीं होगी और न तो नए महानायक उभरेंगे!

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