'अमेरिका हो जाने' का मिर्गी रोग
By 24/06/2013 14:44:00
उदारीकरण के बीस साल का सफर पूरा हुआ। बीस साल बाद हम कहां खड़े हैं? रुपया रसातल में गिरा जा रहा है और ऐतिहासिक रूप साठ रूपये प्रति डॉलर का पैमाना पार करने को है। अमीरी की बाढ़ के साथ साथ गरीबी का सूखा भी निरंतर फैलता जा रहा है। यह सब उस मनमोहन सिंह के राज में हो रहा है जिन्होंने १९९१ में इस देश की अर्थव्यवस्था को एक 'एंटीबायोटिक' दिया था। वह एंटीबायोटिक था बाजारवादी पूंजीवाद। इस पूंजीवाद ने इस देश के जनमानस को 'पैसा माई, पैसा बाप, पैसा हरे शोकसंताप' की कहावत का अमलीकरण करना परमधर्म सिद्ध कर दिया।'
नई एंटीबायोटिक
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आई अर्थव्यवस्था की इसी 'एंटीबायोटिक' को हिंदुस्तान में हर राजनीतिक दल चुनाव जीतने का मूलमंत्र मानता है। चूंकि डॉ. मनमोहन सिंह कांग्रेस पार्टी के 'सीईओ पीएम' (चीफ एक्जिक्यूटिव प्राइम मिनिस्टर हैं) जिसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं और जिसके वाइस प्रेसीडेंट एंड मैनेजिंग डाइरेक्टर पद पर राहुल गांधी हैं। ब्रांड एंबेसडर प्रियंका गांधी-रॉबर्ट वड्रा हैं। सो, कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से इस 'एंटीबायोटिक' को अमरबूटी मानने की अपेक्षा सहज है। भारतीय जनता पार्टी को साम्यवादी जनसंघ के दिनों से अमेरिकावादी करार देते आए हैं। भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 'स्वदेशी' का पैरोकार रहा हो और कांग्रेसी यशवंत सिन्हा द्वारा लिखे गए बजट को स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक एस. गुरुमूर्ति द्वारा 'ड्राफ्टेड' करार देते रहे हों, पर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार अपने १९९८ से २००४ के बीच के स्थायी शासनकाल में भी इसी 'एंटीबायोटिक' से हासिल उपलब्धियों को 'शाइनिंग इंडिया' का कारक करार देकर जनता से 'फील गुड' की अपेक्षा कर रही थी।
मुसलमानों का ध्रुवीकरण
नरेंद्र मोदी के २००२ के गुजरात शासनकाल के प्रथम 'टेलिवाइज्ड' दंगों से गुजरात की हालत देख देश भर का मुसलमान पहली बार कांग्रेस की ओर पूर्ण ध्रुवीकृत होने को तैयार हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन में तब अकेले नीतिश कुमार ही नहीं बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एक कौमी यात्रा ही देश भर में चल रही थी। सो, मुसलमान मोदी से डरा और हिंदू 'कौमी यात्रा' और बाजार में व्याप्त 'फील गुड' से 'फील बैड' करने लगा। भाजपा की सरकार जब केन्द्र में थी उसी समय पश्चिम बंगाल और केरल का कम्युनिस्ट नेतृत्व बदला। केरल में नयनार की जगह अच्युतानंदन आ गए तो पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की कुर्सी पर बुद्धदेव भट्टाचार्य बैठ गए। इस परिवर्तन में साम्यवादियों को अमेरिकी बाजारवाद का मुरीद चीन के रास्ते बनता देखा गया। बुद्धदेव भट्टाचार्य को यदि २००४ के लोकसभा चुनावों में मोदी विरोधी मुस्लिम ध्रुवीकृत वोटों के मिले मलीदे के सरक जाने का भय न होता तो वह पोलित ब्यूरो में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने का प्रस्ताव रख देते। मेरे अनुमान को काल्पनिक समझनेवालों को सुधींद्र कुलकर्णी से कुरेद कर पूछने की देरी है। विदेशी निवेश पर बुद्धदेव नरेंद्र मोदी से कम फिदा कभी नहीं रहे।
लाल भाइयों की आपत्ति
साम्यवादी 'भद्रलोक' ममता बनर्जी के समर्थन में बुद्धदेव की बाजारवादी पूंजीवाद के खिलाफ ही तो गया था। रतन टाटा को अपनी नैनो के लिए बंगाल के बाद गुजरात पसंद आया। टाटा के खिलाफ बंगालियों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया तो गुजरात में जहां नैनो का प्रोजेक्ट आया उस इलाके के गुजरातियों ने बीते चुनाव में कांग्रेस को वोट डाला है। मोदी की सांप्रदायिक 'आइडियोलॉजी' पर लाल भाइयों को आपत्ति होगी। अर्थ तंत्र पर उनका सैद्धांतिक विरोध कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्रों और विपक्ष में बैठने पर वक्तव्यों में तो नजर आता है पर जब वे इक्कीसवीं सदी में बंगाल या केरल की सरकार चलाते हैं तो आर्थिक नीतियों में यही विरोध गायब रहता है। चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, करुणानिधि/जयललिता, मायावती/मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव/नीतिश कुमार किसी को भी पूंजीवाद के आर्थिक वृद्धि के दर के फॉर्मूले का ढिंढोरा पीटने में एलर्जी नहीं। नीतिश कुमार के ड्राइंग रूम पॉलिटिक्स करनेवाले प्रवक्ता भले 'बिहार मॉडल ऑफ इकोनॉमी' बताकर उसे गुजरात से बेहतर कह रहे हों, पर सच यही है कि नीतिश के आर्थिक मार्गदर्शक एन.के. सिंह गुजरात के विश्व बैंकवाले मॉडल से कोई अलग मॉडल दिखा नहीं सकते।
`अमेरिका लग जाने' का रोग
इसलिए हर कोई जानता है कि विश्व बैंक के कर्मचारी डॉ. मनमोहन सिंह ने हिंदुस्तान में १९९१ में जो पूंजीवादी बाजारवाद लाया था और जिसे अर्थतंत्र की अमरबूटी मनवाया था वह अब देश को 'अमेरिका लग जाने' की महामारी का शिकार बना चुका है। अमेरिका को १९८० में रोनाल्ड रेगन ने कल्याणकारी पूंजीवाद से बाजारवाद के हवाले किया था। अमेरिका वह देश है जिसमें बसनेवाले यूरोपीय मूल के लोगों ने अपने अतीत से और अपनी जड़ों से अपने को काट लेने में ही अपनी जीत देखी, अपना भविष्य देखा। अमेरिका में बड़ी आबादी उन प्रोटेस्टंटों की है जिनके पूर्वज कैथलिकों के अत्याचारों से बच निकलने के लिए अमेरिका भागे थे। उन्होंने जब यूरोप से अपना रिश्ता तोड़ा तो साथ-साथ सामंतशाही से भी मुक्ति पा लेने में भला माना। जो ब्रिटेन से भागे थे अठारहवीं सदी में उन सबने ब्रिटिश ताज से रिश्ता तोड़ दिया। लोकतंत्र ने अमेरिका को नई सीमा और नए तथा बेहतर घर की तलाश को जीवन मंत्र बना दिया। वह जड़ों से कटकर, सामंतशाही और पंथीय कट्टरता के प्रहार से मुक्त होकर गतिशील बन गया। इस गतिशीलता ने उसे इतना बल दिया कि एक-डेढ़ सदी बीतते-बीतते कंजर्वेटिव ब्रितानी अमेरिकी रिपब्लिकन रोनाल्ड रेगन के पीछे मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में अमेरिका के बाजारवादी पूंजीवाद के अनुगामी बन गए। इस गोलबंदी ने यूरोप को अपने जबड़े में लिया, सोवियत साम्यवाद और चीनी माओवाद को पराभूत कर १९९१ में विश्व बैंक, इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड (आईएमएफ) संचालित ऐसी व्यवस्था दी कि पूरी दुनिया इस बाजारवाद की अनुचर बन बैठी। बाजारवाद की बुनियाद गतिशीलता है। इसमें पैसा इंसान गति से हटा तो दुर्गति भुगतने को अभिशप्त होता है। सो, इस 'अमेरिका लग जाने' के रोग का शिकार आम आदमी एक जगह से दूसरी जगह, एक नौकरी से दूसरी नौकरी, एक फैशन से दूसरे फैशन, एक शौक से दूसरे शौक, एक जीवन साथी से दूसरे जीवनसाथी, एक विचार से दूसरे विचार, एक पार्टी से दूसरी पार्टी की निरंतर यात्रा करता है। इस व्यवस्था में रुचि से गतिशील और विचारों से लचीला होना सफलता का मूलमंत्र है।
सिखों का कत्ल
डॉ. मनमोहन सिंह अगर विचारों से लचीले नहीं होंगे तो वह १०,००० सिखों की सांप्रदायिक कत्ल के मुजरिम संगठन को 'सेकुलर' कैसे ठहराएंगे? प्रकाश सिंह बादल को तो सिखों से वोट लेना है, उनसे रिश्ता-नाता रखना है, गुरुद्वारा प्रबंधक समिति में पैठ रखनी है, पर मनमोहन सिंह को तो बस ऑपरेशन ब्लू स्टार से दिल्ली में सिख नरसंहार तक पर मौन साधे रखने का मलीदा पेश है। उन्हें सीईओ बना कर राजीव गांधी की विधवा का दामन पाक-साफ किया जा सकता है। व्यक्तिगत आकांक्षा ने सामाजिक दायित्वबोध को बौना कर दिया। २२ वर्षों की अवधि में बाजारवाद ने एक संवेदनहीन द्रुतगतिगामी परमाणु परिवार को साकार समाज खड़ा कर दिया है। इस समाज में एक 'मिडल क्लास' खड़ा हुआ है जो गांव से उखड़ा और शहर में बस पाने के कश्मकश का संत्रास भोग रहा है। इस 'मिडल क्लास' के दीवानखाने में उपस्थिति बनाकर बाजार ने इंसान को कमॉडिटी (वस्तु) बना दिया है। कमॉडिटी बन चुका हिंदुस्तानी 'मिडल क्लास' मनमोहनवाद के 'अमेरिका लग जाने' के टीकास्त्र से मूर्छित है। वह मानसिक मूर्छावस्था में भयंकर शारीरिक गतिशीलता को मजबूर है। सो 'अमेरिका लग जाने' की मिर्गी के दौर में घर बदलते रहना, शहर बदलते रहना, पोशाक बदलते रहना, आहार बदलते रहना, नशा बदलते रहना, दोस्त बदलते रहना, समीकरण बदलते रहना, अलायंस बदलते रहना, जीवन संगी बदलते रहना सहज क्रिया है। लोग आए दिन अपना नेता बदल देते हैं।
जबसे इंटरनेट युग ने दीवानखाने की राजनीति को मोबाइल इंटरनेट की हैंडी पॉलिटिक्स बनाया है तबसे तुरत-फुरत राष्ट्रीय जनमत संग्रह से 'संपूर्ण लोकतंत्र' की पैकेजिंग कर दी गई है। इसने राजनीति की स्वस्थ जननीति को बाजारछाप भेंड़तंत्र के हवाले कर दिया है। तर्क को ताक पर रख कर भावनाएं दुहने वाले व्यवस्था के नियंता बन गए हैं। श्रेष्ठता को संख्या से पराभूत कर रेगनवाद-थैचरवाद ने मनमोहनवाद के माध्यम से अर्थव्यवस्था को बाजारू बनाया, फिर लोकतंत्र को और अब मानवीय संबंधों को बाजारू बना बैठा है। बोलो 'अमेरिका हो जाने' की मिर्गी का है कोई इलाज?
सिर्फ सत्ता
नीतिश कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच द्वंद्व चाहे जिस विचारधारा के लिहाफ में कराई जाए दोनों के विचारों का प्राप्य सिर्फ और सिर्फ सत्ता है। गतिशीलता का यह आलम है कि नीतिश कुमार खुद जब अपने आका जॉर्ज फर्नांडिस को किनारे करें तो उसे संस्कार माना जाए और लालकृष्ण आडवाणी किनारे किए जाने का शक भी करने लगें तो छाती पीटने को अपना नैतिक अधिकार मनवाएं। बाजारू लोकतंत्र में हर नेता और दल का एकमेव लक्ष्य बचा है- पैसा कमाना। पैसा कमाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करना और असली जनहित की बलि देना। सत्ता-प्रेम की इस प्रवृत्ति ने विचारधारा को दिन-ब-दिन 'कांट्रैक्ट मैरिज' का सर्टिफिकेट बना दिया है। सर्टिफिकेट वाली बीवी वीसा दिलाकर अमेरिका में डॉलर कमाया करती है। वीसा मिलते ही जैसे संपन्न देशों में बसने के इरादे रखनेवालों की शादियां टूट जाया करती हैं, वैसे ही बाजारू लोकतंत्र के शिकार दलों की विचारधारा सत्ता पाते ही उन्मुक्त हो जाती है।
हरकतें बेपर्दा
डॉ. मनमोहन सिंह सरकार भाग-२ की हरकतें जिस तरह बेपर्दा हुई हैं उससे सब जान गए हैं कि सत्ता हथियानेवाले न्यायपालिका, पुलिस, अफसरशाही, बाबू बिरादरी सब पर अपनी चौधराहट कायम करके, सबको भ्रष्ट बनाकर शासक पर लगे तमाम अंकुशों की अवहेलना को सुशासन करार देने की प्रचार क्षमता रखता है। जिन अंकुशों को संविधान निर्माताओं ने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य करार दिया था उसे रेगन-थैचरवादी बाजारू लोकतंत्र की चेयरपर्सन सोनिया गांधी, वाइस प्रेसीडेंट एंड मैनेजिंग डाइरेक्टर राहुल गांधी के सीईओ पीएम डॉ. मनमोहन सिंह ने बेमानी सिद्ध कर दिया है। इस सरकार नामक 'कॉरपोरेट वेहिकल' को नियंत्रित करने का दावा करनेवाले विपक्षी इस वेहिकल पर बैठ भी जाएं तो गति भले तीव्र हो जाए पर व्यवस्थागत ढांचा जरा भी नहीं बदलनेवाला। यह बाजारू लोकतंत्र गोर्बाचौफ के उदारवाद पर चढ़ जब रूस पर काबिज हुआ तो उसे संसार की दूसरी महाशक्ति के आसन से ढकेलकर भयंकर अराजकता आर्थिक अव्यवस्था और गुंडागर्दी का मारा हुआ एक भिखारी देश बना दिया था। जब हिंदुस्तानी रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले ६० रुपयों की हो गई हो और विश्व बैंक के कारिंदे मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया ग्रामीण हिंदुस्तान यानी ६० फीसदी हिंदुस्तान को १७ रुपए प्रति दिन (यानी चवन्नी डॉलर) पर जीने को पॉवर्टी लाइन की लकीर मानने को मजबूर करा रहे हों तो हिंदुस्तानी महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले 'भिखारी' नहीं तो क्या हैं?
'ऑपरेशन ब्लू स्टार'
१९८० में इंदिरा गांधी को अमेरिका-कनाडा जगजीत सिंह चौहान जरनैल सिंह भिंडरांवाले से डराना चाहते थे। पंजाब जला कर वे इंदिरा गांधी को अमेरिका के चरणों में गिराना चाहते थे। इंदिरा गांधी ने 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' किया तो अकाल तख्त की साक्षी में कितने सिख मारे गए, उस घटना पर तो इस देश ने बारंबार माफी मांगी। इंदिरा के बेटे राजीव और बहू सोनिया गांधी ने माथा टेक कर माफी मांगी। पर कोई बताएगा कि वल्र्ड बैंक की सलाह पर हिंदुओं के परमधाम केदार-बद्री में पर्यावरण विदों और वंâट्रोलर ऑडिटर जनरल की रिपोर्ट के बाद जो बाजारू पूंजीवाद का प्रहार हुआ उसकी चपेट में मारे गए हजारों की मौत का सवाल क्या कोई मनमोहन सिंह- मोंटेक सिंह अहलूवालिया से पूछ भी पाएगा? इसे तो सांप्रदायिकता का पागलपन ही करार दे दिया जाएगा। यदि राष्ट्र रक्षा के खुफिया प्रमाणों के आधार पर 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' की कार्रवाई अक्षम्य अपराध है तो वैज्ञानिक चेतावनी के बाद भी केदार के माथे पर बांध बनाने के मनमोहनी फैसले से उपजे मौत का तांडव क्या सवाल पूछने का कारण नहीं हो सकता? जंगल-जमीन का अधिकार नक्सलवादी हिंसा है तो हजारों वर्ष की हमारी धर्म-संस्कृति को रौंदनेवाले फैसले पर हमारा सवाल नाजायज कैसे?
शंखनाद कब?
हजारों नागरिकों -श्रद्धालुओं की मौत को राष्ट्रीय आपदा भी न घोषित करने की चंगेजखानी वृत्ति के खिलाफ किसी में शंखनाद की भी हिम्मत नहीं बची। बाजार में मानवता इतनी सस्ती बिक गई। विचारधारा सत्ताधारा में बह गई। केदारनाथ कराहता रहा और सरकार चैंपियंस ट्रॉफी में महेंद्र सिंह धोनी के फिक्स मुकाबलों का रोमांच देखने में व्यस्त रही। लोकतंत्र उतरा था सामंती व्यवस्था को धराशायी करने। सामंती व्यवस्था में राजा-महाराजा प्रजा की पूरी तरह से उपेक्षा करते हुए जम कर भोग-उपभोग करते थे। आज राहुल गांधी, राजीव शुक्ला, अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर दूसरा क्या करते हुए दिखाई दे रहे हैं?
उदारीकरण के बीस साल का सफर पूरा हुआ। बीस साल बाद हम कहां खड़े हैं? रुपया रसातल में गिरा जा रहा है और ऐतिहासिक रूप साठ रूपये प्रति डॉलर का पैमाना पार करने को है। अमीरी की बाढ़ के साथ साथ गरीबी का सूखा भी निरंतर फैलता जा रहा है। यह सब उस मनमोहन सिंह के राज में हो रहा है जिन्होंने १९९१ में इस देश की अर्थव्यवस्था को एक 'एंटीबायोटिक' दिया था। वह एंटीबायोटिक था बाजारवादी पूंजीवाद। इस पूंजीवाद ने इस देश के जनमानस को 'पैसा माई, पैसा बाप, पैसा हरे शोकसंताप' की कहावत का अमलीकरण करना परमधर्म सिद्ध कर दिया।'
नई एंटीबायोटिक
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आई अर्थव्यवस्था की इसी 'एंटीबायोटिक' को हिंदुस्तान में हर राजनीतिक दल चुनाव जीतने का मूलमंत्र मानता है। चूंकि डॉ. मनमोहन सिंह कांग्रेस पार्टी के 'सीईओ पीएम' (चीफ एक्जिक्यूटिव प्राइम मिनिस्टर हैं) जिसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं और जिसके वाइस प्रेसीडेंट एंड मैनेजिंग डाइरेक्टर पद पर राहुल गांधी हैं। ब्रांड एंबेसडर प्रियंका गांधी-रॉबर्ट वड्रा हैं। सो, कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से इस 'एंटीबायोटिक' को अमरबूटी मानने की अपेक्षा सहज है। भारतीय जनता पार्टी को साम्यवादी जनसंघ के दिनों से अमेरिकावादी करार देते आए हैं। भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 'स्वदेशी' का पैरोकार रहा हो और कांग्रेसी यशवंत सिन्हा द्वारा लिखे गए बजट को स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक एस. गुरुमूर्ति द्वारा 'ड्राफ्टेड' करार देते रहे हों, पर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार अपने १९९८ से २००४ के बीच के स्थायी शासनकाल में भी इसी 'एंटीबायोटिक' से हासिल उपलब्धियों को 'शाइनिंग इंडिया' का कारक करार देकर जनता से 'फील गुड' की अपेक्षा कर रही थी।
मुसलमानों का ध्रुवीकरण
नरेंद्र मोदी के २००२ के गुजरात शासनकाल के प्रथम 'टेलिवाइज्ड' दंगों से गुजरात की हालत देख देश भर का मुसलमान पहली बार कांग्रेस की ओर पूर्ण ध्रुवीकृत होने को तैयार हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन में तब अकेले नीतिश कुमार ही नहीं बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एक कौमी यात्रा ही देश भर में चल रही थी। सो, मुसलमान मोदी से डरा और हिंदू 'कौमी यात्रा' और बाजार में व्याप्त 'फील गुड' से 'फील बैड' करने लगा। भाजपा की सरकार जब केन्द्र में थी उसी समय पश्चिम बंगाल और केरल का कम्युनिस्ट नेतृत्व बदला। केरल में नयनार की जगह अच्युतानंदन आ गए तो पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की कुर्सी पर बुद्धदेव भट्टाचार्य बैठ गए। इस परिवर्तन में साम्यवादियों को अमेरिकी बाजारवाद का मुरीद चीन के रास्ते बनता देखा गया। बुद्धदेव भट्टाचार्य को यदि २००४ के लोकसभा चुनावों में मोदी विरोधी मुस्लिम ध्रुवीकृत वोटों के मिले मलीदे के सरक जाने का भय न होता तो वह पोलित ब्यूरो में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने का प्रस्ताव रख देते। मेरे अनुमान को काल्पनिक समझनेवालों को सुधींद्र कुलकर्णी से कुरेद कर पूछने की देरी है। विदेशी निवेश पर बुद्धदेव नरेंद्र मोदी से कम फिदा कभी नहीं रहे।
लाल भाइयों की आपत्ति
साम्यवादी 'भद्रलोक' ममता बनर्जी के समर्थन में बुद्धदेव की बाजारवादी पूंजीवाद के खिलाफ ही तो गया था। रतन टाटा को अपनी नैनो के लिए बंगाल के बाद गुजरात पसंद आया। टाटा के खिलाफ बंगालियों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया तो गुजरात में जहां नैनो का प्रोजेक्ट आया उस इलाके के गुजरातियों ने बीते चुनाव में कांग्रेस को वोट डाला है। मोदी की सांप्रदायिक 'आइडियोलॉजी' पर लाल भाइयों को आपत्ति होगी। अर्थ तंत्र पर उनका सैद्धांतिक विरोध कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्रों और विपक्ष में बैठने पर वक्तव्यों में तो नजर आता है पर जब वे इक्कीसवीं सदी में बंगाल या केरल की सरकार चलाते हैं तो आर्थिक नीतियों में यही विरोध गायब रहता है। चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, करुणानिधि/जयललिता, मायावती/मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव/नीतिश कुमार किसी को भी पूंजीवाद के आर्थिक वृद्धि के दर के फॉर्मूले का ढिंढोरा पीटने में एलर्जी नहीं। नीतिश कुमार के ड्राइंग रूम पॉलिटिक्स करनेवाले प्रवक्ता भले 'बिहार मॉडल ऑफ इकोनॉमी' बताकर उसे गुजरात से बेहतर कह रहे हों, पर सच यही है कि नीतिश के आर्थिक मार्गदर्शक एन.के. सिंह गुजरात के विश्व बैंकवाले मॉडल से कोई अलग मॉडल दिखा नहीं सकते।
`अमेरिका लग जाने' का रोग
इसलिए हर कोई जानता है कि विश्व बैंक के कर्मचारी डॉ. मनमोहन सिंह ने हिंदुस्तान में १९९१ में जो पूंजीवादी बाजारवाद लाया था और जिसे अर्थतंत्र की अमरबूटी मनवाया था वह अब देश को 'अमेरिका लग जाने' की महामारी का शिकार बना चुका है। अमेरिका को १९८० में रोनाल्ड रेगन ने कल्याणकारी पूंजीवाद से बाजारवाद के हवाले किया था। अमेरिका वह देश है जिसमें बसनेवाले यूरोपीय मूल के लोगों ने अपने अतीत से और अपनी जड़ों से अपने को काट लेने में ही अपनी जीत देखी, अपना भविष्य देखा। अमेरिका में बड़ी आबादी उन प्रोटेस्टंटों की है जिनके पूर्वज कैथलिकों के अत्याचारों से बच निकलने के लिए अमेरिका भागे थे। उन्होंने जब यूरोप से अपना रिश्ता तोड़ा तो साथ-साथ सामंतशाही से भी मुक्ति पा लेने में भला माना। जो ब्रिटेन से भागे थे अठारहवीं सदी में उन सबने ब्रिटिश ताज से रिश्ता तोड़ दिया। लोकतंत्र ने अमेरिका को नई सीमा और नए तथा बेहतर घर की तलाश को जीवन मंत्र बना दिया। वह जड़ों से कटकर, सामंतशाही और पंथीय कट्टरता के प्रहार से मुक्त होकर गतिशील बन गया। इस गतिशीलता ने उसे इतना बल दिया कि एक-डेढ़ सदी बीतते-बीतते कंजर्वेटिव ब्रितानी अमेरिकी रिपब्लिकन रोनाल्ड रेगन के पीछे मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में अमेरिका के बाजारवादी पूंजीवाद के अनुगामी बन गए। इस गोलबंदी ने यूरोप को अपने जबड़े में लिया, सोवियत साम्यवाद और चीनी माओवाद को पराभूत कर १९९१ में विश्व बैंक, इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड (आईएमएफ) संचालित ऐसी व्यवस्था दी कि पूरी दुनिया इस बाजारवाद की अनुचर बन बैठी। बाजारवाद की बुनियाद गतिशीलता है। इसमें पैसा इंसान गति से हटा तो दुर्गति भुगतने को अभिशप्त होता है। सो, इस 'अमेरिका लग जाने' के रोग का शिकार आम आदमी एक जगह से दूसरी जगह, एक नौकरी से दूसरी नौकरी, एक फैशन से दूसरे फैशन, एक शौक से दूसरे शौक, एक जीवन साथी से दूसरे जीवनसाथी, एक विचार से दूसरे विचार, एक पार्टी से दूसरी पार्टी की निरंतर यात्रा करता है। इस व्यवस्था में रुचि से गतिशील और विचारों से लचीला होना सफलता का मूलमंत्र है।
सिखों का कत्ल
डॉ. मनमोहन सिंह अगर विचारों से लचीले नहीं होंगे तो वह १०,००० सिखों की सांप्रदायिक कत्ल के मुजरिम संगठन को 'सेकुलर' कैसे ठहराएंगे? प्रकाश सिंह बादल को तो सिखों से वोट लेना है, उनसे रिश्ता-नाता रखना है, गुरुद्वारा प्रबंधक समिति में पैठ रखनी है, पर मनमोहन सिंह को तो बस ऑपरेशन ब्लू स्टार से दिल्ली में सिख नरसंहार तक पर मौन साधे रखने का मलीदा पेश है। उन्हें सीईओ बना कर राजीव गांधी की विधवा का दामन पाक-साफ किया जा सकता है। व्यक्तिगत आकांक्षा ने सामाजिक दायित्वबोध को बौना कर दिया। २२ वर्षों की अवधि में बाजारवाद ने एक संवेदनहीन द्रुतगतिगामी परमाणु परिवार को साकार समाज खड़ा कर दिया है। इस समाज में एक 'मिडल क्लास' खड़ा हुआ है जो गांव से उखड़ा और शहर में बस पाने के कश्मकश का संत्रास भोग रहा है। इस 'मिडल क्लास' के दीवानखाने में उपस्थिति बनाकर बाजार ने इंसान को कमॉडिटी (वस्तु) बना दिया है। कमॉडिटी बन चुका हिंदुस्तानी 'मिडल क्लास' मनमोहनवाद के 'अमेरिका लग जाने' के टीकास्त्र से मूर्छित है। वह मानसिक मूर्छावस्था में भयंकर शारीरिक गतिशीलता को मजबूर है। सो 'अमेरिका लग जाने' की मिर्गी के दौर में घर बदलते रहना, शहर बदलते रहना, पोशाक बदलते रहना, आहार बदलते रहना, नशा बदलते रहना, दोस्त बदलते रहना, समीकरण बदलते रहना, अलायंस बदलते रहना, जीवन संगी बदलते रहना सहज क्रिया है। लोग आए दिन अपना नेता बदल देते हैं।
जबसे इंटरनेट युग ने दीवानखाने की राजनीति को मोबाइल इंटरनेट की हैंडी पॉलिटिक्स बनाया है तबसे तुरत-फुरत राष्ट्रीय जनमत संग्रह से 'संपूर्ण लोकतंत्र' की पैकेजिंग कर दी गई है। इसने राजनीति की स्वस्थ जननीति को बाजारछाप भेंड़तंत्र के हवाले कर दिया है। तर्क को ताक पर रख कर भावनाएं दुहने वाले व्यवस्था के नियंता बन गए हैं। श्रेष्ठता को संख्या से पराभूत कर रेगनवाद-थैचरवाद ने मनमोहनवाद के माध्यम से अर्थव्यवस्था को बाजारू बनाया, फिर लोकतंत्र को और अब मानवीय संबंधों को बाजारू बना बैठा है। बोलो 'अमेरिका हो जाने' की मिर्गी का है कोई इलाज?
सिर्फ सत्ता
नीतिश कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच द्वंद्व चाहे जिस विचारधारा के लिहाफ में कराई जाए दोनों के विचारों का प्राप्य सिर्फ और सिर्फ सत्ता है। गतिशीलता का यह आलम है कि नीतिश कुमार खुद जब अपने आका जॉर्ज फर्नांडिस को किनारे करें तो उसे संस्कार माना जाए और लालकृष्ण आडवाणी किनारे किए जाने का शक भी करने लगें तो छाती पीटने को अपना नैतिक अधिकार मनवाएं। बाजारू लोकतंत्र में हर नेता और दल का एकमेव लक्ष्य बचा है- पैसा कमाना। पैसा कमाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करना और असली जनहित की बलि देना। सत्ता-प्रेम की इस प्रवृत्ति ने विचारधारा को दिन-ब-दिन 'कांट्रैक्ट मैरिज' का सर्टिफिकेट बना दिया है। सर्टिफिकेट वाली बीवी वीसा दिलाकर अमेरिका में डॉलर कमाया करती है। वीसा मिलते ही जैसे संपन्न देशों में बसने के इरादे रखनेवालों की शादियां टूट जाया करती हैं, वैसे ही बाजारू लोकतंत्र के शिकार दलों की विचारधारा सत्ता पाते ही उन्मुक्त हो जाती है।
हरकतें बेपर्दा
डॉ. मनमोहन सिंह सरकार भाग-२ की हरकतें जिस तरह बेपर्दा हुई हैं उससे सब जान गए हैं कि सत्ता हथियानेवाले न्यायपालिका, पुलिस, अफसरशाही, बाबू बिरादरी सब पर अपनी चौधराहट कायम करके, सबको भ्रष्ट बनाकर शासक पर लगे तमाम अंकुशों की अवहेलना को सुशासन करार देने की प्रचार क्षमता रखता है। जिन अंकुशों को संविधान निर्माताओं ने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य करार दिया था उसे रेगन-थैचरवादी बाजारू लोकतंत्र की चेयरपर्सन सोनिया गांधी, वाइस प्रेसीडेंट एंड मैनेजिंग डाइरेक्टर राहुल गांधी के सीईओ पीएम डॉ. मनमोहन सिंह ने बेमानी सिद्ध कर दिया है। इस सरकार नामक 'कॉरपोरेट वेहिकल' को नियंत्रित करने का दावा करनेवाले विपक्षी इस वेहिकल पर बैठ भी जाएं तो गति भले तीव्र हो जाए पर व्यवस्थागत ढांचा जरा भी नहीं बदलनेवाला। यह बाजारू लोकतंत्र गोर्बाचौफ के उदारवाद पर चढ़ जब रूस पर काबिज हुआ तो उसे संसार की दूसरी महाशक्ति के आसन से ढकेलकर भयंकर अराजकता आर्थिक अव्यवस्था और गुंडागर्दी का मारा हुआ एक भिखारी देश बना दिया था। जब हिंदुस्तानी रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले ६० रुपयों की हो गई हो और विश्व बैंक के कारिंदे मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया ग्रामीण हिंदुस्तान यानी ६० फीसदी हिंदुस्तान को १७ रुपए प्रति दिन (यानी चवन्नी डॉलर) पर जीने को पॉवर्टी लाइन की लकीर मानने को मजबूर करा रहे हों तो हिंदुस्तानी महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले 'भिखारी' नहीं तो क्या हैं?
'ऑपरेशन ब्लू स्टार'
१९८० में इंदिरा गांधी को अमेरिका-कनाडा जगजीत सिंह चौहान जरनैल सिंह भिंडरांवाले से डराना चाहते थे। पंजाब जला कर वे इंदिरा गांधी को अमेरिका के चरणों में गिराना चाहते थे। इंदिरा गांधी ने 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' किया तो अकाल तख्त की साक्षी में कितने सिख मारे गए, उस घटना पर तो इस देश ने बारंबार माफी मांगी। इंदिरा के बेटे राजीव और बहू सोनिया गांधी ने माथा टेक कर माफी मांगी। पर कोई बताएगा कि वल्र्ड बैंक की सलाह पर हिंदुओं के परमधाम केदार-बद्री में पर्यावरण विदों और वंâट्रोलर ऑडिटर जनरल की रिपोर्ट के बाद जो बाजारू पूंजीवाद का प्रहार हुआ उसकी चपेट में मारे गए हजारों की मौत का सवाल क्या कोई मनमोहन सिंह- मोंटेक सिंह अहलूवालिया से पूछ भी पाएगा? इसे तो सांप्रदायिकता का पागलपन ही करार दे दिया जाएगा। यदि राष्ट्र रक्षा के खुफिया प्रमाणों के आधार पर 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' की कार्रवाई अक्षम्य अपराध है तो वैज्ञानिक चेतावनी के बाद भी केदार के माथे पर बांध बनाने के मनमोहनी फैसले से उपजे मौत का तांडव क्या सवाल पूछने का कारण नहीं हो सकता? जंगल-जमीन का अधिकार नक्सलवादी हिंसा है तो हजारों वर्ष की हमारी धर्म-संस्कृति को रौंदनेवाले फैसले पर हमारा सवाल नाजायज कैसे?
शंखनाद कब?
हजारों नागरिकों -श्रद्धालुओं की मौत को राष्ट्रीय आपदा भी न घोषित करने की चंगेजखानी वृत्ति के खिलाफ किसी में शंखनाद की भी हिम्मत नहीं बची। बाजार में मानवता इतनी सस्ती बिक गई। विचारधारा सत्ताधारा में बह गई। केदारनाथ कराहता रहा और सरकार चैंपियंस ट्रॉफी में महेंद्र सिंह धोनी के फिक्स मुकाबलों का रोमांच देखने में व्यस्त रही। लोकतंत्र उतरा था सामंती व्यवस्था को धराशायी करने। सामंती व्यवस्था में राजा-महाराजा प्रजा की पूरी तरह से उपेक्षा करते हुए जम कर भोग-उपभोग करते थे। आज राहुल गांधी, राजीव शुक्ला, अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर दूसरा क्या करते हुए दिखाई दे रहे हैं?
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