Saturday, April 6, 2013

नाम पब्लिक स्कूल काम डकैती का

नाम पब्लिक स्कूल काम डकैती का


पिछले दिनों स्कूल प्रबंधन की लूट से तंग अभिभावकों का ग़ुस्सा अंबाला शहर के सेंट जोजेफ स्कूल शिक्षण संस्थान पर उस समय फूट पड़ा, जब स्कूल की ओर से बच्चों को बेचे जा रहे एक कंपनी विशेष के महंगे जूते ख़रीदने के लिए बाध्य किया गया...

निर्मल रानी


हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के लिए भारतीय संविधान में इस बात की व्यवस्था की थी कि शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कोई भी भारतीय नागरिक शिक्षण संस्थान खोल सकता है. ज़ाहिर है बड़ी जनसंख्या वाले इस देश में सरकार द्वारा इतने बड़े पैमाने पर राजकीय स्तर पर पर्याप्त शिक्षण संस्थान खोल पाना संभव नहीं. यही वजह है कि आज देश में बेसिक शिक्षा से लेकर उच्च, उच्चतम व तकनीकी शिक्षा प्रदान करने वाली अधिकांश संस्थाएं निजी स्तर पर अथवा संस्थागत तौर पर संचालित की जा रही हैं.

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तमाम निजी संस्थानों द्वारा इनके संचालन के लिए कार्य समितियां गठित की गई हैं. यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि देश के सभी निजी संस्थान व संस्थाएं राजकीय स्तर पर संचालित संस्थानों से कहीं अधिक शिक्षा व अन्य प्रकार के तमाम शुल्क वसूलते रहते हैं. हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में शिक्षा को बढ़ावा देने में तथा भारतीय समाज को साक्षर बनाने में निजी विद्यालयों व महाविद्यालयों का बहुत बड़ा योगदान है.

लेकिन समय बीतने के साथ इन निजी संस्थानों ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के अपने मुख्य उद्देश्य को किनारे रखकर इसे छात्रों के अभिभावकों से मनमाने तरीके से पैसे वसूलने का एक ज़रिया मात्र बना रखा है. इतना ही नहीं शिक्षण संस्थान शुरू किए जाने की भारतीय संविधान में मिली छूट का भी इतना अधिक नाजायज़ फायदा उठाया जा रहा है कि तमाम निजी स्कूल संचालक इसे महज़ धनवर्षा करने वाले कारोबार की तरह देखने लगे हैं. परिणामस्वरूप व्यापारी प्रवृति के ऐसे तमाम लोग स्कूल-कॉलेज खोलकर बैठ गए हैं और अपनी मर्ज़ी से, बिना कोई रसीद दिए हुए अभिभावकों से धड़ल्ले से जब और जितने चाहे पैसे वसूल कर रहे हैं.

दूसरी तरफ़ अभिभावक किसी निजी स्कूल के चंगुल में फंसने के बाद अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लालच में मनमाने तरीके से लुटने को भी मजबूर हैं. कई बार लुटने की सहनशक्ति समाप्त होने पर यही अभिभावक लुटेरे प्रवृति के स्कूल संचालकों के विरुद्ध सड़कों पर उतरने को बाध्य हो जाते हैं. भले ही उन्हें अपने नौनिहालों के भविष्य को भी ख़तरे में क्यों न डालना पड़े. आमतौर पर अभिभावक बच्चों का भविष्य खराब होने के डर से चुपचाप निजी स्कूल संचालकों की हर बात मानते रहते हैं तथा उनके द्वारा मांगी जाने वाली तरह-तरह की धनराशि समय-समय पर देते रहते हैं.

पिछले दिनों लूट से तंग अभिभावकों का ग़ुस्सा अंबाला शहर के एक निजी स्कूल सेंट जोजेफ पर उस समय फूट पड़ा, जब स्कूल की ओर से बच्चों को बेचे जा रहे एक कंपनी विशेष के महंगे जूते ख़रीदने के लिए बाध्य किया गया. चार सौ रुपये के जूते बच्चों के हाथों एक हज़ार में न केवल बेचे गए, बल्कि स्कूल प्रिंसिपल व संचालिका द्वारा प्रत्येक कक्षा में जाकर बच्चों को जूते की विशेषता के विषय में लंबा-चौड़ा भाषण भी 'पिलाया' गया.

अफ़सोस कि जब अभिभावकों ने स्कूल प्रशासन की इस हरकत को गलत ठहराते हुए उसके विरुद्ध तीन दिनों तक धरना-प्रदर्शन किया तो इसके जवाब में बजाय माफ़ी मांगने के स्कूल संचालक-प्रधानाचार्य ने जवाब दिया 'यदि अभिभावकों की जेब हमारे स्कूल में अपने बच्चे की पढ़ाई कराने की इजाज़त नहीं देती तो वे अपने बच्चों को यहां क्यों भर्ती कराते हैं, किसी और सस्ते स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाते?' यह था शिक्षा मंदिर की मुखिया का स्कूल में जूते बेचने की सफ़ाई में दिया जाने वाला स्पष्टीकरण.

उपरोक्त निजी स्कूल हालांकि ज़्यादा पुराना नहीं है, यह एक निजी बिल्डिंग में एक परिवार द्वारा संचालित किया जा रहा है, परंतु उसकी फीस अन्य मध्यम दर्जे के निजी स्कूलों से अधिक है. उसके बावजूद तमाम अभिभावक खासतौर पर जो इस स्कूल के आसपास की कॉलोनियों में रहते हैं, अपने घरों के करीब होने की गरज़ से बच्चों का दाख़िला यहां करा देते हैं. इस प्रकार जब ऐसे स्कूलों को कुछ प्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है तो संचालक यह समझ बैठता है कि चूंकि अब उसकी 'दुकान' चल पड़ी है, इसलिए वह अपने ग्राहकों से जब, जैसे और जिस नाम पर जितने चाहे पैसे वसूल सकता है.

हालाँकि निजी स्कूलों में भी गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए सरकार ने कोटा निर्धारित कर किया है. हरियाणा में निजी स्कूल संचालित करने के लिए कई कड़ी शर्तें भी लागू की जा चुकी हैं, परंतु निजी शिक्षण संस्थाओं द्वारा अभिभावकों को लूटने पर शायद कोई पाबंदी नहीं है, न ही इसके लिए कोई कारगर क़ानून बनाया गया है. तमाम निजी स्कूल मनमाने तरीके से प्रत्येक वर्ष पच्चीस से लेकर तीस प्रतिशत तक फ़ीस बढ़ा रहे हैं. एक कक्षा में पास होने के बाद बच्चा जब अगली कक्षा में जाता है तो भी उसे अपने ही स्कूल में उसी प्रकार प्रत्येक वर्ष रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ता है जैसे कि नवांगतुक बच्चों का कराया जाता है.

इससे तो यही लगता कि प्रत्येक वर्ष रजिस्ट्रेशन फीस के नाम पर स्कूलों को लूट का लाईसेंस मिला हुआ है. अभिभावकों की हैसियत का अंदाज़ा लगाकर अपने निजीभवन के निर्माण के लिए निर्धारित डेवल्पमेंट फ़ंड के नाम पर उनसे मनमर्ज़ी के पैसे वसूलना और गरीब व मध्यम वर्ग के अभिभावकों से भी डेवेल्पमेंट के नाम पर ठगी करना इनका धंधा बन चुका है. इसके अतिरिक्त टर्म, ऐक्टिविटी, एडमिशन, लैब, कंप्यूटर, खेलकूद, मनोरंजन, पिकनिक, मेला व सांस्कृतिक आयोजन फीस समेत तमाम चीज़ों के नाम पर अभिभावकों की जेबें ढीली की जाती रहती हैं.

इसके अतिरिक्त सारे निजी स्कूल किताबें, कापियां, बैग यहां तक कि यूनीफार्म भी अपने स्कूल से ही खरीदने के लिए बाध्य करते हैं. हद तो अब यह हो गई कि स्कूल में बच्चों को जूते भी खरीदने के लिए मजबूर किया जाने लगा है. अम्बाला के जिस निजी स्कूल सेंट जोजेफ में प्रधानाचार्य द्वारा जूते बेचने की घटना घटी है, अभिभावकों के मुताबिक इस स्कूल में पिछले वर्ष पांचवीं कक्षा की फीस 5100 रुपये मासिक थी जोकि इस बार बढ़ाकर 7850 रुपये कर दी गई है. इसी से पता चल जाता है कि स्कूल मालिकों द्वारा धन उगाही के लिए किस तरह मनमानी की जा रही है. हालाँकि सेंट जोज़ेफ स्कूल का मामला तीन दिवसीय धरने प्रदर्शन के बाद अब उपायुक्त अंबाला व शिक्षा अधिकारी तक पहुंच गया है. अब उच्चाधिकारियों द्वारा मामले में दखल दिया जा रहा है.

उपरोक्त स्कूल की खुलेआम लूट से तंग आकर अभिभावकों ने यहां तक धमकी दे डाली है कि यदि उनके साथ होने वाली लूट का सिलसिला बंद न हुआ तो वे भूख-हड़ताल पर भी जा सकते हैं. अभिभावकों ने तो अन्य सभी स्कूलों के उन अभिभावकों को भी सहयोग देने का मन बनाया है जो दूसरे 'दुकानदारी' करने वाले स्कूल संचालकों से दुखी व परेशान हैं.अपनी समस्याओं का समाधान न होने की स्थिति में इन अभिभावकों ने स्कूल का सत्र न चलने देने की धमकी भी दे डाली है.

इस प्रकार की अनियंत्रित लूट-खसोट का सिलसिला केवल निजी स्कूलों ही नहीं, बल्कि निजी महाविद्यालयों व निजी विश्वविद्यालयों द्वारा भी चलाया जा रहा है. परिणामस्वरूप बच्चों का कैरियर बने या न बने परंतु ऐसे व्यापारी प्रवृति के शिक्षण संस्थान संचालकों की जेबें ज़रूर भारी होती जा रही हैं. इनके भवन चाहे वह स्कूल-कॉलेज की इमारत हो या इनकी अपनी रिहाईशगाह, इनमें ख़ूब तरक्क़ी दिखाई दे रही है.

सवाल है कि शिक्षा को व्यवसाय बनाने का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा? क्या चंद धनलोभी स्कूल-कॉलेज संचालक लाखों अभिभावकों को महंगाई के इस दौर में अपनी मनमर्ज़ी से जब और जैसे चाहें चूना लगाते रहेंगे? ऐसे स्कूल-कॉलेज संचालक सिर्फ अभिभावकों का ही शोषण नहीं करते, बल्कि अपने शिक्षक व अन्य स्टाफ की तनख्वाह में भी बड़ी हेराफेरी करते हैं. यानी हस्ताक्षर तो अधिक मासिक आय पर कराए जाते हैं, जबकि तनख्वाह कम देते हैं. सरकार को ऐसी मनमानी पर तत्काल रोक लगानी चाहिए तथा समय-समय पर पारदर्शी रूप से इनकी निगरानी करते रहना चाहिए.

nirmal-raniनिर्मल रानी उपभोक्ता मामलों की जानकार हैं.

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