Saturday, April 13, 2013

कत्ल, कानून और करुणा

कत्ल, कानून और करुणा

Saturday, 13 April 2013 11:39

विद्या जैन 
जनसत्ता 13 अप्रैल, 2013: वैश्वीकरण के प्रसार के साथ पितृसत्ता की पुरानी संरचनाएं टूटनी चाहिए थीं, जैसा कि विकसित देशों में हुआ है। लेकिन दुर्भाग्यवश तीसरी दुनिया के तमाम देशों में वैश्वीकरण पुराने सामाजिक ढांचों की जकड़न को कमजोर करने में विफल रहा। भारत में भी पितृसत्ता की बंदिशें टूटे बगैर ही वैश्वीकरण की संरचनाएं कायम हो गर्इं जहां पितृसत्ता की प्राचीन बंदिशों- परिवार, पुरुष और परदे- के जाल से बाहर आने के लिए स्त्री को अस्मिता का संघर्ष करना पड़ रहा था। वैश्वीकरण ने स्त्री के लिए मुक्तिदाता की भूमिका निभाने की जगह उसे और अधिक नई तरह की बेड़ियों में जकड़ा है। 
इस तरह स्त्री को दोहरे शोषण से जूझना पड़ रहा है। पारंपरिक समय में परदे में जकड़ी स्त्री पुरुष के अधीन थी तो वर्तमान में बाजार ने उसे पूरी तरह अपने प्रभाव में ले लिया है। यही कारण है कि स्वतंत्रता के नाम पर केवल दिखावा हो रहा है। वास्तव में तो नई-नई संरचनाओं के बनने से स्त्री अधिक गुलामी की तरफ जा रही है। बाजार उसे उपभोग की वस्तु मान कर एक बनावटी स्त्री की छवि गढ़ रहा है, जो पितृसत्ता के अधीन रहते हुए बाजार के लिए मुनाफे की राहें खोलती है। इसके उदाहरण दोपहर बाद आने वाले उन तमाम टीवी सीरियलों और विज्ञापनों में देखे जा सकते हैं, जो स्त्री को लक्ष्य करके निर्मित और प्रसारित होते हैं। एक तरफ सीरियलों में लगातार परंपरागत संरचनाओं की मजबूती सामने आ रही है, वहीं दूसरी तरफ बाजार द्वारा निर्मित सुंदरता के नए प्रतिमानों में स्त्री का बनावटी रूप दिखाया जाता है। 
यही कारण है कि गांवों में स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र दिखें या नहीं, पर ब्यूटी पार्लर खुले मिल जाएंगे। सौंदर्य उद्योग का खयाल है कि अगर गृहणियों में अपने शरीर, त्वचा और सौंदर्य के प्रति ललक पैदा की जाए तो उसे बड़े पैमाने पर उपभोक्ता मिलेंगे। परंपरागत समाजों में सौंदर्य के प्रतिमान पुरुष द्वारा तय किए जा रहे हैं, तो वर्तमान संदर्भ में इन प्रतिमानों को बाजार तय कर रहा है। लेकिन ये दोनों पितृसत्तात्मक व्यवस्था के इर्दगिर्द ही अपनी अवधारणाएं रच रहे हैं। मगर स्त्री मुक्ति का सपना न पारंपरिक संरचनाओं से होकर गुजर सकता है और न ही बाजारीय अवधारणाओं से। इस तरह पितृसत्तात्मकता और वैश्वीकरण के संक्रमण के दौर में एक संघर्षशील और मुक्तिकामी स्त्री के लिए चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। उसे समाज और बाजार दोनों से मुक्ति के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। 
परंपरागत समाज में स्त्री पर घरेलू कार्यों का बोझ था, जिसमें पुरुष की कोई भागीदारी नहीं होती थी। लेकिन बाजार ने उस पर करिअर और सुंदरता के दो अन्य भार भी डाल दिए हैं। बाजार ने स्त्री के लिए ऐसे करिअर निर्धारित किए हैं जिनमें उसकी देह के बाजार निर्मित सुंदरता के पैमाने से उसे देखा जाता हैं। घर की चौखट के भीतर कोई विशेष परिवर्तन न होने सेवहां गृहणी के परंपरागत काम स्त्री को करने ही पड़ते हैं, वहीं बाहर करिअर के लिए स्वयं को बाजार के हवाले करना एक मजबूरी बन गया है। इस तिहरी बंदिश से मुक्ति के कई रास्ते सुझाए जा रहे हैं। 
वैश्वीकरण इसके लिए पाश्चात्य नारीवादी संकल्पना को उचित रास्ता मानता है। जबकि भारतीय सामाजिक परिस्थितियां पाश्चात्य देशों से अलग हैं, इसलिए यहां पर लैंगिक विषमता की वजहें उन देशों से भिन्न हैं। वैसे भी पाश्चात्य नारीवाद ने स्त्री को मुक्ति कम दी है और बाजार की गुलाम अधिक बनाया है। इसलिए भारतीय स्त्री की मुक्ति का रास्ता यहां के समाज से ही निकालना होगा। स्त्री मुक्ति के लिए तीन रास्ते बताए जा रहे हैं जिनकी मूल संकल्पनाएं कत्ल, कानून और करुणा हैं। 
कत्ल का संदर्भ स्त्री सुरक्षा के लिए दिए जा रहे उन तर्कों से है, जो कहते हैं कि औरत को सुरक्षा के लिए चाकू लेकर चलना चाहिए। या उसे जूडे-कराटे में पारंगत होना होगा या लाल मिर्च के पैकेट अपने परिधान में छिपा कर रखने होंगे। यह एक तरह से अधूरा या अपरिपक्व विचार है, जो सुरक्षा को समाज से जोड़ कर नहीं देखता। क्योंकि औरतों को खतरा समाज की विषमताकारी मान्यताओं से है। उन मान्यताओं को किसी हिंसात्मक विचार से नहीं बदला जा सकता, इससे तो मात्र द्वेष ही बढ़ सकता है। इस विकल्प से सुरक्षित समाज बनाने के बजाय एक असुरक्षित माहौल बन जाएगा, जहां हर कोई चाकू लेकर चल रहा है। कितनी विडंबनापूर्ण स्थिति है कि जिस देश को गांधी ने अहिंसा के बल पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलाई, वहां हम एक दूसरे को समाज में सम्मानपूर्ण और निर्भीक जीवन जीने का विश्वास नहीं दे पा रहे हैं।
हथियार इंसान को डरपोक बना सकते हैं, निडर और साहसी नहीं। यही कारण है कि ऐसे तर्क देने वालों के पास समाज की कई बेहतर संकल्पना नहीं है, वे केवल तात्कालिक घटनाओं पर फौरन अपनी प्रतिक्रिया दे देते हैं। इन त्वरित प्रतिक्रियाओं से समाज में एक प्रभाव यह पड़ता है कि लोग वास्तविक विकल्प की तलाश से भटक कर अलग दिशा में सोचने लग जाते हैं। चूंकि किसी विशेष घटना के वक्त लोगों में आक्रोश होता है और वे भावनावश ऐसी प्रतिक्रियाओं के भी समर्थन में खड़े हो जाते हैं जिनमें भविष्य के समाज के बारे में कोई समझ नहीं होती है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि स्त्री विमर्श के साथ-साथ समतामूलक समाज के दूसरे मुद्दों पर भी चर्चा हो। तभी इस विमर्श का कोई सार्थक नतीजा निकल पाएगा। 

अब दूसरे विकल्प की चर्चा करें तो वह कानूनी प्रावधानों के रूप में उपस्थित है। कई बार यह आरोप लगाया जाता है कि स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए किए गए संवैधानिक प्रावधानों का प्रभावी अनुपालन नहीं किया जाता। जबकि सच्चाई यह है कि किसी भी कानून का क्रियान्वयन बहुत हद तक समाज के मूल्यों पर निर्भर करता है। इसलिए कानून मात्र से समाज में लैंगिक भेदभाव, हिंसा और उत्पीड़न का अंत हो जाना संभव नहीं है। इसका कार्य अपराध के बाद दिया जाने वाला दंड और न्याय उपलब्ध करना है। अपराध का पूर्ण उन्मूलन तो तभी हो सकता है, जब लोगों की आपराधिक प्रवृत्ति का अंत हो और यह कार्य सामाजिक परिवर्तन से ही संभव है। लिहाजा, दूसरे विकल्प को प्रभावी बनाने के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना आवश्यक हो जाता है। 
तीसरा और सबसे अहम पक्ष है करुणा, जिसके माध्यम से समाज में प्रेम, सौहार्द और सहानुभूति का परिवेश तैयार किया जा सकता है। इसी में सुरक्षा, समानता और स्वतंत्रता के बीज निहित हैं, क्योंकि यह उस सामंतवादी व्यवस्था की पुरानी संरचनाओं को भी बदल सकती है, जो पितृसत्ता के आधार स्तंभ हैं। पति, परिवार और पितृसत्ता की बंदिशों से बाहर आने के लिए औरत को करुणा के अहिंसक हथियार का प्रयोग करना चाहिए। यही पाश्चात्य स्त्रीवाद से अलग धारणा भारत में सामाजिक परिवर्तन को संभव बना सकती है।
यह समझना आवश्यक है कि करुणा कायरों की जीवन पद्धति का हिस्सा न होकर बहादुरों का हथियार है और इसकी सफलता के प्रमाण भारतीय मुक्ति संग्राम में देखे जा सकते हैं। इसके माध्यम से स्त्री को वैश्वीकरण के दौरान उपजी बंदिशों से भी मुक्ति मिल सकती है, क्योंकि बाजार जहां सुंदरता के व्यक्तिगत और दिखावटी पैमाने रच रहा है, वहां उसे सुंदरता की सामूहिक पहचान और समरसता से मात दी जा सकती है।
वैश्वीकरण की अन्य संरचना मीडिया भी महिलाओं को लेकर जिस तरह के उत्पाद प्रस्तुत कर रहा है, उनके प्रसार का सबसे बड़ा कारण बढ़ती हुई 'एकांतता' है। क्योंकि लोग समाज के बीच रहते हुए भी स्वयं को निहायत असहाय और अकेला महसूस करने लगे हैं। 
ऐसी स्थिति में उन्हें मानसिक रूप से संचार के साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जबकि करुणा से प्रेम और सामूहिकता का प्रसार होगा तो लोगों का सामाजिकीकरण वैश्वीकरण की शर्तों पर न होकर स्थानीयता की जरूरतों पर होने लगेगा। इससे स्त्रियों की मीडिया पर निर्भरता कम होकर समाज में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने की संभावनाएं अधिक होंगी और सामाजिक लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा। वैश्वीकरण ने जिस तरह से राजनीतिक लोकतंत्र को केंद्रीकृत कर दिया है, उससे आर्थिक असमानताओं के विस्तार के साथ-साथ स्त्री की अस्मिता कहीं गुम हो गई है। 
गांधी जब राजनीतिक लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण पर बल दे रहे थे, तो उनका उद्देश्य संपूर्ण समाज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक उन्नति था। इसी वजह से स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए इन तीनों ही क्षेत्रों में सत्ता को विकेंद्रीकृत करना होगा। 
सामाजिक सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए पितृसत्तात्मक मूल्यों का अंत करना अनिवार्य है, जबकि राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए चेतना का प्रसार आवश्यक माना जाता है। चेतना का प्रसार भी करुणामय तरीकों से संभव है, न कि बल प्रयोग से। इसे स्वतंत्र भारत के उन प्रयोगों से आसानी से समझा जा सकता है जिनमें रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए समाज में व्यापक चेतना का प्रसार हुआ। 
सूचनाधिकार की पूरी मुहिम इसके लिए एक बेहतर उदाहरण है, क्योंकि इसमें करुणा प्रधान साधनों से लोगों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया गया। यह प्रयोग राजनीतिक विकेंद्रीकरण के क्षेत्र में सफल होकर लोगों को व्यापक पैमाने पर लोकतंत्र में भागीदार बनाने में सक्षम रहा। ऐसे ही प्रयोग स्त्री विमर्श को आगे बढ़ा सकते हैं, बाजारवाद और पितृसत्तात्मक मानसिकता, दोनों से छुटकारा दिला सकते हैं। 
सामाजिक संरचनाओं को विखंडित करने से पहले नवीन संरचनाओं का ताना-बाना बुनना जरूरी हो जाता है, तभी पूरे समाज के जकडेÞ हुए सोच को एक समतामूलक चेतना की ओर अग्रसर किया जा सकता है। स्त्री को सामंतवाद और वैश्वीकरण की संरचनाओं से आगे जाने के लिए ऐसे सपने तलाशने होंगे जो उसके अपने हों और संपूर्ण समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए समानता के लक्ष्य की तरफ ले जाते हों। वरना हम अपने-अपने विचारों की कुंठाओं में कैद होकर किसी घटना विशेष के समय आक्रोश जाहिर करने की भूमिका मात्र से संतोष करते रहेंगे। ऐसे समाज का रास्ता कत्ल और कानून से होकर नहीं गुजरता, वह तो करुणा की विराट संकल्पना से ही हासिल किया जा सकता है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42361-2013-04-13-06-10-05

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