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Saturday, April 13, 2013

न्याय सिद्धांतों के खिलाफ फांसी

न्याय सिद्धांतों के खिलाफ फांसी


मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर ने दर्ज की आपत्ति

सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिका को खारिज करते समय भुल्लर की दिमागी हालत का भी खयाल नहीं रखा. दिमागी तौर पर बिमार किसी व्यक्ति को फाँसी देना मानवता के खिलाफ एक अपराध है...

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देवेन्दर पाल सिंह भुल्लर की फाँसी को आजीवन कारावास में बदलने की याचिका को खारिज किए जाने की पीयूडीआर (पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स) कड़ी निंदा करता है. इस याचिका की अस्वीकृति के साथ क्षमा, मृत्युदंड, पूर्व के निर्णयों और न्याय की हत्या जैसे कई सारे मुद्दे एक साथ जुड़े हुए हैं.

bhullar-punjabभुल्लर को 1993 में दिल्ली युवा कांग्रेस के ऑफिस के बाहर हुए एक बम ब्लास्ट के सिलसिले में 2003 में फाँसी की सजा सुनाई गई थी जिसमें 9 लोगों की मौत हो गई थी. दिमागी तौर पर उसकी हालत ठीक नहीं मानी जा रही है. उच्च न्यायालय की पीठ ने भी उसे एकमत से फाँसी की सजा नहीं सुनाई थी. सर्वोच्च न्यायालय से फाँसी की सजा मिलने के बाद उसने 2003 में राष्ट्रपति के पास अपनी दया-याचिका दायर किया. राष्ट्रपति ने 8 साल बीत जाने के बाद अचानक 2011 में उसकी दया याचिका को खारिज कर दिया. इसके बाद भुल्लर ने राष्ट्रपति के द्वारा दया-याचिका पर निर्णय करने में हुई अत्यधिक देरी के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में अपनी फाँसी की सजा को उम्रकैद में बदलने के लिए याचिका दायर किया.

पीयूडीआर की ओर से भेजी प्रेस विज्ञप्ती में डी. मंजीत एवं आषीष गुप्ता ने कहा है कि न्यायषास्त्र के सिद्धांत के अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जा सकता है. भुल्लर पहले ही जेल में 12 साल गुजार चुका है और इसलिए यदि उसे अब फाँसी दी जाती है तो यह निष्चित रूप से न्यायषास्त्र के सिद्धंात का उल्लंघन होगा. फाँसी की सजा पाए कैदी को लम्बे समय तक फाँसी के इंतजार में रखना एक निर्मम एवं क्रूरतापूर्ण व्यवहार है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की अवहेलना करता है.

आदर्श रूप में न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली देरी को देखने और उसके आधार पर राहत देने का एक मानक होना चाहिए. कुछ मामलों में हम देखते हैं कि दोषी को महज दो साल या ढ़ाई साल की देरी के आधार पर ही राहत दिया गया है. टी.वी. वथीस्वरण बनाम तमिलनाडू राज्य (1983) 2 एससीसी 68 और इदिगा अनम्मा बनाम आंध्र प्रदेष राज्य (1974) 4 एससीसी 443 के मामलों में न्यायालय ने दो साल की देरी को ठीक माना लेकिन उससे अधिक की देरी होने पर फाँसी को उम्रकैद में बदलने की बात की.

इसी प्रकार भगवान बक्स सिंह एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेष राज्य (1978) 1 एससीसी 214 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने जहाँ ढ़ाई साल की देरी के आधार पर सजा को उम्रकैद में बदलने की बात की वहीं साधु सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य(1978) 4 एससीसी 428 के वाद में साढ़े तीन साल की देरी की स्थिति में सजा को उम्रकैद में बदलने की तरफदारी की. जबकि भुल्लर के मामले को यदि हम देखें तो सजा होने में 12 साल की देरी और राष्ट्रपति द्वारा निर्णय लेने में हुई 8 साल से ज्यादा की देरी के बावजूद न्यायालय ने कोई राहत नहीं दिया.

आष्चर्य है कि सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिका को खारिज करते समय भुल्लर की दिमागी हालत का भी खयाल नहीं रखा. दिमागी तौर पर बिमार किसी व्यक्ति को फाँसी देना मानवता के खिलाफ एक अपराध है. इसप्रकार से सर्वोच्च न्यायालय का यह ऑर्डर गंभीर रूप से न्याय की हत्या प्रतीत होता है और खतरनाक रूप से यह आषंका उत्पन्न करता है कि कहीं इस तरह की अन्यायी न्यायिक कार्यवाही एक चलन न बन जाय. 6 अप्रैल 2013 को ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रगतिषील कदम उठाते हुए फाँसी की सजा की लाइन में खड़े आठ लोगों की सजा पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी थी. 

वर्तमान निर्णय से केवल यही डर नहीं है कि न्यायालय का यह निर्णय फाँसी की कतार में खड़े अन्य लोगों के तकदीर के फैसले को भी प्रभावित कर सकता है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फाँसी की सजा पर विरोधाभासी रूख अपनाने को लेकर भी एक चिंता उत्पन्न होता है कि किसी मामले में तो याचिका पर निर्णय में हुई देरी के आधार पर राहत दे दिया जाता है लेकिन किसी मामले में राहत नहीं दिया जाता है.

एक लोकतांत्रिक देश के अंदर जहाँ जीवन के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में संरक्षण प्रदान किया गया है, मौत की सजा का कोई औचित्य नहीं है. वस्तुतः राज्य को अपने हिरासत में किसी की हत्या को घृणित मानना चाहिए. मौत की सजा एक प्रतिषोध की कार्यवाही है और राज्य को प्रतिकारी न्याय के अंतर्गत एक निर्णायक के रूप में स्थापित करता है. पीयूडीआर मौत की सजा को राज्य हिंसा और घृणा की संस्कृति को बढ़ाने के रूप में देखता है. यह समाज में प्रतिषोध की एक भावना को बढ़ाता है और समाज पुनः हिंसा के चक्र में धकेल देता है.

पीयूडीआर जहाँ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दया याचिका को खारिज करने की निंदा करता है वहीं सजा के तौर पर एक स्वीकृत रूप में मृत्युदंड को फिर से दोहराए जाने के खतरों को देखते हुए, मौत की सजा को पूरी तरह से समाप्त करने की माँग करता है.

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