Follow palashbiswaskl on Twitter

ArundhatiRay speaks

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Tuesday, March 27, 2012

हम सब इस देश से निकाले जाने के इंतजार में हैं!

http://mohallalive.com/2012/03/28/no-one-with-bangladeshi-refugee/

Home » संघर्ष

हम सब इस देश से निकाले जाने के इंतजार में हैं!

28 MARCH 2012 NO COMMENT

♦ पलाश विश्‍वास

य भीम कॉमरेड। इस फिल्म की शुरुआत 11 जुलाई, 1997 के उस दिन से होती है, जब अंबेडकर की प्रतिमा को अपवित्र किये जाने की घटना के विरोध में दस दलित इकट्ठे होते हैं और मुंबई पुलिस उन्हें मार गिराती है। इस हत्याकांड के छह दिन बाद अपने समुदाय के लोगों के दर्द व दुख से आहत दलित गायक, कवि व कार्यकर्ता विलास घोगरे आत्महत्या कर लेते हैं। आत्महत्या करते समय विलास ने अपने सिर पर लाल झंडा नहीं बल्कि नीला रिबन लपेट लिया। लगता है कि विभ्रम की इस भयावह हालत में विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की परिणति यही है।

पिता के कैंसर से 2001 में अवसान के बाद से मैं इस संकट से जूझ रहा हूं। चूंकि बंगाली शरणार्थियों का कोई माई-बाप नहीं है और पुलिनबाबू रीढ़ की हड्डी में कैंसर होने के बावजूद रात-बिरात आंधी-पानी में उनकी पुकार पर देश में हर कोने, और तो और सीमा पार करके बांग्लादेश में दौड़ पड़ते थे। इस पारिवारिक परंपरा का निर्वाह करना अब हमारी मजबूरी है। कहीं से भी फोन आ जाये, तो दौड़ पड़ो! चूंकि पिता महज कक्षा दो तक पढ़े़ थे, हमारी दूसरी तक न पहुंचते-पहुंचते तमाम महकमों, राजनीतिक दलों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को​ दस्तखत या पत्र लिखने की जिम्मेवारी हमारी थी। हमें कविता-कहानी से लिखने की शुरुआत करने का मौका ही नहीं मिला। शायद यही वजह है कि पिता की मौत के बाद कविता-कहानी की दुनिया से बाहर हो जाने को लेकर मेरे मन में कोई पीड़ा नहीं है। हम तो अपने लोगों की जरूरत के मुताबिक लेखक बना दिये गये।

हमारे लोग हमें बचपन से जानते हैं और उनकी मैं अपेक्षा कैसे कर सकता हूं। पर विडंबना है कि हमारी विचारधारा के लोगों को अछूत शरणार्थियों की समस्याओं को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है। पिताजी भी शुरुआती दौर में कट्टर कम्युनिस्ट थे। बंगाल में कामरेड ज्योति बसु के साथ काम कर चुके​ थे। तराई में आकर वे किसान सभा के नेता बन गये और 1958 में उन्होंने तेलंगाना की तर्ज पर ढिमरी ब्लाक आंदोलन का नेतृत्व किया। वे शायद अकादमिक न होने की वजह से आसानी से कह पाते थे कि अगर हम अपने लोगों की हिफाजत नहीं कर पाते तो विचारधारा किस काम की? डीएसबी में पढ़ने-लिखने के बाद यह दलील मानना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। पिताजी की राजनीति हमें असह्य थी। हम शरणार्थियों या अछूतों की मुक्ति के लिए नहीं बल्कि सर्वहारा के अधिनायकत्व के सपने में निष्णात थे। इसलिए दस्तखत और पत्र लिखने के अलावा उनके शरणार्थी आंदोलन में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थी। पिता की मौत के तुरंत बाद 2001 में ही उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया। हमारे लोग आंदोलन कर रहे थे। अब मेरे लिए उनके साथ खड़ा होने के सिवाय कोई चारा नहीं था। पर इस लड़ाई में विचारधारा ने हमारा साथ नहीं दिया।

तब से लेकर अब तक देश के कोने-कोने गांव-गांव भटक रहा हूं, हमारे लोगों की नागरिकता के लिए। 1994 में मेरी चाची ने कैंसर से दम तोड़ दिया और 1995 में पत्नी सविता के दिल का आपरेशन हुआ। उन दिनों अमेरिका से सावधान धारावाहिक चल रहा था। मैंने इस घनघोर संकट में भी एक किस्‍त तक मिस नहीं की। पर पिता की मौत के बाद मैं सृजन जगत से यकायक बाहर हो गया। ​अब हालात ही कुछ ऐसे हैं कि मेरी यह दौड़ तमाम बाधाओं से बाधित हो रही है। मेरे पिता ने ऐसी बाधाओं की परवाह कभी नहीं की। पर मैं उनकी तरह फकीर की जिंदगी तो जी नहीं सकता।

देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी इन दिनों दोहरे संकट में हैं। बंगाल में घट रही कांग्रेस का संतुलन बनाये रखते हुए उन्हें अग्निकन्या ममता बनर्जी की मिजाजपुर्सी भी करनी होती है। लगभग सभी मंत्रिमंडलीय कमिटियों की अध्यक्षता करते हुए देश के सबसे बड़े नीति निर्धारक भी प्रणव दादा हैं। जनमत को डांवाडोल कांग्रेस के हक में बनाये रखते हुए उन्हें कारपोरेट इंडिया की इच्छा के मुताबिक बढ़ते हुए राजकोषीय घाटा और गिरती हुई विकासदर की प्रतिकूल परिस्थितियों में आर्थिक सुधार भी लागू करने होते हैं। बंगाल से केद्रीय मंत्रियों को देश में कहीं भी शरणार्थी उपनिवेश में जाने की जरूरत महसूस नहीं हुई आजादी के बाद बीते साढ़े छह दशक में। पर इस बार यूपी उत्तराखंड में यह अनहोनी हो गयी। मुकुल राय दिनेशपुर पहुंचे तो प्रणव मुखर्जी पीलीभीत। दिनेशपुर दौरा के बाद दिनेश त्रिवेदी की जगह रेल मंत्री बनाये गये राय उस वक्त केंद्र में राज्य मंत्री थे। इसीलिए शायद बंगालियों के दिवंगत नेता पुलिन बाबू की मूर्ति पर माल्यार्पण के बाद स्थानीय जनता के दबाव के बावजूद उन्होंने कोई वायदा नहीं किया। दीदी की इजाजत के बिना ऐसा असंभव भी रहा होगा।

पर प्रणव मुखर्जी हुए देश के वित्तमंत्री और दांव पर लगी थी युवराज की साख। उत्तराखंड के अलावा यूपी के सभी जिलों में कमोबेश शरणार्थी कालोनियां हैं। पीलीभीत में कुछ ज्यादा ही हैं। वहां प्रणव बाबू ने घोषणा की कि वे बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता दिलवाएंगे। पचास के दशक की ​​शुरुआत में यूपी में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को एक झटके में उन्होंने बांग्लादेशी बना दिया। पर नागरिकता के संकट से जूझ रहे शरणार्थियों को यह वरदान ही लगा होगा। उन्होंने उनके इस बयान का विरोध नहीं किया। इलाका मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी का है। पर चुनावी वायदे को सीरियसली न लेते हुए उन्होंने भी कोई हाय तौबा नहीं मचायी।

क्या सचमुच प्रणव बाबू बांग्लादेशियों को नागरिकता दिला सकते हैं?

मुझे इस सिलसिले में पिता की मृत्युशय्या पर तब नैनीताल से कांग्रेस सांसद और उनके सबसे बड़े मित्र नारायण दत्त के किये वायदे की याद​ आती है। उनके साथ यशपाल आर्य, सत्येंद्र गुड़िया और अब दिवंगत दिनेशपुर टाउन एरिया के चेयरमैन चित्तरंजन राहा समेत कांग्रेस के तमाम छोटे बड़े नेता थे। पिताजी से तिवारी जी ने अपनी आखिरी इच्छ पूछी थी। इस पर पिता ने कहा था कि चूंकि उनकी मौत कैंसर से हो रही है, वे इस पीड़ा को समझ सकते हैं। दिनेशपुर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र से इलाके के लोगों का सही इलाज नहीं हो पाता। इस अस्पताल को बड़ा बना दें। तिवारी जी ने तब वायदा किया था कि न केवल इस अस्पताल को बड़ा बनाएंगे, बल्कि वहां कैंसर तक का इलाज होगा। यह कोई चुनावी वायदा नहीं था। मरते हुए पुराने साथी और मित्र को किया गया वायदा था। इसके बाद तिवारी जी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने और आज भी उत्तराखंड की राजनीति में उनकी खूब चलती है। पर उन्‍हें वह वायदा याद नहीं रहा। दिनेशपुर में अस्पताल जैसा कुछ नहीं हो सका। मामूली सी मामूली तकलीफ के लिए लोगों को बाहर दौड़ना पड़ता है।

गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन कानून पास करवाने में पहले विपक्ष के नेता बाहैसियत संसदीय सुनवाई समिति के अध्यक्ष बतौर और फिर सत्ताबदल के बाद मुख्य नीति निर्धारक की हैसियत से उनकी भूमिका खास रही है। 1956 तक पासपोर्ट वीसा का चलन नहीं था। भारत और पाकिस्तान की दोहरी नागरिकता थी। पर नये नागरिकता कानून के तहत 18 जुलाई 1948 से पहले वैध दस्तावेज के बिना भारत आये लोगों ने अगर नागरिकता नहीं ली है, तो वे अवैध घुसपैठिया माने जाएंगे। इसी कानून के तहत उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले के रामनगर इलाके के 21 लोगों को देश से बाहर निकाला गया। जबकि वे नोआखाली दंगे के पीड़ित थे और उन्होंने 1947-48 में सीमा पार कर ली थी। राजनीतिक दल इस कानून की असलियत छुपाते हुए 1971 के कट आफ ईयर की बात करते हैं। कानून के मुताबिक ऐसा कोई कट आफ ईयर नहीं है। हुआ यह था कि 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के बाद यह मान लिया गया कि शरणार्थी समस्या खत्म हो गयी। इंदिरा मुजीब समझौते के बाद इसी साल से पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों का पंजीकरण बंद हो गया। फिर अस्सी के दशक में असम आंदोलन पर हुए समझौते के लिए असम में विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए 1971 को आधार वर्ष माना गया, जो नये नागरिकता कानून के मुताबिक गैरप्रासंगिक हो गये हैं।​
​​
​क्या प्रणव बाबू को अपने ही बनाये कानून के बारे में मालूम नहीं है? उन्होंने शरणार्थियों की सुनवाई करने से मना कर दिया था। देशभर से इस सिलसिले में आवेदन किये गये थे। एक आवेदन हमारा भी था। तब उनसे मिलने गये एक शरणार्थी प्रतिनिधिमंडल को डपट कर उन्होंने कहा था कि अगर वे देश के गृह मंत्री होते, तो बहुत पहले इन शरणार्थियों को खदेड़ कर बाहर कर देते।

​जब तक यह कानून नहीं बदलता, तब तक बिना कागजात वाले समूहों और समुदायों मसलन शरणार्थी, देहात बेरोजगार शहरों में भागे आदिवासी, अपंजीकृत आदिवासी गांवों के लोगों, खानाबदोश समूहों और महानगरों की गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को कभी भी देश से निकाला जा सकता है।

​देशभर में शरणार्थियों के खिलाफ देश से निकालो अभियान के सबसे बड़े सिपाहसलार के इस वायदे पर क्या हंसें और क्या रोयें!

(पलाश विश्वास। पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकर्मी। आजीवन संघर्षरत रहना और सबसे दुर्बल की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। अमेरिका से सावधान उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठौर।)

No comments: