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Wednesday, November 12, 2014

बसंतीपुर की स्त्रियां,जिनके अंतःस्थल में बहती रहीं तमाम नदियां जो बचा सकती हैं खतरे में फंसी यह सारी कायनात पलाश विश्वास

बसंतीपुर की स्त्रियां,जिनके अंतःस्थल में बहती रहीं तमाम नदियां


जो बचा सकती हैं खतरे में फंसी यह सारी कायनात

पलाश विश्वास

उन नदियों को मैंने पहले कभी नहीं देखा था,जिन्हें मैंने अपने गांव की स्त्रियों के अंतःस्थल में बहते देखा है अनबंधी।


अब तो सुंदरलाल बहुगुणा जी के शब्दों में गोमुख भी रेगिस्तान में तब्दील और सूखने लगे हैं तमाम जलस्रोत,उत्तुंग शिखरों के गोद में जैसे ग्लेशियर झुंड के झुंड,वैसे ही समुंदर की गहराइयों से जनमते मेघ भी।


जलवायु,मौसम और पर्यावरण का अब कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि कृषि की हत्या हो गयी है और इस पृथ्वी पर भूमि का उपयोग मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति के विरुद्ध होने लगा है।


भूमि उपयोग बदले बिना कमसकम एशिया के सामने भय़ंकर जलसंकट है और जलयुद्ध का खतरा भी प्रबल है।अनाज और जल के लिए फिर खून की नदियां बहेंगी जिससे प्यास बुझायेंगे सत्तावर्ग के वे तमाम लोग ,जिनकी प्यास आखिर खून से ही बूझती है।


अब की दफा तो गंगा मुक्ति के बहाने अरबो डालर के वारे न्यारे के मध्य गंगा की गोद में सफेद पत्थरों का रेगिस्तान ऋषिकेश और हरिद्वार में देख आया हूं।


इस बार भी अपने घर में दादी,नानी,मां,ताई,चाची के निधन के बावजूद और गांव में बुजुर्ग पीढ़ी के मर खप जाने के बावजूद,खेतों और घरों के बंट जाने के बावजूद बसंतीपुर की औरतों के अंतःस्थल में फिर उन नदियों को अनबंधी बहते देख आया हूं।


और इस यकीन के साथ लौटा हूं कि पूंजी की नवनाजी साँढ़ संस्कृति के विरुद्ध कोई जनयुद्ध अगर संभव है,तो उसे संभव कर सकती हैं ये स्त्रियां ही,जिनके अंतस्थल में बहती हैं इस कायनात की तमाम नदियां।


मैं बसंतीपुर को पीछे छोड़ आया हूंं लेकिन इस कोलकाता महानगर में एक स्त्री के साथ रोजनामचा का साझा चूल्हा है आज भी पल छिन पल छिन।


रवींद्र नजरुल संगीत में निष्णात अपनी सविता बाबू उस मायने में बसंतीपुर में कभी रही नहीं हैं,जैसे बसंतीपुर की औरतें।


मेरे बिना वह एकाध बार बसंतीपुर और बिजनौर अपने मायके में हाल फिलहाल के बरसों में घूम जरुर आयी है।


बसंतीपुर में स्थाई तौर पर रहने का मौका उसे मिला नहीं है कभी,शायद फिर कभी नहीं मिले।लेकिन इस वक्त ताजा स्टेटस के मुताबिक उसकी धड़कनें बसंतीपुर के साथ जैसे नत्थी हैं,वैसी मेरी कभी हो ही नहीं सकतीं।सिंपली बिकाज,वह स्त्री है,मैं सिर्फ एक अदद मर्द।


बसंतीपुर के तमाम गिले शिकवे,सुलझे अनसुलझे मसलों से जैसे सविता जुड़ी हैं हमारी दिवंगत ताई की तरह,हैरत अंगेज है।


मेरी मां तो बसंतीपुर छोड़कर विवाह के बाद फिर लौटकर अपने मायके ओड़ीशा के बालेश्वर नहीं गयीं और न हमने कभी ननिहाल देखा है।


कुदरत का करिश्मा है कि मां से कम जज्बां उस बसंतीपुर के लिए सविता में कम नहीं है।


इस लिए खास महानगर में भी मैं रोज रोज उन नदियों के मुखातिब जरुर होता हूं जो मैं करीब 1460 किमी पीछे छोड़ आया हूं।


बसंतीपुर का नाम लिया लेकिन तराई और पहाड़ ,हिमालय क्षेत्र के गांवों में सर्वत्र मैंने उन छलछलाती नदियों के देखा है।


पूर्वोत्तर के चप्पे चप्पे में,दंडकारण्य के युद्धग्रस्त आदिवासी भूगोल में,खंडित शरणार्थी और विस्थापित भूगोल में,दक्षिण भारत में,नगरों महानगरों की गंदी बस्तियों में,बामसेफ के राष्ट्रीय सम्मेलनों में, कालेजों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों ,जंगलों, गुजरात के रण में,पंजाब के पिंड दर पिंड बिच, यूपी बंगाल बिहार ओड़ीशा और राजस्थान के मरुस्थल में भी वे नदियां कल कल बहती हैं,जो शायद मनुष्यता और सभ्यता की आखिरी उम्मीदें हैं।


इस बार 16 अक्तूबर को गांव पहुंचा तो पद्दो ने कहा कि कैशियर की पहली पत्नी का कल ही निधन हो गया है और वहां पहुंचा तो कैशियर की दूसरी पत्नी ने कहा कि बहुत देर से आये हो,मरते दम तक वह पूछ रही थीं कि तुम कब लौट रहे हो।  


बचपन में बसंतीपुर के अलग अलग घर हमने कभी चीन्हे नहीं है और कभी यह मालूम ही नहीं पड़ा कि किस मां,ताई या चाची के हवाले कब कहां हैं हम।


बसंतीपुर ही क्या,आस पास के विजयनगर, हरिदासपुर, शिवपुर, खानपुर, पंचाननपुर, उदयनगर,चंदनगढ़,मोहनपुर, सिखों के गांव अर्जुनपुर और अमरपुर से लेकर तराई के दर्जनों गाव में हम कहीं भी किसी के घर में भी उनके बच्चों के साथ अपना वजूद शामिल कर सकते थे।


1971 की जुलाई में मैं पहलीबार बसंतीपुर से बाहर शक्तिफार्म के हाईस्कूल में पढ़ने गया तो शक्तिफार्म और रतनफार्म की रिफ्यूजी कालोनियों,थारु बुक्सा गांवों तक,और जंगल में बसे गांवों में भी मैं फिर बसंतीपुर की उन्हीं नदियों की पानियों की सोहबत में अपनी सांसें जी रहा था।


आपातकाल के दौरान जब नैनीझील में विनाशकारी पौधे की खबर से पहाड़ों में पर्यटक नाम की चिड़िया गायब हो गयी थी,तब बसंतीपुर की औरतें पागल सी हो रही थीं कि उस नैनीझल के टूटने पर मेरा क्या होगा।बार बार कहती रही,घर लौट आओ।


अब भी बसंतीपुर की औरतों का यही सवाल है कि घर कब लौटोगे।


उन्हें कैसे बताऊं कि जब मन हुआ तब जड़ों से कटकर घर छोड़ना जितना आसान होता है,दोबारा उन्हीं जड़ों से जुड़ना जितना मुश्किल होता है,घर में वापसी कहीं उससे भी मुश्किल कोई जंग होती है।


तभी से मेरा नियम रहा है कि कहीं से लौटो तो अपने गांव के हर घर में सबसे मिलकर,कुशलक्षेम पूछकर ही कपड़े बदलने हैं,इससे पहले नहीं।


तभी से गांव भर की मांएं,चाचियां,बुआएं,दादियां,नानियां और बहनें पलक पांवड़े बिछाकर मेरी छुट्टियों का इंतजार करती रही हैं और उनमें से ज्यादातर के दिवंगत हो जाने के बावजूद अब भी वह सिलसिला टूटा नहीं है।


वे नदियां अब भी बसंतीपुर में बहती हैं।


शुक्र है कि बहती हैं और बची हुई है यह मुकम्मल कायनात हर रोज के साजिशाना कातिल हरकतों,बिगड़े फिजां,तवे पर दुनिया के बावजूद।


मेरे जीवन में प्रेम की अलग कोई जगह थी या नहीं,ऐसा मुझे आज भी मालूम नहीं पड़ा है।कद काठी से मैं कोई हसीन वर्चस्ववादी मर्द तो कभी नहीं था न चाकलेटी मेरा कोई वजूद है।पचपन से लेकर जवानी तक मुझे बेहद रफ टफ जानते रहे हैं लोग।


जिनको छूने को मन करता था,अपनी अश्वेत अस्पृश्य हैसियत उस दिशा में बढ़ते हमारे कदम थाम लेते थे और यह हमारी अधूरी शिक्षा और अधूरे ज्ञान,ऐतिहासिक गुलामी की पीढ़ी दर पीढ़ी के हीनता बोध का नतीजा है,ऐसा अब मैं समझ पाता हूं।


क्योंकि आज तक किसी स्त्री ने,किसी भी वर्ग समाज की स्त्री ने किसी भी स्तर पर हमसे कोई भेदभाव नहीं किया है।


बल्कि उनसे वह प्यार मिलता रहा है,जो परिवार बनाता है।जिसके बिना न समाज संभव है,न देश और न सभ्यता।जो चुंबन का मोहताज भी नहीं।


डीएसबी नैनीताल में जब पढ़ता था,तब भी जाड़ों और गर्मियों की छुट्टियों में घर आना होता था नियमित और खेतों खलिहानों के कामकाज में हाथ बंटाना होता था।


कड़कती सर्दियों में गरम कपड़ों में लिपटी मेरी देह तब भी गांव की माटी कीचड़ और गोबर की वास से लथपथ रहा करती थी।जबकि डीएसबी की तमाम छात्राएं और अध्यापिकाएं कमसकम उन दिनों बेहद खूबसूरत हुआ करती थीं।


अंग्रेजी विभाग में तो अमूमन सुंदर से सुंदर  अध्यापिकाएं और छात्राएं विवाह की तैयारियों के सिलसिले में ज्यादा आती थीं।


उनमें से किसी ने मेरी पहचान और हैसियत की कभी परवाह की हो,कभी मुझसे मुंह फेरा हो या नाक भौं सिकुड़ लिया हो,ऐसा मुझे याद है नहीं।


बल्कि डीएसबी में कला विभाग के अंग्रेजी माध्यम और बाद में स्नातकोत्तर अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी होने के बावजूद समाज शास्त्र,अर्थशास्त्र के अलावा हिंदी,जंतु विज्ञान,रसायन, शास्त्र, भौतिकी गणित,वनस्पति विज्ञान विभागों में पूरा का पूरा बसंतीपुर मेरे लिए सजा रहता था और डीएसबी में सत्तर के दशक में कभी मुझे लगा ही नहीं कि मैं अपने गांव से बाहर हूं।


मेरी तमाम अध्यापिकाएं मेरे लिए बसंतीपुर की ही पढ़ी लिखी औरतें थीं।मेरी सहपाठिनें मेरे गांव की कुड़िया थीं बिंदास।


शरत चंद्र दरअसल देवदास के लेखक नहीं है,जैसा कि उनके विरुद्ध फतवा है।


वे स्त्री के अंतःस्थल को जानने समझने वाले विश्व के प्रथम पुरुष हैं और साहित्य उन्हें याद रखे या नहीं,दुनियाभर की स्त्रियां उन्हें भूल नहीं सकतीं।


स्त्री अंततः जीत लेने की जैसी चीज होती है,साहित्य और दूसरे कलामाध्यमों की इस ग्रीक त्रासदी को आखिरकार शरत चंद्र ने बिना किसी वर्ग चेतना,बिना किसी विचारधारा या बिना किसी जीवन दर्शन के जीवन के भोगे हुए यथार्थ के आलोक में पहलीबार तोड़ा।


शरत की स्त्रियां कुल मिलाकर भारत के गांवों की,जनपदों की ,खेतों खलिहानों और साझे चूल्हों की,कृषि उत्पादन प्रणाली में रची बसी हाड़ मांस की बसंतीपुर की औरतें हैं,जिनके रोम रोम में बंगाल की खुशबू है तो बंगाल की खोयी हुई सारी नदियां भी।


शरत ने कभी स्त्री को शूद्र या गुलाम नहीं लिखा है और स्त्री का पक्ष लेकर भी तसलिमा की तरह उच्चकित कुछ उच्चविचार नही पेश किये हैं। लेकिन स्त्री के रोजनमचे,उसके आचरण में मनुष्यता और सभ्यता के मानवीय मूल्यों की मुकम्मल तस्वीर जैसी उन्होंने रची हैं,वैसी किसी ने नहीं।


स्त्री मुक्ति की उनकी कथा व्यथा देहगाथा नहीं है,इंसानियत है मुक्म्मल, सभ्यता और लोक की बुनियाद है।


उनके मुकाबले टैगोर और बंकिम यहां तक कि माणिक बंद्योपाध्याय की मेहनतकश स्त्रियां और महाश्वेता देवी की आदिवासी स्त्रियां तक अमूर्त लगती हैं, हाड़ मांस की नहीं।


गोर्की के उपन्यासों और तालस्ताय के उपन्यासों से लेकर उगो और चार्ल्स डिकेंस और थामस हार्डी के उपन्यासों तक में बसंतीपुर की औरतों को ही मैंने महसूस किया है वेगमती नदियों की तरह बहती हुईं।


विदेशी उन पात्रों के मुकाबले शरत की स्त्रियां ज्यादा समझ में आती हैं।या फिर जैसी पंजाबी में अमृता प्रीतम की स्त्रियां , लोकिन वे विचारों से लैस हैं और नारी चेतना के खिलाफ एक भी शब्द नहीं कहतीं।आशापूर्णा की अपनी सीमाएं अलग हैं।


ताराशंकर बंद्योपाध्याय की औरतें तो अंत्यज भूगोल की होकर भी सामंती भाषा और मूल्यों को ही अभिव्यक्त करती हैं।


जबकि प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में स्त्री मन का ब्यौरा उस तरह हासिल नहीं है,जैसे शरत के उपन्यासों और कहानियों में  है।


मुद्दे की बात तो यह है कि जाति,धर्म नस्ल इत्यादि से जुड़ी अस्मिताएं,राजनीति और युद्ध,विद्वेष और घृणा का अविराम उत्सव,वर्चस्व और उत्पीड़न,अन्याय और अत्याचार,भेदभाव और रंगभेद,जायनवाद,फासीवाद और नव नाजीवाद की जो मनुष्यविरोधी तमाम किलेबंदियां हैं तिलस्मी,उनमें स्त्री का वजूद जरुर लहूलुहान है,लेकिन उनकी रचना में स्त्री का कोई हाथ नहीं है।


स्त्री इस मर्दवादी मर्दों की रची दुनिया में मर्द वर्चस्व की कठपुतलियां बना दी गयी हैं।


वे उतनी ही नस्ली भेदभाव,जाति बहिस्कार,अन्याय,असमता,अत्याचार,उत्पीड़न की शिकार हैं जैसे बहुसंख्य जनगण।


लिंग वैषम्य के कारण,जैविकी असुविधाओं के कारण स्त्री असुरक्षित है सबसे ज्यादा इस मुक्त बाजार में और यह सांढ़ संस्कृति स्त्री के वजूद को मिटाकर उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करके उन नदियों का गला घोंट देने की भ्रूण हत्या दोहराने के इंतजाम में लगी है।हर नदी,हर स्त्री  अब गंगा रेगिस्तान बना दी जा रही हैं।


जिनके बिना न मनुष्यता,न प्रकृति और प्रयावरण,न अर्थव्यवस्था,न लोक ,समाज, संस्कृति और सभ्यता का कोई अस्तित्व संभव है।


स्त्री उत्पीड़न का अविराम महोत्सव है यह मुक्तबाजारी कार्निवाल,जहां हर नदी अब एक शोकगाथा है प्रवाहमान.जो हमारी नियति है।


यह सभ्यता का संकट है कि हम अपनी अनबंधी नदियों को बचाने के लिए आखिरी किसी प्रयत्न भी कर नहीं पा रहे हैं।


यह सभ्यता का संकट है कि सुंदर लाल बहुगुणा और उनकी पत्नी विमला बहुगुणा अब एकदम एकाकी हैं और उनके साथ न पहाड़ है और न मैदान,न देश है और न समाज।


यह सभ्यता का संकट है कि उनके अन्यतम मित्र पर्यावरणविद,कोलकाता आईआईएमएस  के प्रोफेसर जयंत बंद्योपाध्याय को इस महानगर और बंगाल के लोग तो क्या,सिविल सोसाइटी के पेज थ्री लोग और मीडियावाले जानते भी नहीं हैं।


प्रकृति और पर्यावरण के तमाम योद्धा अब इस मुक्तबाजारी समय से बहिस्कृत लोग हैं।


तो कैसे हम अंततः बचा पायेंगे अपनी अपनी नदियां और यह मुकम्मल कायनात,अब भी समय है कि कुछ दिलो दिमाग को सहेज लीजिये।


पुरुषतंत्र  स्त्री को उनके नैसर्गिक चरित्र में बने रहने की इजाजत नहीं देता,सभ्यता और मनुष्यता का वास्तविक संकट यही है।


प्रकृति और पर्यावरण ,मनुष्यता और सभ्यता का संकट भी यही है।


यही है मुकम्मल नवनाजीवाद,जिसमें अनबंधी नदियों को बहते रहने की इजाजत नहीं है। हरगिज हरगिज नहीं है।


उत्तराखंड की किन्हीं गौरा पंत,मणिपुर की किन्हीं इरोम शर्मिला और दंतेवाड़ा की किन्हीं सोनी सोरी के चेहरे पर मैं फिर बसंतीपुर की स्त्रियों का चेहरा चस्पां देखता हूं,जिनमे कोयलांचल की भूमिगत आग की तरह इस वर्चस्ववादी सैन्य पुरुषतंत्र को बदलने का वहीं दावानल है जो हम हिमालय में देखते रहे हैं।


चूंकि हमने कोयला खदानों की औरतें देखी हैं,क्योंकि हमने उत्तराखंड और मणिपुर की उत्तराओं और चित्रांगदाओं को देखा है,


क्योंकि हमने आदिवासी भूगोल के चप्पे चप्पे में अपने बसंतीपुर को आत्मसात होते देखा है


और हमने डीएसबी में इस दुनिया की सबसे हसीन और सबसे जहीन औरतों को समझा है,


हम मानते हैं कि भेदभाव,रंग भेद,युद्ध गृहयुद्ध के इस वैश्विक धर्मांध मनुष्यविरोधी प्रकृति विरोधी स्थाई बंदोबस्त के तंत्र मंत्र यंत्र को ये औरते हीं तोड़ सकती हैं,


जिनकी अंतःस्थल में बहती हों तमाम तमाम नदियां और इस कायनात को आखिर बचा सकती हैं


बसंतीपुर की ही औरतें जैसी औरतें,


जिन्हें समझने का दुस्साहस करके शरत चंद्र आवारा मसीहा हो गये।


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