रचनाकार: गोरख पाण्डेय | |
संग्रह का मुखपृष्ठ: स्वर्ग से बिदाई / गोरख पाण्डेय पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले दुसरे चुनउवा में जब उपरैलें त बोले लगले ना तीसरे चुनउवा में चेहरा देखवलें त बोले लगले ना अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तूं बहुत कइलना समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई हाथी से आई घोड़ा से आई अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद... नोटवा से आई बोटवा से आई बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद... गाँधी से आई आँधी से आई टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद... काँगरेस से आई जनता से आई झंडा से बदली हो आई, समाजवाद... डालर से आई रूबल से आई देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद... वादा से आई लबादा से आई जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद... लाठी से आई गोली से आई लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद... महंगी ले आई गरीबी ले आई केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद... छोटका का छोटहन बड़का का बड़हन बखरा बराबर लगाई, समाजवाद... परसों ले आई बरसों ले आई हरदम अकासे तकाई, समाजवाद... धीरे-धीरे आई चुपे-चुपे आई अँखियन पर परदा लगाई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई । (रचनाकाल :1978) सूतन रहलीं सपन एक देखलीं सपन मनभावन हो सखिया, फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा उजर घर आँगन हो सखिया, अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा त खेत भइलें आपन हो सखिया, गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं भगवलीं महाजन हो सखिया, केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय नाहीं केहू बा भयावन हो सखिय, मेहनति माटी चारों ओर चमकवली ढहल इनरासन हो सखिया, बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं मिलल मोर साजन हो सखिया ।
हमारी यादों में छटपटाते हैं कारीगर के कटे हाथ सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में हमारी यादों में तड़पता है दीवारों में चिना हुआ प्यार ।
होने वाली मुठभेड़ों से भरे हैं हमारे अनुभव ।
एक बूढ़ा माली हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में फूल और उम्मीद रख जाता है ।
डबाडबा गई है तारों-भरी शरद से पहले की यह अँधेरी नम रात । उतर रही है नींद सपनों के पंख फैलाए छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से जर्जर पंख फैलाए उतर रही है नींद हत्यारों के भी सिरहाने । हे भले आदमियो ! कब जागोगे और हथियारों को बेमतलब बना दोगे ? हे भले आदमियो ! सपने भी सुखी और आज़ाद होना चाहते हैं ।
आग के ठंडे झरने-सा बह रहा था संगीत जिसे सुना नहीं जा सकता था कम-से-कम पाँच रुपयों के बिना । 'चलो, स्साला पैसा गा रहा है' पंडाल के पास से खदेड़े जाते हुए लोगों में से कोई कह रहा था । जादू टूट रहा है-- मुझे लगा--स्वर्ग और नरक के बीच तना हुआ साफ़ नज़र आता है यहाँ से पुलिस का डंडा आग बाहर है पंडाल के भीतर झरना ठंडा । वे डरते हैं किस चीज़ से डरते हैं वे तमाम धन-दौलत गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ? वे डरते हैं कि एक दिन निहत्थे और ग़रीब लोग उनसे डरना बंद कर देंगे ।
मेहनत से मिलती है ये आँखें हैं तुम्हारी हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं चैन की बाँसुरी बजाइये आप शहर जलता है और गाइये आप हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं असली सूरत ज़रा दिखाइये आप
1 जब तक वह ज़मीन पर था कुर्सी बुरी थी जा बैठा जब कुर्सी पर वह ज़मीन बुरी हो गई । 2 उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी कुर्सी लग गयी थी उसकी नज़र को उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी जो औरों को नज़रबन्द करता है । 3 महज ढाँचा नहीं है लोहे या काठ का कद है कुर्सी कुर्सी के मुताबिक़ वह बड़ा है छोटा है स्वाधीन है या अधीन है ख़ुश है या ग़मगीन है कुर्सी में जज्ब होता जाता है एक अदद आदमी । 4 फ़ाइलें दबी रहती हैं न्याय टाला जाता है भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती नहीं मरीज़ों तक दवा जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया उसे फाँसी दे दी जाती है इस बीच कुर्सी ही है जो घूस और प्रजातन्त्र का हिसाब रखती है । 5 कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है कुर्सी न बचे तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र देश और दुनिया । 6 ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं सिक्कों पर रखी है कुर्सी कुर्सी पर रखा हुआ तानाशाह एक बार फिर क़त्ले-आम का आदेश देता है । 7 अविचल रहती है कुर्सी माँगों और शिकायतों के संसार में आहों और आँसुओं के संसार में अविचल रहती है कुर्सी पायों में आग लगने तक । 8 मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह नाली में आँख खुलती है जब नशे की तरह कुर्सी उतर जाती है । 9 कुर्सी की महिमा बखानने का यह एक थोथा प्रयास है चिपकने वालों से पूछिये कुर्सी भूगोल है कुर्सी इतिहास है ।
झुर-झुर बहे बहार रास्ते में उगे हैं काँटे रास्ते में उगे हैं पहाड़ देह में उगे हैं हाथ हाथों में उगे हैं औज़ार
फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं हमारे वतन की नई ज़िन्दगी हो समय का पहिया चले रे साथी कला कला के लिए हो फावड़ा उठाते हैं हम तो मिट्टी सोना बन जाती है हम छेनी और हथौड़े से कुछ ऎसा जादू करते हैं पानी बिजली हो जाता है बिजली से हवा-रोशनी औ' दूरी पर काबू करते हैं हमने औज़ार उठाए तो इंसान उठा झुक गए पहाड़ हमारे क़दमों के आगे हमने आज़ादी की बुनियाद रखी हम चाहें तो बंदूक भी उठा सकते हैं बंदूक कि जो है एक और औज़ार मगर जिससे तुमने आज़ादी छीनी है सबकी
फ़ैसला करते हैं ।
माया महाठगिनि हम जानी, एक झीना-सा परदा था, परदा उठा फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं हम न थे, तुम न थे और आंखें खुलीं... खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी। हत्या की ख़बर फैली हुई है अख़बार पर, पंजाब में हत्या हत्या बिहार में लंका में हत्या लीबिया में हत्या बीसवीं सदी हत्या से होकर जा रही है अपने अंत की ओर इक्कीसवीं सदी की सुबह क्या होगा अख़बार पर ? ख़ून के धब्बे या कबूतर क्या होगा उन अगले सौ सालों की शुरुआत पर लिखा ? हमारी ख्वाहिशों का नाम इन्क़लाब है, हमारी ख्वाहिशों का सर्वनाम इन्क़लाब है, हमारी कोशिशों का एक नाम इन्क़लाब है, हमारा आज एकमात्र काम इन्क़लाब है, ख़तम हो लूट किस तरह जवाब इन्क़लाब है, ख़तम हो किस तरह सितम जवाब इन्कलाब है, हमारे हर सवाल का जवाब इन्क़लाब है, सभी पुरानी ताकतों का नाश इन्क़लाब है, सभी विनाशकारियों का नाश इन्क़लाब है, हरेक नवीन सृष्टि का विकास इन्क़लाब है, विनाश इन्क़लाब है विकास इन्क़लाब है, सुनो कि हम दबे हुओं की आह इन्कलाब है, खुलो कि मुक्ति की खुली निगाह इन्क़लाब है, उठो कि हम गिरे हुओं की राह इन्क़लाब है, चलो बढ़े चलो युग प्रवाह इन्क़लाब है । पैसे की बाहें हज़ार अजी पैसे की महिमा है अपरम्पार अजी पैसे की पैसे में सब गुण पैसा है निर्गुण उल्लू पर देवी सवार अजी पैसे की पैसे के पण्डे पैसे के झण्डे डण्डे से टिकी सरकार अजी पैसे की पैसे के गाने पैसे की ग़ज़लें सबसे मीठी झनकार अजी पैसे की पैसे की अम्मा पैसे के बप्पा लपटों से बनी ससुराल अजी पैसे की मेहनत से जिन्सें जिन्सों के दुखड़े दुखड़ों से आती बहार अजी पैसे की सोने के लड्डू चाँदी की रोटी बढ़ जाए भूख हर बार अजी पैसे की पैसे की लूटें लूटों की फ़ौजें दुनिया है घायल शिकार अजी पैसे की पैसे के बूते इंसाफ़ी जूते खाए जा पंचों ! मार अजी पैसे की ।
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Monday, June 15, 2009
स्वर्ग से बिदाई / गोरख पाण्डेय
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