TaraChandra Tripathi
भाषाओं की विलुप्ति
राष्ट्रवाद और अब भूमंडलीकरण। बाजार में बदलती दुनिया। हजबैंडस डे में ढलता करवा चौथ। विज्ञापनों की चकाचौंध में दिग्भ्रमित होते लोग। हर चीज बिकाऊ है, पर उसेे बेचा कैसे जाय, यही हमारा सोच, हमारा वर्तमान, हमारा सर्वस्व बन चुका है।
दुनिया के इस बाजार में हम बहुत कुछ खो रहे हैं। सहस्राब्दियों के अन्तराल में संचित विरासत विलुप्ति के कगार पर है। लोग, जो चमकता है, उसे अपनाने के चक्कर में, अपना सब कुछ दाँव पर लगा रहे हैं।
बात केवल कुमाऊँ या गढ़वाल की नहीं हैं। सारी दुनियाँ की है। लोग अगली पीढ़ी को वही दे रहे हैं, जो चमकता है, जो बिकाऊ है और बिक सकता है। यह रोग संभ्रान्तों से रिसता हुआ विभ्रान्तों और अन्त्यों तक को आक्रान्त कर चुका है। जैसे हम व्यक्ति नहीं ब्रांड बनते चले जा रहे हैं।
इस ब्रांड बनने का सर्वाधिक घातक प्रभाव भाषाओं की विलुप्ति के रूप में सामने आ रहा है। वे भाषाएँ, जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं है अथवा जो राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य नहीं हैं, विलुप्त होती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार विश्व में वर्तमान लगभग छः हजार भाषाओं में से आधी 2050 तक अतीत के गर्त में विलीन हो जायेंगी। गणितीय अनुमान लगाएँ तो औसतन प्रति मास पाँच भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं। यही गति रही तो अगली शताब्दी में बहुत कम भाषाएँं प्रचलन में रह जायेंगी। इनमें से अधिकतर भाषाएँं राजकीय या धार्मिक संरक्षण प्राप्त औपचारिक भाषाएँ होंगी। इस प्रकार लोगों के दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली भाषाओं की संख्या बहुत कम रह जायेगी।
कोई भी भाषा, चाहे वर्तमान में उसके बोलने वालों की संख्या लाखों में हों, यदि अगली पीढ़ी की ओर संक्रमित नहीं होती है तो वह विलुप्त हो जाती है। यह स्थिति अधिकतर विकासशील देशों में लोकभाषाओं यहाँ तक कि तथाकथित राजभाषाओं की भी हो रही है। पहली स्थिति में राजभाषाएँ लोक.भाषाओं को निगल रही हैं तो दूसरी स्थिति में तथाकथित भूमंडलीय भाषा, अंग्रेजी, इन राजभाषाओं को प्रचलन से बाहर करने के लिए तैयार बैठी है। इस भूमंडलीय भाषा से भारत ही नहीं यूरोप के भी अनेक देश घबराये हुए हैं। यूरोपीय संघ के संविधान से फ्रांस जैसे देशों की असहमति के भीतर भी कहीं न कहीं यूरोप के अनेक देशों के बीच वर्तमान सामान्य संपर्क की भाषा, अंग्रेजी, के हावी हो जाने और क्षेत्रीय भाषाओं के चलन से बाहर हो जाने का डर समाया हुआ है।
भारत में ही लें। संपन्नों ने यदि हिन्दी या अन्य प्रान्तीय भाषाओं को त्याग कर बच्चों को जन्म से ही अंग्रेजी का व्यवहार कराना आरंभ कर दिया है तो विपन्नों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोकभाषाओं का परित्याग कर प्रान्तीय भाषाओं या हिन्दी को अपनाना आरंभ कर दिया है। लोक भाषाओं को दरिद्र नारायणों से जो बचाखुचा सहारा मिल रहा था, वह भी अब कुछ ही दिनांे का मेहमान रह गया है।
मुझे याद है बचपन में हम में से कोई हिन्दी बोलता था, तो हम उसे शान बघारना मानते थे। हिन्दी का व्यवहार तभी करते थे जब किसी से कलह हो जाता था। अपनापे की सीमा तक हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। विद्यालयों में शिक्षण का माध्यम हिन्दी होने के बावजूद गुरुजी के निर्देश या फटकार कुमाऊनी में होते थे। घर में रामरक्षा स्तोत्र यदि संस्कृत में था तो पिताजी का आदेश कुमाऊनी में होता था। शादी.व्याह या पूजापाठ में भाषा संस्कृत थी तो पंडितजी के निर्देश कुमाऊनी में होते थे। जागर या बैसी लगती थी तो जगरिया, या दास ही नहीं लोक देवता भी कुमाऊनी में बोलते थे। अब तो लोकदेवताओं ने भी कुमाऊनी बोलना छोड़ दिया है। आज कुमाऊनी पुरानी पीढ़ी की बोलचाल में तो यदा.कदा सुनाई देती है पर नयी पीढ़ी की बोलचाल से वह लगभग विलुप्त हो चुकी है। गाँव घरों में माताओं ने बच्चों के साथ कुमाऊनी बोलना छोड़ दिया है। यह स्थिति केवल कुमाऊनी की नहीं है विश्व की तमाम लोकभाषाओं की है। बहुसंख्य भाषाएँ औद्योगिकीकरण और भूमंडलीकरण के दबाव में दम तोड़ रही हैं।
यह माना कि लोकभाषाएँ शिक्षा, रोटी और व्यापक संपर्क की भाषा नहीं हैं। खुलते हुए क्षितिजों में वेे रोटी की भाषा हो भी नहीं सकती। मक्खन लगी रोटी की भाषा तो हिन्दी या प्रान्तीय भाषाएँ भी नहीं रह गयी हैं। इस पर भी न तो वह राजभाषा हैं और न धर्म या संस्कार की भाषा जो दीर्घकाल तक संस्कृत, हिब्रू और लैटिन, की तरह दूसरी भाषा के रूप में बनी रह सकें।
कुमाऊनी को ही लें; गुमानी, गौरदा और शेरदा की कवितायें, मथुरदा के लेख, कैलास लोहनी का संस्कृत ग्रन्थों के कुमाऊनी में अनुवाद का द्रविड़ प्राणायाम, गोपाल गोस्वामी और गिरदा की सुरीले गीतों के कैसेट्स, आदि आदि कुमाऊनी को इतिहास के पन्नों पर अंकित तो कर सकते हैं, मिश्र की ममियों की तरह संग्रहालयों में सहेज सकते हैं, पर उसे बचा नहीं सकते।
लोकभाषाएँ ही नहीं कोई भी भाषा, चाहे वह कितनी ही प्रचलित क्यों न हो, अगली पीढ़ी जैसे ही उसे सीखना बन्द करती है, उसका लोक.व्यवहार से विलुप्त होना आरंभ हो जाता है। तात्पर्य यह है कि भाषा तभी बचेगी जब अगली पीढ़ियाँ उसे अनवरत अपनाती रहें।
भाषाओं की विलुप्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उनको बोलने वाले समाप्त हो गये हों । अधिकतर तो यह हुआ है कि अधिक प्रभावशाली वर्ग की भाषा के व्यामोह में लोगों ने अपनी भाषा को बोलना ही छोड़ दिया। परिणाम उनकी भाषाओं की विलुप्ति के रूप में सामने आता है। आर्य भाषाओं के दबाव के कारण यही स्थिति सिन्धु और सुमेर सभ्यता के निर्माताओं की भाषाओं की ही नहीं सुदूर पश्चिम में स्पेन के कैल्टिबेरियन, इबेरियन, टार्टेसियन भाषाओं की भी हुई। केवल बास्क भाषा ही अपने बोलने वालों की प्रतिबद्धता के कारण बच पायी है।
भाषा और परंपराएँ किसी भी जाति की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान होती हैं। वे उस समूह में एकता लाती हैं, उन्हें संगठित करती हैं। इसीलिए हर आक्रान्ता समूह, आक्रान्त देश की भाषाओं और उनकी संस्कृति को गर्हित सिद्ध करने का प्रयास करता है। चाहे यह अपनी भाषा और संस्कृति अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की नीति से हो या विजित जाति की संस्कृति और भाषाओं को हतोत्साहित करने की नीति से ।
संभ्रान्त वर्ग तो अपने सामाजिक स्तर को बनाये रखने के लिए सत्ता से हर तरह का समझौता करने के लिए तैयार रहता है अतः वह विजेताओं की संस्कृति को अपनाने में देर नहीं करता और यहीं से आक्रान्ता वर्ग की भाषा निचले वर्गों की ओर रिसती हुई स्थानीय भाषाओं को प्रचलन से बाहर करना आरंभ कर देती है।
जहाँ यह प्रयास निष्फल हो जाता है, वहाँ कभी.कभी दंड और प्रतिबंध भी लागू किये जाते रहे हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में आस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमरीका में आदिवासी बच्चों को उनकी मातृ.भाषा और संस्कृति से अलग करने के लिए छात्रावासों में भेजना आरंभ किया गया। वहाँ वे अपनी भाषा बोलने पर दंडित किये जाते थे। लोकभाषाओं के सार्वजनिक और शासकीय प्रयोग का निषेध कर दिया गया। यही आयरलैंड और वेल्स की कैल्टिक भाषा को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने किया। यह उत्पीड़न बाहरी देशों में ही नहीं हुआ अपने देश में भी स्वाधीनता के पचास साल बाद भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के परिसरों में लोकभाषाओं का तो दूर राष्ट्रभाषाओं का प्रयोग करने पर भी छात्र दंडित किये जाते रहे हैैंं।
जनसंख्या के दबाव और औद्योगिकीकरण के अनवरत विस्तार के कारण न केवल संसार की जैविक विविधता का विनाश हो रहा है अपितु यह भाषाओं की विलुप्ति के रूप में भी सामने आ रहा है। वैश्विक अर्थ.व्यवस्था छोटे और औद्योगिक रूप से पिछडे़ समाजों को अपनी पारंपरिक संस्कृति और भाषा को छोड़ कर बड़े क्षेत्र में सहभागिता के लिए प्रेरित करती है। विभिन्न क्षेत्रीय समाजों में अपनी सफलता के लिए पारंपरिक भाषाओं को छोड़कर राजभाषाओं को अपनाने की प्रवृत्ति इसी की देन है। उदाहरण के लिए रोजगार पाने में सुविधा के लिए पूर्वी अफ्रीका के लोग अपनी पारंपरिक भाषाओं को छोड़ कर स्वाहिली अपना रहे हैं, पूर्वी यूरोप में रूसी भाषा हावी है और सच कहें तो पूरी दुनिया अपनी भाषाओं को छोड़ कर अंग्रेजी के पीछे भाग रही है। एक कालखंड तक इन भाषाओं के साथ लोक.भाषाएँ भी चलती रहती हैं पर जैसे.जैसे पुरानी पीढ़ी समाप्त होती जाती है, लोकभाषाएँ प्रचलन से बाहर हो जाती हैं।
लोकभाषाओं और लोकसंस्कृति की विलुप्ति में संचार माध्यमों का भी बड़ा हाथ है। आज किसी भी समाज में बच्चों को संसार के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए अपने समाज के बड़ेबूढ़ों की उतनी आवश्यकता नहीं रह गयी है जितनी कि हाल के वर्षों तक थी। दूसरी ओर ये संचार माध्यम जो आम तौर पर किसी न किसी निहित स्वार्थ के अधिकार में होते हैं और कुल मिलाकर बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़े होते हैं, वही परोसते हैं जो प्रच्छन्न रूप में उनके लिए लाभकारी होता है। नयी पीढ़ी उनकी चमक.दमक से विभ्रमित हो जाती है। परिणाम अपसंस्कृति और अपनी भाषा एवं परंपराओं से अलगाव के रूप में सामने आता है।
यह भी सत्य है कि विभ्रान्त संभ्रान्तों का और अन्त्य विभ्रान्तों अनुसरण करते हैं। आज संभ्रान्तों में कम से कम एक छोटा सा वर्ग ऐसा तो है जो अपने घर से बहुत दूर प्रवास में ही सही अपनी भाषा बोलने या सुनने की ललक रखता है। अल्पकालीन अमरीकी प्रवास में मुझे अनेक ऐसे अनेक अनिवासी भारतीय मिले थे जो घर में केवल अपनी भाषा का प्रयोग करते थे। अपनी.अपनी भाषाएँं उनकी अनौपचारिक भाषाएँ थीं और अंग्रेजी औपचारिक भाषा। भारत और पाकिस्तान यहाँ भले ही परस्पर दो संघर्षरत देश हों, वहाँ तो भाषा के कारण, कराची की रहने वाली पड़ोसन को मेरी पत्नी भी अपने मायके की ही लग रही थी। चाहे इस उप महाद्वीप में हम हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू के अनेक पचड़ों में हांे, वहाँ उनमें कोई भेद.बोध नहीं था। यही स्थिति बंगलौर में दशकों से रह रहे अनेक प्रवासी बुजुर्गों की है जो अपनी बोली सुनने के लिए लालायित रहते हैं।
अपने क्षेत्र में हमें इसका अनुभव नहीं होता, पर जब हम दूसरे क्षेत्र में और अधिक प्रभावी समूह के संपर्क में आते हैं, हमें अपनी सांस्कृतिक पहचान की आवश्यकता और उसकी उपादेयता का अनुभव होता है। मुझे लगता है यदि जडे़ं अपनी भूमि में हैं तो भौगोलिक दूरी जितनी अधिक होगी, अपनी माटी की गंध और अपनी बोली की मिठास के लिए बैचैनी उतनी ही अधिक होगी। पर बेगानी धरती में उगने वाली अगली पीढ़ी इस कसक का अनुभव नहीं कर सकती। इसीलिए प्रवासियों में अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने का अनवरत समारंभ दिखायी देता है।
अपनी काली या सफेद सम्पन्नता के मद में डूबे बहुत से लोग यह मान बैठे हैं कि यदि लोक.भाषाएँ नहीं भी बचेंगी तो संसार की क्या हानि हो जायेगी। यदि दुनिया की एक ही भाषा हो तो विभिन्न देशों के लोगों कोे परस्पर विचारों और अनुभवों का आदान.प्रदान करने में और भी सुविधा हो जायेगी। उनके विचार से कोई भी भाषा शब्दों का एक विन्यास मात्र है, जिससे हम एक दूसरे के विचारों और भावनाओं को समझने में समर्थ होते हैं और यह कार्य किसी भी भाषा द्वारा हो सकता है। वे भूल जाते हैं कि भाषा मात्र शब्द और अर्थ नहीं है, अपितु उससे जुड़ी परंपराओं, अनुभवों और किसी क्षेत्र के लोगों द्वारा सहस्राब्दियों के अन्तराल में अर्जित ज्ञान और सांस्कृतिक विरासत की संवाहिका भी हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार संसार में जीवन को बनाये रखने के लिए जैविक विविधता अपरिहार्य है उसी प्रकार मानवसंस्कृति को बनाये रखने के लिए सांस्कृतिक और भाषायी विविधता भी अपरिहार्य है। कल्पना कीजिये उस दिन की, जब संसार में केवल मनुष्य ही होंगे, क्या वे बच पायेंगे? इसी प्रकार यदि सारे संसार में एक ही भाषा हो तो हजारों साल के अन्तराल में विभिन्न मानव.समूहांे द्वारा पल्लवित संस्कृतियाँ बच पायेंगी?ं प्रसिद्ध अंग्रेज भाषा वैज्ञानिक डेविड क्रिस्टल के विचार से अंग्रेजी का जिस तरह से प्रसार होे रहा है, यह हो सकता है कि एक दिन वही सारे संसार की एक मात्र भाषा बन जाय। यदि यह हुआ तो यह धरती का अकल्पनीय और भयावह बौद्धिक सर्वनाश होगा ।
आवश्यकता इस बात की है कि समय रहते भाषाओं के संरक्षण पर ध्यान दिया जाय। जिन भाषाओं में लिखित साहित्य है वह भले ही प्रचलन से बाहर हो जाने पर भी इतिहास में, अभिलेखागारों में सुरक्षित रहेंगी लेकिन जिन लोकभाषाओं में लिखित साहित्य नहीं है उनका तो नाम लेवा भी कोई नहीं रह जायेगा।
अतः जिस प्रकार आज विलुप्ति के कगार पर खडे़ जीवों और वनस्पतियों को बचाने का प्रयास हो रहा है, उसी तरह विलुप्ति के कगार पर खड़ी भाषाओं को भी बचाने का प्रयास अपेक्षित है।
भाषाएँ, यदि उनके लिखित रूप प्राप्त हों, तो विलुप्ति के बाद भी पुनर्जीवित की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए कैल्टिक परिवार की कोर्निश भाषा किसी जमाने में दक्षिण.पश्चिमी इंग्लैंड में बोली जाती थी। 1777 में इस भाषा को बोलने वाले अंतिम व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर यह भाषा विलुप्त हो गयी थी, लेकिन हाल के वर्षों में इस भाषा की लिखित सामग्री के आधार पर अतीत में कोर्निश भाषा बोलने वाले लोगों के वंशजों ने अपनी पारंपरिक भाषा को सीखना और अपने बच्चों के साथ इस भाषा में बातचीत करना आरंभ कर दिया। सड़कों पर सूचना पट्ट अंग्रेजी के साथ.साथ कोर्निश में भी लिखे जाने लगे। फलतः कोर्निश भाषा पुनर्जीवित हो उठी और इस समय इस भाषा को बोलने वाले लोगों की संख्या दो हजार से अधिक है। इसी तरह वेल्श और नवाजो भाषाओं को बोलने वाले लोगों ने अपनी भाषाओं को बचाने के लिए 'इमर्सन' स्कूलों की स्थापना की जहाँ उनके बच्चे अपनी पारंपरिक भाषा में बातें करते थे। फलतः विगत कुछ दशकों में इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। अमरीका में कैलिफोर्निया की मृतप्राय भाषाओं को पुनर्जीवित करने के लिए लेन्ने हिल्टन जैसे कतिपय बुद्धजीवियों ने इन भाषाओं को सीख कर धाराप्रवाह बोलने वाले प्रशिक्षुओं के माध्यम से दूरदर्शन पर अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत करने आरंभ किये। फलतः ये भाषाएँ फिर से प्रचलन में आने लगी हैं।
ऐसा ही एक उदाहरण आधुनिक हिब्रू भाषा का है जो शताब्दियों तक संस्कृत की तरह केवल धर्म और शास्त्र की भाषा के रूप में जीवित रह सकी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में ऐलियेजर बेन यहुदा ने फिलिस्तीन में इसे सामान्य बोलचाल की भाषा के रूप में पुनर्जीवित करने का आन्दोलन चलाया। इजराइल की स्थापना होने के बाद हिब्रू, विद्यालयों में पढ़ाई जाने लगी और आज यह इजराइल के नागरिकांे की सामान्य भाषा है। इसी तरह पेजवार मठ के महन्त श्री विश्वेश्वर तीर्थ की प्रेरणा से, कर्नाटक प्रदेश में सिमोगा के समीप स्थित मदुुर नामक गाँव के निवासियों ने संस्कृत को अपनी भाषा के रूप में अपना लिया है और आज इस गाँव के सभी लोग संस्कृत में इस तरह बोलते हैं जैसे वह उनकी मातृभाषा हो।
जब विश्व भर में अपनी पारंपरिक भाषाओं को बचाने के प्रयास हो रहे हैं तो फिर हम अपनी अभी तक जीवित भाषाओं की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं। नयी पीढ़ी को उसमें दीक्षित करने में अभी अधिक समय नहीं लगेगा। घरों में मातापिता लोकभाषा का प्रयोग करें। विद्यालयों में जिस प्रकार आज लोकनृत्य और लोकगीतों के कार्यक्रम होते हैं उसी प्रकार समय.समय पर लोकभाषा में वाद.विवाद, भाषण तथा संभाषण और लेखन की भी प्रतियोगिताएँ आयोजित हों, विभिन्न उत्सवों में अन्य भाषाओं के कार्यक्रमों की तरह ही स्थानीय भाषाओं के रोचक कार्यक्रम प्रस्तुत किये जायें। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले बच्चों को अच्छे पुरस्कारों की व्यवस्था हो, उन्हें प्रोत्साहित किया जाय। जागरूक और समाज के प्रतिष्ठित लोग समय.समय पर इन आयोजनों में भागीदारी करें। भलेही हम किसी भी पद पर हों, अपने समाज में, अपने लोगों के साथ अपनी भाषा में वार्तालाप करें तो बच्चे भी अनायास ही अपनी भाषा को आत्मसात् कर लेंगे। इस प्रकार हमारी भाषाएँं और उसके माध्यम से पूर्वजों की विरासत अगली पीढियों की ओर संक्रमित होती रहेगी।
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