Sunday, August 2, 2015

यह वाकई मुश्किलों और चुनौतियों का दौर है। संविधान-प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता ही नहीं, हमारा लोकतंत्र(वह चाहे जैसा-जिस शक्ल का रहा हो) भी खतरे में है। अभिव्यक्ति पर खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। कांचा इलैय्या का ताजा प्रकरण तो एक बानगी भर है। पूरे देश में ऐसा हो रहा है। तीस्ता के प्रसंग में पहले ही हम देख चुके हैं। स्थानीय स्तर पर लेखकों-पत्रकारों-वकीलों-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी खुलेआम धमकियां या लानतें मिल रही हैं। हम सचमुच एक खतरनाक दौर में दाखिल हो चुके हैं। इस तरह की हरकतें और बढ़ेंगी। लोकतांत्रिक शक्तियों के सामने पहले से ज्यादा चुनौतियां हैं। दुखद है कि अभी तक इन चुनौतियों की गंभीरता का ज्यादातर को एहसास नहीं हो रहा है। देर हो जायेगी तो पानी सिर से ऊपर हो जायेगा। लोकतंत्र को डूबने से बचाना मुश्किल होगा।







यह वाकई मुश्किलों और चुनौतियों का दौर है। संविधान-प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता ही नहीं, हमारा लोकतंत्र(वह चाहे जैसा-जिस शक्ल का रहा हो) भी खतरे में है। अभिव्यक्ति पर खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। कांचा इलैय्या का ताजा प्रकरण तो एक बानगी भर है। पूरे देश में ऐसा हो रहा है। तीस्ता के प्रसंग में पहले ही हम देख चुके हैं। स्थानीय स्तर पर लेखकों-पत्रकारों-वकीलों-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी खुलेआम धमकियां या लानतें मिल रही हैं। हम सचमुच एक खतरनाक दौर में दाखिल हो चुके हैं। इस तरह की हरकतें और बढ़ेंगी। लोकतांत्रिक शक्तियों के सामने पहले से ज्यादा चुनौतियां हैं। दुखद है कि अभी तक इन चुनौतियों की गंभीरता का ज्यादातर को एहसास नहीं हो रहा है। देर हो जायेगी तो पानी सिर से ऊपर हो जायेगा। लोकतंत्र को डूबने से बचाना मुश्किल होगा।

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment