Friday, August 23, 2013

पत्रकारिता का लाइसेंस क्यों

पत्रकारिता का लाइसेंस क्यों

Thursday, 22 August 2013 10:28

उर्मिलेश


जनसत्ता 22 अगस्त, 2013 :  भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू काफी दिनों से पत्रकारिता की तुलना वकालत और डॉक्टरी आदि जैसे पेशों से करते आ रहे हैं।

उनका तर्क है कि अन्य सभी पेशों के लिए कुछ न कुछ योग्यता तय है। पर पत्रकार कोई भी बन जाता है!  पांच-छह महीने पहले उनके इस आशय के बयानों पर काफी विवाद हुआ तो विस्तृत रिपोर्ट और सुझाव देने के लिए उन्होंने प्रेस परिषद के एक पत्रकार-सदस्य की अध्यक्षता में नई समिति बना दी। समिति की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। 
अब देश के सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने उसी मुद्दे को नए सिरे से छेड़ा है। वे पत्रकार की योग्यता के साथ लाइसेंस-पद्धति का सुझाव दे रहे हैं। उनके मुताबिक पत्रकार बनने के लिए वैसे ही लाइसेंस जारी किए जाने चाहिए जैसे वकील या डॉक्टर को होते हैं। जस्टिस काटजू ने भी लगभग इसी तरह की बातें कही थीं। इनके तर्कों को ध्यान से देखें तो वस्तुत: ये पत्रकारिता को एक जन-माध्यम या अभिव्यक्ति के मंच से शुद्ध व्यवसाय में रूपांतरित करने की वकालत करते हैं। पर ये दोनों विद्वान भूल जाते हैं कि पत्रकारिता आज एक पेशा भले हो, व्यापार नहीं है, मीडिया उद्योग व्यवसाय-व्यापार जरूर है। 
हम अतीत में न जाकर पत्रकारिता का आज का संदर्भ लें तो इसके दो आयाम नजर आते हैं- संस्थागत स्वरूप (मालिक-प्रबंधन-व्यवसाय आदि) और सूचना-संवाद का पत्रकारीय उपक्रम। संस्थानों के मालिकों के लिए यह भले सिर्फ धंधा हो, पर उनके पत्रकारों के लिए यह आजीविका के साधन के साथ-साथ अभिव्यक्ति और सूचना-संवाद का एक जन-माध्यम है। 
हमारे सूचना प्रसारण मंत्री और प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष, दोनों विद्वान कानूनविद हैं। मैं बेवजह उनके विशेषज्ञता-क्षेत्र में दाखिल होने की धृष्टता नहीं करना चाहता। पर एक आम भारतीय नागरिक की हैसियत से हम सब इतना तो जानते हैं कि भारतीय संविधान में प्रेस की आजादी के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है। प्रेस भी अनुच्छेद 19(1)ए के तहत मिले वाक्-स्वातंत्र्य के नागरिक-अधिकारों के तहत ही अपनी आजादी का उपयोग करता है। लेकिन अनुच्छेद 19(1)जी को देखें तो वहां व्यवसाय या धंधे के अधिकार के साथ कुछ अन्य व्यावसायिक जवाबदेहियां भी हैं। इससे किसी व्यवसाय या व्यापार के लिए 'व्यावसायिक या तकीनीकी योग्यता' और तदनुरूप लाइसेंस आदि के प्रावधान का रास्ता साफ होता है। 
कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे विद्वान कानूनविद-द्वय भारतीय पत्रकारिता को शुद्ध व्यवसाय-व्यापार की श्रेणी में ले जाना चाहते हैं? अनुच्छेद 19(1)ए के बजाय वे पत्रकारिता को भी 19(1)जी के हवाले करना चाहते हैं? पत्रकारिता और मीडिया-व्यापार के बीच के फर्क को नहीं समझा गया तो पत्रकारिता की दुनिया पूरी तरह सूचना-संवाद की दुकानदारी या धंधेबाजी में तब्दील हो जाएगी।
इस तरह के तर्क का सबसे अफसोसनाक पहलू है कि यह मीडिया उद्योग और पत्रकारिता के सबसे जरूरी सवालों और चुनौतियों से ध्यान हटाता है। अगर मंत्रीजी और परिषद अध्यक्ष पत्रकारों की योग्यता बढ़ाने के लिए चिंतित हैं, तो यह स्वागतयोग्य है। लेकिन इसके लिए जो रास्ता वे सुझा रहे हैं, उससे न तो पत्रकारिता की गुणवत्ता बढ़ेगी और न ही पत्रकारों की योग्यता में इजाफा होगा। इससे तो पत्रकारिता बंधक हो जाएगी। वह दिन भारतीय लोकतंत्र के लिए कितना बुरा होगा, जब कोई सरकारी, गैर-सरकारी या कॉरपोरेट कौंसिल पत्रकारिता का लाइसेंस बांटेगी। अभिव्यक्ति की आजादी पर लाइसेंस का घेरा और किसी सरकारी या कॉरपोरेट कौंसिल का पहरा होगा। 
सुझाए गए लाइसेंस-राज में सोशल साइट्स का क्या होगा? इंटरनेट से जुड़े संवाद के माध्यमों ने हमारे जैसे जनतांत्रिक समाज में आज लोगों को सूचना के मामले में और अधिकारसंपन्न बनाया है। कोई भी नागरिक अपनी बात समाज तक पहुंचा सकता है। आज अखबारों-चैनलों में नागरिक-पत्रकारिता की झलक देखी जा सकती है। कई बार ऐसे लोगों की पहल पर बहुत अच्छी खबरें सामने आई हैं। कई सुदूर, खासकर आदिवासी इलाकों में स्थानीय स्तर के कार्यकर्ताओं और कुछ पेशेवर पत्रकारों के सहयोग और समन्वय से उस क्षेत्र के लोगों के बीच सूचना-संवाद के नए माध्यम भी तलाशे और आजमाए जा रहे हैं। कुछ सफल प्रयोग सामने आए हैं। लोग मोबाइल के जरिए अपने-अपने इलाके की खबरें एक-दूसरे तक पहुंचा रहे हैं।   
प्रेस परिषद अध्यक्ष और मंत्री, दोनों को पता नहीं कैसे यह भ्रम है कि संस्थानों में कार्यरत पत्रकारों के लिए कोई योग्यता तय नहीं है! लगभग सभी मीडिया संस्थानों में आजकल पत्रकार बनने के लिए स्नातक होना जरूरी माना जाता है। मास-कॉम आदि की डिग्री/डिप्लोमा को वरीयता दी जाती है। 
असल समस्या योग्यता-निर्धारण की नहीं है, नियुक्ति प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता की है। उसे संबोधित करने की जरूरत है। इन दिनों, ज्यादातर मीडिया संस्थानों में बौद्धिक सामर्थ्य और योग्यता से ज्यादा पैरवी-संपर्क-निजी पसंद आदि को तरजीह मिल जाती है। पिछले कुछ समय से एक नया सिलसिला शुरू हुआ है, राजनीतिक या कॉरपोरेट पहुंच वालों की नियुक्तियों का। जूनियर से सीनियर पदों तक यह सिलसिला जारी है। प्रेस परिषद या मंत्रालय की नजर इस पर क्यों नहीं है? 
राजनेता-उद्योगपति 'अपने-अपने संपादक-पत्रकार' चाहते हैं। पत्रकारिता इस तरह के 'उपक्रमों' से अयोग्य होती है। क्यों नहीं सभी संस्थानों में जूनियर स्तर पर टेस्ट-इंटरव्यू आधारित एक पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया को अनिवार्य किया जाता? संपादक सहित वरिष्ठ पदों की नियुक्ति प्रकिया में संबद्ध संस्थान के प्रबंधन के अलावा सामाजिक जीवन और बौद्धिक जगत की ख्यातिलब्ध हस्तियों को बाहर के विशेषज्ञ के तौर पर शामिल किया जा सकता है। यही बोर्ड प्रस्तावित नामों का पैनल बनाए और इंटरव्यू आदि करे। 

प्रेस परिषद अध्यक्ष और मंत्रीजी को पत्रकारिता का असल संकट 'पत्रकारों के योग्य-प्रशिक्षित न होने या पेशे में लाइसेंस का प्रावधान न होने में' नजर आ रहा है। यह उनके सोच का संकट है। पिछले संसदीय सत्र के दौरान मई, 2013 में सूचना प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति की सैंतालीसवीं रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई। एक सौ सत्ताईस पृष्ठों की यह रिपोर्ट आगे की कार्रवाई के लिए मंत्रालय को भेजी जा चुकी है। अभी तक किसी को नहीं मालूम कि मंत्रालय ने बीते तीन महीनों में इस रिपोर्ट पर क्या काम किया! 
जहां तक रिपोर्ट का सवाल है, निस्संदेह, भारतीय मीडिया उद्योग और पत्रकारिता की मौजूदा चुनौतियों और समस्याओं पर यह एक उल्लेखनीय संसदीय पहल है। संसदीय समिति ने रिपोर्ट तैयार करने के क्रम में मीडिया से जुड़े विभिन्न पक्षों, सरकार, प्रेस परिषद के प्रतिनिधियों, विशेषज्ञों और आम जनता के नुमाइंदों की भी राय ली। लगभग सभी ज्वलंत सवालों को इस रिपोर्ट में समेटने और उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में रखते हुए समाधान सुझाने की कोशिश की गई है। 
इस रिपोर्ट में वह सब कुछ है, जिस पर बीते पांच-सात सालों से भारतीय मीडिया में बहस होती रही है। खबरों की दुनिया पर हावी विज्ञापन-बाजार, क्रास मीडिया स्वामित्व, रोक के तमाम दावों के बावजूद 'पेड न्यूज' का अबाध गति से जारी रहना, मीडिया पर बढ़ता कॉरपोरेट-दबाव या मीडिया का कॉरपोरेटीकरण, नियमन बनाम स्वनियमन, प्रेस परिषद या मीडिया कौंसिल, संपादकीय विभागों की नौकरियों में ठेका-प्रथा, संपादक नामक संस्था का लगातार निष्प्राण किया जाना और पत्रकारों के बीच बढ़ती पेशागत-असुरक्षा जैसे लगभग सभी बड़े सवालों को इसमें शामिल किया गया है। आश्चर्य कि इस रिपोर्ट पर प्रेस परिषद और मंत्रालय, दोनों खामोश नजर आते हैं। 
कौन महत्त्वपूर्ण है, संसद या मंत्रालय? संसद की स्थायी समिति (जिसे मिनी पार्लियामेंट कहा गया है) की रिपोर्ट या प्रेस परिषद के अध्यक्ष या मंत्री के निजी विचार? सामूहिक विचार-विमर्श से तैयार शोधपरक रिपोर्ट की ऐतिहासिक संसदीय पहल को नजरंदाज करने के पीछे क्या इरादा हो सकता है? क्या मंत्रालय या परिषद ने इस बात पर कभी गौर किया कि भारतीय मीडिया में दलित-आदिवासी अनुपस्थित क्यों हैं? अल्पसंख्यक और महिलाएं भी इतना कम क्यों हैं? इस तरह की समस्याओं का समाधान पत्रकारिता का लाइसेंस-राज नहीं है? 
यह कम दिलचस्प नहीं कि परिषद और मंत्रालय, दोनों की चिंता में सिर्फ पत्रकारों को सुधारना शुमार है, मीडिया उद्योग या कॉरपोरेट को नहीं! देश में बने प्रथम प्रेस आयोग से द्वितीय आयोग तक, मीडिया उद्योग और पत्रकारिता की गुणवत्ता में सुधार और उसे समाज-सापेक्ष बनाए रखने के कई कदम सुझाए गए हैं। कई सुझावों पर आज तक अमल नहीं हुआ! 
खबर और विज्ञापन के औसत पर क्यों बात नहीं हो रही है (ट्राई के निर्देश पर ढिलाई बरते जाने के संकेत मिल रहे हैं), 'पेड न्यूज' और 'प्राइवेट ट्रिटीज' के धंधे पर क्यों नहीं सवाल उठाए जा रहे हैं? आज गली-गली खुल रहे ज्यादातर मास कॉम निजी संस्थान पत्रकार बनने के छात्रों के सपने का धंधा कर रहे हैं। इन्हें कौन दे रहा है लाइसेंस? 
प्रेस परिषद और सरकार के आला अधिकारी पत्रकारों-पत्रकारिता के लिए नई योग्यता-लाइसेंस आदि की बात कर रहे हैं, पर वे जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा बनाए सन 1955 के 'श्रमजीवी पत्रकार कानून' को याद तक नहीं करना चाहते! सरकार या संसद ने अभी इस कानून को निरस्त नहीं किया है, पर मीडिया उद्योग के संचालकों और उनके वफादार संपादकीय सिपहसालारों ने उस कानून को जिंदा रहते मार डाला है। 
आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की प्रक्रिया का असर मीडिया संस्थानों पर तेजी से पड़ा, उसमें सबसे पहले इस कानून की बलि ली गई। वेतन बोर्ड के जमाने में कुछेक मीडिया संस्थानों में यूनियनों की गुटबाजी और काम के प्रति लापरवाही भी देखी जाती थी। पर उसका इलाज उस ढांचे में भी संभव था। अब तक के अनुभव से साफ है कि ठेका प्रथा ने पत्रकारिता में निर्भीकता और निष्पक्षता की विरासत को बुरी तरह प्रभावित किया है। 
टीवी-18 और कोलकाता के शारदा समूह का मामला देखिए, पत्रकारों में किस कदर असुरक्षा बढ़ी है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक बीते छह-सात सालों के दौरान देश में लगभग दस हजार पत्रकार और अन्य मीडियाकर्मी अपने नियमित रोजगार से बेदखल हुए हैं। इस तरह के जरूरी सवालों पर सभी खामोश रहना चाहते हैं, वे सिर्फ पत्रकारों को 'योग्य' बनाने पर तुले हैं, पूरा मीडिया उद्योग चाहे जितना अयोग्य, अन्यायी और अनैतिक बना रहे!

 

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