Monday, July 8, 2013

हमारे गुरुजी तारा चंद्र त्रिपाठी के विचारःसाँच कहौं तो मारन धावै

  • साँच कहौं तो मारन धावै

    विश्वविद्यालयी अध्ययन के दौरान दो साल एक स्वामी जी के आश्रम में रहा। उनका निजी सचिव समझ लीजिये। टाइप करना जानता था और उनकी बूढ़ी खड़खड़ाती मशीन को अच्छी तरह हाँक ले जाता था। इसके बदले मुझे आश्रम में 60 वर्गफीट की एक कोठरी मिल गयी थी। जब भी कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति आता, स्वामी जी मुझे 'आश्रम स्टूडैंट' कहकर अपनी दीन­दयालुता दिखाने के लिए आगे खड़ा कर देते। मेरे रात दिन के परिश्रम के बदले यह कोठरी और उस पर 'आश्रम स्टूडैंट' की 'आठों पहर उपाधि'। जब­-तब इस आश्रम स्टूडैंट के बहाने सरकार से और संपन्नों से कुछ न कुछ झटक लेने की तमाम संतीय कोशिशों से मेरा साक्षात्कार होता रहता था। 
    स्वामी जी भी छोटे-मोटे स्वामी नहीं थे। बड़े­-बड़े नेताओं से उनके संपर्क थे। जो भी बड़ा नेता नैनीताल आता, उनके चरणों में मत्था अवश्य टेकता था। केवल जवाहरलाल नेहरू इसके अपवाद थे। आज का दूरदर्शनीय युग होता तो स्वामी जी की गणना सर्वाधिक दर्शनीयों में होती।
    स्वामी जी सन्यासी थे। गीता पर प्रवचन देते थे। बार­बार दुहराते थे 'काम्यानां कर्मर्णां न्यासं सन्यासं कवयो विदुः' अर्थात् अपने सभी इच्छित कर्मों को परमात्मा में न्यस्त कर देना ही सन्यास है। सचमुच उन्होंने अपने काम्य कर्मों को न्यस्त कर दिया था, लेकिन कहाँ न्यस्त किया था, इस बात का पता नहीं चलता था। वे नेताओं के प्रचार में जाते थे, प्रान्तीय नेताओं का संपर्क केन्द्रीय नेताओं से करवाते थे। गीता पर प्रवचन देते समय किसी न किसी प्रभावशाली नेता का उल्लेख ऐसे करते थे मानो यह बात कृष्ण ने अर्जुन से नहीं, उस नेता से कही हो। भक्तिनें उन्हें घेरे रहती थीं।

    भक्ति­काव्य के अध्ययन के दौरान 'लीला' पर बहुत पढा़ था। लेकिन 'लीला' या करणीय और अकरणीय सभी कर्मों को करने में समर्थता (कर्तव्याकर्तव्य समर्थ प्रभु) को इस आश्रम की कोठरी में रहते हुए ही समझ पाया। बाहर घोल्या होंगलू भीतर भरी मँगारि। वास्तविक नहीं प्रतीयमान आचरण। लीला या मात्र दिखावा। दिखावा या ऐसा अभिनय जो वास्तविक लगे। अतः जब भी किसी 'सन्त' के सामने बैठता हूँ, लीला मेरे सामने आ जाती है।

    आध्यात्मिक संस्थाएँ जिस सेवा का इतना बड़ा वितान तानती हैं, उस सेवा को इन अध्यात्मवादियों के साथ रह कर भी, मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ। अब तक के अपने अनुभव से मेरी समझ में तो 'सेवा' का अभिप्राय व्यवहार में अननुभूत उपदेश देना, गुरु और उसकी संस्था का विज्ञापन करना, उनके समारोहों की व्यवस्था करना, उनके पीछे-­पीछे भागना, उनके बारे में तरह­तरह के चमत्कारों को गढ़ना, किसी प्राकृतिक आपदा पीड़ित क्षेत्र में गुरु की संस्था का शिविर लगा कर, उसकी वीडियोग्राफी और विज्ञापन करना और इस बहाने अमीरों या अमीर देशों से कुछ झटक लेना, गुरु के चित्रों, ताबीजों, कैसेटों, का व्यापार करना ही समझा है। फिर सूचना क्रान्ति क्या हुई, रात­दिन टेलीविजन पर किसी न किसी विशेष ब्रांड के परिधान, जटा-जूट, माला, छापा, तिलक, लगाये बाबा के उपदेश छा गये। मैं पंडित हूँ तू बुद्धू है। मुझसे सीख कि कैसे केवल वेश और वाणी के आडंबर से कितना बड़ा साम्राज्य खड़ा किया जा सकता है। यह अध्यात्म नहीं है, अध्यात्म उद्योग है। हींग लगे न फिटकिरी, रंग चोखा। 

    अध्यात्म तो वास्तव में एक विरल एवं वैयक्तिक अनुभूति है। जिसके होने पर सांसारिकता तिरोहित हो जाती है। मन की जड़ता, स्वार्थपरता, समाज की मिथ्या धारणाएँ, पद और प्रतिष्ठाबोध विस्मृत हो जाते हैं। लरिकाई का प्रेम, जिसके कारण युगल समाज द्वारा हत्या कर दिये जाने की भी परवाह नहीं करते, अपना ऐहिक अस्तित्व मिटा देते हैं। विष का प्याला राणा भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे। इतनी एकाग्रता, आठों पहर उसी की रटन, अनाहत नाद, छाड़ि दयी कुल की कानि और अब देखे बिना कल नाहि तुम्हें से अधिक आध्यात्मिक अनुभूति क्या हो सकती है। यही प्रेम का ढाई अक्षर है जो सारे कंचुकों को तोड़ कर व्यक्ति को उन्मुक्त कर देता है। वह रंग नहीं देखता रूप नहीं देखता, जाति, संप्रदाय, ऊँच­-नीच कुछ नहीं देखता, पर कुछ ऐसा अवश्य देखता है कि उसी का होकर रह जाता है। यही अध्यात्म है। निराकार होकर भी साकार और साकार होकर भी निराकार। जाहि लगे सोई पै जाने। 

    यह संवेग ही कभी अपने को मिटा देने की सीमा तक भी जाने को तैयार युगलों के रूप में, कभी मीरा के रूप में और कभी चैतन्य और रामकृष्ण परमहंस के रूप में उभरता है। 
    वस्तुतः हमारी सारी अनुभूतियाँ शब्दों से परे होती हैं। शब्दों में तो वही अनुभूतियाँ व्यक्त हो पाती हैं जिनमें कम संवेदना होती है। गहन अनुभूति में तो शब्द भी निरर्थक हो जाते हैं। शब्द जहाँ लाचार हो जाते हैं, वहाँ दैहिक प्रतिक्रियाएँ अनुभूतियों को व्यक्त करती हैं और जहाँ ये प्रतिक्रियाएँ भी लाचार हो जाती है, वहाँ संसार खो जाता है। यही ब्राह्मी स्थिति है। वह उल्लास जो आर्कमेडीज को 'यूरेका'- 'यूरेका' चिल्लाते हुए साइरेक्यूज नगर की सड़कों पर निर्वस्त्र दौड़ा देता है। 

    दूसरी ओर हमारे 'सन्त', जिन्हें हम नाना रूपों में हर रोज देखते हैं, जिनके पीछे लोग सम्मोहित से दौड़ते हैं, वे औरों को भले ही दौड़ा दें, अपने चंगे रहते हैं। उनका एक मिशन होता है। इस मिशन के लिए उन्हें ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस ऊर्जा के लिए जाने­अनजाने वे एक सुनहरा जाल बुनते हैं। यह जाल आरंभ एक कल्पनाशील युवा का रूमानी स्वप्न भी हो सकता है। संसार को बदल देने का स्वप्न। पर माया ? पीछे लगने वाले लोग, ठकुर सुहाती कहने वाले लोग, बढ़ता हआ ताम­झाम और हुजूम, चेले-­चपाटे, माला­वनमाला और तालियों की गड़गड़ाहट, समाज और सत्ता पर छाये लोगों का आगमन, अभिनन्दन, वेश और वाणी के सहारे झरता वैभव, युवा कल्पनाशील योगी को एक घाघ व्यापारी में बदल देता है। 

    वह मानव सेवा का विज्ञापन करता है। अपने चित्र ताबीज, वीडियो और आडियो कैसेट्स ही नहीं, परिधान और सौन्दर्य प्रसाधनों का भी व्यापार करने लगता है। अपनी उतरन को भी बहुमूल्य वस्तु की तरह भक्तों के बाजार में उतारने में पीछे नहीं रहता। सात्विकता का उपदेश देते हुए वह अपने महल खड़े करता है, विशाल परिसर बनाता है। देशान्तरों में शाखा-­प्रशाखाएँ खोलने के लिए जोड़­-तोड़ लगाता है। यदा­कदा अपने आप को लोक­कल्याण के प्रति समर्पित दिखाने के लिए व्यापारियों के से धर्मदा खाते से कहीं-­कहीं विद्यालय या चिकित्सालय खोलता है, छात्रवृत्ति बाँटता है, और उसका विशद प्रचार कर सम्पन्नों और सम्पन्न देशों से अनुदान प्राप्त करता है। एक स्थिति यह आती है कि वह ऊँचे आसन पर बैठे हुए होने पर भी नारद की तरह मोहिनी के जाल में फँस जाता है। मोहिनी ! नारी नहीं, सांसारिक चमक­दमक। यह चमक­दमक जितनी अधिक होती है, ज्ञान­चक्षु उतने ही मुँदते चले जाते हैं। उसकी परमात्म साधना संसार साधना में बदल जाती है। अध्यात्म खो जाता है उसके स्थान पर अध्यात्म उद्योग उभरने लगता है। ऐसा उद्योग जिसमें वेश और वाणी के अलावा कोई लागत नहीं होती और उत्पादन शून्य होने पर भी लाभ ही लाभ होता है।

    वस्तुतः 'सन्त', देहधारी व्यक्ति नहीं, एक मनस्थिति है। यह मनस्थिति किसी में भी हो सकती है। शायद आवरण और उपाधि लादे 'सन्तों' में यह मनस्थिति उतनी नहीं होती, जितनी अनाम और अविज्ञप्त लोगों में होती है। कभी-­कभी ऐसे लोगों में भी जिन्हें समाज दस्यु कहता है। सत्ता जिनके खून की प्यासी होती है।

    वह मनस्थिति जिसमें 'हूँ' या 'अहं' शेष नहीं रहता। सुख-­दुख, हानि-­लाभ, जय-­पराजय, निन्दा-­स्तुति अर्थहीन हो जाते हैं। जो भी मिल गया वही पर्याप्त लगने लगता है। कोई चाहत नहीं, कोई आसक्ति नहीं, कोई द्वेष नहीं। गाँधी की तरह बकरी की टाँग के दर्द और भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में कोई भेद नहीं। कोई दिखावा नहीं, संसार के सारे कामों को करते हुए भी आत्मलीन, दीनों से भी दीन, अधम से भी अधम, सब से नीचे, सबके पीछे, सर्वहारा लोगों के बीच अपने आराध्य को खोजता मानव। मैं कर रहा हूँ, ऐसा बोध नहीं। ऐसे लोग हर युग में हर समाज में होते हैं। उन्हें वही जानता है, जो उनके संसर्ग में आता है।

    परमात्मा तो 'निरुपाधि' है। नेति­नेति। उपाधि या कंचुक, आवरण, छल-कपट, दिखावा, बाहरी छाप। अपनी वास्तविकता को छिपाने के लिए ओढ़ा हुआ खोल। गैरिक वसन, श्री 108, श्री श्री 1008, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, परमहंस परिब्राजकाचार्य, स्वामी, योगश्वर.... क्या है यह सब? परमात्म चिंतन का दिखावा करने वाले सांसारिकता में डूबे तथाकथित तत्वज्ञानी अज्ञानियों का हुजूम। 
    शंकराचार्य के शब्दों में 'सब पापी पेट के लिए है। 'उदरनिमित्तं बहुकृतवेशं'। किसी का पेट केवल भोजन से भरता है, किसी को कुछ और भी चाहिए। मान सम्मान, पद, पीछे लगने वाला चरण-चुंबन को तैयार हुजूम, जयजयकार, कौशेय वसन, सोने की थाली में भोजन और चाँदी की झारी में गंगाजल पानी। श्रव्य-­दृश्य माध्यमों में पल­पल प्रसारित होते हुए हुए रूप और शब्द। संसार ही नहीं घोर संसार। वास्तविक सा दिखता छद्म। वह छद्म जो मानव समाज के टुकड़े­-टुकड़े करता है। निरीहों की बलि लेता है। जो छद्म को अनावृत करे उसकी मौत ...क्रास पर लटका ईसा और हर नये ईसा को क्रास पर लटकाने को उद्यत ईसा मसीह के फर्माबरदार। वे ही नहीं और भी। इतिहास साक्षी है। एक बार फिर कबीर की याद आने लगता है:
    साधो जग बौराना
    साँच कहौ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना

    लेखक की पुस्तक ' शब्द, भाषा और विचार' से

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