Thursday, June 27, 2013

केदारनाथ हादसाः इंसान की हरकतों का दोष भगवान को मत दो!

केदारनाथ हादसाः इंसान की हरकतों का दोष भगवान को मत दो!

By  on June 26, 2013

सरकार के अनुसार गायब लोग लाश मिलने तक मरे नहीं माने जायेंगे।


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केदारनाथ हादसे में जो हज़ारों लोग अलकनंदा, भागीरथी और गौरी में समा गये और उनकी लाशें भी या तो बहकर कहीं दूर निकल गयीं या फिर मलबे, पत्थरों और झाड़झंकाड़ में सदा के लिये फंसकर इंसान की आंखों से ओझल हो गयीं, सरकार का दावा है कि वे तब तक मरे नहीं माने जा सकते जब तक कि ऐसा कोई सबूत नहीं मिल जाये। अजीब बात है कि हमारी अपनी ही सरकारें जनता के साथ ऐसा बर्बर और सौतेला व्यवहार करती हैं जैसे वे विदेशी हों। खुद उत्तराखंड सरकार ने अपनी नालायकी दिखाते हुए ना तो चार धाम यात्रा पर जाने वालों का कोई पंजीकरण करने की व्यवस्था की हुयी है और ना ही प्राकृतिक आपदा आने पर उनको बचाव का कोई प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके साथ ही आपदा प्रबंधन का हाल यह है कि पिछले सात साल से आपदा प्रबंधन समिति की कोई बैठक तक नहीं हुयी है।

सरकार का काम पैसा बनाना है, लोगों की जान से उसे क्या मतलब?

केदारनाथ त्रासदी को अगर पूरी तरह से रोका नहीं भी जा सकता था तो कम से कम लोगों को एलर्ट तो किया जा सकता था जिससे जान माल का नुकसान कम से कम होता। मौसम विभाग ने पर्वतीय क्षेत्र विशेष रूप से केदारनाथ घाटी में पश्चिमी विक्षोभ व परंपरागत मानसून के एक सप्ताह पूर्व ही सक्रिय होने का समय पर एलान किया था लेकिन सरकार ने इस पर कान तक नहीं दिये वर्ना तत्काल चार धाम यात्रा रोकने का एलर्ट जारी हो जाना चाहिये था। इतना ही नहीं केंद्र के मौसम विभाग ने राज्य के मसूरी और नैनीताल में मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की सटीक जानकारी देने के लिये रडार लगाने के लिये ज़मीन मांगी थी जो आज तीन साल बाद भी भ्रष्ट, नाकारा और पूँजीपतियों की दलाल सरकार ने यह कहकर नहीं दी कि इन स्थानों पर ज़मीन जब उपलब्ध ही नहीं है तो वह कहां से दे सकती है? इसके विपरीत इन्हीं सरकारों ने उत्तराखंड बनने के बाद से पूंजीपतियों, धार्मिक सामाजिक संस्थाओं, उद्योगपतियों, नौकरशाहों और नेताओं को एक लाख हैक्टेयर से अधिक ज़मीन कौड़ियों के भाव अपनी जेबें भरकर लुटाई है।

243 आपदा प्रभावित गांवों में से मात्र एक गांव का अधूरा पुनर्वास हुआ!

उत्तराखंड सरकार पूरे देश से आने वाले तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों ही नहीं अपनी ही जनता की कितनी हमदर्द है यह बात इससे पता लग जाती है कि 2010 में एक सर्वे में ऐसे 243 गांव पाये गये थे जो आपदा से प्रभावित प्रभावित हो सकते थे। इन सभी गांवों के बाशिंदों को विस्थापित कर इनका कहीं सुरक्षित स्थान पर पुनर्वास किया जाना था। आज ऐसे गांवों की संख्या बढ़कर 550 तक जा पहुंची है लेकिन सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की किसी ने इस योजना को लागू करने की इच्छा शक्ति का आज तक ईमानदारी से परिचय नहीं दिया जिससे रूद्रप्रयाग का एकमात्र गांव छातीखाल अभी तक पुनर्वास की प्रक्रिया से गुजरा है वह भी आधा अधूरी ही हो सका है।

पहाड़ पर विकास के नाम पर खुद सरकार कर रही है विनाश?

अनपढ़, अंधविश्वासी और धर्मभीरू अधिकांश जनता को सरकार और नेता भले ही यह कहकर बहलाने में कामयाब रहे हों कि केदारनाथ हादसा तो भगवान का प्रकोप है लेकिन जानकार लोग और पर्यावरण विशेषज्ञ लगातातर सरकार को चेतावनी देते रहे हैं कि सुरंग आधारित विद्युत परियोजनाओं से नियम कानून के खिलाफ नदी में भारी कचरा गिराया जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बाढ़ से हर साल गहरी हो रही नदियों में आठ से दस फुट गाद और मलबा पट गया है। उत्तराखंड को पर्यटकांे की पहली पसंद बनाकर अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिये नदियों, पहाड़ियों और जंगलों से लेकर सड़क किनारों तक अवैध उगाही कर कब्ज़ा कराने की एक होड़ सी मची है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जो हादसे पहले सौ दो सौ साल में एक बार होते थे वे आज दस से बीस साल में होने लगे हैं।

सरकारी मनमानी जारी रही तो केदारनाथ तो ट्रेलर समझो-पर्यावरणविद

सुंदर लाल बहुगुणा, मेधा पाटकर व जलपुरूष कहलाने वाले राजेंद्र सिंह जैसे वरिष्ठ पर्यावरण विशेषज्ञ बहुत दिन से प्रकृति से छेड़छाड़, मनमाना वनकटान, बेतहाशा बांध और बेतुके खनन का विरोध करते आ रहे हैं लेकिन सरकारें पूंजीपतियों से सांठगांठ करके जनहित में आंदोलन करने वालों की या तो उपेक्षा करती रही हैं या फिर विवाद ज्यादा बढ़ने पर उनको जेल भेजकर डराने धमकाने का बेशर्म काम करती रही हैं जिसका भयावह नतीजा आज हमारे सामने हैं। यह बात कड़वी ज़रूर लग सकती है लेकिन है पूरी तरह सच कि पर्यावरण की कीमत पर अगर 'विकास""' किया गया तो वह मानवता के लिये विनाश साबित होगा। पर्यावरण विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि केदारनाथ त्रासदी तो प्रकृति का मनमाना दोहन करने का ट्रेलर मात्र है अभी भी अगर सरकार सत्ता के नशे में चूर होकर अपनी मनमानी जारी रखती है तो पूरी भयानक और बर्बादी व तबाही की कहानी वाली फिल्म चलने से कोई नहीं रोक पायेगा लेकिन इसके लिये भगवान नहीं इंसान ही ज़िम्मेदार होगा।

जाने माने अर्थशास्त्री डा. भरत झुनझुनवाला का आरोप है कि उत्तराखंड में प्रति मेगावाट बिजली परियोजना लगाने के अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के एक करोड़ रूपये मंत्री ले रहे हैं जिससे अब तक मंजूर 40,000 मेगावाट का हिसाब लगाया जा सकता है। यही वजह है कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी पहाड़ में विस्फोटकों के इस्तेमाल की जानकारी फाइल गुम होने का बहाना बनाकर छिपा ली गयी है। सरकार की आंखों पर रिश्वत की पट्टी बंधी है, इसीलिये उसे आपदा का ख़तरा नज़र ही नहीं आता है।

उद्योगपति, खिलाड़ी और फिल्मी हस्तियां मदद को आगे क्यों नहीं आई?

मैं और मेरे कई साथी केदारनाथ हादसे में जान गंवाने वाले लोगों के लिये अफसोस ज़ाहिर करने के साथ वहां फंसे लोगों के लिये अपनी सामर्थ के अनुसार पैसा और सामान भेज चुके हैं। अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ ही मुस्लिम और इस्लामी फंड जैसी अल्पसंख्यक तंजीमें भी पीड़ितों की मदद को आगे आई हैं। साथ ही मस्जिदों में मृतकों की आत्मा की शांति और घायलों की खैर के लिये दुआ भी मांगी जा रही हैं। मेरे जे़हन में बार बार यह सवाल उठ रहा है कि सरकारें जिन उद्योगपतियों को दोनों हाथों से देश के संसाधन लुटा रही हैं उनकी तरफ से और पर्दे पर हीरो बनने वाले फिल्मी जगत के साथ ही नोटों में खेल रहे खेल जगत ख़ासतौर से क्रिकेट की हस्तियों ने अभी तक बड़े पैमाने पर केदारनाथ पीड़ितों की मदद के लिये कुछ खास मदद नहीं की है। कम से कम कुछ हेलीकॉप्टर ही लगा देते वहां फंसे लोगों को सही सलामत निकालने के लिये तो बेहतर था।

केदारनाथ हादसाः ज़िंदा महिलाओं के हाथ काटकर जे़वर लूट रहे थे!

केदारनाथ हादसा भगवान का प्रकोप है या इंसान के पर्यावरण विरोधी विकास की मनमानी की कीमत यह तो विद्वान लोगों की चर्चा का विषय है। इस बीच पांच नेपाली बदमाशों को सेना ने ज़िंदा महिलाओं केे हाथ काटकर जेवर लूटते हुए रंगेहाथ पकड़ा है। इससे पहले यह भी ख़बर आई थी कि कुछ दुकानदार खाने पीने का सामान दस बीस गुने रेट पर बेचकर मौत और ज़िंदगी के बीच झूल रहे लोगों से पैसा वसूल रहे हैं। उधर सहस्रधारा हवाई पट्टी पर आपदा पीड़ितों के लिये भेजे गये सामान का सरकारी लोग दुरूपयोग करते फेसबुक की एक पोस्ट पर दिखाये गये हैं। यह भी देखा गया है जिस समय भारी वर्षा से संकट आया तो सबसे पहले बड़े अधिकारी अपने हेलीकॉप्टर से वहां से निकल गये।

नेक बंदों ने खाना, पीना और ठहरना फ्री कर पीड़ितों की सेवा भी की!

इसके साथ ही कुछ नेक बंदों ने खाना पीना और ठहरना अपने होटल व धर्मशाला में इस त्रासदी के पीड़ितों केे लिये फ्री भी कर दिया। उधर उस इलाके के डीएम विजय ढौंढियाल को तबाही देखकर दिल का दौरा पड़ गया। सेना ने अपनी जान दांव पर लगाकर सबसे अच्छा काम किया है। नेता अभी भी बेशर्मी से राजनीति करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। पूंजीवाद के दौर में मानवता कितनी शर्मसार हो रही है, क्योंकि अधिकांश लोगों को किसी भी कीमत पर तरक्की करनी है जिसके लिये बहुत सारा पैसा इंसानी लोशों पर भी कमाना है। मुझे हैरानी, परेशानी और शर्मिंदगी होती है खुद को सर्वश्रेष्ठ, विश्वगुरू और शानदार सभ्यता व संस्कृति का देश बताने वाले ऐसे भारतीयों की काली करतूतें ऐसे हादसों के मौके पर भी देखकर, फिर भी हम दावा करते हैं कि मेरा भारत महान है।

न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफिला क्यों लुटा,

मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।


 इक़बाल हिंदुस्तानी

लेखक इक़बाल हिंदुस्तानी पब्लिक आवजर्वर के संपादक हैं। 

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इक़बाल हिंदुस्तानी

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