Saturday, 06 April 2013 11:00 |
कुमार प्रशांत यही सारे लोग थे, जिन्होंने आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू की उस कमजोरी को खूब हवा दी कि सब कुछ सरकार कर देगी, आप बस वोट डाले जाओ, वाला माहौल बनाने में लग गए और कुछ अमेरिका से तो कुछ सोवियत रूस से लाकर अपना हिंदुस्तान बनाने का ख्वाब पालने लगे। यही लोग थे, जिन्होंने महात्मा गांधी को दकियानूसी और जवाहरलाल को आधुनिक विकास का प्रतीक बनाया था और देश को गांधीजी के रास्ते से बहुत दूर ही नहीं, उससे उल्टी दिशा में ले गए थे। लेकिन आप भटक सकते हैं, लोगों को भी भटका सकते हैं, मगर वक्त न भटकता है, न भटकाता। इसलिए आज राहुल गांधी को लग रहा है कि संसद में बैठ कर, बड़े-बड़े कानून बना कर, योजनाएं फैला कर भी हम देश में वह कर नहीं पा रहे हैं जिसकी देश को जरूरत है। उनमें यह अहसास जागा है क्योंकि वे देश के कुछ वैसे राजनीतिकों में हैं जो गांव-गलियों में जाता रहा है, जिसने वोट पाने के लिए जमीन नापी है; और तब उसके मन में सवाल आया है कि यह चुनावी खेल तो ठीक है, सत्ता और सरकार भी ठीक है, लेकिन ये सभी जिस आधार पर खड़े होने हैं वह आधार कहां है? राहुल के भाषण के बाद भाजपा की तरफ से जो प्रतिक्रिया आई वह अत्यंत दरिद्र राजनीतिक समझ का परिचय देती है, जो विपक्ष का एक ही मतलब समझती है कि अपनों की छोड़ कर, सबकी खिल्ली उड़ाओ! हमारी राजनीति आज जिस स्तर पर पहुंच गई है उसमें हम भूल गए हैं कि गंभीर राजनीतिक प्रक्रिया के संदर्भ में विमर्श करते समय ज्यादा गहराई में उतर कर सोचना-समझना-बोलना चाहिए। लेकिन कॉरपोरेट जगत की प्रतिक्रिया यही बताती है कि वह ऐसे राहुल की तलाश में है जो उसे उसकी समस्याओं से निकलने की जादुई कुंजी थमा दे। वह यह मानने और समझने को तैयार नहीं है कि राजनीतिक प्रणाली की जिस जड़ता का जिक्र राहुल गांधी ने किया है, उद्योग जगत की अधिकतर मुसीबतें उसी का नतीजा हैं। शेयर बाजार का सूचकांक अगर उन्हें अपने स्वास्थ्य का सूचक लगता है तो उन्हें इसकी चिंता करनी ही होगी कि इस बाजार का आधार कैसे बड़ा हो और यह देशी पंूजी के दम पर कैसे चले! जिस विकास दर की बात प्रधानमंत्री करते हैं उसकी हकीकत यह है कि हमारे उत्पादन की आधार-भूमि जब तक आज से काफी बड़ी नहीं होगी, उसमें लगने वाली अधिकतर पूंजी हमारे अपने संसाधनों से जुटाई नहीं जाएगी और हमारा बाजार हमारे अधिकतर उत्पाद का उपभोक्ता नहीं होगा तब तक हमारी वृद्धि दर पीपल के पत्तों की तरह हिलती-डोलती और हमेशा विदेशी निवेश की मोहताज बनी रहेगी। मनमोहन सिंह जैसा सिद्ध अर्थशास्त्री भी लाख सिर मार ले, इसे बदल नहीं सकता; हम देख ही रहे हैं कि आधुनिक अर्थशास्त्रियों की हमारी पूरी टोली का दम फूल रहा है, लेकिन यह महंगाई, मंदी, औद्योगिक और खेतिहर उत्पादन की गिरावट, बेरोजगारी किसी पर भी काबू नहीं कर पा रही। इस बदहाली का ही नतीजा है कि हमारा समाज अपराध और अंधाधुंधी की चपेट में आ गया है। कॉरपोरेट जगत को यह समझने की जरूरत है कि वह भले हवामहल में रहता हो, उसके उद्योग-धंधों की जड़ें इसी धरती में धंसी हैं और उस स्तर पर जो भयंकर खाई बनी हुई है, जिसे राहुल बार-बार 'डिसकनेक्ट' कह रहे थे, वह सबको डुबा रही है। इसलिए हमारे सारे प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और उनके जवाब भी समग्रता में ही मिलेंगे। राहुल गांधी जो कुछ कह रहे थे, उसे वे पूरी तरह समझ भी रहे थे, यह कहना कठिन है। लेकिन इतना तो साफ है कि एक धुंधली-सी समझ उनकी बनी है। इसे बहुत मांजने की जरूरत है और इस प्रक्रिया में भारतीय समाज के हर तबके को शामिल करने की जरूरत है। राहुल गांधी ने ठीक ही कॉरपोरेट जगत को साथ लेकर चलने की बात कही। हमारा कॉरपोरेट जगत यथार्थ की धरती पर उतर कर मजदूरों, ग्रामीण उद्यमियों, मनरेगा में काम करने वालों और विकास के नाम पर जिनकी जमीन का अधिग्रहण हुआ है उनके साथ बैठेगा तो कई नए रास्ते खुलेंगे। कभी जयप्रकाश नारायण ने एक किताब लिखी थी- भारतीय समाज-रचना का पुनर्निर्माण- रिकंस्ट्रक्शन आॅफ इंडियन पॉलिटी! राहुल गांधी को वहां तक जाना होगा। हो सकता है राहुल गांधी कल को भारत के प्रधानमंत्री बन जाएं और यह भी हो सकता है कि वे इन सारी बातों को भूल जाएं और एक दिशाहीन राजनेता की तरह देश चलाने में जुट जाएं। जब वे ऐसा करेंगे तब भी देश नहीं चला सकेंगे। नए तरह से बनाए बिना अब यह देश नहीं चलाया जा सकेगा! राहुल गांधी ने यह बात अपनी तोतली आवाज में कही है। लेकिन सच तोतली आवाज में बोला जाए तो सच नहीं होता है, यह किसने कहा? सच तो यह है कि सच तोतली आवाज वाले ही बोले हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41935-2013-04-06-05-31-30 |
Saturday, April 6, 2013
राहुल जो कह गए
राहुल जो कह गए
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