Monday, March 25, 2013

अगर यथार्थ को सही परिप्रेक्ष्य में संबोधित करना चाहेंगे तो वैज्ञानिक विश्लेषण और तर्कों के अलावा यह भी देखेंगे कि विचारधारा और सिद्धांत जाति हित में कैसे बदल जाते हैं!

अगर यथार्थ को सही परिप्रेक्ष्य में संबोधित करना चाहेंगे तो वैज्ञानिक विश्लेषण और तर्कों के अलावा यह भी देखेंगे कि विचारधारा और सिद्धांत जाति हित में कैसे बदल जाते हैं!


पलाश विश्वास


हम आभारी हैं कि अभिनवजी ने यह माना कि बहस अंबेडकर और मार्क्स के बीच नहीं  है। उनके अनुयायियों के बीच हैं।अपने ताजा ​​आलेख में उन्होंने यह भी कहा कि सवाल अम्‍बेडकर को खारिज करने या अपना लेने का नहीं है, बल्कि यह तय करने का है कि अम्‍बेडकर में क्‍या अपनाएं और क्‍या ख़ारिज करें। िन बिंदुओं पर असहमति का प्रश्न नहीं उठता। अभिनव जी पूरा आलेख हम अवश्य ही पढ़ना ​​चाहेंगे। उनके ताजा आलेख से जाहिर है उनका आशय अंबेडकर को खारिज करके जड़ विचारधारा का अवलंबन करना कतई नहीं है। हम चंडीगढ़ संगोष्ठी में नहीं थे। लेकिन उसकी जो रपटें आयी, उनमें अभिनवजी का यह लोकतांत्रिक व वैज्ञानिक अवस्थान स्पष्ट नहीं हुआ। बल्कि ऐसा लगा कि अंबेडकर को खारिज करना ही एकमात्र मकसद है। अब दूसरी बात यह कि मैं न तो अभिनव कुमार का विरोध कर रहा हूं और न आनंद जी का पक्ष ले​ ​ रहा हूं। वीडियो में जो बातें कहीं गयी हैं, उन्हींके आधार पर आनंद जी का मूल्यांकन भी नहीं करता हूं। बोलते हुए हम लोग अक्सर अंतरविरोधी बात कह जाते हैं। आनंद जी को अपना अवस्थान स्पष्ट करने का उतना ही हक है जितना कि अभिनव जी को। लेकिन अब जो मुद्दे उभरकर आये हैं, उससे इस बहस को एक रचनात्मक दिशा मिलने की उम्मीद है। हस्तक्षेप और सोशल मीडिया के दूसरे साथियों को हमें यहां तक पहुंचाने के लिए बधाई। अपने पुराने साथी जगमोहन फुटेला जी भी इस बहस को अपने साइट पर जारी रखे हुए हैं। उन्हें धन्यवाद। रियाज भी हमारे पुराने मित्र हैं। हम अभिनव जी को निजी तौर पर अवश्य नहीं जानते पर मजदूर बिगुल की भूमिका हम जानते हैं। हम सभी में अंतरविरोध होंगे। हम और लोकतांत्रिक ढंग से बहस जारी रख सकते हैं, और जैसा कि अभिनव जी अब कह रहे हैं कि किसी विचारधारा से कितना लिया जाये और कितना नहीं, आंदोलन की दिशा और विचारधारा क्या होनी चाहिए, इस पर विचार चलना चाहिए। जाति विमर्श पर अंबेडकर की आलोचना के सिवाय बाकी विमर्श से हम अभी अनजान हैं। हम वह अव्श्य जानना चाहेंगे।


बहस व्यक्ति केंद्रिक न होकर मुद्दों पर केंद्रित हो तो टकने की गुंजाइस कम है, और मेरे ख्याल से यह वैज्ञानिक पद्धति है। लेकिन अबतक बहस के द्विपक्षीय तेवर से हमें आपत्ति रही है। जाति विमर्श कोई सरल संकट नहीं है। यह वह जटिल समस्या है कि भारत में जनांदोलन की दिशा ही तय नहीं हो पा रही है। जाति हित विचारधारा पर हावी है । विचारधारा पर जाति वर्चस्व हावी है। अभिनव जी अगर यथार्थ को सही परिप्रेक्ष्य में संबोधित करना चाहेंगे तो वैज्ञानिक विश्लेषण और तर्कों के अलावा यह भी देखेंगे कि विचारधारा और सिद्धांत जाति हित में कैसे बदल जाते हैं। नस्ली​​ भेदभाव विचारधाराओं और सिद्धांतों पर आधिपात्य स्थापित कर लेता है। हम यह विनम्र निवेदन कर रहे थे कि अंबेडकर के लिखे पर चाहे जो, जिसका असर रहा हो, उनके योगदान और भूमिका की समग्रता में ही उनका मूल्यांकन होना चाहिए।​

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​दूसरी बात यह कि अभिनव जी बार बार इस पर जोर दे रहे हैं कि संविधान में जनविरोधी विशेष सैन्यबल अधिकार जैसे कानून हटाने के लिए अंबेडकर कुछ नहीं कर पाये। अंबेडकर तो स्वतंत्र भारत में चुनाव तक जीत नहीं पाये। जाति वर्चस्व के मकसद से उन्हें किनारे कर दिया गया और रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी, जिसकी आज तक जांच नहीं हुई। अंबेडकर सिर्फ मसविदा समिति के अध्यक्ष थे, जो रणनीतिक ​​कारण से सत्तावर्ग ने उन्हें बनाया। इस संविधान के बारे में उन्होंने क्या कहा है, इसका उद्धरण अभिनव जी ने सही संदर्भ मे पेश किया है। हम संविधान की खामियों के बारे में उनके विचारों से सहमत हैं। पर इस संक्रमणकाल में संविधान में जो सकारात्मक चीजे हैं, उसे पीड़ित जनता के पक्ष में  मजबूती से कहना जरुरी है।इरोम शर्मिला एक लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ रही हैं। बारह साल से आफसा हटाने के लिए वे आमरण अनशन पर हैं। बाकी देश में इसका कोई असर नहीं है। समूचा हिमालयी क्षेत्र कश्मीर से लेकर मणिपुर नगालैंड तक, मध्य भारत और दक्षिण भारतबाकी देश से विच्छिन्न है। यह जाति  के अलावा नस्ली भेदभाव का मामला है।अभी लियाकत का मामला ही लीजिये, राष्ट्र के आतंकविरोधी अमेरिकी युद्ध में कारपोरेट मीडिया के सहयोग से जो परिस्थिति बनी है, उसके तहत देश के सारे अल्पसंख्यकों के लिए मुक्तिकामी संघर्ष का कोई मतलब नहीं है। वे तो बस अपना लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष अधिकार मिल जाये,तो उत्पीड़न से बच सकते हैं। कश्मीर, मणिपुर, असम, गुजरात और पूरे मध्यभारत के संदर्ब में यह सबसे बड़ा सच है। इस सच को माने बगैर हवा में ​​क्रांति करने से पीड़ितों और वंचितों का कुछ भला होने वाला नहीं है।


अभिनव जी ,वस्तुस्थिति यह है कि कारपोरेट साम्राज्यवाद के खुले बाजार के आखेटगाह में कोई विचारधारा या मुक्तिकामी संघर्ष विस्थापित हो रहे, मारे जा रही जनता के काम नही आता, यह विडंबना है। इरोम कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं चला रही हैं। एकदम गांधीवादी तरीके से लोकतांत्रिक व गांधीवादी तरीके से लड़ रही हैं। छत्तीसगढ़ में गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशुकुमार और अग्निवेश जैसे तमाम लोग महज लोकतांत्रिक व संवैधानिक ​​हक हकूक की ही बात कर रहे हैं। क्योंकि संवैधानिक प्रावधान ही उन्हें फौरी राहत दे सकता है। नोआखाली के दंगापीड़ित भारत विभाजन​​ के शिकार १९४७ के बाद बसाये गये लोगोंको जब जबरन सीमापार भेजा जाता है, वहां मुक्तिकामी संघर्ष काम नहीं आता। हम उनकी लड़ाई संवैधानिक रास्ते पर ही लड़ सकते हैं। यह हमारी बौद्धिक दशा दिशा के बजाय हमारी असहायस्थिति की ही अभिव्यक्ति है। इसीतरह जब हम अविभाजित  बिहार में काम कर रहे थे, और बाद में कोलकाता में आये , तब भी मध्य बिहार में विचारधारा की रणहुंकार की वजह से निजी सेनाओं के नरसंहार में मारे जाने वाले निहत्था लोगों के बारे में भी क्रांतिकारी लोगों से हम बार बार निवेदन करते रहे हैं कि जनमुक्ति सेना जब आम जनता की रक्षा में​​ असमर्थ हैं तो अपनी कार्रवाइयों से वह किस विचारधारा के तहत सर्वहारा को निहत्था मारे जाने के लिए छोड़ देते हैं। मध्यबिहार में भी जाति विमर्श के भूलभूलैय्या में विचारधारा और लड़ाई गायब हो गयी। इसीतरह मध्य भारत में दुस्साहसिक वैचारिक अभियानों ने कारपोरेट और पूंजीपति घरानों का सबसे ज्यादा भला किया है। क्योंकि पांचवी और छठी अनुसूचियां लागू नहीं है। वनाधिकार व पर्यावरण कानून का खुल्लमखुल्ला उलंघन हो रहा है। खनन अधिनियम को मर्जीमाफिक लागू किया जा रहा है। ज्यादातर आदिवासी गांव राजस्व गांव नहीं हैं। एकबार बेदखल हो जाने के बाद आदिवासी जल जंगल जमीन के नजदीक भी भटक नहीं सकते। पर सशस्त्र संघर्ष के हालात में आदिवासियों के लिए आत्मरक्षा हेतु पलायन के अलावा कोई रास्ता नहीं है।दंडकारण्य के आदिवासी इलाकों में सैन्य शासन की वजह से वहां पुनर्वासित दलित शरणार्थी भी गृहबंदी की जिंदगी जी रहे हैं। क्रांतिकारी लड़ाई के हम विरोधी नहीं हैं। पर कठोर वास्तव यही है कि घिरी हुई जनता , जिसमें आदिवासी , पिछड़े, दलित और ओबीसी बहुसंख्य है, उनके बचाव के लिए अभी संविधान और लोकतांत्रिक आंदोलन को सिरे से खारिज करना आत्मघाती विमर्श है। इसका मतलब यह नहीं हुआ कि आपकी आपत्तियों को खारिज करते हुए ममैं संविधान या अंबेडकर का महिमामंडन कर रहा हू। आप मेरी मणिपुर डायरी पढ़े न पढ़ें, पर पूर्वोत्तर की भुक्तभोगी जनता और वहां के अखबारों को देखें कि वे लोकतांत्रिक, नागरिक और मानवाधिकारों के लिए किस हद तक मोहताज हैं। इरोम शर्मिला की लड़ाई हमें यह प्रतीकात्मक तौर पर बता ही देती है।


भारत में असमानता और सामाजिक  अन्याय, नस्ली भेदभाव और वंशवाद वितचारधाराओं, राजनीति और आंदोलन पर इतने भयानक तरीके से हावी हैं कि हम और हमारे जैसे अनेक लोग मानते हैं कि क्रांतिकारी मुक्तिसंग्राम के लिए राष्ट्रव्यापी मोर्चाबंदी से पहले अंबेडकर आंदोलन के तहत लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष ताकतों का गठजोड़ बनाया जाये। जिसे आप दिशाहीन बता सकते हैं, पर मोर्चाबंदी के लिए यह बेहद जरुरी है।हमने भूमि सुधार और अस्पृश्यतामोचन के सिलसिले में मतुआ और चंडाल आंदोलनों का उल्लेख किया है।हिंदू राष्ट्रवाद का आधार बना​​ सन्यासी विद्रोह के बारे में भी लिखा है। भारत विभाजन की पृष्ठभूमि भी रेखांकित की है। ये तमाम आंदोलन और आदिवासियों का तमाम ​​विद्रोह वास्तव में किसान आंदोलन ही थे और सामंतवाद व साम्राज्यवाद के विरुद्ध मुक्तकामी जनविद्रोह के विस्फोट थे। उनका हमारे विचारकों और इतिहासकारों ने विश्लेषण नहीं किया। आपने अपने शुरुआती आलेख में लिखा है कि दलितों के हकहकूक के लिए अंबेडकर अनुयायियों ने नहीं सबसे ज्यादा कुर्बानी कम्युनिस्टों ने दी है। यह सच है और इससे बड़ा सच यह है कि कुर्बानी देने वालों में वंचित बहिस्कृत समुदायों के लोग ही ​​ज्यादा हैं, शासक जातियों के नगण्य।


मतुआ चंडाल आंदोलनों और आदिवासी विद्रोह के सामाजिक यथार्थ भारत में मुक्तिकामी संघर्ष का प्रस्थानबिंदु बन सकता है, जिसके केंद्र ​​में जाति व नस्ली भेदभाव से निपटने की मुख्य चुनौती है। हम अपनी अभिज्ञता के मुताबिक आपको तर्क दे रहे हैं, क्योंकि हम यह मान ​​ही चुके हैं कि हम ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं।हमारी जनता भी औपचारिक शिक्षा के बावजूद अपढ़ ही है। सूचना महाविस्फोट की वजह से सारे लोग एक दूसरे से कटे हुए है और किसी को कोई जानकारी नहीं होती। जिसका शिकार चंडीगढ़ विमर्श भी हुआ, क्योंकि रपटों से तो ही लगा कि आप लोगों का सारा जोर अंबेडकर को पूंजीवाद व साम्राज्यवाद समर्थक घोषित करने और उन्हें, उनकी विचारधारा और उनके संविधान को गैरप्रासंगिक साबित करने पर रहा है।जबकि आपके ताजा आलेख से अब ऐसा नहीं लग रहा है। तो हमें और देश की बहिस्कृत वंचित जनता ही नहीं, निनानब्वे फीसद जनता के लिए बौद्धिक कवायद से ज्यादा भोगा हुआ रोजमर्रे का यथार्थ ही ज्यादा समझ में आता है, विचारधारा और सिद्धांत के हजम करने का ​​हाजमा अभी बना ही नहीं।​


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​हम यही चाहते है कि यह बहस द्विपाक्षिकन हो और जवाब भी सामूहिक संवाद और विमर्श से निकले। पर चूंकि आलेख में आपने हमें संबोधित किया है, इसलिए हम जवाब देने को मजबूर हुए। हम भी आपकी तरह विचारधारा को जड़ नहीं मानते। हम भी आपकी तरह मुक्तिकामी संघर्ष को अपना अंतिम लक्ष्य मानते हैं। लेकिन मुक्तिकामी संघर्ष के लिए लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संवैधानिक, नागरिक व मानवाधिकारों को बहाल करना अनिवार्य मानते हैं, ताकि इस मुक्तिकामी संघर्ष में जनती की व्यापक भागेदारी सुनिश्चित हो। आपको हमारी धारणाएं बचकानी और नादान लग सकती हैं।


छात्र जीवन में हम भी कट्टर विचारधारा अनुयायी थे। आज आपका जो अवस्थान है, वह अवस्थान हमारा भी सन २००१ तक था। हमने अपने पिता से कोई राजनीतिक बहस नहीं की , जबकि शरणार्थी समस्याओं से जुड़े उनके तमाम कागजी काम हम करते थे।


आज जो मैं कह रहा हूं , हमारे अपढ़​​पिता वही कहा करते थे। यह कोई मौलिक बात नहीं है।


वे कहते थे कि सिद्धांतो और अवधारणाओं से क्रांति हो न हो, आम पीडित वंचित को राहत तो मिलती नहीं है। वे १९५८ के ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे और उनकी शिकायत थी कि भारत में कम्युनिस्टों की सबसे बड़ी ​​समस्या यह है कि वेपुस्तकों और उद्धरणों से बाहर नहीं आते। सामाजिक यथार्थ और जमीनी हकीकत को संबोधित नहीं कर पाते। वरना आज भारत में जनमुक्ति आंदोलन की दशा और दिशा कुछ और ही होती।जब हमें अपने पिता की मृत्यु के बाद देश भर से शरणार्थियों की समस्याओं के ​​बारे में सक्रिय होने का दबाव पड़ा तो हमें क्रांतिकारी जमात से कोई मदद नहीं मिली।


पिता अंबेडकर के अनुयायी थे और कहते थे कि ​​अंबेडकर को जाने बिना तुम हमारे लोगों के हितों की लड़ाई लड़ ही नहीं सकते। हमने पिता की कैंसर से मृत्यु के बाद ही अंबेडकर को समझने  की कोशिश की, उस पिता के खातिर जो आखिरी सांस तक अपने लोगों के लड़ते रहे। वे सिद्धांत और विचारधारा की बुनियाद पर लड़ नहीं रहे थे। पर उनकी प्रतिबद्धता हमसे लाख गुणा ज्यादा थी।


दुनियाभर में कहीं भी बने बनाये सिद्धांतों के मुताबिक क्रांति नहीं हुई। लेनिन से लेकर माओ तक ने, वाशिंगटन से लेकर  मार्टिन लुथर​​ किंग तक, नेल्सन मंडेला और दूसरे तमाम लोग अपने देश काल परिस्थितियों को संबोधित करके ही मुक्तिकामी जनता को एकजुट कर पाये। हम इस कार्यभार के उत्तरदायित्व से इंकार नहीं कर सकते।




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