Sunday, August 5, 2012

असम हिंसा: क्या हो स्थायी हल

डाॅ. असगर अली इंजीनियर
 

पिछले दिनों निचले असम के कोकराझार और तीन अन्य जिलों में हुई व्यापक हिंसा के बारे में समाचारपत्रों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। जुलाई के पहले सप्ताह में शुरू हुई हिंसा, जिसने 19 जुलाई के बाद जोर पकड़ लिया, में 58 व्यक्ति मारे गए। वर्तमान में इस इलाके में एक असहज शांति व्याप्त है। इस हिंसा ने चार लाख से अधिक लोगों को शरणार्थी बना दिया है। इनमें से तीन लाख मुसलमान हैं। शरणार्थी 27 अलग-अलग राहत शिविरांे में रह रहे हैं। समाचारपत्र, सामान्यतः, केवल घटनाओं का विवरण देते हैं, उनके पीछे के कारणों का विश्लेषण नहीं करते और न ही समाचारपत्रों में किसी मसले के गहन अध्ययन पर आधारित सामग्री प्रकाशित होती है।
जब मुख्यमंत्री तरूण गोगोई से किसी ने कहा कि असम जल रहा है तो वे आग बबूला हो गए। श्री गोगोई, सच यह है कि असम वास्तव में धू-धूकर जल रहा है। असम समस्या की जड़ें कोकराझार में बोडो व मुसलमानों के बीच हिंसा और बोडो क्षेत्रीय परिषद में आए दिन होने वाले विवादों से कहीं गहरी हैं। ये दोनों तो असम के आंतरिक सामाजिक संघर्ष के बाहरी लक्षण मात्र हैं। असम में तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती जब तक कि बांग्लादेशी मुसलमानों के राज्य में घुसपैठ करने संबंधी झूठे प्रचार पर रोक नहीं लगती।
सन 1980 के दशक में चला एएएसयू आंदोलन और उसके बाद हुआ नेल्ली नरसंहार, इस आंतरिक टकराव का पहला प्रकटीकरण थे। नेल्ली में बांग्लाभाषी मुसलमानों (तथाकथित बांग्लादेशियों) और ललुंग कबीलाईयों के बीच हिंसा हुई थी जिसमें 3000 से अधिक मुसलमान मारे गए थे। बांग्लादेशी होने का आरोप लगाकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इस जनसंहार से पूरे असम के मुसलमानों में इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि जब मैं इस घटना की जांच के लिए असम पहुंचा तब एक भी असमिया मुसलमान कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं था।
सन 2008 में मुसलमानों और बोडो के बीच हिंसा का एक और दौर हुआ जिसमें 55 लोग मारे गए। जिन मुसलमानों को बांग्लादेशी बताया जा रहा है उनमें से अधिकांश ब्रिटिश शासनकाल में असम में बसे थे। नेल्ली में बंगाली मुसलमानों ने मुझे बताया कि उनके पुरखे सन 1930 या उसके भी पहले वहां आकर बसे थे और उन्हें खाली पड़ी जमीनों पर खेती करने के लिए लाया गया था। ये लोग बहुत मेहनती हैं जबकि असमिया अहोम और पहाड़ी कबीलाई ललूंग आरामतलब हैं और खेती में ज्यादा मेहनत करना नहीं चाहते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेल्ली में 3000 से अधिक मौतों के बावजूद घटना की कोई आधिकारिक जांच नहीं हुई। यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि 3000 मासूमों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिए जाने के घटनाक्रम की जांच करवाने तक की जरूरत महसूस नहीं की गई।
दक्षिणपंथी भाजपा इस मामले में आग में घी डालने का काम करती रही है। वह बिना किसी आधार के अत्यंत अतिश्योक्तिपूर्ण आंकड़े प्रस्तुत कर यह आरोप लगाती रही है कि बड़ी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमान असम में बस रहे हैं। सन 1980 तक असम में आरएसएस की कोई खास पकड़ नहीं थी परंतु अब गांव-गांव तक उसका फैलाव हो गया है और उसके कार्यकर्ता रात-दिन मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच खाई खोदने के काम में जुटे हुए हैं। वैसे असम में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द का लंबा इतिहास रहा है। इन सौहार्दपूर्ण रिश्तों के निर्माण में एक ओर शक्रदेव तो दूसरी ओर आजम फकीर ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं थीं।
असम ही नहीं, भाजपा को पूरे देश में कहीं भी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते नहीं भाते। अपनी हिन्दुत्ववादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने के लिए बांग्लादेशियों के मसले का इस्तेमाल करती रही है। असम में साम्प्रदायिक सौहार्द के लम्बे इतिहास के चलते भाजपा के लिए असमिया मुसलमानों पर निशान साधना लगभग असंभव था। इसलिए उसने बांग्लादेशी मुसलमानों का मिथक ईजाद किया। इसका अर्थ यह नहीं है कि असम में बांग्लाभाषी मुसलमान नहीं हैं और यह भी सही है कि हाल के वर्षों में कुछ बांग्लाभाषी मुसलमान असम में आकर बसे हैं। इनमें से कुछ बंाग्लादेश से आए हैं और कुछ पश्चिम बंगाल से।
परंतु अधिकांश बांग्लाभाषी मुसलमान ब्रिटिश काल से असम में बसे हुए हैं और वैज्ञानिक तरीके से एकत्रित किए गए ऐसे कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं जिनसे यह पता चल सके कि वास्तव में कितने बांग्लादेशी प्रवासी पिछले कुछ दशकों में असम में आए हैं। वहां कोई नेशनल पापुलेशन रजिस्टर भी नहीं है। पूरा मसला प्रचार और केवल प्रचार पर आधारित है और इसके जरिए आमजनों को विभाजित करने और उनके मन में तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाने में साम्प्रदायिक तत्वों को सफलता मिली है। इस आरोप, कि कांग्रेस सरकार बांग्लादेशी मुसलमानों को असम में बसने की इजाजत इसलिए दे रही है ताकि उसका वोट बैंक बढ़ सके, ने गैर-कांग्रेसी राजनैतिक दलों को प्रभावित किया है।
असम तब तक हिंसा और तनाव के झंझावातों में फंसा रहेगा जब तक कि बांग्लाभाषी मुसलमानों के असम में बसने संबंधी आरोपों का पुरजोर व प्रभावी ढंग से खण्डन नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि केवल बांग्लादेषी या बांग्लाभाषी मुसलमान असम में आ रहे हैं। हिन्दी भाषी बिहारी भी बड़ी संख्या में असम में बस गए हैं। राजस्थान के मारवाड़ी भी वहां हैं और उनका उत्तर पूर्वी राज्यों के व्यापार-व्यवसाय पर लगभग पूणर््ा नियंत्रण है। परंतु कतिपय राजनैतिक कारणों से फोकस केवल बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासियों पर ही किया जा रहा है।
इस समस्या का एक अन्य कारण है बोडो क्षेत्रीय परिषद की स्थापना। यह परिषद ऐसे इलाके में शासन कर रही है जहां बोडो आबादी केवल 29 प्रतिषत है और अन्य लोगों में वे बांग्लाभाषी मुसलमान शामिल हैं जिन्हें ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजों द्वारा जूट की खेती करने के लिए वहां बसाया गया था। वे सौ से अधिक वर्षों से वहां रह रहे हैं। केन्द्र सरकार ने अतिवादी बोडो आंदोलनकारियों से, जो कि एक स्वतंत्र बोडो राज्य की मांग कर रहे थे, समझौता करने की खातिर बोडो क्षेत्रीय स्वायत्त परिषद की स्थापना को मंजूरी दी थी।
प्रश्न यह है कि बोडो परिषद बनाकर उसे संबंधित इलाके के विकास संबंधी और अन्य निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार कैसे दिया जा सकता है जबकि क्षेत्र में बोडो, कुल आबादी का केवल 29 प्रतिशत हैं। परिषद की स्थापना से सभी गैर-बोडो नाराज हैं और वे चाहते हैं कि इस परिषद को भंग कर दिया जाए। उनकी शिकायत है कि उन्हें विकास में उनका उचित हिस्सा नहीं मिल रहा है। दूसरी ओर, बोडो अपनी आबादी इतनी बढ़ाना चाहते हैं कि वे उस इलाके में बहुसंख्यक हो जाएं और इस आधार पर बोडो परिषद के गठन को औचित्यपूर्ण ठहराया जा सके।
हिंसा के पीछे एक अन्य कारण यह है कि समझौते के अनुसार, बोडो अतिवादियों को अपने हथियार समर्पित करने थे परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और आज भी ये अतिवादी अपनी बंदूकें लिए क्षेत्र में घूमते रहते हैं और गैर-बोडो रहवासियों को आतंकित करते हैं। बोडो अतिवादियों को आज भी आग्नेय अस्त्र आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं और सरकार ने मुख्यतः राजनैतिक कारणों से उनसे ये अवैध हथियार जब्त करने की कोई कोशिश नहीं की है। असम की सरकार एक गठबंधन सरकार है, जिसका एक हिस्सा बोडो नेशनल फ्रंट भी है और इस कारण मुख्यमंत्री, बोडो को नाराज नहीं करना चाहते।
कोकराझार में हिंसा 6 जुलाई को तब शुरू हुई जब मोटरसाईकिलों पर सवार और बंदूकों से लैस चार बोडो युवक एक गांव में पहुंचे और दो मुसलमानों की हत्या कर भाग गए। जिला प्रशासन ने उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की क्योंकि जिले के डिप्टी कमिश्नर और कलेक्टर, दोनों ही बोडो हैं। इसके बाद अज्ञात लोगों (जिन्हें बंगाली मुसलमान माना जा रहा है) ने चार पूर्व अतिवादी बोडो को मार डाला और फिर बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू हो गई। अब जाकर जिले के डिप्टी कमिश्नर और कलेक्टर को हटाया गया है और कलेक्टर का निलंबन भी कर दिया गया है।
अगर यही कार्यवाही पहले कर दी जाती तो बड़े पैमाने पर हुआ खून-खराबा और तबाही रोकी जा सकती थी। परंतु मुख्यमंत्री, जिला प्रशासन की अकर्मणयता के मूक दर्शक बने रहे और उन्होंने अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। जब हिंसा फैलने लगी तब मुख्यमंत्री ने केन्द्र सरकार से सहायता मांगी और सेना की तैनाती किए जाने का अनुरोध किया। परंतु सेना के इलाके मंे पहुंचने तक बहुत देर हो चुकी थी और हिंसा नियंत्रण के बाहर हो गई थी। इस सिलसिले में प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन ंिसंह की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री को हिंसा रोकने के लिए कड़ी कार्यवाही करने के निर्देष दिए वरन् वे स्वयं भी प्रभावित इलाके में पहुंचे। प्रधानमंत्री की यात्रा के पहले तक मुख्यमंत्री ने हिंसाग्रस्त क्षेत्र में जाने की जहमत नहीं उठाई थी।
यह महत्वपूर्ण है कि असम में दंगे भड़कने की यह पहली और आखिरी घटना नहीं है। अगर त्वरित और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो आगे भी खून-खराबे, आगजनी और दंगों का दौर चलता रहेगा। सबसे पहला कदम, जो कि तुरंत उठाया जाना चाहिए, वह है बोडो अतिवादी युवकों का निःषस्त्रीकरण। इन युवकों तक आग्नेय अस्त्र किस रास्ते से पहुंच रहे हैं इसका पता लगाकर उस पर रोक लगाई जानी चाहिए। बोडो युवकों को खुलेआम हथियार लेकर घूमने और गैर-बोडो रहवासियों को आतंकित करने की इजाजत कोई सरकार नहीं दे सकती।
बोडो अतिवादी, गैर-बोडो निवासियों से जबरिया पैसे की वसूली भी करते हैं और जो लोग पैसे देने से इंकार करते हैं उनके पशु और अन्य घरेलू सामान लूट लिया जाता है। इस तरह की घटनाओं के कारण जनता में भारी आक्रोश है। यह कहना मुश्किल है कि सरकार बोडो अतिवादियों से हथियार छीनने के लिए प्रभावी कदम उठा सकेगी या नहीं क्योंकि बोडो, सत्ताधारी राजनैतिक गठबंधन के हिस्से हैं।
दूसरे, बोडो क्षेत्रीय परिषद की स्थापना से उत्पन्न समस्याओं से निपटने की भी जरूरत है। बोडो कुल आबादी के एक-तिहाई से भी कम हैं परंतु क्षेत्र का शासन उनके हाथ में है। एक तरीका तो यह हो सकता है कि बोडो क्षेत्रीय परिषद में गैर-बोडो सदस्यों को पर्याप्त संख्या में शामिल किया जाए। क्षेत्र के अल्पसंख्यक समुदाय को शासन के पूरे अधिकार सौंपना, केन्द्र सरकार का एक अन्यायपूर्ण कदम था। मुसलमानों के अतिरिक्त वहां कोच्ची, राजभांेगषी, संथाल और आदिभाषी भी हैं हालांकि गैर-बोडो में मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक है। अतः या तो बोडो क्षेत्रीय परिषद की स्थापना के लिए फरवरी 2003 में किए गए समझौते को रद्द किया जाना चाहिए या परिषद में गैर-बोडो प्रतिनिधियों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।
तीसरे, बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ के बारे मंे अतिश्योक्तिपूर्ण प्रचार का प्रभावी खण्डन किया जाना चाहिए और वैज्ञानिक आंकड़े देश के सम्मुख प्रस्तुत किए जाने चाहिए। बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ के बारे में दुष्प्रचार से न केवल असम बल्कि पूरे देश में अकारण तनाव फैल रहा है।
ये कुछ कदम हैं जो हालात को बेहतर बनाने के लिए तुरंत उठाए जा सकते हैं। इस समस्या को केवल कानून और व्यवस्था की समस्या मानना भूल होगी। यह एक राजनैतिक समस्या है जिसका राजनैतिक हल निकाला जाना चाहिए। कुछ बोडो नेता अत्यंत गैर जिम्मेदाराना बयान जारी कर रहे हैं और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेशनल काऊंसिल आफ चर्चिस आॅफ इंडिया के महासचिव रोजर गायकवाड़ ने यह बेसिर पैर का वक्तव्य जारी किया है कि बांग्लादेशी मुसलमानों ने असम मंे दस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। यह गैर-जिम्मेदारी की हद है।
यह सचमुच दुःखद है कि असम के पड़ोस में स्थित म्यानामांर में वहां के सैनिक शासकों द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों का बड़े पैमाने पर कत्ल किया जा रहा है और इसके लिए भी उसी बहाने का उपयोग किया जा रहा है जिस बहाने से भारत में बंगाली मुसलमानों को मारा जा रहा है।  यह स्थिति इसलिए भी और दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि हमारा देश एक प्रजातंत्र है। हां, एक महत्वपूर्ण फर्क यह है कि भारत में केन्द्र सरकार और विशेशकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने असम में भड़की हिंसा की आग को बुझाने के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं जिनमंे तीन सौ करोड़ रूपये के राहत पैकेज की घोषणा शामिल है। म्यानांमार में तो वहां की सैनिक तानाशाह सरकार क्रूरतापूर्वक रोहिंग्या मुसलमानों को मौत के घाट उतार रही है और अपनी इस कार्यवाही को औचित्यपूर्ण भी ठहरा रही है।
किसी भी क्षेत्र में बाहर से आकर लोगों के बसने को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है परंतु इस अप्रवासन का राजनैतिक हित साधन के लिए दुरूपयोग नहीं होना चाहिए और न ही आंकड़ों की बाजीगरी की जानी चाहिए। शांति स्थापना के लिए राजनैतिक परिपक्वता तो आवश्यक है ही यह सुनिश्चित किया जाना भी जरूरी है कि असम में एक शताब्दी से भी अधिक समय से रह रहे जातीय व भाषायी समूहों को सुरक्षा मिले और प्रगति व समृद्धि में हिस्सेदारी भी।
( लेखक मुंबई स्थित सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीष हरदेनिया। )

डॉ. असगर अली इंजीनियर (लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। बकौल असगर साहब- "I was told by my father who was a priest that it was the basic duty of a Muslim to establish peace on earth. … I soon came to the conclusion that it was not religion but misuse of religion and politicising of religion, which was the main cause of communal violence.")

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