पुण्य प्रसून वाजपेयी जनसत्ता, 28 अक्तूबर, 2011 : तीन साल पहले जब राहुल गांधी ने संसद में विदर्भ के एक किसान की विधवा कलावती का नाम लिया और उसके अंधेरे जीवन में उजाला भरने के लिए परमाणु करार का समर्थन किया तो कइयों ने तालियां बजाई थीं। कइयों ने राहुल की उस संवेदनशीलता की सराहना की थी कि उन्होंने विदर्भ की सुध ली, जहां किसान लगातार हाशिए पर धकेले और आत्महत्या के लिए मजबूर किए जा रहे थे। ऐसे में यह माना गया कि परमाणु करार की चकाचौंध में कलावती के जरिए किसानों की त्रासदी को भी समझा जा सकता है। और आडवाणी के विदर्भ में रहने के दौरान वाशिम के किसान की पत्नी साधना बटकल ने अपने दो बच्चों के साथ खुदकुशी की, जिनकी उम्र चार और छह बरस थी। यवतमाल के दिगरस के किसान राजरेड््डी निलावर ने खुदकुशी की। इसी तरह उदयभान बेले और निलीपाल जिवने ने खुदकुशी कर ली। हर किसान का संकट दो जून की रोटी है। मगर यह सवाल महाराष्ट्र सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक नहीं समझ पा रही है कि अगर किसान के घर में अन्न नहीं है तो इसका मतलब क्या है। क्योंकि महाराष्ट्र में अंत्योदय कार्यक्रम किसानों के लिए नहीं चलता है। नौकरशाहों का मानना है कि अन्न किसान ही उपजाता है, सो उसे अन्न देने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन नौकरशाह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि खुदकुशी करने वाले ज्यादातर किसान कपास उगाते हैं और कपास न हो तो फिर किसानों में भुखमरी की नौबत आनी ही है। वहीं महाराष्ट्र में किसानों के लिए स्वास्थ्य सेवा की भी कोई व्यवस्था नहीं है। और किसानी से चूके किसान सबसे पहले बीमारी से ही पीड़ित होते हैं, जहां इलाज के लिए पैसा किसी किसान के पास नहीं होता। तीसरा संकट किसानों के बच्चों के लिए शिक्षा का है। इसकी कोई व्यवस्था महाराष्ट्र सरकार की तरफ से नहीं है। केंद्र सरकार की भी शिक्षा योजना खुदकुशी करते किसानों के बच्चों के लिए नहीं है। इसका असर दोहरा है। एक तरफ पिता की खुदकुशी के बाद अशिक्षित बच्चों के लिए बडेÞ होकर खुदकुशी करना सही रास्ता बनता जा रहा है, तो दूसरी तरफ जिस तरह कंक्रीट की योजनाएं खेती की जमीन हथियाने में जुटी हैं, जिससे औने-पौने मुआवजे में ही किसान के परिवार के बच्चे अपनी जमीन धंधेबाजों को बेच देते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि छह सौ किसान परिवारों के बच्चों ने मोटरसाइकिल या फिर एक जीप के एवज में पीढ़ियों से अन्न खिलाती आई जमीन नागपुर शहर में बन रहे अंतरराष्ट्रीय कार्गो के लिए मिहान परियोजना के हवाले कर दी, जिस पर रियल इस्टेट से लेकर हवाई अड््डे तक का विस्तार हो रहा है। यानी मुआवजा उचित है या नहीं, इस पचडेÞ से बचने के लिए धंधेबाजों ने अशिक्षित बच्चों को टके भर का सब्जबाग दिखाया। किसानों की यह त्रासदी कैसे सियासी गलियारे से होते हुए रईसी के खेल में बदल जाती है इसका नया नजारा दिल्ली से सटे उसी ग्रेटर नोएडा में फार्मूला वन रेस के जरिए समझा जा सकता है, जहां मायावती ने किसानों की जमीन हथिया कर रातोंरात भू-उपयोग (लैंड-यूज) बदल दिया और राहुल गांधी ने भट््टा-पारसौल के किसानों की जमीन के अधिग्रहण का मुद््दा उठा कर उत्तर प्रदेश की राजनीति को गरमा दिया। नोएडा और ग्रेटर नोएडा के सारे किसानों का दर्द मुआवजे के आधार पर एक हजार करोड़ की अतिरिक्त मदद से निपटाया जा सकता है। लेकिन इतनी रकम न तो रियल इस्टेट वाले निकालना चाहते हैं न ही अलग-अलग योजना के जरिए पचास लाख करोड़ का खेल करने वाले विकास के धंधेबाज चेहरे। वहीं दूसरी तरफ किसानों की जमीन पर अट्ठाईस से तीस अक्तूबर तक जो फार्मूला वन रेस होनी है उसमें पांच सौ अरब डॉलर दांव पर लगेंगे। वैसे रेस के लिए 5.14 किलोमीटर ट्रैक तैयार करने में ही एक अरब रुपए से ज्यादा खर्च हो चुका है। ग्रेटर नोएडा में तैयार इस फार्मूला रेस ग्राउंड से दस किलोमीटर के दायरे में आने वाले छत्तीस गांवों में प्रतिव्यक्ति सालाना आय औसतन दो हजार रुपए है। लेकिन देश का सच यह है कि फार्मूला रेस देखने के लिए सबसे कम कीमत का टिकट ढाई हजार रुपए का है। जबकि तीस हजार लोगों के लिए खासतौर से बनाए गए पैवेलियन में बैठ कर रफ्तार देखने के टिकट की कीमत पैंतीस हजार रुपए है और कॉरपोरेट बॉक्स में बैठ कर फार्मूला रेस देखने का टिकट ढाई लाख रुपए का है। ऐसे में भट््टा-पारसौल में आंदोलन के दौर में किसानों के बीच राहुल गांधी को याद कीजिए। राहुल उस वक्त किसानों के बीच विकास का सवाल फार्मूला रेस के जरिए ही यह कह कर खड़ा कर रहे थे कि मायावती सरकार तो किसानों की जमीन छीन रही है, जबकि केंद्र सरकार फार्मूला रेस करवा रही है। इसका असर यह हुआ कि करोड़ों के वारे-न्यारे करने वाली रेस को सफल बनाने के लिए सरकार ने फार्मूला वन को भी खेल का दर्जा दे दिया। लेकिन किसानों की खेती की जमीन कुछ इसी तरह के विकास के जरिए हड़प कर किसान का दर्जा बदल कर मजदूर का कर दिया गया। इसलिए देश का नया सच कलावती या भट््टा-परसौल नहीं है, बल्कि नागपुर की मिहान परियोजना या ग्रेटर नोएडा का फार्मूला वन है, जो किसानों की जमीन पर उन्हें मजदूर बना कर अपनी चकाचौंध पैदा कर रहा है। |
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