Sunday, August 1, 2010

“लेखिकाओं में होड़ लगी है कि वो सबसे बड़ी छिनाल हैं”

Sunday, August 1, 2010

"लेखिकाओं में होड़ लगी है कि वो सबसे बड़ी छिनाल हैं"

http://virodh.blogspot.com/
विभूति नारायण राय
। वो शख़्स जो पुलिस में ऊंचे पदों पर रहे। बहुत से प्रतगिशील लेखकों और विचारकों के मुताबिक पुलिसवाले सरकार के सुपारी किलर होते हैं। लेकिन विभूति ने अपने बारे में अपने हुनर से यह सोच नहीं बनने दी। वो प्रतगिशील विचारक कहलाने लगे। फिर इस पोजीशनिंग का लाभ उठा कर महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति भी बन गए। लेकिन शायद यहां उनसे चूक हो गई। अब धीरे-धीरे उनकी असली सोच सामने आ रही है। दलितों और आदिवासियों को लेकर उनकी सोच पर जनतंत्र डॉट कॉम और मोहल्ला लाइव पर लंबी बहस भी चली है। लेकिन ताज़ा मामला महिलाओं के बारे में उनकी सोच से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने की उनसे बड़ी कोई छिनाल नहीं है। नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई विशेषांक के अगस्त अंक में एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बात कही है। आप आईपीएस अधिकारी से शिक्षाविद बने लेखक और विचारक विभूति नारायण राय का इंटरव्यू पढ़ें ।
सवाल – देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है, लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?
विभूति - वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है? मुख्य रूप से पुरुष। व्यक्तिगत सम्पत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचा कर आनंद ले सकता है। उन्हें रखैल बना सकता है। बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत सम्पत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं। और लुत्फ लेने की प्रवृति उनमें भी बढ़ रही है।
सवाल - हिंदी समाज से कुछ उदाहरण….
विभूति – क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है। वह मुख्य रूप से शरीर केंद्रित है। यह भा कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई का विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक "कितने बिस्तरों पर कितनी बार" हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। …..
जनतंत्र डॉट कॉ

विभूति बर्खास्त हो -कृष्णा सोबती


आशुतोष भारद्वाज
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति और भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी वीएन राय ने हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका को दिये साक्षात्कार में कहा है कि हिंदी लेखिकाओं में एक वर्ग ऐसा है, जो अपने आप को बड़ा 'छिनाल' साबित करने में लगा हुआ है। उनके इस बयान की हिंदी की कई प्रमुख लेखिकाओं ने आलोचना करते हुए उनके इस्तीफे की मांग की है।
भारतीय ज्ञानपीठ की साहित्यिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' को दिये साक्षात्कार में वीएन राय ने कहा है, 'नारीवाद का विमर्श अब बेवफाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।' भारतीय पुलिस सेवा, 1975 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी वीएन राय को 2008 में हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया था। इस केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना केंद्र सरकार ने हिंदी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए की थी।
हिंदी की कुछ प्रमुख लेखिकाओं ने वीएन राय को सत्ता के मद में चूर बताते हुए उन्हें बर्खास्त करने की मांग की है। मशहूर लेखक कृष्‍णा सोबती ने कहा, 'अगर उन्होंने ऐसा कहा है, तो यह न केवल महिलाओं का अपमान है बल्कि हमारे संविधान का उल्लंघन भी है। सरकार को उन्हें तत्काल बर्खास्त करना चाहिए।'
'नया ज्ञानोदय' को दिये साक्षात्कार में वीएन राय ने कहा है, 'लेखिकाओं में यह साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है… यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।' एक लेखिका की आत्मकथा, जिसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं, का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय कहते हैं, 'मुझे लगता है इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक हो सकता था 'कितने बिस्तरों में कितनी बार'।'
वीएन राय से जब यह पूछा गया कि उनका इशारा किस लेखिका की ओर है, तो उन्होंने हंसते हुए अपनी पूरी बात दोहरायी और कहा, 'यहां किसी का नाम लेना उचित नहीं है – लेकिन आप सबसे बड़ी छिनाल साबित करने की प्रवृत्ति को देख सकते हैं। यह प्रवृत्ति लेखिकाओं में तेजी से बढ़ रही है। 'कितने बिस्तरों में कितनी बार' का संदर्भ आप उनके काम में देख सकते हैं।'
वीएन राय के इस बयान पर हिंदी की मशहूर लेखिका और कई पुरस्कारों से सम्मानित मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं, 'राय का बयान पुरुषों की उस मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है जो पहले नयी लेखिकाओं का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं और नाकाम रहने पर उन्हें बदनाम करते हैं।' वे कहती हैं, 'ये वे लोग हैं जो अपनी पवित्रता की दुहाई देते हुए नहीं थकते हैं।' पुष्पा कहती हैं, 'क्या वे अपनी छात्रा के लिए इसी विशेषण का इस्तेमाल कर सकते हैं? राय की पत्नी खुद एक लेखिका हैं। क्या वह उनके बारे में भी ऐसा ही कहेंगे।' पुष्पा, वीएन राय जैसे लोगों को लाइलाज बताते हुए कहती हैं कि सरकार को उनपर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगाना चाहिए।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति के इस बयान को 'घोर आपराधिक' करार देते हुए 'शलाका सम्मान' से सम्मानित मन्नू भंडारी कहती हैं, 'वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। एक पूर्व आईपीएस अधिकारी एक सिपाही की तरह व्यवहार कर रहा है।' वे कहती हैं कि एक कुलपति से वे इस तरह के बयान की उम्मीद नहीं कर सकती हैं। भंडारी कहती हैं, 'हम महिला लेखकों को नारायण जैसे लोगों से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है।'
(जनसत्ता से साभार। जनसत्ता में भी इंडियन एक्‍सप्रेस की खबर Women Hindi writers vying to be seen as prostitutes: VCका अनुवाद)
इस बीच विभूति नारायण राय ने भाषा एजंसी से कहा कि दो अख़बारों ने सन्दर्भ से अलग हटकर उनकी बात प्रकाशित की है.


छिनाल'कहकर अपनी कुंठा मिटा रहे हैं-मैत्रयी

मैत्रयी पुष्पा
महात्मा गांधी हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय लेखिकाओं को 'छिनाल'कहकर अपनी कुंठा मिटा रहे हैं और उन्हें लगता है कि लेखन से न मिली प्रसिद्धि की भरपाई वह इसी से कर लेंगे। मैं इस बारे में कुछ आगे कहूं उससे पहले ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया और कुलपति वीएन राय को याद दिलाना चाहुंगी कि दोनों की बीबियां ममता कालिया और पदमा राय लेखिकाएं है,आखिर उनके 'छिनाल'होने के बारे में महानुभावों का क्या ख्याल है।
लेखन के क्षेत्र में आने के बाद से ही लंपट छवि के धनी रहे वीएन राय ने 'छिनाल' शब्द का प्रयोग हिंदी लेखिकाओं के आत्मकथा लेखन के संदर्भ में की है। हिंदी में मन्नु भंडारी,प्रभा खेतान और मेरी आत्मकथा आयी है। जाहिरा तौर यह टिप्पणी हममें से ही किसी एक के बारे में की गयी, ऐसा कौन है वह तो विभूति ही जानें। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर कल ऐवाने गालिब सभागार (ऐवाने गालिब) में उनसे मुलाकात के दौरान मैंने पूछा कि 'नाम लिखने की हिम्मत क्यों न दिखा सके, तो वह करीब इस सवाल पर उसी तरह भागते नजर आये जैसे श्रोताओं के सवाल पर ऐवाने गालिब में।
मेरी आत्मकथा 'गुड़िया भीतर गुड़िया'कोई पढ़े और बताये कि विभूति ने यह बदतमीजी किस आधार पर की है। हमने एक जिंदगी जी है उसमें से एक जिंदा औरत निकलती है और लेखन में दखल देती है। यह एहसास विभूति नारायण जैसे लेखक को कभी नहीं हो सकता क्योंकि वह बुनियादी तौर पर लफंगे हैं।
मैं विभूति नारायण के गांव में होने वाले किसी कार्यक्रम में कभी नहीं गयी। उनके समकालिनों और लड़कियों से सुनती आयी हूं कि वह लफंगई में सारी नैतिकताएं ताक पर रख देता है। यहां तक कि कई दफा वर्धा भी मुझे बुलाया, लेकिन सिर्फ एक बार गयी। वह भी दो शर्तों के साथ। एक तो मैं बहुत समय नहीं लगा सकती इसलिए हवाई जहाज से आऊंगी और दूसरा मैं विकास नारायण राय के साथ आऊंगी जो कि विभूति का भाई और चरित्र में उससे बिल्कुल उलट है। विकास के साथ ही दिल्ली लौट आने पर विभूति ने कहा कि 'वह आपको कबतक बचायेगा।' सच बताऊं मेरी इतनी उम्र हो गयी है फिर भी कभी विभूति पर भरोसा नहीं हुआ कि वह किसी चीज का लिहाज करता होगा।
रही बात 'छिनाल' होने या न होने की तो, जब हम लेखिकाएं सामाजिक पाबंदियों और हदों को तोड़ बाहर निकले तभी से यह तोहमतें हमारे पीछे लगी हैं। अगर हमलोग इस तरह के लांछनों से डर गये होते तो आज उन दरवाजों के भीतर ही पैबस्त रहते,जहां विभूति जैसे लोग देखना चाहते हैं। छिनाल,वेश्या जैसे शब्द मर्दों के बनाये हुए हैं और हम इनको ठेंगे पर रखते हैं।
हमें तरस आता है वर्धा विश्वविद्यालय पर विभूति नारायण राय से बड़ा लफंगा नहीं देखा: मैत्रयी पुष्पा
महात्मा गांधी हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय लेखिकाओं को 'छिनाल'कहकर अपनी कुंठा मिटा रहे हैं और उन्हें लगता है कि लेखन से न मिली प्रसिद्धि की भरपाई वह इसी से कर लेंगे। मैं इस बारे में कुछ आगे कहूं उससे पहले ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया और कुलपति वीएन राय को याद दिलाना चाहुंगी कि दोनों की बीबियां ममता कालिया और पदमा राय लेखिकाएं है,आखिर उनके 'छिनाल'होने के बारे में महानुभावों का क्या ख्याल है।
लेखन के क्षेत्र में आने के बाद से ही लंपट छवि के धनी रहे वीएन राय ने 'छिनाल' शब्द का प्रयोग हिंदी लेखिकाओं के आत्मकथा लेखन के संदर्भ में की है। हिंदी में मन्नु भंडारी,प्रभा खेतान और मेरी आत्मकथा आयी है। जाहिरा तौर यह टिप्पणी हममें से ही किसी एक के बारे में की गयी, ऐसा कौन है वह तो विभूति ही जानें। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर कल ऐवाने गालिब सभागार (ऐवाने गालिब) में उनसे मुलाकात के दौरान मैंने पूछा कि 'नाम लिखने की हिम्मत क्यों न दिखा सके, तो वह करीब इस सवाल पर उसी तरह भागते नजर आये जैसे श्रोताओं के सवाल पर ऐवाने गालिब में।
मेरी आत्मकथा 'गुड़िया भीतर गुड़िया'कोई पढ़े और बताये कि विभूति ने यह बदतमीजी किस आधार पर की है। हमने एक जिंदगी जी है उसमें से एक जिंदा औरत निकलती है और लेखन में दखल देती है। यह एहसास विभूति नारायण जैसे लेखक को कभी नहीं हो सकता क्योंकि वह बुनियादी तौर पर लफंगे हैं।
मैं विभूति नारायण के गांव में होने वाले किसी कार्यक्रम में कभी नहीं गयी। उनके समकालिनों और लड़कियों से सुनती आयी हूं कि वह लफंगई में सारी नैतिकताएं ताक पर रख देता है। यहां तक कि कई दफा वर्धा भी मुझे बुलाया, लेकिन सिर्फ एक बार गयी। वह भी दो शर्तों के साथ। एक तो मैं बहुत समय नहीं लगा सकती इसलिए हवाई जहाज से आऊंगी और दूसरा मैं विकास नारायण राय के साथ आऊंगी जो कि विभूति का भाई और चरित्र में उससे बिल्कुल उलट है। विकास के साथ ही दिल्ली लौट आने पर विभूति ने कहा कि 'वह आपको कबतक बचायेगा।' सच बताऊं मेरी इतनी उम्र हो गयी है फिर भी कभी विभूति पर भरोसा नहीं हुआ कि वह किसी चीज का लिहाज करता होगा।
रही बात 'छिनाल' होने या न होने की तो, जब हम लेखिकाएं सामाजिक पाबंदियों और हदों को तोड़ बाहर निकले तभी से यह तोहमतें हमारे पीछे लगी हैं। अगर हमलोग इस तरह के लांछनों से डर गये होते तो आज उन दरवाजों के भीतर ही पैबस्त रहते,जहां विभूति जैसे लोग देखना चाहते हैं। छिनाल,वेश्या जैसे शब्द मर्दों के बनाये हुए हैं और हम इनको ठेंगे पर रखते हैं।
हमें तरस आता है वर्धा विश्वविद्यालय पर जिसका वीसी एक लफंगा है और तरस आता है 'नया ज्ञानोदय' पर जो लफंगयी को प्रचारित करता है। मैंने ज्ञानपीठ के मालिक अशोक जैन को फोन कर पूछा तो उसने शर्मींदा होने की बात कही। मगर मेरा मानना है कि बात जब लिखित आ गयी हो तो कार्रवाई भी उससे कम पर हमें नहीं मंजूर है। दरअसल ज्ञोनादय के संपादक रवींद्र कालिया ने विभूति की बकवास को इसलिए नहीं संपादित किया क्योंकि ममता कालिया को विभूति ने अपने विश्वविद्यालय में नौकरी दे रखी है।
मैं साहित्य समाज और संवेदनषील लोगों से मांग करती हूं कि इस पर व्यापक स्तर पर चर्चा हो और विभूति और रवींद्र बतायें कि कौन सी लेखिकाएं 'छिनाल'हैं। मेरा साफ मानना है कि ये लोग शिकारी हैं और शिकार हाथ न लग पाने की कुंठा मिटा रहे हैं। मेरा अनुभव है कि तमाम जोड़-जुगाड़ से भी विभूति की किताबें जब चर्चा में नहीं आ पातीं तो वह काफी गुस्से में आ जाते हैं। औरतों के बारे में उनकी यह टिप्पणी उसी का नतीजा है।
((अजय प्रकाश से हुई बातचीत पर आधारित है और इसे जनज्वार से साभार यहां प्रकाशित किया गया है))

Friday, July 30, 2010

क्या खाए और क्या बचाए पत्रकार

अंबरीश कुमार
देश के विभिन्न हिस्सों में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने वाले पत्रकारों का जीवन संकट में है .चाहे कश्मीर हो या फिर उत्तर पूर्व या फिर देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश सभी जगह पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे है .उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय में आधा दर्जन पत्रकार मारे जा चुके है.इनमे ज्यादातर जिलों के पत्रकार है .ख़ास बात यह है कि पचास कोस पर संस्करण बदल देने वाले बड़े अख़बारों के इन संवादाताओं पर हमले की खबरे इनके अखबार में ही नही छप पाती .अपवाद एकाध अखबार है . इलाहाबाद में इंडियन एक्सप्रेस के हमारे सहयोगी विजय प्रताप सिंह पर माफिया गिरोह के लोगों ने बम से हमला किया .उनकी जान नहीं बचाई जा सकी ,हालाँकि एक्सप्रेस प्रबंधन ने एयर एम्बुलेंस की व्यवस्था की पर सरकार को चिंता सिर्फ अपने घायल मंत्री की थी .कुशीनगर में एक पत्रकार की हत्या कर उसका शव फिकवा दिया गया .गोंडा में पुलिस एक पत्रकार को मारने की फिराक में है .लखीमपुर में समीउद्दीन नीलू को पहले फर्जी मुठभेड़ में मारने की कोशिश हुई और बाद में तस्करी में फंसा दिया गया .लखनऊ में सहारा के एक पत्रकार को मायावती के मंत्री ने धमकाया और फिर मुकदमा करवा दिया .यह बानगी है उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर मंडरा रहे संकट की .पत्रकार ही ऐसा प्राणी है जिसका कोई वेतनमान नहीं ,सामाजिक आर्थिक सुरक्षा नही और न ही जीवन की अंतिम बेला में जीने के लिए कोई पेंशन .असंगठित पत्रकारों की हालत और खराब है .जिलों के पत्रकार मुफलिसी में किसी तरह अपना और परिवार का पेट पाल रहे है .दूसरी तरफ अख़बारों और चैनलों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है .इंडियन एक्सप्रेस समूह के दिल्ली संस्करण में छह सौ पत्रकार गैर पत्रकार कर्मचारियों में दो सौ वेज बोर्ड के दायरे में है जो महीने के अंत में उधार लेने पर मजबूर हो जाते है .दूसरी तरफ बाकि चार सौ में तीन सौ का वेतन एक लाख रुपए महीना है .हर अखबार में दो वर्ग बन गए है .
देश भर में मीडिया उद्योग ऐसा है जहाँ किसी श्रमजीवी पत्रकार के रिटायर होने के बाद उसका परिवार संकट में आ जाता है .आजादी के बाद अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों की दूसरी पीढी अब रिटायर होती जा रही है .पत्रकार के रिटायर होने की उम्र ज्यादातर मीडिया प्रतिष्ठानों में ५८ साल है .जबकि वह बौद्धिक रूप से ७० -७५ साल तक सक्रिय रहता है .जबकि शिक्षकों के रिटायर होने की उम्र ६५ साल तक है .इसी तरह नौकरशाह यानी प्रशासनिक सेवा के ज्यादातर अफसर ६० से ६५ साल तक कमोवेश पूरा वेतन लेते है .इस तरह एक पत्रकार इन लोगों के मुकाबले सात साल पहले ही वेतन भत्तों की सुविधा से वंचित हो जाता है .और जो वेतन मिलता था उसके मुकाबले पेंशन अखबार भत्ते के बराबर मिलती है .इंडियन एक्सप्रेस समूह में करीब दो दशक काम करने वाले एक संपादक जो २००५ में रिटायर हुए उनको आज १०४८ रुपए पेंशन मिलती है और वह भी कुछ समय से बंद है क्योकि वे यह लिखकर नहीं दे पाए कि - मै अभी जिंदा हूँ .जब रिटायर हुए तो करीब चालीस हजार का वेतन था .यह एक उदाहरण है कि एक संपादक स्तर के पत्रकार को कितना पेंशन मिल रहा है .हजार रुपए में कोई पत्रकार रिटायर होने के बाद किस तरह अपना जीवन गुजारेगा.यह भी उसे मिलता है जो वेज बोर्ड के दायरे में है . उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण और देना चाहता हूँ जहा ज्यादातर अखबार या तो वेज बोर्ड के दायरे से बाहर है या फिर आंकड़ों की बाजीगरी कर अपनी श्रेणी नीचे कर लेते है जिससे पत्रकारों का वेतन कम हो जाता है .जब वेतन कम होगा तो पेंशन का अंदाजा लगाया जा सकता है .जबकि इस उम्र में सभी का दवाओं का खर्च बढ़ जाता है . अगर बच्चों की शिक्षा पूरी नही हुई तो और समस्या .छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर प्रदेश तक बड़े ब्रांड वाले अखबार तक आठ हजार से दस हजार रुपए में रिपोर्टर और उप संपादक रख रहे है .लेकिन रजिस्टर पर न तो नाम होता है और न कोई पत्र मिलता है .जबकि ज्यादातर उद्योगों में डाक्टर ,इंजीनियर से लेकर प्रबंधकों का तय वेतनमान होता है . सिर्फ पत्रकार है जिसका राष्ट्रिय स्तर पर कोई वेतनमान तय नही .हर प्रदेश में अलग अलग .एक अखबार कुछ दे रहा है तो दूसरा कुछ .दूसरी तरफ रिटायर होने की उम्र तय है और पेंशन इतनी की बिजली का बिल भी जमा नही कर पाए .गंभीर बीमारी के चलते गोरखपुर के एक पत्रकार का खेत -घर बिक गया फिर भी वह नहीं बचा अब उसका परिवार दर दर की ठोकरे खा रहा है .कुछ ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि रिटायर होने के बाद जिंदा रहने तक उसका गुजारा हो सके और बीमारी होने पर चंदा न करना पड़े .
बेहतर हो वेज बोर्ड पत्रकारों की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा की तरफ ध्यान देते हुए ऐसे प्रावधान करे जिससे जीवन की अंतिम बेला में पत्रकार सम्मान से जी सके .पत्रकारों को मीडिया प्रतिष्ठानों में प्रबंधकों के मुकाबले काफी कम वेतन दिया जाता है .अगर किसी अखबार में यूनिट हेड एक लाख रुपए पता है तो वहा पत्रकार का अधिकतम वेतन बीस पच्चीस हजार होगा . जबकि ज्यादातर रिपोर्टर आठ से दस हजार वाले मिलेगे .देश के कई बड़े अखबार तक प्रदेशों से निकलने वाले संस्करण में पांच -दस हजार पर आज भी पत्रकारों को रख रहे है .मीडिया प्रतिष्ठानों के लिए वेतन की एकरूपता और संतुलन अनिवार्य हो खासकर जो अखबार संस्थान सरकार से करोड़ों का विज्ञापन लेतें है . ऐसे अख़बारों में वेज बोर्ड की सिफारिशे सख्ती से लागू कराई जानी चाहिए .एक नई समस्या पत्रकारों के सामने पेड़ न्यूज़ के रूप में आ गई है .अखबार मालिक ख़बरों का धंधा कर पत्रकारिता को नष्ट करने पर आमादा है .जो पत्रकार इसका विरोध करे उसे नौकरी से बाहर किया जा सकता है .ऐसे में पेड़ न्यूज़ पर पूरी तरह अंकुश लगाने की जरुरत है.वर्ना खबर की कवरेज के लिए रखा गया पत्रकार मार्केटिंग मैनेजर बन कर रह जाएगा . और एक बार जो साख ख़तम हुई तो उसे आगे नौकरी तक नही मिल पाएगी .
इस सिलसिले में निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाए .
१-शिक्षकों और जजों की तर्ज पर ही पत्रकारों की रिटायर होने की उम्र सीमा बढाई जाए .
२ सभी मीडिया प्रतिष्ठान इसे लागू करे यह सुनिश्चित किया जाए .
३- जो अखबार इसे लागू न करे उनके सरकारी विज्ञापन रोक दिए जाए .
४ सरकार सभी पत्रकारों के लिए एक वेतनमान तय करे जो प्रसार संख्या की बाजीगरी से प्रभावित न हो .
५ पेंशन निर्धारण की व्यवस्था बदली जाए .
६-पेंशन के दायरे में सभी पत्रकार लाए जाए जो चाहे वेज बोर्ड के दायरे में हो या फिर अनुबंध पर .
७ न्यूनतम पेंशन आठ हजार हो .
७ पेंशन के दायरे में अखबारों में कम करने वाले जिलों के संवाददाता भी लाए जाए .
८- पत्रकारों और उनके परिवार के लिए अलग स्वास्थ्य बीमा और सुविधा का प्रावधान हो .
९-जिस तरह दिल्ली में मान्यता प्राप्त पत्रकारों को स्वास्थ्य सुविधा मिली है वैसी सुविधा सभी प्रदेशों के पत्रकारों को मिले.
१० -किसी भी हादसे में मारे जाने वाले पत्रकार की मदद के लिए केंद्र सरकार विशेष कोष बनाए .

(श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेज बोर्ड की दिल्ली में मंगलवार को हुई बैठक में जनसत्ता के पत्रकार अंबरीश कुमार ने देश भर के पत्रकारों की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का सवाल उठाया और बोर्ड ने इस सिलसिले ठोस कदम उठाने का संकेत भी दिया है .बैठक में जो कहा गया उसके अंश -)

Thursday, July 29, 2010

परंपरा तो इधर है ,न्यास उधर है

अंबरीश कुमार
दो दिन तक दिल्ली रहा और उससे पहले नैनीताल .चार दिन बाद आज लौटा हूँ तो लगा कुछ बाते साफ हो जानी चाहिए .दिल्ली में श्रमजीवी पत्रकारों के लिए केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेतन आयोग के सामने उन पत्रकारों का सवाल उठाने आया था जिन पर लगातार हमला हो रहा है .आधा दर्जन पत्रकारों की हत्या हो चुकी है हाल में इलाहाबाद के हमारे सहयोगी विजय प्रताप सिंह पर जानलेवा हमला हुआ और उन्हें बचाया नहीं जा सका .कुशीनगर में पत्रकार की हत्या कर उसका शव फिकवा दिया गया .लखीमपुर में पत्रकार नीलू को फर्जी मुठभेड़ में मारने की कोशिश की जा चुकी है .इस सब पर क्या किया जाए यह सवाल आयोग ने मुझसे पूछा भी .पूरी रपट अगली पोस्ट में .फिलहाल परंपरा पर लौटे .दिल्ली प्रवास के दौरान आलोक तोमर , मंगलेश डबराल ,वीरेंद्र डंगवाल , आनद स्वरुप वर्मा ,संजय सिन्हा ,मनोहर नायक ,सतीश पेंडनेकर,परमानंद पांडे,विवेक सक्सेना ,प्रदीप श्रीवास्तव ,श्रीश चंद्र मिश्र ,अमित प्रकाश सिंह आदि से मुलाकात हुई .दिल्ली में जम मुझे किराए का घर खाली करने की नोटिस मिली तो मैंने खुद का घर बनाने की ठानी जिसके चलते जनसत्ता सोसायटी बनी .कुल जमा डेढ़ साल में ११० फ्लैट बना कर दे दिया था जिसके बारे में मशहूर पत्रकार एसपी सिंह ने जनसत्ता के साथी ओम प्रकाश के सामने कहा था - पत्रकारों की सोसायटी बनाना मेढक तौलने जैसा असंभव काम है .और अब विवेक सक्सेना इसी सोसायटी पर पुस्तक लिखने का विचार बना रहे है जिसमे कई बहादुरों पर रौशनी पड़ सकती है .उसी सोसायटी के अपने घर जाते हुए अरविन्द उप्रेती मिले तो फिर उन्हें साथ ही ले लिया .फिर जहाँ जहा गया सब जगह परंपरा पर ही चर्चा .जनसत्ता में तो समूचा ब्यूरो ,रिपोर्टिंग और डेस्क के साथी छत पर ले गए और घंटे भर तक परंपरा पर चर्चा हुई .सभी साथ थे .जनसत्ता में रहे जुझारू साथी परमानंद पांडे यह जानकर हैरान हुए कि परंपरा से आलोक तोमर बाहर कैसे है.और उन्होंने बताया कि जब चंदा इकठ्ठा कर एक बहादुर पत्रकार के नवभारत में जाने पर विदाई समारोह हुआ तो प्रभाष जोशी ने कहा था - इन्होने जनसत्ता में खूंटी गाड़ी थी .जनसत्ता ने इन्हें जगह दी अब ये आसमान में कील ठोकने जा रहे .......... .दूसरी तरफ मंगलेश डबराल ने कहा कि वे न्यास के कार्यक्रम में नहीं गए क्योकि उसके रंग ढंग से सहमत नही है .मनोहर नायक ने कहा वे परंपरा वाले तो है पर किसी न्यास के साथ नही है .
इससे पहले जनसत्ता के प्रोडक्शन एडिटर सत्य प्रकाश त्रिपाठी ,कोलकोता के संपादक रहे शम्भू नाथ शुक्ल ,अरुण त्रिपाठी ,प्रभाकर मणि त्रिपाठी और बहुत लोगो
से बात हुई .सभी आहत थे .प्रेस क्लब में बैठा तो दर्जन भर पत्रकार साथ बैठ गए.सबका यही तर्क था कि न्यास में सबकुछ है पर प्रभाष परंपरा तो नही है .दो दिन के प्रवास से यह साफ़ हो गया कि प्रभाष जोशी के नेतृत्व में जनसत्ता निकलने वाली टीम के ज्यादातर साथी आज भी प्रभाष जोशी की परंपरा पर चल रहे है है भले ही वह किसी न्यास में न हो .
बहरहाल आलोक तोमर से बात भी हुई कि अब यह सब बंद कर हम उस पुस्तक और वर्कशाप की तैयारी करे जो अगस्त -सितम्बर में भाषा पर की जाने वाली है .
.इंडियन एक्सप्रेस एम्प्लाइज यूनियन के अध्यक्ष अरविन्द उप्रेती अपने नेता है और उनका निर्देश भी यही है कि अगर नामवर सिंह को मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ और तरह तरह के लोगों से कोई शिकायत नहीं तो हम क्यों चिंता करे . लेकिन इस पर सभी एकमत है कि परंपरा तो इधर ही रहेगी .वे अपना न्यास संभाले और न्यास न्यास खेले..

Wednesday, July 28, 2010

कब तक दूसरों की भाषा बोलोगे ?

आलोक तोमर
तीन दिन पहले ही कसम खाई थी कि अपने गुरु प्रभाष जोशी की परंपरा के स्मरण में बनाए गए न्यास के बारे में और कुछ नहीं बोलूंगा और न सुनूंगा। आखिर प्रभाष जी के स्मरण में जो न्यास बना हैं वह कहीं न कहीं उनकी विरासत को जिंदा जरूर रखेगा। इसलिए तमाम अपवादों के बावजूद उसमें उत्पात क्या मचाना। इसके अलावा जहां बड़े बड़े दिग्गज मौजूद हो और दोनों को भी दिग्गज बनाने पर तुले हो वहां आदमी टांग नहीं अड़ाए, वही बेहतर हैं।
मगर इसका क्या करे कि प्रभाष परंपरा न्यास के सूत्रधारों ने कवच के तौर पर हमारे प्रभाष जी के बड़े बेटे और क्रिकेट के शानदार खिलाड़ी संदीप जोशी को इस्तेमाल किया। पहले शुरूआत संजय तिवारी नाम के एक अखबारी कवच में की थी जो पहली बारिश में ही फट गया लेकिन संदीप गुरु पुत्र हैं और प्रभाष जी पर उनके अलावा थोड़ा बहुत हक मैं अपना भी समझता हूं, इसलिए मुझे लगता है कि संदीप को याद दिलाना चाहिए कि वे गलत टीम की फील्डिंग कर रहे हैं।
संदीप ने लिखा है कि गांधी दर्शन के सत्याग्रह मंडप में नामवर सिंह की अध्यक्षता और राम बहादुर राय के प्रबंधन में हुए इस कार्यक्रम मंे प्रभाष परंपरा का बड़ा परिवार आया। वह सब हुआ जो परिवारों में होता है और होते रहना चाहिए। प्रभाष जी जन्मदिन ही नहीं, किसी भी पर्व या अवसर पर समारोहपूर्वक मनाते थे और जैसा कि संदीप कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से उनका जन्मदिन जनसत्ता परिवार मनाता रहा है और जोर दे कर कहा गया है कि राम बहादुर राय हेमंत शर्मा और अशोक गढ़िया नाम के हिसाब मंे हेरा फेरी करने वाले पेशेवर चार्टर्ड एकाउंटेंट इसका इंतजाम करते थे। इस बार इन्हीं ने यह आयोजन किया।
संदीप जोशी शायद लगा कर लिखते हैं कि प्रभाष जोशी ने शायद कट्टरवाद को नकार कर परंपरावाद को अपनाया था। इसलिए प्रभाष जी को याद करने के लिए न्यास का नाम प्रभाष परंपरा सुझाया गया और बढ़े परिवार ने इसे अपना लिया। बड़ी मेहरबानी थी। वे अगर माता वैष्णो देवी ट्रस्ट नाम रख देते तो भी उन्हें कौन रोक सकता था मगर झगड़ा इस बात का है ही नहीं कि समारोह क्यों हुआ, कैसा हुआ और कौन आया और कौन नहीं आया। असली झगड़ा तो न्यास की रचना को ले कर है जिसमें वे और ऐसे ऐसे लोग विराजमान है जिनकी उपस्थिति शायद हमारे प्रभाष जी को मंजूर नहीं होती।
वैसे तो प्रभाष जी आडवाणी और वाजपेयी के साथ खाना खाते थे लेकिन हिंदुत्व के भाजपाई सरोकारों से उनका कोई लगाव नहीं था। फिर राजनाथ सिंह और मुरली मनोहर जोशी इस न्यास में क्या कर रहे हैं? क्या प्रभाष जी आत्मा ने अयोध्या कांड के लिए उन्हें माफ कर दिया? माना कि राजनाथ गाजियाबाद के लोकसभा सदस्य के तौर पर सदस्य हैं तो जिस जनसत्ता को प्रभाष जी ने रचा था उसके संपादक ओम थानवी को भी संस्थापक न्यासी क्यों नहीं बनाया गया? सदस्य बनाने की कसौटी ही शायद यह थी कि संपर्क या पैसे की दम पर जो लोग मदद कर सकते हो वे न्यास में शामिल हो। न्यास में शामिल बहुत सारे दो कौड़ी के लोग हैं जिनकी गिनती चोरो, भू माफियाओं और लेखकों के हक हजम करने के अलावा शिक्षा जगत में भ्रष्टाचार फैलाने के लिए होती है। इन लोगों को प्रभाष जी के नाम की एक नाव मिल गई है और इसी नाव पर वे अपने पापों का भवसागर पार करने वाले हैं।
संदीप जोशी जिन्हें उनके बचपन से मैं पप्पू के नाम से जानता हूं, अचानक बड़े हो गए हैं और आदर्शवादी समाज, लोक परंपरा और सृष्टि के आरंभ आदि की बड़ी बड़ी बाते करने लगे हैं। उन्होंने शुरूआत में ही खाप पंचायतों का जिक्र कर दिया है और प्रभाष परंपरा न्यास भी मेरी और मेरे जैसे बहुत सारे मित्रों की विनम्र राय में एक खाप पंचायत बनाने की कोशिश की जा रही है जहां पत्रकारिता को ले कर सिर्फ फतवे जारी किए जाएंगे। गनीमत है कि प्रभाष जी इतना रच गए हैं कि उन्हें याद रखने के लिए किसी न्यास की आवश्यकता नहीं हैं मगर वैसा ही और लोग भी रच सके, इसके लिए जरूर कोई न्यास होना चाहिए जहां से प्रभाष जी की विरासत की गंगोत्री कस्बों, गांवो और देहातों तक पहुंच सके।
प्रभाष जी को समकालीनता के फलक से धकेलने की लगातार कोशिश की जा रही है। उन्हें आत्मीय से पूज्य बनाने की साजिश की जा रही है। उन्हें मूर्ति की तरह स्थापित करने का स्वांग रचा जा रहा है ताकि जो पंडे न्यास में विराज गए हैं उनकी रोजी रोटी चलती रहे। इनमेें से कई पंडो की रोजी रोटी पिछले काफी वर्षों से प्रभाष जी के नाम पर ही चल रही थी। अब भी वे न्यास के बहाने समय समय पर उत्सव करने की परंपरा कायम रखना चाहते है।
राजेंद्र माथुर प्रभाष जी के बाल सखा थे। दूसरे बाल सखा शरद जोशी थे। मुझे पता नहीं कि इन लोगों के नाम पर कोई न्यास बने या नहीं मगर इतना पता है कि हिंदी पत्रकारिता का कोई भी गंभीर विद्यार्थी या पत्रकारिता मंे रुचि रखने वाला इन नामों को भुला नहीं पाएगा। गांधीवाद की जो लगातार धारावाहिक हत्या खास तौर पर गाधीवादियों ने की हैं, वही काम प्रभाष जी के साथ न हो और दुकानदारी पनपाने के नाम पर प्रभाषवाद नाम का कोई नया प्रोडक्ट विकसित नहीं हो जाए, अब तो इसका डर लगता है।
प्रभाष जोशी ने सिर्फ हिंदी पत्रकारिता को ही नहीं, पूरी भारतीय पत्रकारिता को एक अजब और गजब मुहावरा दिया हैं। इस मुहावरे को आगे बढ़ाने के लिए न्यास वगैरह की जरूरत शायद उतनी नहीं हैं जितनी प्रभाष जी के सरोकारों में आस्था रखने की है। संदीप छोटे हैं और परंपरा न्यास में शामिल हैं लेकिन उन्हें प्रभाष जी रचे जनसत्ता में जो लिखने के लिए बाध्य किया गया है वह चकित भी करता है और स्तब्ध भी। संदीप को पारिवारिक विरासत मिली हैं मगर सैकड़ों लोग हैं जिनके पास प्रभाष जी की बौद्विक विरासत है। संदीप सौभाग्यशाली हैं जो प्रभाष जी के बेटे के तौर पर पैदा हुए हैं मगर प्रभाष जी के मानस पुत्रों की कमी नहीं है जिन्हें लिखना भी आता है और जो सृष्टि के आरंभ और परिवार के सरोकारों पर निबंध भर नहीं लिखते। और फिर इससे बड़ा झूठ तो कोई हो ही नहीं सकता जो शीर्षक मंे लिखा है कि प्रभाष जी को उद्देश्य से ज्यादा उत्सव प्रिय थे। हैरत की बात है कि यह बात उनका बेटा लिख रहा है जिसने बनारस से लखनऊ होते हुए दिल्ली लौटते हुए अपने पिता को देखा है और जिसे पता है कि अगले दिन अपने सामाजिक सरोकारों और उद्देश्यों के लिए प्रभाष जी मणिपुर जाने वाले थे। कब तक दूसरों की भाषा बोलोगे संदीप?

Saturday, July 24, 2010

इसे मर्दानगी तो नही कहा जा सकता!

अनिल पुसदकर
मर्दानगी!एक शब्द जो पुरी कहानी कह देता है।
कम से कम प्रभाष परंपरा न्यास के मामले मे तो यही नज़र आ रहा है।प्रभाष जी के नाम को भगवा रंग मे रंगने की कोशिशों का विरोध करने वाले साथी आलोक तोमर के लिये तो मर्दानगी पर्यायवाची नज़र आता है मगर उनके विरोध का विरोध करने वाले न्यासी के चमचे के मामले मे नही।आलोक तोमर प्रभाष जी की परंपरा का निर्वाह करने मे आज भी पीछे नही रहे।वे एक साथ दो बड़े भगवा नेता और उनसे कंही ज्यादा और कई हज़ार गुना ताक़तवर कैंसर से एक साथ लड पड़े।झुकना उन्होने सीखा नही था और गलत उन्हे बर्दाश्त नही था।सो मुंह खोल दिया था।मगर पूरी दमदारी से और पूरी मर्दानगी के साथ।मगर उसका जिस तरीके से प्रभाष परंपरा न्यास के एक न्यासी के चमचे ने विरोध किया उसे कम से कम मर्दानगी तो नही कहा जा सकता।
आप खुद ही सोचिये कैंसर से जूझ रहा कोई योद्धा किसी अन्याय के खिलाफ़ तब मैदान पर उतरे जब सब खामोश हो तो शायद सब के मन मे उसके लिये श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़े।और अगर कर्ण जैसी मज़बूरी की वज़ह से भी आपको उसका मुक़ाबला करना पड़े तो भी आप दुःशासन या दुर्योधन की भांति उसकी पत्नी पर कटाक्ष करके अपनी बहादुरी या मर्दानगी नही दिखायेंगे।मगर ऐसा किया प्रभाष जी के नाम को भगवा रंग से रंगने की कोशिश करने वाले देश के दो सबसे बड़े फ़ेल्वर भगवा नेताओं के समर्थक एक न्यासी के चमचे ने।अब इसे आप क्या कहेंगे?पहले ही कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर ने तो उनका जवाब देना भी ज़रूरी नही समझा और आदरणीय भाभीजी ने भी खामोश रहना ज्यादा उचित समझा मगर जुझारू अंबरीश जी से शायद ये बर्दाश्त नही हुआ और हो भी नही सकता था,सो वे सामने आ गये शिखण्डियों की पूरी जमात से लड़ने।और लड़ते हुये तो हमने भी उन्हे देखा था।तब,जब पत्रकारिता को विज्ञापनों के दम पर कुचलने की कोशिश मे सरकार लगभग सफ़ल होती नज़र आ रही थी तब अंबरीश जी ने सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया था।न झुके और ना समझौता किया।मुझे उनका साथी होने पर गर्व है ।मैं और संजीत आज भी उनकी परंपरा को कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं।और इस संघर्ष मे भी हम उनके साथ हैं।चाहे हमे शिखण्डियों से ही क्यों ना लड़ना पड़े,हम पीछे नही हटेंगे और कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर के जायज विरोध का नाजायज विरोध करने वालों को छोडेंगे नही।


नोट - अनिल पुसदकर जनसत्ता के छत्तीसगढ़ संस्करण के ब्यूरो चीफ रहे है .वे रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष है .जनसत्ता के दो पत्रकारों अनिल पुसदकर और राज कुमार सोनी ने उस दौर में अंबरीश कुमार के नेतृत्व में सत्ता के खिलाफ हल्ला बोल दिया था .


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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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