उत्तराखंड: केदारनाथ मंदिर कैसे हमेशा बच जाता है?
आख़िर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियाँ, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं?
जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएँ होती रही हैं, वहाँ इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई?
उत्तराखंड की त्रासद घटनाएँ मूलतः प्राकृतिक थीं. अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है. लेकिन इनसे होने वाला क्लिक करेंजान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं.
अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार ज़िम्मेदार है. वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती. यहाँ तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है.
वैज्ञानिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियाँ इतनी कुपित क्यों हुईं.
नदी घाटी काफी चौड़ी होती है. बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं. यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है. इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है.
लेकिन क्लिक करेंइस छूटी हुई ज़मीन पर निर्माण कर दिया जाए तो ख़तरा हमेशा बना रहता है.
नदियों का पथ
केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए.
क्लिक करेंकेदारनाथ मंदिर इस लिए बच गया क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था.
नदी के फ्लड वे के बीच मलबे से बने स्थान को वेदिका या टैरेस कहते हैं. पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं. हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं.
पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं.
यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के बाढ़ अपना काम करेगी ही. यदि हम नदी के फ्लड वे के किनारे सड़कें बनाएँगे तो वे बहेंगे ही.
विनाशकारी मॉडल
मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूँ.
पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है. ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं.
इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते. चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है. भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं.
ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते. काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं.
इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियाँ पहले से बनी हुई हैं उन्हें साफ रखना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं होता.
हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालिस साल के अनुभव में मैंने आज तक भू-स्खलन के क्षेत्रों में नालियाँ बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है. नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है. मलबों के कमजोर होने से बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं.
इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज़ वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं. मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं. नाले का पानी निकल नहीं पाता. इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके.
हिमालयी क्रोध
पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं. ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते है जो मलबों से बना होती है. नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था.
हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं. हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और ये अभी भी उसकी ऊँचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है.
हिमालय अपने वर्तमान वृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है. भू-विज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है. हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है यानी अब भी वो हरकतें जारी हैं जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था.
हिमालय के इस क्षेत्र को ग्रेट हिमालयन रेंज या वृहद् हिमालय कहते हैं. संस्कृत में इसे हिमाद्रि कहते हैं यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वत श्रेणियाँ. इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं. प्राकृतिक आपदाएँ कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं.
केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचचूली इत्यादि श्रेणियाँ इसी वृहद् हिमालय की श्रेणियाँ हैं. इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं. जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है.
कमज़ोर चट्टानें
वैज्ञानिक इन दरारों को थ्रस्ट कहते हैं. इनमें से सबसे मुख्य दरार को भू-वैज्ञानिक मेन सेंट्रल थ्रस्ट कहते हैं. इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं.
इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी. धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थीं, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी. परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं. दूसरों शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं.
इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टाने टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं. और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है. कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है.
भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भीतरघात करता है. धरती को अंदर से नुकसान पहुँचाता है.
इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है. भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है यानी हिमालय को दबा रहा है. धरती द्वारा दबाए जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है.
(रंगनाथ सिंह से बातचीत पर आधारित)
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए क्लिक करेंयहां क्लिक करें. आप हमें क्लिक करें क्लिक करेंफ़ेसबुक और क्लिक करें क्लिक करेंट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/06/130623_ks_valdiya_uttarakhand_rns.shtml
'नदी किनारे बसने वालों का परिवार नहीं बचता'
अपना क्लिक करेंपर्यावरण बचाने के लिए हिमालयी समाजों के अपने परंपरागत तौर-तरीक़े रहे हैं. विशेष रूप से उत्तराखंड में प्रकृति के संरक्षण की समृद्ध परंपरा रही है.
आप ऊपर के इलाक़ों में जाएँ तो पाएँगे कि वहाँ गाँवों के बुज़ुर्ग जंगलों और घाटियों में चलते हुए ऊँची आवाज़ों में बोलने से मना करते हैं. कहा जाता है कि इससे वन देवियाँ नाराज़ हो जाती हैं.
हम ऊँचाई में पड़ने वाले बुग्यालों में जूते पहनकर नहीं जाते थे. मौसम से पहले ब्रह्म कमल और फेन कमल जैसे सुंदर फूलों को नहीं तोड़ने की परंपरा रही है.
मनपाई बुग्याल से रुद्रनाथ के रास्ते पर एक बार हम पशुपालकों के छप्परों में उनके साथ रहे. ऐसी ऊंचाई वाली जगहों पर ब्रह्म कमल और फेन कमल पाया जाता है. इसका दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.
पूर्णमासी को नंदा देवा या वन देवी की पूजा की जाती है. उसके बाद सुबह ही कमल को तोड़ा जाता है. पशुपालकों के पास कोई दवा तो होती नहीं है. वे दर्द से राहत के लिए कमल की राख पेट पर मलते हैं.
लोक विश्वास
मैंने पूछा कि नंदाष्टमी के पहले आपने पुष्प को क्यों तोड़ा तो उन्होनें कहा कि हमने अपने हाथों से नहीं बल्कि अपने मुख से इन फूलों को तोड़ा है, जैसे पशु तोड़ते हैं.
जैसे प्रकृति पशुओं को किसी भी क्लिक करेंमौसम में घास चरने की अनुमति देती है. वैसे ही वन देवी से फूलों को तोड़ने की अनुमति ली जाती है.
गढ़वाल में एक पुरानी कहावत कही जाती है, "नदी तीर का रोखड़ा, जत कत सोरों पार यानी नदी के किनारे मकान बनाने वालों का परिवार नष्ट हो जाता है."
यही हाल आज भागीरथी, अलकनंदा और क्लिक करेंकेदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के आसपास बसे क़स्बों-गांवों पर लागू हो रही है.
हिमालयी समाज पर्यावरण को बचाने के लिए इस तरह के लोकविश्वासों का सहारा लेता रहा है लेकिन अब गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक, पूरे पहाड़ में जगह-जगह पांच-छह मंज़िला इमारतों के निर्माण ने लोक विश्वासों की अनूठी परंपरा को बेमानी सा बना दिया है.
पहले लोग सावन के महीने में नींव डालते थे. जमीन बनाने के पहले मिट्टी सूंघी जाती थी ताकि उसकी भार सहने की क्षमता का अनुमान लगाया जा सके.
प्राकृतिक विपदा
अब पहाड़ और क्लिक करेंहिमालयी समाज के लोग भी विकास की इस दौ़ड़ में शामिल हैं. वे भी इससे फ़ायदा उठा रहे हैं. उनको नौकरियां मिल रही है.
उनको लगता है कि लोक परंपराओं को अपनाने से हम पीछे रह जाते हैं, लेकिन यह विकास टिकाऊ नहीं है.
परंपरा का निर्माण करने वालों को पता था कि राजा के आदेश या कानून का पालन लोग भले न करें लेकिन प्रकृति और धर्म से जुड़ी बातों को लोग अपनाने में संकोच नहीं करेंगे.
वनदेवी और वनदेवता की मान्यताओं के पालन के लिए किसी तरह के वाह्य दबाव की आवश्यकता नहीं होगी.
केदार घाटी, कर्ण प्रयाग और नंद प्रयाग में लोग पहले नदियों से दूर बसते थे. पर आज तो नदियों के किनारे भारी बसाहट हो गई है.
अगर नदी बौखलाती है तो आसपास की जगहों को बिना अमीर-गरीब का भेदभाव किए अपने साथ बहा ले जाती है.
हिमालय में प्राकृतिक विपदा तो पहले भी आती रही है, लेकिन अभी क्लिक करेंअनियोजित विकास बाकी लोगों पर भी असर डाल रहा है.
भारी विनाश
बड़ी इमारतों की जगह छोटे-छोटे ढाबे से लोगों को रोज़गार मिल सकता है. लेकिन ज्यादा बड़े निर्माण से हमारे अस्तित्व पर सवाल उठ रहा है.
हमें टिकाऊ विकास वाली सोच पर ध्यान देना होगा ताकि स्थिरता बनी रहे.
अभी मैंने पांच जून को उत्तरकाशी में देखा कि सड़क चौड़ी करने के लिए चट्टानों को विस्फोट करके तोड़ा जा रहा था.
वे लोग विस्फोट का सहारा ले रहे थे लेकिन आज अगर मैं देहरादून में सरकार के लोगों को अपनी बात कहूं तो वे मानने के लिए तैयार नहीं होंगे.
पहले के लोग विवेकवान और विचारवान लोग थे. जैसे 1982 में विष्णु प्रयाग परियोजना में फूलों की घाटी से निकलने वाली नदी पुष्पावती को टनल के सहारे हनुमान घाट पहुंचाया जा रहा था.
उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पांच-छह पेज का पत्र लिखा था. उसकी प्रति हेमवंती नंदन बहुगुणा को भी दी थी. उनके अनुरोध पर इस परियोजना को रोक दिया गया था.
आज उत्तराखंड में इतना भारी विनाश हुआ है लेकिन लोग एक महीने बाद सब कुछ भूल जाएंगे. अभी की परिस्थिति को लेकर मन में गुस्सा है.
संवेदनशील क्षेत्र
उत्तराखंड में 1991 में आए भूकंप से कई पहाड़ों में दरार आ गई थी और फिर 1998 में भी कुछ पहाड़ टूट गए थे. जिसमें दो गांव दब गए थे.
मैंने तत्कालीन कैबिनेट सचिव प्रभात कुमार से निवेदन किया था कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कमज़ोर इलाकों को चिह्नित किया जाए.
अगर बहुत संवेदनशील क्षेत्रों को चिह्नित किया जाए तो कुछ मदद मिल सकती है.
इसरो और विभिन्न संस्थाओं के सहयोग से कुछ इलाकों को चिह्नित करके ऋषिकेश से गंगोत्री, टनकपुर से मालपा, रुद्रप्रयाग से बद्रीनाथ के सर्वे करके (एनआरएसएस) हैदराबाद की नेशनल रिमोट सेंसिंग की मदद से एटलस बनाए गए थे.
उत्तरकाशी के ऊपर वर्णावत पहाड़ है. सन 2001 में पता चला कि उसमें दरार पड़ी हुई है. दो साल बाद ही वो ध्वस्त हो गया. ऐसे सक्रिय भूस्खलन और पुराने भूस्खलन वाले क्षेत्रों की पहचान करके नेशनल रिमोट सेंसिग(एनआरएसएस) ने एटलस बनाया है, लेकिन उस पर किसी का ध्यान नहीं गया.
इसके लिए चेतावनी का सिस्टम बनाने की बात भी उठाई थी. सूचना तंत्र के माध्यम से गांव के लोगों तक सूचना पहुंचानी चाहिए.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) आकाशीय सर्वेक्षण के माध्यम से सूचना दे सकता है लेकिन पर्यावरण के लिए काम करने वाले विभिन्न विभाग आपस में मिलकर काम नहीं करते.
यूएनडीपी के तहत आपदा प्रबंधन के लिए काम करने वाले युवा लड़कों को तमाम आधारभूत चीज़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
(बीबीसी हिन्दी के क्लिक करेंएंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें क्लिक करेंफ़ेसबुक और क्लिक करेंट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/06/130622_environment_uttarakhand_analysis_vr.shtml
No comments:
Post a Comment