आखिर कैसे होगी गंगा-यमुना की रक्षा
भारत डोगरा ॥
यह अच्छी बात है कि देर से ही सही, लेकिन नदियों की रक्षा को लेकर समाज और सरकार दोनों स्तरों पर अब गंभीरता नजर आने लगी है। यह नई जागृति संकटग्रस्त नदियों को बचाने में कहां तक सफल होगी, यह काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि जिस संकीर्ण सोच और स्वार्थों के कारण नदियों के लिए खतरे उत्पन्न हुए, उनसे ऊपर उठकर इनकी रक्षा के प्रयास होते हैं या नहीं। नदियों के एक बुनियादी पक्ष को प्राय: भुला दिया जाता है कि इनका मुख्य जलग्रहण क्षेत्र कहां है और वहां क्या हो रहा है। गंगा और यमुना जैसी हिमालय से निकलने वाली नदियों के संदर्भ में यह सवाल और भी महत्वपूर्ण है। पर्वतीय जल-ग्रहण क्षेत्रों से संबंधित नीतियों को बदले बगैर इस दिशा में ज्यादा आगे जाना संभव नहीं है।
पहाड़ों पर चोट
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में गंगा और यमुना का बड़ा जल-ग्रहण क्षेत्र है। वनों की रक्षा के लिए यहां जन-आंदोलनों के अलावा सरकारी स्तर पर कुछ प्रेरणादायक प्रयास भी हुए हैं, पर कुल मिलाकर इन क्षेत्रों के वनों और हरियाली में कमी आई है। जितने वृक्ष चिपको आंदोलन ने बचाए होंगे उससे अधिक बांध निर्माण व उससे जुड़े अन्य निर्माण कार्यों के लिए काट दिए गए हैं। भावी योजनाओं का रुख भी पर्यावरण विनाश और विस्थापन की ओर ही है। विस्थापितों के पुनर्वास के लिए आगे और भी वन उजाड़ने पड़ सकते हैं। भू-रचना की दृष्टि से अस्थिर इन पर्वतमालाओं में भू-स्खलन पहले से गंभीर समस्या है। अनाप-शनाप ढंग से लागू की गई विकास परियोजनाओं ने अस्थिरता को बढ़ाया है। टिहरी बांध को उच्चतम स्तर पर सरकारी समितियों की सलाह के बावजूद बनाया गया। फिलहाल इन समितियों के द्वारा व्यक्त इस आशंका की ओर ध्यान खींचना जरूरी है कि टिहरी बांध किस तरह गंभीर आपदा का स्थल बन सकता है और इसके कारण गंगा में अचानक प्रलयकारी बाढ़ आ सकती है।
नहरें तभी निकालें
पहाड़ों पर चोट
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में गंगा और यमुना का बड़ा जल-ग्रहण क्षेत्र है। वनों की रक्षा के लिए यहां जन-आंदोलनों के अलावा सरकारी स्तर पर कुछ प्रेरणादायक प्रयास भी हुए हैं, पर कुल मिलाकर इन क्षेत्रों के वनों और हरियाली में कमी आई है। जितने वृक्ष चिपको आंदोलन ने बचाए होंगे उससे अधिक बांध निर्माण व उससे जुड़े अन्य निर्माण कार्यों के लिए काट दिए गए हैं। भावी योजनाओं का रुख भी पर्यावरण विनाश और विस्थापन की ओर ही है। विस्थापितों के पुनर्वास के लिए आगे और भी वन उजाड़ने पड़ सकते हैं। भू-रचना की दृष्टि से अस्थिर इन पर्वतमालाओं में भू-स्खलन पहले से गंभीर समस्या है। अनाप-शनाप ढंग से लागू की गई विकास परियोजनाओं ने अस्थिरता को बढ़ाया है। टिहरी बांध को उच्चतम स्तर पर सरकारी समितियों की सलाह के बावजूद बनाया गया। फिलहाल इन समितियों के द्वारा व्यक्त इस आशंका की ओर ध्यान खींचना जरूरी है कि टिहरी बांध किस तरह गंभीर आपदा का स्थल बन सकता है और इसके कारण गंगा में अचानक प्रलयकारी बाढ़ आ सकती है।
नहरें तभी निकालें
न केवल उस समय सरकारी मान्यता प्राप्त विशेषज्ञों की चेतावनी की अवहेलना की गई बल्कि उसके बाद सरकारी नियम-कानूनों को ताक पर रख कर दर्जनों नदियों पर बांध व सुरंग बांध परियोजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाया गया। इसके लिए कच्चे अस्थिर पहाड़ों पर विस्फोटकों का उपयोग बहुत बड़े पैमाने पर किया गया। कई अन्य स्थानों पर भी खनन के विस्फोटों ने इतनी ही तबाही मचाई। इन कारणों से भू-स्खलन व अचानक आने वाली बाढ़ का खतरा बढ़ा है और यह पर्वतीय क्षेत्र में व इससे आगे बहने वाली गंगा, यमुना व इनकी सहायक नदियों के लिए बहुत चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर सकता है। ऐसा ही पर्यावरणीय विनाश गंगा की उन सहायक नदियों में भी हुआ है, जिनका जल-ग्रहण क्षेत्र नेपाल में है। मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करते ही ऐसी नदियों पर बैराज बनाकर उनसे सिंचाई के लिए नहरें निकाली जाती हैं। गंगा और यमुना दोनों के संदर्भ में यही हुआ है। नहरें निकालते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि नदी की पर्यावरणीय भूमिका सुरक्षित रखने के लिए, उसमें इतना पानी रहना जरूरी है कि जीव-जंतुओं और आसपास के गांवों के लिए जल-संकट उत्पन्न न हो। यदि इतना पानी आप नदी में नहीं छोड़ेंगे, तो नदी की रक्षा नहीं हो सकती। इस सिद्धांत का पालन करने के बाद ही नदी बचाने के प्रयास सफल हो सकते हैं और प्रदूषण भी नियंत्रित हो सकता है। नदी के प्राकृतिक प्रवाह के मार्ग में पर्याप्त पानी छोड़ने के बाद ही अन्य क्षेत्रों के लिए नहरें निकालने की अनुमति दी जा सकती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि नदी से दूर के क्षेत्रों की उपेक्षा हो। इन क्षेत्रों की जल-आवश्यकताओं को पूरा करनेके लिए वहां वर्षा जल संरक्षण, वाटर हारवेस्टिंग और मेड़बंदी जैसे उपायों से बहुत कुछ किया जा सकता है।अत: इस ओर अधिकतम ध्यान देना चाहिए और नदियों की मूल धारा से उतना ही पानी हटाना चाहिएजिससे उनकी पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल असर न पड़े। नदियों से बालू व पत्थर की खुदाई और उनकेआसपास स्टोन क्रशर का कार्य इधर तेजी से बढ़ा है। इसे नियंत्रित करना भी जरूरी है। नदी व उसकेआसपास के बालू की उसका जल-स्तर बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका है। थोड़ा-बहुत बालू लेने से तोक्षति नहीं होगी पर जिस तरह बालू-माफिया भारी मशीनों के जरिये नदियों से बालू निकाल रहे हैं उससेअनेक नदियों के अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न हो रहा है। नदियों के आसपास की बलुअर जमीन कोजल-संरक्षण के लिए खुला छोड़ना चाहिए। इसपर सीमेंट-कंक्रीट के निर्माण कार्य नहीं होने चाहिए।
हर जहर का तोड़
जैविक खेती को वैसे तो सभी गांवों में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, पर नदियों के आसपास के गांवों मेंइसका एक विशेष महत्व यह है कि इससे कीटनाशक दवाओं व रासायनिक खाद का प्रदूषण नदियों में नहींपहुंचेगा। इसके साथ ही किसानों का खर्च कम होगा और उन्हें स्वास्थ्य व पोषण के लाभ भी मिलेंगे। शहरोंमें सीवेज को ठिकाने लगाने के लिए एक नई सोच यह हो सकती है कि विभिन्न कालोनियों में विकेंद्रितप्रयास हो। गंदगी का उपचार कालोनी के स्तर पर ही किया जाए, ताकि इससे खाद और सिंचाई का पानीप्राप्त करके इनका उपयोग कालोनी की हरियाली बढ़ाने में किया जा सके। कम से कम नई कालोनियों केनियोजन में तो इस सोच को प्रोत्साहित किया ही जा सकता है। दूसरा तरीका ऐसे नालों में गंदगी बढ़ाने काहै, जो नदियों में न गिरें और कहीं अलग ही उनके उपचार की व्यवस्था की जाए। कालोनी स्तर कीविकेंद्रीकृत सोच इस केंद्रीकृत उपाय से बेहतर रहेगी। उद्योगों की विषैली गंदगी के उपचार के विशिष्टतौर-तरीकों के लिए उन्हें विशेष व्यवस्था करने को कहा जाना चाहिए। सभी स्तरों पर लोगों को जोड़ने वउनकी उत्साहवर्धक भागीदारी प्राप्त करने का प्रयास होना चाहिए। इसके लिए विकेंद्रीकृत तौर-तरीके हमेशाज्यादा कारगर साबित होंगे।
इसका अर्थ यह नहीं है कि नदी से दूर के क्षेत्रों की उपेक्षा हो। इन क्षेत्रों की जल-आवश्यकताओं को पूरा करनेके लिए वहां वर्षा जल संरक्षण, वाटर हारवेस्टिंग और मेड़बंदी जैसे उपायों से बहुत कुछ किया जा सकता है।अत: इस ओर अधिकतम ध्यान देना चाहिए और नदियों की मूल धारा से उतना ही पानी हटाना चाहिएजिससे उनकी पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल असर न पड़े। नदियों से बालू व पत्थर की खुदाई और उनकेआसपास स्टोन क्रशर का कार्य इधर तेजी से बढ़ा है। इसे नियंत्रित करना भी जरूरी है। नदी व उसकेआसपास के बालू की उसका जल-स्तर बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका है। थोड़ा-बहुत बालू लेने से तोक्षति नहीं होगी पर जिस तरह बालू-माफिया भारी मशीनों के जरिये नदियों से बालू निकाल रहे हैं उससेअनेक नदियों के अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न हो रहा है। नदियों के आसपास की बलुअर जमीन कोजल-संरक्षण के लिए खुला छोड़ना चाहिए। इसपर सीमेंट-कंक्रीट के निर्माण कार्य नहीं होने चाहिए।
हर जहर का तोड़
जैविक खेती को वैसे तो सभी गांवों में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, पर नदियों के आसपास के गांवों मेंइसका एक विशेष महत्व यह है कि इससे कीटनाशक दवाओं व रासायनिक खाद का प्रदूषण नदियों में नहींपहुंचेगा। इसके साथ ही किसानों का खर्च कम होगा और उन्हें स्वास्थ्य व पोषण के लाभ भी मिलेंगे। शहरोंमें सीवेज को ठिकाने लगाने के लिए एक नई सोच यह हो सकती है कि विभिन्न कालोनियों में विकेंद्रितप्रयास हो। गंदगी का उपचार कालोनी के स्तर पर ही किया जाए, ताकि इससे खाद और सिंचाई का पानीप्राप्त करके इनका उपयोग कालोनी की हरियाली बढ़ाने में किया जा सके। कम से कम नई कालोनियों केनियोजन में तो इस सोच को प्रोत्साहित किया ही जा सकता है। दूसरा तरीका ऐसे नालों में गंदगी बढ़ाने काहै, जो नदियों में न गिरें और कहीं अलग ही उनके उपचार की व्यवस्था की जाए। कालोनी स्तर कीविकेंद्रीकृत सोच इस केंद्रीकृत उपाय से बेहतर रहेगी। उद्योगों की विषैली गंदगी के उपचार के विशिष्टतौर-तरीकों के लिए उन्हें विशेष व्यवस्था करने को कहा जाना चाहिए। सभी स्तरों पर लोगों को जोड़ने वउनकी उत्साहवर्धक भागीदारी प्राप्त करने का प्रयास होना चाहिए। इसके लिए विकेंद्रीकृत तौर-तरीके हमेशाज्यादा कारगर साबित होंगे।
No comments:
Post a Comment